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जिंदगी नाम है रवानी का
लैला को देखा, कुछ भी नहीं है। पागल! अपने को होश में हो-बस खतम हो गई बात! और मनुष्य का यही तो सारा ला...।' मजन ने कहा कि फिर आपने देखा ही नहीं। असल | भव-जाल है कि वह श्रेष्ठतर की कल्पना कर सकता है। में लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए—मुझसे सुंदरतम स्त्री पा ली, लेकिन क्या ऐसी स्त्री तुम पा सकते हो आंखें उधार लेते तो ही देख सकते थे-तुम्हारी आंखों से यह न जिसमें तुम भूल-चूक न खोज पाओगे? क्या तुम ऐसी स्त्री पा हो सकेगा।
| सकते हो जिससे सुंदर की कल्पना न कर पाओगे? क्या तुम तो अगर तुमने मेरे प्रेम को पहचाना है, मेरे सत्य को पहचाना | ऐसी स्त्री पा सकते हो जिससे सुंदर का सपना न देख पाओगे? है, तो फिर रक्षा की फिक्र नहीं है। सत्य अपनी रक्षा स्वयं कर | फिर कैसे संतुष्ट होओगे? लेता है। सत्य कितनी ही असुरक्षा में हो, सुरक्षित है। तुम बस तुमने एक बड़ा मकान बना लिया, क्या तुम सोचते हो मकान उसे जीने में लग जाओ। मैं जो तुमसे कह रहा हूँ, उसको तुम ऐसा हो सकेगा जिसमें कोई तरमीम और सुधार न हो सके, केवल शब्दों का विलास मत बनाओ-जीवन की तरंगें बनने जिससे बेहतर न हो सके? अगर बेहतर हो सकता है, असंतोष दो। तुम जीने में लग जाओ। तुम उनकी मत सुनो, वे क्या कहते शुरू हो गया। हैं। मैंने जो कहा है, उसे गुनो और उसे जीवन में उतारने लग | कल्पना श्रेष्ठ की तो कभी भी मौजूद रहेगी। संतोष कैसे जाओ। तुम जैसे-जैसे सत्यतर होने लगोगे, वैसे-वैसे ही तुम होगा? तुम कुछ भी हो जाओ, तुम कुछ भी पा लो—इससे पाओगे, सत्य के लिए किसी सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं। सत्य तुम्हारे संतोष होने का कोई संबंध नहीं है। फिर संतोष का किस सली पर भी लटका हो तो भी सिंहासन पर ही होता है। बात से संबंध है? संबंध है इस बात से कि तुम यह असंतोष की
प्रक्रिया समझ लो। इसे जान लो। इसे देख लो। इसके देखने दूसरा प्रश्न : आखिर मैं क्या चाहता हूं? जो कुछ भी मुझे और जानने में ही यह पूरा जाल गिर जाता है : अचानक तुम पाते मिला है और मिल रहा है, वह कम नहीं। लेकिन मन में एक | हो कि असंतुष्ट होने का कोई कारण ही नहीं है। बेचैनी बनी ही रहती है आखिर मैं क्या पाकर संतुष्ट होऊंगा? संतोष अभी और यहीं होने का ढंग है। असंतोष, कल बेहतर
हो सकता है, उस आकांक्षा के पीछे दौड़ है। संतोष जो है, इससे पाकर कभी कोई संतुष्ट हुआ? बात ही गलत पूछ रहे हो। बेहतर हो ही नहीं सकता, इस भावदशा का नाम है। इस क्षण जो दिशा ही गलत पकड़ी है। जिसने ऐसा सोचा कि कुछ पाकर है इससे बेहतर हो ही नहीं सकता। जो बेहतर से बेहतर हो संतुष्ट होऊंगा वह तो कभी संतुष्ट नहीं हुआ। संतुष्ट तो वही सकता था वह हो गया है। होता है, जो यह समझ लेता है कि पाने से संतोष का कोई संबंध इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, इस संसार से बेहतर संसार हो ही नहीं है। पाने में ही तो असंतोष छिपा है। दस हजार हैं तो लाख नहीं सकता। होने चाहिए : लाख हैं तो दस लाख होने चाहिए। दस लाख हैं | उमरखैयाम का एक गीत है कि हे परमात्मा! अगर तू हमें एक तो करोड़ होने चाहिए। वह दस गुने का फासला बना ही रहता मौका दे तो हम दुनिया को फिर से मिटाकर अपने हृदय के है। जितना पाते चले जाते हो, उतनी ही पाने की आकांक्षा आगे | अनुकूल बना लें। हटती जाती है। कभी ऐसी घड़ी नहीं आती, जब तम कह सको | लेकिन क्या तुम अपने हृदय के अनुकूल दुनिया को कभी भी कि पा लिया।
बना पाओगे? यह मौका भी दिया जा सकता है। यह मौका ही हां, ऐसा नहीं है कि लोग संतुष्ट नहीं हुए हैं। लेकिन संतुष्ट वे | तो दिया गया है। संसार और क्या है? यह मौका ही है कि तम हुए हैं जिन्होंने यह असंतोष का पागलपन ठीक से पहचाना, कि अपने हृदय के अनुकूल बना लो। अपना घर, अपना बगीचा, यह तो पूरा होनेवाला नहीं है। तुम कितना ही पा लो, तुम्हारी पाने धन-दौलत, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, अपनी प्रतिमा, की आकांक्षा और जो तुमने पाया है, उसमें कभी मेल नहीं होगा। पत्नी-बच्चे-तुम बना लो अपने हिसाब से। तुम जो भी पाओगे, उससे श्रेष्ठतर की कल्पना कर सकते | लेकिन कौन कब तृप्त हो पाया है। सिकंदर भी खाली हाथ
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