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जिन सूत्र भाग: 1
जगा गया है— जो मुझसे नहीं हो पाता था, वह कर गया है।' बड़ा दुर्धर्ष योद्धा का रूप है महावीर का । संघर्ष उनका सूत्र है ।
'अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है। अविजित कसाय और इंद्रियां ही शत्रु हैं । हे मुने! मैं उन्हें जीतकर यथान्याय विचरण करता हूं।'
यह वचन बड़ा बहुमूल्य है।
गप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ।।
उन्हें जीतकर मैं उस परम धर्म के अनुसार आचरण करता हूं। इससे बड़ी गलती होती है। क्योंकि अनुवाद या मूल भी गलत समझा जा सकता है।...‘यथान्याय' धर्मानुसार विचरण करता हूं...तो अनुयायियों ने समझा कि धर्म के अनुसार विचरण करने से, यथान्याय आदमी विजेता हो जाता है। लेकिन महावीर बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, 'हे मुने! मैं उन्हें जीतकर ...।' जीतना पहले है। जागना पहले है । '... यथान्याय धर्मानुसार आचरण करता हूं।' जाग गया हूं, अब धर्मानुसार आचरण हो रहा है। धर्म यानी स्वभाव । धर्म यानी विवेक जाग्रत, सुप्रतिष्ठित; तुम्हारी भीतर की ज्योति जलती हुई; तुम्हारा दीया बुझा हुआ नहीं, जलता हुआ; तुम्हारे प्राण चमकते हुए। फिर स्वभावतः आचरण धर्म का होता है। फिर तुम जो भी करते हो वही नीति है। फिर तुम जो भी करते हो ही न्याय है । फिर तुम जो भी करते हो वही शुभ है।
ध्यान रखना, शुभ को साधने की चेष्टा नहीं की जा सकती। जागरण के साथ शुभ के फूल खिलते हैं।
एक ट्रेन में एक आदमी ने पूछा कि क्या मैं यहां सिगरेट पी सकता हूं। जिस रेलवे कर्मचारी से पूछा था, उसने कहा, 'जी नहीं। यहां सिगरेट पीना सख्त मना है।'
'तो फिर यह सिगरेट के टुकड़े किसके पड़े हैं ?' उस आदमी ने कहा ।
'यह उन लोगों के हैं जो इजाजत नहीं मांगते ।'
यहां जो जिंदगी है, इसमें मैं अकसर देखता हूं, लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, 'हम ईमानदार हैं, फिर भी जीवन में कोई सुख नहीं; और बेईमान फल-फूल रहे हैं। ये भी बेईमान हैं। मगर ये इजाजत मांगकर फंस गए हैं। पीना तो ये भी चाहते थे।
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लेकिन इजाजत मांगने में उलझ गए। फिर जब 'नहीं' कह दिया गया तो ये हिम्मत न जुटा सके करने की । इन्होंने शास्त्रों के आदेश सुन लिये, शास्ताओं की आवाज सुन ली। इन्होंने मुनियों के वचन सुन लिये, सदगुरुओं की बात सुन ली। पूछ बैठे। अब तोड़ें तो अपराध लगता है मन में; न तोड़ें तो पीड़ा होती है। और ये देखते हैं, दूसरे पीए जा रहे हैं। उन्होंने पूछने की ही फिक्र न की ।
अगर तुम धार्मिक जीवन जी रहे हो, तो तुम्हारे मन में यह सवाल कभी भी न उठेगा कि अधार्मिक मजे में हैं और मैं दुख में हूं। अगर यह सवाल उठता है तो इसका अर्थ है कि तुम्हारा धार्मिक जीवन झूठा झूठा, उच्छिष्ट, उधार, बासा। तुमने नियम पकड़े हैं, बोध नहीं पकड़ा; अन्यथा यह असंभव है कि धार्मि आदमी और आनंद में न हो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी को महल मिल जाएंगे। मिल भी सकते हैं, न भी मिलें । मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हो जाएगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उसके आसपास सोने-चांदी की वर्षा हो जाएगी। पर मैं यह कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी के पास कुछ भी न हो तो भी जिनके पास सोने-चांदी की वर्षा हो रही है, उनसे वह ज्यादा आनंदित होगा । जो पदों पर हैं, उनसे वह ज्यादा प्रतिष्ठित होगा। जिनके पास सब है, उनसे ज्यादा होगा उसके पास, चाहे कुछ भी न हो। यह होना कुछ भीतरी है।
अगर तुम ईमानदार हो तो ईमानदारी काफी है आनंद । ईमानदार होने का मजा इतना है कि फिर कौन फिक्र करता है, ईमानदारी से कुछ और मिला कि नहीं। कुछ और की फिक्र तो वही करता है जो ईमानदार नहीं है। यहां बेईमान भी अपने को ईमानदार समझते हैं । तुमने कभी कोई आदमी देखा जो तुमसे कहता हो कि मैं बेईमान हूं? कोई नहीं कहता ।
एक अदालत में मजिस्ट्रेट ने एक चोर से पूछा कि तूने इस दुकान में रात में पांच बार प्रवेश किया, पूरी रात ?
उसने कहा, 'क्या करूं मालिक ! ईमानदार संगी-साथी मिलते ही नहीं। अकेले... जमाना ऐसा खराब हो गया है!'
खटपट की आवाज से मुल्ला नसरुद्दीन की नींद उचट गई। सीढ़ियां उतरकर उसने देखा कि चोर रसोई घर का सामान बोरे में समेट रहा है। दरवाजा मेढ़कर उसने पीछे से ललकारा, 'सारा
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