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अनुकरण नहीं—आत्म-अनुसंधान
भोगी भी गिर जाता है, त्यागी भी गिर जाता है। ऐसे भोगो कि अधिक लोग इस कोशिश में रहते हैं कि संसार बदल जाए। त्याग भी बना रहे। ऐसे त्यागो कि भोग भी बना रहे। यह जीवन मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि 'इतना दुख है संसार में, आप की परम कला है।
क्यों नहीं कुछ करते?' दुख संसार में है। लोग दुख चाहते हैं। एगओ विरई कुंजा, एगओ य पवत्तणं।
मैं क्या करूं? और अगर वे दुख चाहते हैं, तो यही उनका सुख असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।।
होगा। उनके सुख में बाधा देनेवाला मैं कौन हूं? यह गाड़ी पर जीवन में जो भी तुम्हारे पास है, कुछ भी छोड़ने योग्य नहीं। जो लोग बैठे हैं, यह चाक जो लोग चला रहे हैं, वे चलाना चाहते उसका उपयोग करना है। पत्थर है, सीढ़ी बना लो। अनगढ़ हैं इसलिए चला रहे हैं। उन्हें उनके दुख से जबर्दस्ती थोड़े ही पत्थर है, छैनी उठा लो, प्रतिमा बना लो।
| छुड़ाया जा सकता है। हां, जिनकी समझ में आ जाए वे गाड़ी से इसलिए तो मैं कहता हूं, कामवासना को ब्रह्मचर्य बना लो। नीचे उतर जाएं। क्रोध को करुणा बना लो। काटो मत। काटने की कोई जरूरत रुकता नहीं किसी के लिए कारवाने-वक्त नहीं है, क्योंकि जो तुमने काटा, तो तुम कभी पूरे न हो पाओगे। मंजिल है जुस्तजू की न कोई मुकाम है। वह जो अंश तुमने काट दिया है, उतनी जगह सदा-सदा खाली इस संसार की न तो कोई मंजिल है, न कोई मुकाम है। और रह जाएगी। वह छेद की तरह तुम्हारे व्यक्तित्व में रहेगी। तुम यह जो कारवां है समय का, यह किसी के लिए रुकता नहीं। हां परिपूर्ण पुरुष न हो सकोगे।
- तुम चाहो तो उतर सकते हो। तुम चाहो तो रुक सकते हो। तुम्हें कुछ भी मत छोड़ो। सबका उपयोग कर लो। बुद्धिमान वही है यह रोकता भी नहीं। इस बात को खूब गहरे हृदय में बैठ जाने जो जीवन में जो मिला है, उन सभी उपकरणों का ठीक संयोजन देना कि तुम संसार में तभी तक रुके हो जब तक तुम रुकना कर लेता है। अभी सब असंबंधित पड़ा है। तार है, वीणा है, चाहते हो। एक क्षण को भी, क्षण के अंशमात्र को भी, संसार
फूटा पड़ा है। ठीक से जोड़ो। इसी टूटे-फूटे तार, तुम्हें रोक नहीं सकता। तुम उतरने को राजी हो, तुम्हें कोई रोक इसी टूटी-फूटी वीणा से महासंगीत पैदा हो सकता है। कुछ भी नहीं सकता। और अगर तुम सोचते हो कोई और तुम्हें रोक रहा छोड़ना नहीं है। तुम जैसे हो, इसका आयोजन बदलना है। चीजें है, तो तुम अपने को धोखा दे रहे हो। गलत स्थानों पर रखी हैं; जहां होनी चाहिए वहां नहीं हैं। जो महावीर के समय की कथा है। एक युवक महावीर को सुनकर जहां होना चाहिए वहां नहीं है। कुछ कहीं रखा है, कुछ कहीं घर लौटा। नया-नया उसका विवाह हुआ था। स्नान करने रखा है। लेकिन इसमें से कछ भी छोड़ने योग्य नहीं है। क्योंकि बैठा। परानी कथा है, अब तो ऐसी बात होती नहीं। पत्नी उसके जो भी है, अकारण नहीं है। उसका कोई कारण है। तुम्हारी | शरीर पर उबटन लगा रही थी। अब तो कौन पत्नी लगाती है! समझ में न आए तो जल्दी मत करना। तोड़ने, काटने, हटाने की किसी तरह शरीर ही बचाकर घर से निकल गए तो बहुत है। वह भाषा गलत है। संयोजन की, साधन की भाषा सही है। उबटन लगा रही थी, स्नान करवा रही थी! स्नान-गृह में वह _ 'पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष, ये दो भाव हैं। जो भिक्षु बैठा था चौकी पर, पत्नी उबटन लगा रही थी, और पत्नी ने इनका सदा निषेध करता है, वह मंडल में नहीं रुकता, मुक्त हो कहा, 'सुनो! तुम भी महावीर को सुनने गए। मेरा भाई भी कई जाता है।'
वर्षों से सुनता है। और वह सोच रहा है संन्यास ले लेने की।' संसार तो नहीं रुकेगा। संसार तो चलता ही रहेगा। संसार तो वह युवक हंसने लगा। उसने कहा, 'सोच रहा है? सोचने का चक्र है। महावीर उसे मंडल कहते हैं। वह तो घूमता रहेगा। संन्यास से क्या संबंध? लेना हो ले ले, न लेना हो न ले। गाड़ी का चाक घूमता रहेगा। जब तक गाड़ी में बैठी हुई सोचने से क्या मतलब? न लेना हो तो साफ समझे कि नहीं वासनाओं भरे लोग हैं, गाड़ी चलती रहेगी। तुम इसे रोकने की लेना है, लेना हो तो ले ले। कौन रोक रहा है?' उसकी पत्नी ने कोशिश मत करो। तुम चाहो तो गाड़ी से नीचे उतर सकते हो। कहा कि 'क्या तुम सोचते हो, संन्यास इतनी आसान चीज है? तुम्हें कोई रोकनेवाला नहीं है।
आदमी को सोचना पड़ता है, विचार करना पड़ता है। तुम भी तो
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