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इस जन्म में भी नहीं पहुंच पाया, तो फिर क्या अगला पथ वैसा ही कोरा रह जायेगा? आप भी सहायता न कर पायेंगे क्या ?
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नहीं, चिंता का कोई भी कारण नहीं है। विचारों की भीड़ है। छुटकारा आसान भी नहीं। लेकिन छुटकारा आसान नहीं है, | इससे यह मत समझना कि विचारों की भीड़ बड़ी बलशाली है। | नहीं ! छुटकारा इसीलिए कठिन मालूम पड़ रहा है कि तुमने विचारों की भीड़ से लड़ना शुरू कर दिया है, वहां भूल हो गई है। ताकत विचारों की नहीं है— तुम्हारे गलत आयोजन की है। जैसे अंधेरा कमरे में भरा हो और तुम धक्के देकर उसे बाहर निकालना चाहो और अंधेरा तो नहीं निकलेगा ऐसे, तो तुम्हारे मन में लगेगा, अंधेरा बड़ा प्रबल है, बड़ा बलशाली है। जन्म-जन्म भी धक्के मारो अंधेरे को तो न निकलेगा, यह सच है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अंधेरा बलशाली है। इससे | केवल इतना ही पता चलता है कि धक्का मारना सम्यक उपाय नहीं है। जितनी ताकत धक्का मारने में लगा रहे हो उतनी ताकत दीये को जलाने में लगाओ। दीया खोजो जरा-सा छोटा-सा दीया, जरा-सी दीये की बाती, और अंधेरा बाहर हो जायेगा । धक्के मारने से अंधेरा बाहर नहीं होता, क्योंकि अंधेरा है ही नहीं, धक्का मारोगे कैसे उसे ? जो नहीं है उसे धकाया नहीं जा सकता। उसकी ताकत नहीं है कुछ भी । उसका बल इसी में है कि वह नहीं है। कुर्सी होती, फर्नीचर होता, निकाल बाहर कर देते। पति-पत्नी होते, उन्हें भी धक्का देकर बाहर कर देते! अंधेरे को कैसे करोगे ? दीया जलाओ ! सम्यक आयोजन करो ! ठीक साधन खोजो !
विचार अंधेरे की भांति हैं। तुम उन्हें धक्के देकर बाहर न कर पाओगे। जितना धक्का दोगे उतना ही पाओगे कि वे बलशाली होते जा रहे हैं। उतने ही तुम कमजोर मालूम पड़ोगे । हर बार हारोगे, हर बार हारोगे; आत्मविश्वास खो जायेगा। फिर रोओगे, चीखोगे, चिल्लाओगे। उससे भी क्या होगा? कुछ भी न होगा। क्योंकि न तो अंधेरा सुनेगा रोने को, न चीखने को, न चिल्लाने को । अंधेरा तो मानता है एक ही भाषा - वह है प्रकाश की भाषा । और विचार भी मानते हैं एक ही भाषा - वह है साक्षी भाव की भाषा।
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मित्र से ही संबंध नहीं बनते, शत्रु से भी बन जाते हैं। जिसके तुम पक्ष में हो उससे भी संबंध बनता है। जिसके तुम विपक्ष में हो उससे भी संबंध बनता है— विपक्ष का सही । संबंध मत बनाओ। साक्षी का इतना ही अर्थ है : असंबंध, असंग । दूर खड़े देखते रहो। जैसे तुम किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हो और नीचे घाटियों में काफिले गुजर रहे हैं लोगों के; गुजरने दो, तुम्हारा क्या लेना-देना है ! बाहर कोयल बोल रही है, कभी कोई कुत्ता भौंकेगा, कभी कोई कौवा कांव-कांव करेगा – इससे तुम अड़चन में नहीं पड़ते। तुम सिर नहीं धुन लेते कि अब क्या करें, यह कुत्ता भौंक रहा है! तुम सिर नहीं धुन लेते कि यह कौवा कांव-कांव कर रहा है! यह तुम्हारा मन भी कांव-कांव कर रहा है, भौंक रहा है-भौंकने दो ! तुम इससे भी थोड़े दूर हट जाओ। तुम इससे भी थोड़े पीछे हट जाओ। और हटने में अड़चन नहीं है, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव मन के पार है।
तो इसी क्षण पहुंचना हो सकता है, पूरे जन्म की बातें क्या करनी, आगे जन्म की चिंता क्या करनी ! और ध्यान रखो, मेरी सहायता तुम्हें पूरी उपलब्ध है, उसमें रंचमात्र कमी नहीं है। लेकिन अकेली मेरी सहायता से क्या होगा? मैं इशारा कर सकता हूं, चलना तो तुम्हें ही पड़ेगा। मैं औषधि बता सकता हूं, लेकिन पीना तो तुम्हें ही पड़ेगी। मैं निदान कर सकता हूं, लेकिन मेरे निदान से ही तो कुछ न होगा। औषधि भी दे सकता हूं, उससे भी तो कुछ न होगा। औषधि का तुम्हें उपयोग करना पड़ेगा, तो
साक्षी बनो! जितनी बार कहा जाये उतना ही थोड़ा है : साक्षी ही बीमारी कटेगी। साक्षी की बात कर रहा हूं; वह औषधि है।
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तुम मिटो तो मिलन हो
बनो! इसमें अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। साक्षी एकमात्र सूत्र है। विचारों से लड़ो मत देखो ! चलने दो, क्या बिगाड़ते हैं! चलने दो जैसे राह चलती है, कारें गुजरती हैं, बसें गुजरती हैं, बैलगाड़ियां गुजरती हैं, अच्छे-बुरे-भले लोग गुजरते हैं, शैतान - साधु गुजरते हैं- राह चलती है, तुम राह के किनारे बैठे रहो; देखते रहो चलती राह को । जैसे राह बाहर चल रही है, ऐसे ही विचारों का कारवां भी भीतर चल रहा है; लेकिन वह भी तुमसे बाहर है। शरीर के भीतर है, तुमसे बाहर है। तुम तो वह चैतन्य हो जो देखता है कि ये विचार चल रहे हैं।
तादात्म्य छोड़ो! दूर खड़े होकर देखते रहो, देखते रहो, देखते रहो – इतना भी रस मत लो कि इन्हें अलग करना है। इतना भी रस लिया कि अड़चन शुरू हुई, संबंध बने ।
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