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जिन सूत्र भाग: 1
उपलब्ध हुए, उन सब का अपने संन्यस्त होने का ढंग है। उपनिषद कहते हैं, तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। उन्होंने ही भोगा,
इसलिए संन्यास की कोई परंपरा नहीं है। संन्यास व्यक्तिगत | जिन्होंने त्यागा। या उसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि उन्होंने क्रांति है। अब 'संन्यासी माया और काम-भोग से विमुख होकर ही त्यागा जिन्होंने भोगा। वह वचन बड़ा अपूर्व है। ऐसा भोगो, प्रभु-प्राप्ति के लिए उन्मुख होता है', यह बात भी सच नहीं है। ऐसा गहरा भोगो कि भोग में ही त्याग घटित हो जाये। जिसने पूछा है, उनको ठीक-ठीक पता नहीं है; उन्हें भक्ति मार्ग | अब इसे थोड़ा समझो। जब तुम अधूरा-अधूरा भोगते हो तो का पता नहीं है। क्योंकि भक्ति मार्ग का संन्यासी भोग से विमुख भोग सरकता है। जो भी जीवन में अधूरा अनुभव है, वह पीछा नहीं होता, परमात्मा का ही भोग शुरू करता है। जिन मित्र ने करता है। जब भी अनुभव पूरा हो जाता है, छुटकारा हो जाता पूछा है, उन्हें हिंद, शंकराचार्य, जैन, महावीर, गौतम सिद्धार्थ, | है। अगर तुमने स्त्री को ठीक से न भोगा. तो तम्हारे मन में स्त्री बुद्ध—इनकी परंपरा के संन्यासियों का बोध है। और ऐसा हुआ की कामना छाया डालती रहेगी। अगर तुमने ठीक से भोग है कि इनकी परंपरा इतनी प्रभावी हो गयी कि धीरे-धीरे ऐसा | लिया, एक स्त्री को भी एक संभोग में भी ठीक से अनुभव कर लगने लगा कि दूसरी कोई परंपरा नहीं है। रामानुज का भी लिया और जान लिया, क्या है, तुम मुक्त हो गये। उसी क्षण तुम संन्यासी है। निम्बार्क का भी संन्यासी है। चैतन्य महाप्रभु का भी भोग के बाहर हो गये। संन्यासी है। मगर वे ओझल हो गये। बुद्ध, महावीर, और गहरा भोग त्याग ले आता है। और गहरे त्यागी के भोग की शंकराचार्य इतने प्रभावी हो गये और प्रभावी हो जाने का चर्चा करनी मुश्किल है, क्योंकि वही भोगना जानता है। कारण है, क्योंकि तुम सब भोगी हो। इसे तुम्हें जरा अड़चन | तुम जरा सोचो! जब कृष्ण भोजन करते होंगे या महावीर भी होगी समझने में। चूंकि तुम सब भोगी हो, त्यागी की भाषा तुम्हें जब भोजन करते होंगे, तो तुमने ऐसा भोजन कभी भी नहीं किया समझ में आती है। क्योंकि त्यागी की भाषा तुमसे विपरीत है। जैसा महावीर करते होंगे। चाहे उन्हें रूखी-सूखी रोटी ही मिली जो तुम्हारे पास नहीं है, उसमें आकर्षण पैदा होता है। गरीब | हो, उस रूखी-सूखी में से भी ब्रह्म को निचोड़ लेते होंगे। उस अमीर होना चाहता है। तुम भोगी हो, तुम त्यागी होना चाहते रूखी-सूखी रोटी में से सिर्फ खून और मांस-मज्जा ही नहीं हो। तुम कहते हो, भोग में तो दुख ही दुख पाया; इसलिए आती थी उनको, ब्रह्म भी आता था। इसलिए तो उपनिषद कहते महावीर, शंकर और बुद्ध ठीक ही कहते होंगे कि त्याग में सुख हैं: अन्नं ब्रह्म! अन्न ब्रह्म है। जिन्होंने लिखा है, उन्होंने खूब है, क्योंकि एक तो हमें अनुभव हो गया कि भोग में दुख है। भोगकर लिखा होगा, खूब अन्न को परखकर लिखा होगा।
रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, चैतन्य—इनकी भाषा तुमने नहीं | एक संन्यासी बीमार था। थोड़ा-थोड़ा भोजन लेता था। समझी; क्योंकि वे कहते हैं कि तुम्हारे भोग में दुख नहीं है, चिकित्सकों ने उससे कहा कि इतने थोड़े भोजन से काम न तुम्हारा भोग गलत चीजों का हो रहा है, इसलिए दुख है। भोग चलेगा, थोड़ा और भोजन लो। तो उस संन्यासी ने कहा, इतना भगवान का करो! तुमने अभी स्त्री को भोगा है; लेकिन कभी काफी है, क्योंकि इसमें से मैं वही नहीं ले रहा हूं जो दिखाई पड़ता स्त्री में भगवान को देखकर भोगो, फिर दुख समाप्त हुआ! तुमने है, वह भी ले रहा हूं जो दिखाई नहीं पड़ता। और जब मैं श्वास अभी भोजन को भोगा है, दुख है; लेकिन भोजन में भगवान को लेता हूं, तब भी मैं भोजन कर रहा हूं क्योंकि प्राण...। और देखकर भोगो, दुख समाप्त हुआ।
जब मैं आकाश को देखता हूं, तब भी भोजन कर रहा उनकी बात में भी सार है। अब इधर मैं हूं। मैं कहता हूं कि हूं क्योंकि आकाश...। जब सूरज की किरणें मुझ पर पड़ती दोनों का संगीत पैदा हो जाये तो संन्यास है। मैं कहता हूं, तुम्हारा हैं, तब भी भोजन कर रहा हूं-क्योंकि किरणें प्रवेश करती हैं। त्याग ऐसा हो कि भोगी के भोग से ज्यादा गहरा और तुम्हारा भोग भोजन तो चौबीस घंटे चल रहा है। ब्रह्म चौबीस घंटे ऐसा हो कि त्यागी के त्याग से ज्यादा गहरा। तो मैं तुमसे यह कह | हजार-हजार मार्गों से तुम में उतर रहा है और नाच रहा है। रहा हूं कि एक परम समन्वय हो। तुम भोगो-त्यागते हुए, तुम जिसने ठीक से भोगा, वह हर भोग में ब्रह्म को खोज लेगा। त्यागो-भोगते हुए।
और जिसने ठीक से त्यागा, उसकी आंख इतनी शुद्ध और निर्मल
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