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जिन सूत्र भाग: 1
कोई वर्षा नहीं होती - तो कसूर किसका है, उत्तरदायित्व सबको मरना भी पड़े तो भी उचित है। मेरे सुख के लिए अगर किसका है ?
'क्रोध, प्रीति को नष्ट करता है. I'
सबको दुखी भी होना पड़े तो भी ठीक है। क्योंकि मैं साध्य हूं, और सब साधन हैं। सबके कंधों पर मेरे पैर रखने पड़ें मुझे और सबके सिरों से मुझे सीढ़ियां बनाकर चढ़ना पड़े राजमहलों तक, चढूंगा। क्योंकि और सब सीढ़ियां होने को ही बने हैं।
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अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं है तो जानना कि क्रोध होगा - चाहे बहुत - बहुत करने की वजह से तुम्हें याद भी न आती हो अब, ऐसे रग-पग गये होओ क्रोध में कि अब तुम्हें पहचान भी नहीं पड़ता कि क्रोध है। किसी क्रोधी को कहो। वह फौरन कहता है, 'कौन कहता है, मैं क्रोध में हूं? मैं क्रोध में नहीं हूं।' क्रोधी भी यही कहे चला जाता है, मैं क्रोध में नहीं हूं। तुम भी जब क्रोध में पकड़े जाते हो तो तुम स्वीकार नहीं करते कि मैं क्रोध में हूं। क्रोध को कोई स्वीकार ही नहीं करता और प्रेम की लोग मांग किये जाते हैं।
अगर क्रोध है तो स्वीकार करो, क्योंकि स्वीकार निदान बनेगा। क्रोध है तो स्वीकार करो कि है, तो मिटाने का कोई उपाय हो सकता है। जिसे तुम स्वीकार ही न करोगे, उसे मिटाओगे कैसे? और अगर प्रेम न हो तो महावीर का सूत्र यह कह रहा है : अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम न हो तो निश्चित जानना कि क्रोध है, चाहे तुम्हें पता चलता हो न पता चलता हो, पुरानी आदत हो, मजबूत आदत हो, खून में घुल-मिल गई हो, क्रोध तुम्हारा स्वभाव जैसा हो गया हो कि अब तुम्हें याद भी ना हो कि अक्रोध क्या है, तो भेद करना मुश्किल हो गया हो — लेकिन अगर जीवन में प्रेम न हो तो क्रोध है।
'क्रोध, प्रीति को नष्ट करता है। मान, विनय को नष्ट करता है ... ।'
. अहंकार, तुम्हारी विनम्रता को नष्ट कर देता है । और विनम्रता नष्ट होती है, बड़ा बहुमूल्य कुछ तुम्हारे भीतर समाप्त हो जाता है। सीखने की क्षमता खो जाती है। विनम्र सीखने में सक्षम होता है । विनम्र खुला होता है । विनम्र तत्पर होता है। कुछ भी नया आये, उसके द्वार बंद नहीं होते। और विनम्र जीवन के सत्य को पहचानता है कि मैं एक खंड मात्र हूं इस विराट का ।
अहंकारी एक बड़ी भ्रांति में जीता है। अहंकारी की भ्रांति यह है कि जैसे मैं केंद्र हूं सारे विश्व का, जैसे सब मेरे लिए हैं और मैं किसी के लिए नहीं; जैसे सब मेरे साधन हैं और मैं साध्य हूं।
अहंकार को अगर हम ठीक से समझें तो उसका अर्थ होता है: सारा जगत साधन है और मैं साध्य हूं। मेरे जीवन के लिए अगर
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अहंकारी अपने को अस्तित्व का केंद्र मान रहा है। विनम्र का क्या अर्थ है ? विनम्र कहता है : मैं कैसे केंद्र हो सकता हूं? मैं नहीं था, तब भी अस्तित्व था । मैं नहीं हो जाऊंगा, तब भी अस्तित्व होगा। मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता है? एक तरंग हूं माना, मैं भी एक लहर हूं इस विराट की, पर बस एक लहर हूं। विराट सत्य है । मेरा होना तो एक सपना है; रात देखा, सुबह खो जायेगा। यह मेरा होना कोई ठोस पत्थर की तरह नहीं है, पानी की लकीर है।
तो विनम्र सीख पाता है जीवन के सत्यों को। और अंततः परमात्मा को भी सीख पाता है, क्योंकि उसने पहली शर्त पूरी कर दी। उसने झूठ को अंगीकार न किया। उसने सत्य से ही शुरुआत की। सत्य से शुरुआत हो तो सत्य पर अंत होता है। असत्य से ही शुरुआत हो जाये, तो फिर सत्य कहां मिलेगा ? फिर तो असत्य बढ़ता चला जायेगा।
अहंकारी धीरे-धीरे मद में चूर होता जाता है। आंखें देखने की क्षमता खो देती हैं। बोध विलुप्त हो जाता है। एक तंद्रा और निद्रा में जीता है।
'मान, विनय को नष्ट करता है. ...।' और अगर तुम्हारे जीवन में विनम्रता न हो तो तुम जान लेना कि कहीं अहंकार का शत्रु घात लगाये छिपा बैठा है।
'माया, मैत्री को नष्ट करती है. ।' कपट, छल छिद्र मैत्री को नष्ट करता है। मैत्री का अर्थ ही होता है कि तुम किसी के साथ ऐसे हो जैसे अपने साथ | मैत्री का अर्थ होता है : तुम्हारे और मित्र के बीच कोई रहस्य नहीं, कोई छुपाव नहीं, कोई दुराव नहीं | मैत्री का अर्थ होता है: तुम अपने को अपने मित्र के सामने बिलकुल नग्न करने में समर्थ हो। तुम जानते हो, तुम्हें भरोसा है प्रेम का । तुम जानते हो कि तुम जैसे हो, तुम्हारा मित्र तुम्हें स्वीकार करेगा । उसका प्रेम बेशर्त है। अगर मित्र से भी तुम्हें कुछ छिपाना पड़ता हो, तो तुम मित्र को भी शत्रु मान रहे हो । मैक्यावली ने लिखा है...। ठीक महावीर से उलटा है
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