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लेकिन धार्मिक व्यक्ति अभी जीता है। मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं। मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं। आज काफी है। यह क्षण काफी है। इस क्षण में जो जीता है, वही ध्यान में है। जिसने पूछा, ध्यान का लाभ क्या, वह कल पर सरक गया। उसने पूछा, लाभ क्या ? मिलेगा क्या ? कृष्ण की पूरी गीता बस इतनी-सी ही बात कहती है: मैं कल का भरोसा नहीं करता साकी
मुमकिन है कि जाम रहे मैं न रहूं।
कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा - रहित होकर तू कर्म में जुट जा—यही ध्यान है, यही धर्म है । फलाकांक्षा यानी लोभ । तू यह मत पूछ कि क्या मिलेगा। जैसे ही कोई व्यक्ति लोभ को हटाकर जीना शुरू कर देता है, उसके जीवन में ध्यान की वर्षा हो जाती है, उसका कण-कण ध्यान से भर जाता है। लोभ के बादल को हटाओ, ध्यान का आकाश उपलब्ध हो जाता है। 'जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।'
महावीर की ब्राह्मण की परिभाषा:
'जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ।
एवं अलितं कामेहिं तं वयं बूम माहणं ।।'
उसे कहते हैं हम ब्राह्मण, जो कामवासना में पैदा हुआ, कामवासना में ही जन्मा और बड़ा हुआ, कामवासना के ही जगत में जीता है - लेकिन कमल के फूल की भांति, अलिप्त, जगत उसे छू नहीं पाता । इसे समझें ।
हिंदू - शास्त्र भी कहते हैं कि जन्म से तो सभी शूद्र हैं। जन्म से तो सभी शूद्र हैं ही; क्योंकि जन्म ही कीचड़ में होता है, जन्म ही कामवासना में होता है। जन्म ही असंभव है कामवासना के बिना। तो जन्म से तो सभी कीचड़ हैं, शूद्र हैं। फिर इनमें से ब्राह्मण कोई बन सकता है, बनना चाहे । सभी बन सकते हैं, बनना चाहें। लेकिन ब्राह्मण कोई तभी बनता है, जब कमल की भांति कीचड़ से दूर होता जाता है— इतना दूर, इतना पार और
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जीवन एक सुअवसर
है
इतना अलिप्त कि जल उसे छू भी नहीं पाता; ऐसा निर्दोष कि कुछ भी उसे दोषी नहीं कर पाता; ऐसा पुण्य का फूल कि पाप उसे छू भी नहीं पाता। पाप में ही खड़ा रहेगा, क्योंकि जाओगे कहां? संसार से भागोगे कहां ? जहां जाओगे वहां भी संसार है। जहां भी जाना-आना हो सकता है वहां संसार है । इसलिए तो हम संसार को आवागमन कहते हैं - आना-जाना । तो कहां जाओगे ? कहां आओगे ? जहां भी जाओगे, जहां भी आओगे, वहीं संसार है। ठहर जाओ! आना-जाना छोड़ो ! जहां हो वहीं ठहर जाओ! भीतर उतरो ! इतने भीतर उतर जाओ कि बाहर की धुन भी न पहुंचे ! इतने भीतर उतर जाओ कि बाजार चलता रहे और चलता रहे और तुम्हें पता भी न चले। इतने भीतर उतर जाओ कि पत्नी पास हो, बच्चे पास हों, मकान हो, घर-गृहस्थी हो, सब हो - लेकिन तुम भीतर अकेले हो जाओ।
सबके बीच जो अकेला हो गया, वही संन्यासी है। भीड़ के बीच जो भीड़ का हिस्सा न रहा, वही संन्यासी है।
जल में कमलवत - महावीर कहते हैं—यही मेरी व्याख्या है। ब्राह्मण की !
इसलिए ब्राह्मण कोई जाति से नहीं होता, न जन्म से होता है। जन्म और जाति से तो सभी शूद्र हैं। ब्राह्मण तो कोई उपलब्धि से होता है। इसलिए महावीर ने वर्ण-व्यवस्था नहीं मानी। महावीर ने कहा, यह कैसे हो सकता है कि कोई कहे, कि मैं ब्राह्मण हूं जन्म से ! जन्म से तो कोई ब्राह्मण नहीं होता – जागरण से कोई ब्राह्मण होता है। होश से कोई ब्राह्मण होता है।
'जीव ही ब्रह्म है। देहासक्ति से मुक्त होकर मुनि की ब्रह्म के लिए जो चर्या है, वही ब्रह्मचर्य है।'
बड़ी प्यारी परिभाषा है ! ब्राह्मण की जो चर्या है, वह ब्रह्मचर्य । और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ब्रह्म है।
'जीव ही ब्रह्म है। देहासक्ति से मुक्त व्यक्ति की जो चर्या है, वही ब्रह्मचर्या है, वही ब्रह्मचर्य है।'
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जैसे ही तुम शरीर के द्वारा नहीं जीते, शरीर का उपयोग करते हो, लेकिन शरीर के मालिक होकर जीते हो; शरीर सेवक हो जाता तुम स्वामी हो जाते - उसी क्षण तुम्हारे भीतर के ब्रह्म का आविष्कार हुआ; तुमने जाना, तुम कौन हो। और उस जानने के बाद जो आचरण है, वही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का इतना छोटा-सा अर्थ जो लोग ले लेते हैं - वीर्य - नियमन – काफी
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