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जिन सूत्र भागः 1
लेकिन तब से उन्होंने मुझे ले जाना बंद कर दिया। कहीं कोई से शुरू तो करना होगा। मर जाये, कुछ हो तो वे मुझे न ले जाते।
तो पांचवीं पर्त है उपचार की। ये तुम्हारी पर्ते हैं। पहली जो संस्कार देना जरूरी है। परिवार की अपनी अड़चन है। समाज घटना थी शून्य की, वह तुम्हारा सत्य है। अब इन चार पर्तों के की अपनी असुविधा है। बच्चे को वैसे ही नहीं छोड़ा जा सकता, नीचे दबा है सत्य। इन पर्तों को धीरे-धीरे छांटना होगा। इन पर्तों कुछ न कुछ काट-छांट करनी पड़ेगी। वह जो काट-छांट है, | को धीरे-धीरे हटाना होगा। जैसे कि नदी पर पत्ते छा जाते हैं, उसमें बच्चे के स्वभाव के प्रतिकूल उस पर कुछ थोपा जाता है। सैवाल फैल जाता है, तो हम हटाकर देखते हैं, नीचे जलधार बह जहां रोना चाहता है, रो नहीं सकता है। जहां हंसना चाहता है, रही है-इन चार पर्तों के नीचे तुम्हारा स्वभाव बह रहा है, हंस नहीं सकता। जहां क्रोध करना चाहता है, क्रोध नहीं कर | तुम्हारी गंगा बह रही है। इनको हटाने का नाम ही साधना है। ये सकता। जहां प्रेम नहीं करना है, वहां प्रेम दिखलाना पड़ता है। चारों पर्ते जड़ हैं। ये चारों पर्ते संज्ञा की हैं। और तुम्हारा स्वभाव जिनके पैर नहीं छुने, उनके पैर छुने पड़ते हैं। जो नहीं खाना है, | क्रिया का है। इन चारों पर्तों के साथ समाज राजी है, तुम्हारे वह खाना पड़ता है। जो खाना है, वह खाने को मिलता नहीं है। स्वभाव से राजी नहीं है; क्योंकि ये चारों पर्ते तुम्हें नियंत्रण में ला तो तीसरी पर्त खड़ी होती है—संस्कार की, समाज की, नियंत्रण | देती हैं। तुम्हारा स्वभाव तो बड़ी विस्फोटक घटना है। की। कारागृह बनता है।
इसलिए तो महावीर जब जिंदा होते हैं तो स्वीकार नहीं होते। फिर जैसे ही बच्चा बड़ा होता है, धीरे-धीरे जैसे-जैसे उसके बड़े विस्फोटक आदमी हैं। अपने रंग में जीते हैं। कोई समझौता
स ताकत आती है, वह पीछे के दरवाजों से अपने स्वभाव की नहीं करते। अपने स्वभाव में जीते हैं. चाहे कोई भी कीमत पूर्ति के रास्ते खोजता है। कमजोर है बच्चा, छोटा है, तब तक तो चुकानी पड़े। अगर नग्न होने में मजा आया तो नग्न जीते हैं। स्वीकार कर लेता है; लेकिन जैसे-जैसे समझ आने लगती है, चाहे दुनिया कुछ भी कहे। भला कहे, बुरा कहे-कोई चिंता ताकत आने लगती है, वह कोई रास्ते निकालने लगता है, नहीं लेते। छिप-छिपकर करने लगता है काम, जो उसे करने हैं। धोखा पैदा तो महावीर तो एक बगावती हैं, एक क्रांतिकारी हैं। धर्म होता है। तो चौथी पर्त पैदा होती है जो समझौते की पर्त है। वह बगावत है, क्रांति है। हां, जब महावीर मर जाते हैं तो उनके पीछे समाज जो मानता है, चाहता है, वैसा दिखाता है; और जो उसे | जो इकट्ठे होते हैं, वे कोई बगावती नहीं हैं। या हो सकता है, करना है, वैसा करता है। तो दोहरा व्यक्तित्व बनता है। यह पहली जो संख्या, पहले लोग जो महावीर के पास आये थे, वे चौथी पर्त है।
बगावती रहे हों; लेकिन उनके बेटे तो बगावती नहीं होंगे। उनके फिर पांचवीं एक पर्त है, जो सबसे ऊपर-ऊपर है-लोकाचार बेटे तो पैदाइश से जैन होंगे। जिन्होंने महावीर को चुना था अपनी की, शिष्टाचार की। किसी को तुम मिलते हो तो कहते हो, स्वेच्छा से, उन्होंने तो बड़ी हिम्मत की थी, बड़ा साहस किया 'कहिए, कैसे हैं? बड़ी खुशी हई मिलकर। बड़े दिनों बाद था। क्योंकि महावीर बदनाम थे। गांव-गांव से खदेड़े जाते थे। दर्शन हुए। बड़े दिन से आंखें तरसती थीं।'
पत्थर मारे गये। कान में खीलें ठोंक दिये किसी ने। कहीं ये सब बातें हैं। यह औपचारिक पर्त है। इससे थोड़ा संबंधों में स्वीकार न थे। जिन्होंने उन्हें स्वीकार किया था. वे तो बड़े सुगमता बनी रहती है। जयराम जी, हैलो-इससे थोड़ा दो | हिम्मतवर लोग रहे होंगे, बड़े साहसी। व्यक्तियों के बीच में स्निग्धता बनी रहती है-लुब्रिकेशन। नहीं तो शिष्यों का जो पहला समूह होता है, वह तो हिम्मतवर होता तो कोई मिला और सीधे खड़े हो गये। वह भी खड़ा है, तुम भी है। लेकिन जो दूसरी पीढ़ी आती है, वह तो फिर वैसी ही होती खड़े हो–कहां से चलें, क्या कहें, क्या न कहें! तो अड़चन | है। इसलिए तो सभी धर्म खो जाते हैं। जब सदगुरु जीवित होता खड़ी होगी, तो कहा जयराम जी! बातचीत शुरू हुई। 'मौसम | है तो धर्म भी जीवित होता है। जब सदगुरु विदा हो जाता है तो कैसा है?' 'अच्छा है।' 'पति-पत्नी, बच्चे, घर, सब कुशल धीरे-धीरे सदधर्म की ध्वनि भी, प्रतिध्वनि बनती जाती है—दूर, हैं ?' सिलसिला चल पड़ा। अब आगे बात चल सकेगी। कहीं दूर, दूर-फिर खो जाती है। फिर महावीर पूज्य हो जाते हैं।
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