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जिन सूत्र भाग: 1
सब जिससे दूसरे को लाभ होगा। मगर वह लाभ प्रयोजन नहीं है। वह लाभ लक्ष्य नहीं है। वह लाभ परिणाम है। वह सहज परिणाम है। अपने से होता है। सूरज निकलता है तो सोचता थोड़े ही है, रात हिसाब थोड़े लगाता है कि कितने फूल खिलाने हैं, कि कितने पौधों को प्राण देने हैं, कि कितने पक्षियों के कंठ में गीत बनाना है, कि कितने मोर नाचेंगे, कि कितनी आंखें प्रकाश से भरेंगी! यह कोई हिसाब लगाता है ! सूरज से पूछो तो शायद उसे पता भी न हो कि फूल भी खिलते हैं मेरे कारण, कि सोए हुए लोग जगते हैं मेरे कारण, कि पक्षी गीत गाने लगते हैं, कि भोर होती है मेरे कारण ! उसे पता भी न होगा। यह स्वाभाविक, सहज परिणाम है। सूरज करता है, ऐसा नहीं; ऐसा सूरज की मौजूदगी में होता है। सूरज तो केटालिटिक है। उसकी | मौजूदगी काफी है।
जब भी कोई व्यक्ति महावीर जैसा स्वार्थ को उपलब्ध होता है - स्वार्थ यानी आत्मा को; जिस दिन कोई अपने में रम जाता है— उसके आसपास बहुत पक्षी गीत गाते हैं। उसके आपपास | बे-मौसम फूल खिल जाते हैं। उसके आसपास सोए हुओं की आंखें खुल जाती हैं। उसके आसपास जन्मों-जन्मों से भटके हुए लोग मार्ग पर आ जाते हैं। कोई अनजाना तार खींचने लगता है।
लेकिन महावीर जैसा व्यक्ति कुछ करता नहीं; करने की भाषा ही भूल जाता है । होने की भाषा । होता है, करता नहीं । सेवा करता नहीं, सेवा होती है। यह कोई कृत्य नहीं है, यह उसकी भाव - दशा है।
दूसरी दशा, महावीर कहते हैं, समझो लौटो घर - अंतरात्मा । जिसने दूसरे की तरफ पीठ कर ली, नजर अपनी तरफ कर ली। अभी जहां हम खड़े हैं वहां दूसरे की तरफ नजर है, पीठ अपनी तरफ। हम अपनी ही तरफ पीठ किए हुए हैं - यह सांसारिक की दशा है। धार्मिक की — उसने पीठ संसार की तरफ की, सन्मुख हुआ अपने, अपनी तरफ चला, अब ध्यान अपने पर है। इसी को महावीर 'सामायिक' कहते हैं। इसी को योग 'ध्यान' कहता है। अब अपनी तरफ लौटने लगे। फिर एक दिन जब पहुंच गए, अपने में पहुंच गए, जिसके आगे जाने की कोई जगह न रही, ठहर गए उस बिंदु पर जहां से चले थे, जो स्रोत था जीवन का, वर्तुल वहीं आकर पूरा हो गया - तो फिर अब अंतरात्मा भी कहना ठीक नहीं। क्योंकि अंतरात्मा तो वह जो अपनी तरफ नजर किए है। लेकिन अपने से अभी फासला है । मुड़ा है घर की तरफ, लेकिन घर अभी दूर है, रास्ता बीच में है। फिर घर ही पहुंच गया, तो अब तो अपने में और अपनी नजर में कोई फासला न रहा। अब तो स्वयं का होना और स्वयं को देखना एक ही हो गए। अब दो न रहे। अब तो डुबकी लग गई। इस अवस्था को महावीर कहते हैं: परमात्मा ।
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इसलिए इस बात को याद रखना कि महावीर के लिए आत्मा से पार कुछ भी नहीं है। जो भी आत्मा के पार है, वह भटकानेवाला है। अपने से बाहर जिसने देखने की कोशिश की वह संसार में गया; अपने से भीतर जिसने देखने की कोशिश की, वह मोक्ष में ।
तो महावीर कहते हैं: आत्मा की तीन दशाएं हैं। एक बहिरात्मा, जिसको दूसरा दिखाई पड़ता है, जिसकी नजर दूसरे पर लगी है। फिर वह दूसरा कोई भी हो। धन हो कि पद हो, कि स्त्री हो कि पुरुष हो, कि परमात्मा हो, वह दूसरा कोई भी हो, बेशर्त, दूसरे पर आंख लगी है, वह आदमी बहिरात्मा । इसलिए तुम जब मंदिर जाते हो पूजा करने, तब महावीर तुमको बहिरात्मा कहेंगे। पूजा करने और मंदिर गए ! नजर बाहर रखी!
फूल - थाल सजाए ! पूजा करने बाहर गए ! मंत्रोच्चार किए। उच्चार बाहर हुआ ! तुम बहिरात्मा ! कहीं सिर झुकाया, किन्हीं चरणों में सिर रखा, लेकिन चरण बाहर थे, तो तुम बहिरात्मा । अभी तुम्हें भीतर आना होगा। अभी तुम आत्मा की सब से दीन दशा में हो । आत्मा की दरिद्रतम अवस्था जो है, 'सर्वहारा', वह है बहिरात्मा - बाहर जाता हुआ व्यक्ति । जितना बाहर जाता है, उतना ही भीतर के स्वर दूर होते जाते हैं, भीतर का संगीत खोता चला जाता है। जितना बाहर जाता है, उतनी ही स्वभाव से जड़ें उखड़ जाती हैं, उतना ही दुख, उतनी ही क्लांति, उतनी ही थकावट, उतनी ही ऊब, उतना ही जीवन भार, बोझिल हो जाता है ।
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परमात्मा महावीर के लिए अवस्था है- तुम्हारे अंतर्तम की। दूसरों के लिए परमात्मा बाहर, कहीं स्वर्ग, कहीं आकाश में बैठा है; महावीर के लिए अंतर-आकाश में।
महावीर ने बड़ी से बड़ी क्रांतिकारी उदघोषणा की है कि तुम परमात्मा हो । जब तुम नहीं जानते हो तब भी हो। इससे क्या फर्क पड़ता है! जब तुम्हें पता नहीं है, तब भी हो। भेद सिर्फ पता
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