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जिन सूत्र भाग: 1
जो तेरी रहगुजर में गुजरी है।
एक दफा पहुंचकर पता चलता है कि और सब
बस इतना ही तुम खयाल रखना, तुम्हारी तरफ से पूरा हो, प्रामाणिक हो, तुम्हारी तरफ से हार्दिक हो - फिर यह न होगा कि मैं जानूं | जो भी हो रहा है, मैं जानता रहूंगा।
खुशबुओं के सफर में गुजरी है
चांदनी के नगर में गुजरी है।
तुम्हारी प्रार्थना जरूरी नहीं कि पूरी करूं, क्योंकि तुम तो जल्दी
भीख है — और सब भीख है— चाहे खुशबुओं का रास्ता हो, ही घबड़ा जाते हो। तुम कहते हो, अब मत रुलाओ, अब बहुत चाहे चांद की नगरी हो । हो गया! तुम तो कहते हो, अब मत जलाओ, अब बहुत हो गया! तुम तो जल्दी ही उकता जाते हो, जल्दी ही घबड़ा जाते हो । मेरा उपयोग ही यही है तुम्हारे साथ कि तुम्हें हिम्मत बंधाऊं,
. बाकी जिंदगी है वही ।
तेरी रहगुजर में गुजरी है।
जो परमात्मा को खोजने में गुजरी है, वही जिंदगी है। बाकी कि बस थोड़ी दूर और ज्यादा नहीं चलना है। जिंदगी का नाममात्र है।
तो एक तरफ से तो तुमसे कहता हूं, सब गंवाना होगा। लेकिन धन्यभागी हैं वे जो गंवाने को राजी हैं। क्योंकि वे ही सभी कुछ पाने के अधिकारी हो जाते हैं। एक तरफ से तो लगेगा, तुम खोने लगे; दूसरी तरफ से तुम पाओगे, पाने लगे।
खोया हुआ-सा रहता हूं अक्सर मैं इश्क में या यूं कहो कि होश में आने लगा हूं मैं ।
संसार छूटने लगेगा - सत्य मिलने लगेगा। जुआरी चाहिए ! अपने को दांव पर लगानेवाले चाहिए। अगर तुमने अपने को दांव पर लगा दिया तो तुम फिक्र मत करो। तुमने अगर संबंध बनाने की हिम्मत कर ली है तो कुछ उत्तरदायित्व मेरा भी है। जब तुम मुझसे जुड़ते हो, तुम अकेले ही थोड़े ही जुड़ रहे हो ; मैं भी तुमसे जुड़ रहा हूं। इतना ही खयाल रखना कि 'तुम मुझसे जुड़े हो ?' कहीं ऊपर-ऊपर तो नहीं है बात ? कहीं कहने भर की तो नहीं है बात? क्योंकि बहुत लोग आ जाते हैं। कोई आता है, मुझसे कहता है, बस अब आपके चरणों में सब समर्पण है । तो मैं कहता हूं, ठीक, तो अब संन्यास ले लो ! वह कहता है, यह
मुश्किल है। सब समर्पण है ! यह जरा कठिन है।
क्या कह रहे थे अभी क्षणभर पहले ? सब समर्पण है ! सब समर्पण का तो अर्थ यह था कि संन्यास की तो छोड़ो, अगर मैं कहता कि जाओ, डूब मरो नदी में, तो भी चले गए होते। अगर बचाना होता तो मैं भागा हुआ आता । तुम्हें चिंता की जरूरत न थी। लेकिन लोग शब्दों का उपयोग करते हैं, शायद अर्थ का भी उन्हें बोध नहीं । औपचारिक बातें लोग सीख गए हैं। उपचार निभाते हैं । सब समर्पण है! सब में संन्यास समाविष्ट न था ? सब में तो मौत भी समाविष्ट थी ।
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बुद्ध एक बार एक गांव के पास से गुजरे, दूसरे गांव जा रहे थे। गांव में लोगों से पूछा, कितनी दूर है ? गांव के लोगों ने कहा, यही कोई दो कोस । फिर कोई दो कोस चल चुके जंगल में। लकड़हारा आता था, उससे पूछा कि भई दूसरा गांव कितनी दूर? उसने कहा, बस यही कोई दो कोस । बुद्ध मुस्कुराए । आनंद जरा क्रोध में आ गया। उसने कहा, गांव के बदतमीज बेईमान लोग! दो को हम चल भी चुके और अभी भी दो कोस है, यह कहता है !
फिर कोई दो कोस चल चुके, अब तो सांझ भी होने लगी, सूरज भी ढलने लगा और एक आदमी से पूछा, तो उसने कहा, यही कोई दो कोस, बस अब पहुंचते ही हैं। आनंद ने कहा कि इस तरह के झूठ बोलनेवाले लोग मैंने कभी नहीं देखे। यात्रा करते जिंदगी हो गई !
बुद्ध ने कहा, ये झूठ बोलनेवाले लोग नहीं हैं; ये मेरे जैसे लोग हैं। ये बड़े अच्छे लोग हैं। ये हिम्मत बंधाते हैं। ये कहते हैं, बस, जरा 'कोस! ये तुम्हें चलाए जा रहे हैं। देखो, छह कोस तो चला ही चुके !
अब मैं भी तुमसे कहता हूं, दो ही कोस है ।
तुम कई बार थक जाते हो, बैठ जाना चाहते हो, तुमसे कहना पड़ता है, बस होने को ही है।
सबा ने फिर दरे- जिंदा पे आ के दी दस्तक सहर करीब है दिल से कहो न घबराए।
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आज इतना ही।
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