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जिन सत्र भागः1
योग्य बना दे, वह सभ्यता। जो तुम्हें अपने में बैठने योग्य बना आत्मा का नियम खिला नहीं; आत्मा के नियम में बिहार न दे, वही संस्कृति।
हुआ। ऊपर-ऊपर की व्यवस्था सीख गए-कैसे उठना, कैसे शेख! मकतब के तरीकों से कुशादे-दिल कहां
बैठना, कैसे मंदिर जाना, कैसे पूजा करना, क्रियाकांड, वह सब किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग। सीख गए तो जैन हो गए, हिंदू हो गए, मुसलमान हो गए, ईसाई
शेख! मकतब के तरीकों से कुशादे-दिल कहां-यह | हो गए। लेकिन जो होना था उससे बच गए। उठने-बैठने के निमय और व्यवस्थाएं और आचरण की और झूठे सिक्के बड़े खतरनाक होते हैं। क्योंकि झूठे सिक्कों पद्धतियां, मकतब के तरीके, इनसे दिल का विकास नहीं होता, का बोझ और उनकी खनन-खनन तुम्हें धोखा दे सकती है और इनसे आत्मा नहीं बढ़ती, इनसे आत्मा नहीं फलती-फूलती। ऐसा लग सकता है, असली सिक्के अपने पास हैं। असली
किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग! यह तो सिक्का तो जिनत्व का है। जिन होना। अगर होना ही हो तो जिन ऐसे ही है, जैसे कोई तेल से या गंधक से बिजली के बल्ब को होना। कुछ और होने से राजी मत होना। सस्ते में अपने को मत जलाने की कोशिश करे। कोई संबंध नहीं है। तेल भरना पड़ता बेच डालना। परमात्मा ही खरीदा जा सकता है इस जीवन से; है दीये में। गंधक के भी दीये बन सकते हैं। लेकिन बिजली की इससे कम की आकांक्षा मत करना। रोशनी को गंधक और तेल की कोई भी जरूरत नहीं है। यह हो सकता है, क्योंकि यह हुआ है। यह हो सकता है, | किस तरह किबरीज़ से रोशन हो बिजली का चिराग! मकतब | क्योंकि यह तुम जैसे ही मनुष्यों में हुआ है। तुम इसके मालिक
के तरीकों से, जीवन के साधारण शिष्टाचार के नियमों को जिसने हो। यह तुम्हारा स्वभाव-सिद्ध अधिकार है। धर्म समझ लिया, वह ऐसे ही है जैसे एक बिजली के बल्ब को तेल भरकर जलाने की कोशिश कर रहा हो। वह व्यर्थ है।
आज इतना ही। जैसे ही थोड़ी-सी समझ को तुम उकसाओगे, वैसे ही तुम पाओगे: तुम्हारे भीतर की रोशनी न तो तेल चाहती है न गंधक; तुम्हारे भीतर की रोशनी ईंधन पर निर्भर नहीं है। तुम्हारे भीतर की रोशनी तुम्हारा स्वभाव है।
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ।। 'आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता, विकर्ता, सत्प्रवृत्ति में स्थित मित्र, दुष्प्रवृत्ति में स्थित अपना ही शत्रु है।'
इस सत्य को तुम हृदयंगम करो। इस सत्य को भीतर ले जाओ। इस सत्य का साक्षात्कार करो। इस सत्य को खोजो
अपने जीवन में, क्या ऐसा ही नहीं है? अगर तुम्हें भी ऐसा दिखाई पड़ने लगे—मेरे कहने से नहीं, महावीर के वक्तव्य से नहीं; ऐसा तुम्हें भी दिखाई पड़ने लगे, ऐसी तुम्हारी दृष्टि हो जाए–तो तुम 'जिन' होने की यात्रा पर निकल जाओगे। और जैन कभी होना मत चाहना। होना ही है तो जिन होना। होना ही है तो महावीर होना। अनुयायी होने से क्या होगा? अनुकरण नहीं, आत्म-अनुसंधान। जैन बनकर धोखा मत देना। जैन बनने का मतलब है : सीख गए ऊपर के मकतब के तरीके
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