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जिन सूत्र भागः1
ठहर जाता है। जहां भी क्रिया अपूर्ण है, वहीं समय चलने लगता जिसके लिए तुम नाचना चाहते हो-समय मिट जायेगा। समय है। जहां क्रिया बहुत अपूर्ण है, झटके ले लेकर चलती है, तुम तनाव है। जहां तनाव नहीं वहां समय नहीं। जहां तुम बे-तनाव चलना भी नहीं चाहते और चलते हो, मजबूरी होती है-वहां हो, वहां समय नहीं; तुम समयातीत हो गये, कालातीत हो गये। समय लंबा होने लगता है।
| और यही बात जो समय के संबंध में सच है वही बात क्षेत्र के तुमने कभी खयाल किया! कोई प्रेमी घर आ जाये, घंटा बीत संबंध में भी सच है। टाइम-स्पेस, समय और क्षेत्र यह दोनों जाता है, क्षणभर मालूम पड़ता है। और कोई उबानेवाले सज्जन एक साथ खो जाते हैं, जब तुम्हारी लीनता परिपूर्ण होती है। घर आ जायें और बकवास करें, दो-चार-पांच मिनट भी ऐसे भक्त अपनी भक्ति में भूल जाता है-सब भूल जाता है। लगते हैं जैसे कि घंटों लगाये दे रहे हैं। क्या हो जाता है ? समय भगवान को भी भूल जाता है। धुन रह जाती है। मस्ती रह जाती में इतना अंतर क्यों हो जाता है? ।
है। ध्यानी अपने ध्यान में भूल जाता है-ध्यान को भी भूल समय बड़ा लोचपूर्ण है। जब तुम सुख अनुभव करते हो, जाता है। फिर बस एक सुवास रह जाती है। वह सुवास इस समय छोटा हो जाता है। तब तुम मित्र की बातें सुन रहे हो, पृथ्वी की नहीं है। उस सुवास को न तो समय घेरता है, न स्थान साधारण-सी बातें हैं, बड़ी मधुसिक्त हो जाती हैं। जब कोई आ घेरता है। वह सुवास समय-क्षेत्र अतीत है। जाता है उबानेवाला, चाहे बातें वह बड़ी मधुर कर रहा हो, लेकन दिल की बस्ती अजीब बस्ती है तुम्हें रास नहीं आता। तो एक भेद पड़ गया। तुम उस चर्चा में | लूटनेवाले को तरसती है डूब नहीं पाते। चर्चा की क्रिया गतिमान नहीं हो पाती, हिम्मत चाहिए लुटने की। जहां भी लुट जाओ, वहीं से धर्म ठहर-ठहर जाती है, लंगड़ाती है। तुम जबर्दस्ती बार-बार घड़ी का द्वार खुल जायेगा। वहीं गुरुद्वारा है। देखते हो, जम्हाई लेते हो, कोई तरह इशारा करते हो कि भाई इसलिए इसकी बहुत फिक्र मत करो कि कैसे। जो तुम्हें रास देखो, अब जाओ भी!
आ जाये, जो तुम्हें जम जाये-भक्ति तो भक्ति, ज्ञान तो ज्ञान, अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन में उल्लेख है कि एक मित्र के घर कर्म तो कर्म–लेकिन कहीं से भी ऐसी घड़ी बना लो, जहां गया था। भुलक्कड़ आदमी था। बात चलती रही, भोजन हो समय मिट जाये; जहां तुम इतने डूब सको, इतने डूब सको कि गया। फिर बात चलती रही। मित्र बार-बार घड़ी देखे, जम्हाई कोई रेखा तनाव की न रह जाये-समग्र मन से, समग्र तन से। ले। आइंस्टीन भी बार-बार घड़ी देखे, जम्हाई ले; लेकिन उठे नहीं तो जिंदगी में दुख ही दुख होगा, पीड़ा ही पीड़ा होगी। न। आखिर मित्र ने कहा, 'दो बज रहे हैं, पत्नी राह देखती पीड़ा का अर्थ है : तनाव की पत। दुख का अर्थ है : परमात्मा होगी...।' आइंस्टीन ने कहा, 'मतलब?'
| से चूकते जाना। दुख का अर्थ है : सत्य से चूकते जाना। दुख .. मित्र ने कहा, 'मेरा मतलब यह है कि पत्नी राह देखती का अपने-आप में कोई अस्तित्व नहीं है। सत्य से तुम्हारी होगी...। वैसे कोई हर्जा नहीं है, आप बैठे और।' आइंस्टीन जितनी दूरी है उतना ही दुख है। घबड़ाकर खड़ा हो गया। उसने कहा, 'हद्द हो गई, मैं तो सोचता नारद उसे ईश्वर कहते हैं। महावीर उसे सत्य कहते हैं। पर था कि कब आप जायें तो मैं सोऊं। मैं तो यही सोच रहा था कि | इशारे उनके एक ही की तरफ हैं। मैं अपने घर में हूं।'
हर तरफ छा रही है तारीकी दोनों घड़ी देख रहे हैं, दोनों जम्हाई ले रहे हैं। समय बड़ा लंबा | आओ मिल जुल के जिक्र-यार करें। मालूम पड़ता है।
जिनको उस परमात्मा का प्रेम की भाषा में स्मरण करना जब तुम किसी क्रिया के साथ लीन नहीं हो पाते, वही क्रिया, हो-आओ मिल जुल के जिक्रे-यार करें! चलो उस परमात्मा ठीक वही क्रिया...।
| की बात करें, उसका गीत गायें, उसके लिए नाचें। तुम नाच रहे हो-किसी और के लिए, नाचना नहीं चाहते, तो जिन्हें यह रास न आता हो, जिन्हें यह बात कुछ स्त्रैण लगती समय रहेगा। तुम नाच रहे हो अपने लिए, या किसी के लिए हो, जिन्हें यह बात जमती न हो, जिनके संकल्प को यह बात
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