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1. जिन सूत्र भागः
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विदा होते हैं।
मैंने मासूम बहारों में तुझे देखा है खाली हाथ हम आते हैं, खाली हाथ हम विदा होते हैं। मैंने मौहम सितारों में तुझे देखा है लेकिन अगर तुम महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट के वचन मेरे महबूब तेरी पर्दानशीनी की कसम समझो, तो वे कहते हैं, भरे प्राण हम आते हैं, भरे प्राण हम रहते | मैंने अश्कों की कतारों में तुझे देखा है। हैं, भरे प्राण हम जाते हैं। खाली हाथ पर नजर ही गलत है। फूलों की तो बात और, आंसुओं में भी उसी के दर्शन होंगे। हृदय पर ले जाओ नजर; हृदय भरा ही हुआ है। इसी क्षण जो मैंने अश्कों की कतारों में तुझे देखा है। होना था हुआ है।
एक बार देखने की कला आ जाये, आंख आ जाये, नजर आ इसी को मैं आस्तिकता कहता हूं कि इस क्षण जो हुआ है, परम जाये, तो कंकड़-पत्थर हीरे हो जाते हैं। साधारण-सा भोजन है, आत्यंतिक है। इससे श्रेष्ठ का कोई उपाय नहीं। फिर परम प्रसाद हो जाता है। साधारण-सा घर महलों को मात करने अचानक तुम संतुष्ट हो। फिर सब दौड़ खो गई। अभी और लगता है। हवा का जरा-सा झोंका, अपरिसीम कृपा की वर्षा हो यहां हो जाना ही संतोष है।
जाता है। नजर की बात है। नजर न हो तो हीरे-जवाहरात भी किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम'
कंकड़-पत्थर; महल भी झोपड़े; जीवन की परमधन्यता का कोई मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू?
पता ही नहीं चलता। सब बासा-बासा लगता है। नजर की ही वसंत आया हुआ है। फूल खिले हुए हैं। पक्षी गीत गुनगुना बात है। नजर को बदलो। रहे हैं। सूरज निकला है। सब तरफ किरणों का जाल फैला है। अगर लगता है असंतोष है, तो किसी गलत नजर को पकड़े मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू। लेकिन मामला क्या | बैठे हो। है? वसंत चारों तरफ बरस रहा है। और तुम क्यों उजड़े-उजड़े। पूछा है, 'आखिर मैं क्या चाहता हूं?' खड़े हो?
चाहने को कुछ है ही नहीं, मिला ही हुआ है। इसीलिए तो किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम'
| कितना ही चाहो, मुश्किल में पड़ोगे। जो मिला ही हआ है, उसे मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू?
तुम खोज-खोजकर थोड़े ही पा सकोगे! खोज छोड़ो, ताकि -तू किन सपनों में खोया हुआ है ? किन सपनों की बहारों में चैतन्य घर पर लौट आये! खोज छोड़ो! क्योंकि खोज के कारण खोया हुआ है ? दुनिया को विजित कर लेने की, दुनिया को जीत ही तुम अपने बाहर गए हो और उसे नहीं देख पा रहे हो जो तुम लेने की. किन कल्पनाओं में त तल्लीन है कि वसंत को देख नहीं हो। रुको। परमात्मा को खोजना थोडे ही है। सब खोज छ पा रहा है जो चारों तरफ मौजूद है।
देनेवाला व्यक्ति अचानक पाता है, परमात्मा है। तुम्हारी हालत .किन जहांगीर बहारों के तसव्वुर में 'नदीम'
ऐसी है कि हीरा सामने पड़ा है, लेकिन तुम कहीं दूर आंखें लगाए मौसमे-गुल में उजड़ा हुआ लगता है तू?
बैठे हो, चांद-तारों पर, कहीं दूर तुम्हारा सपना तुम्हें भटका रहा वसंत तो है। परमात्मा है। अब और क्या होना है? जीयो! है। यहां तुम देखते ही नहीं, यहां तुम अंधे हो जाते हो। जीने की योजना मत बनाओ! गाओ! वसंत तो आ गया, द्वार मेरे देखे, लोगों की एक ही बीमारी है-वह सब दूरदृष्टि हैं। पर दस्तक दे रहा है। जागो! नाचो! उत्सव मनाओ! पाने को दूर का तो देख पाते हैं, पास का नहीं देख पाते। निकट-दृष्टि यहां कुछ भी नहीं है; जो पाने को है वह तुम्हें मिला ही हुआ है। नष्ट हो गई है। ऐसा होता है न कभी-कभी आंखों में, किसी की उसे तुम लेकर ही जन्मे हो। वह तुम्हारा स्वभाव है। स्वभाव को | आंख पर चश्मा होता है, जिसमें वह पास का देख पाता है। देखते ही व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है। संतोष स्वभाव के अनुभव क्योंकि पास का बिना चश्मे के नहीं देख पाता, किताब नहीं पढ़ की छाया है। स्वभाव के प्रतिकूल, स्वभाव से अन्य की योजना, सकता है; हालांकि चांद-तारे देख सकता है। दूर का दिखाई कल्पना में, भटकता हुआ आदमी असंतुष्ट हो जाता है। पड़ता है, लेकिन पास का नहीं दिखाई पड़ता। कुछ होते हैं जिन्हें असंतोष, स्वभाव से अन्य होने की चेष्टा की छाया है। पास का दिखाई पड़ता है, दूर का नहीं दिखाई पड़ता। तो दो तरह
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