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अध्यात्म प्रक्रिया है जागरण की
अध्यात्म प्रक्रिया
खंड-खंड हो गई है। वृक्ष ने प्रतिमा के कोने-कोने में जड़ें पहुंचा है। फिर तुम्हारा पूरा शरीर उसी से निर्मित हुआ है। दी हैं। तुम कहोगे, वृक्ष को अलग क्यों नहीं कर देते? लेकिन कोई सात अरब जीवाणु तुम्हारे शरीर में हैं। एक से शुरू हुए, अब वृक्ष को अलग किया कि प्रतिमा गिरेगी। वृक्ष तोड़ रहा है सात अरब तक पहुंच गए हैं। और बहुत जल्दी पहुंच जाते हैं। प्रतिमा को, लेकिन वृक्ष ही जोड़े भी हुए है। उसकी ही जड़ों में दिन दूने, रात चौगुने होते चले जाते हैं। जो आंख से नहीं दिखाई प्रतिमा अटकी है, खंड-खंड हो गई है, टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। पड़ता था, वही आज तुम्हारा मित्र होगा, तुम्हारा भाई होगा, नाक अलग है, लेकिन जड़ों में अटकी है। हाथ टूट गया है, तुम्हारा बेटा होगा, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी प्रेयसी। जो अदृश्य लेकिन जड़ों में फंसा है।
था, जिसको देखने के लिए खुर्दबीन चाहिए थी, इतना छोटा जब भी मैं इस प्रतिमा को चित्रों में देखा हूं, तभी मुझे आदमी इतना बड़ा हो जाता है! की याद आई। अब भक्त चाहते हैं कि इससे छुटकारा हो जाये। फैलाव प्रकृति का नियम है। यहां किसी भी चीज को जगह यह तो मिटाये डाल रही है। इतनी बहुमूल्य प्रतिमा को नष्ट कर दी, वह फैलेगी। फैलना स्वभाव है। इसलिए तो हिंदू विश्व को डाला इस वृक्ष ने। लेकिन इस वृक्ष को पानी देते हैं, दुश्मन को ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म यानी जो फैलता चला जाता है; जो जानता पानी देते हैं। क्योंकि जिस दिन इस वृक्ष को हटाया, उसी दिन ही नहीं कैसे रुके, जो फैलता ही चला जाता है; अनंत जिसका प्रतिमा खंड-खंड होकर गिर जायेगी। तोड़ा भी इसी ने है, जोड़े विस्तार है; जिसके फैलाव की कोई सीमा नहीं। यहां छोटी-सी भी यही है। यही अड़चन है।
चीज पकड़ो, जल्दी ही बड़ी होने लगती है। इन छोटी-छोटी क्रोध ही तुम्हें तोड़ रहा है, क्रोध ही तुम्हें जोड़े भी है। लोभ ही बातों के कारण तुम भटकते चले जाते हो। तुम्हें तोड़ रहा है, लेकिन लोभ ही तुम्हें सम्हाले भी है। लोभ ही कभी-कभी तुम्हें खयाल भी नहीं होता। तुम जरूरी काम से तुम्हें नर्क की तरफ ले जा रहा है, लेकिन लोभ ही तुम्हारी नाव भी जा रहे थे, मां बीमार पड़ी थी और तुम उसके लिए दवा लेने जा है। अब तुम मुश्किल में पड़ोगे। नाव छोड़ो तो डूबे। नाव में रहे थे और किसी आदमी ने रास्ते में गाली दे दी-भूल गए मां, बैठे तो नाव सरक रही है नर्क की तरफ। छोड़ना भी तुम चाहते | भूल गए दवा, भूल गए इलाज-चिकित्सा, उससे झगड़ने खड़े हो, एक पैर उठा भी लेते हो; लेकिन छोड़ा तो डूबे।
हो गए, पहले इससे निपटारा कर लेना है! चाहे इसमें मां मर इसलिए महावीर कहते हैं, सचेत हो जाना! सावधान हो जाए, लौटकर घर आओ और पाओ कि मां जा चुकी, फिर चाहे जाना!
पछताओ-लेकिन क्षुद्र भी, अति क्षुद्र भी, अति व्यर्थ भी, जब 'ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कसाय आता है तुम्हारी आंखों में, तो तुम्हें परिपूर्ण घेर लेता है। इसी को अल्प मानकर विश्वस्त मत हो जाना।' ये छोटे जो आज हैं, | तरह तो मंजिल खोती चली गई है। तुम बिलकुल हवा की तरंगों कल बड़े हो जायेंगे; क्योंकि ये थोड़े ही बढ़कर बहुत हो जाते हैं। में भटकते लकड़ी के टुकड़े हो; जहां हवा आ जाती है, जहां
मा के गर्भ में जब पिता का बीज पड़ता है, तो क्या होता है? पानी की तरंग ले जाती है, वहीं चल पड़ते हो। तुम सांयोगिक हो इतना छोटा होता है कि खाली आंख से देखा भी नहीं जा गये हो-ऐक्सीडेंटल। तुम्हारे जीवन में कोई दिशा नहीं है, कोई सकता। इतना छोटा होता है कि दूरबीन चाहिए. खुर्दबीन बढ़ाव, कोई विकास, कोई गंतव्य, कोई मंजिल! कहां तुम जा चाहिए। एक संभोग में कोई एक करोड़ जीवाणु पिता के वीर्य से रहे हो, क्यों तुम जा रहे हो-कुछ भी नहीं है। आकस्मिक मां में प्रवेश करते हैं। एक करोड़! वीर्य की एक बूंद में लाखों घटनाएं, दुर्घटनाएं, तुम्हारे जीवन की निर्णायक हो गई हैं। कुछ होते हैं। इतने छोटे! फिर वही गर्भाधान में बड़ा होने लगता है। भी उठ आता है, जिससे तुम्हारी कोई संगति नहीं है, तुम वह वही बीज एक से दो होता है, दो से चार होता है, चार से आठ करने में लग जाते हो। होता है—इस तरह बढ़ता है। अपने को ही तोड़ता है। एक होता | मैं विश्वविद्यालय में भर्ती होने गया, तो मैं अपना फार्म भर रहा है, बड़ा होता है, पोषण मिलता है, दो हो जाता है। टूटकर दो था। मेरे पास ही एक लड़का खड़ा था, वह भी भर्ती होने आया टुकड़े हो जाते हैं, चार हो जाते हैं, आठ हो जाते हैं, फैलता जाता था। उसने मेरे फार्म में देखा। उसने कहा, 'तो आप दर्शनशास्त्र
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