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जिन सूत्र भाग: 1
पड़ता। राह चलती रहती है। लोग गुजरते रहते हैं। तुम और | सबके प्रति अंधे हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारा मन एकाग्र है—किसी वासना में, किसी कामना में, किसी आकांक्षा में, अभीप्सा में, तुम एकजुट एकाग्र हो। तुम राह देखते हो किसी चेहरे की ।
तो श्याम तो तुमने पुकारा होगा, लेकिन तुम किसी चेहरे की राह देख रहे हो – बांसुरी धरे हुए आयेगा, मोर मुकुट लगाकर आयेगा। तो तुम चूके! तुम्हारी इस आकांक्षा में ही, तुम्हारी इस धारणा में ही पर्दा है। तुम्हारी कोई निश्चित मनोदशा है, जिसमें तुम मांग कर रहे हो, ऐसा होना चाहिए।
कहते हैं, तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले गये, तो वे झुके नहीं । तुलसीदास जैसा समझदार आदमी भी नासमझी कर गया। झुके नहीं, क्योंकि वे राम के भक्त थे, कृष्ण की मूर्ति के सामने झुकें कैसे! खड़े रहे, अड़े रहे। वे तो एक को ही पहचानते थे- धनुर्धारी राम को । यह मुरली - मुरारि को, यह मुरलीधारी को, वे पहचानते न थे, मानते भी न थे। कैसे झुकें !
कहानी बड़ी मधुर है। कहानी यह है कि उन्होंने कहा कि तुम जब धनुष-बाण हाथ लोगे, तभी मैं झुकूंगा, नहीं तो मैं न झुकूंगा। मैं तो एक का ही भक्त हूं ।
कहानी कहती है कि तुलसीदास के लिए कृष्ण ने हाथ में धनुष-बाण लिया, मूर्ति बदली । मुरली खो गई, मोर मुकुट खो गया, धुर्धारी राम प्रगट हुए - तब, तब तुलसीदास झुके । मैं नहीं मानता हूं कि मूर्ति बदली होगी । तुलसीदास ने ही कोई सपना देखा होगा।
कहीं परमात्मा तुम्हारे पक्षपातों के अनुसार ढलता है? तुम परमात्मा को आज्ञा दे रहे हो ? तुम परमात्मा को कह रहे हो कि अगर मेरी स्तुति चाहिए हो तो इस ढंग से आ जाओ! ऐसे पीत वस्त्र पहनकर, पीतांबर होकर खड़े होना; ऐसा नील वर्ण हो तुम्हारा, ऐसी तुम्हारी आंखें हों, इस तरह से खड़े होना । तुम मुद्रा, ढंग, रूप-रंग, सब तय किये बैठे हो, इसलिए परमात्मा से चूक रहे हो। लोग धार्मिक होने के कारण धर्म से चूक रहे हैं। क्योंकि धार्मिक होने में वे सांप्रदायिक हो गये हैं और उन्होंने एक रुख पकड़ लिया है।
मेरी सारी चेष्टा यहां यही है कि तुम्हारे पक्षपात विसर्जित हो जायें। तुम मांग न करो। तुम कहो, तू जिस रूप में आयेगा, हम
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पहचानेंगे। तू हमें धोखा न दे पायेगा ! तू धनुष-बाण लेकर आयेगा, कोई हर्ज नहीं, तो भी पहचानेंगे। तू मुरली हाथ में लेकर आयेगा तो भी पहचानेंगे। तू महावीर की तरह नग्न खड़ा हो जायेगा, न धनुष-बाण होंगे न मुरली होगी, तो भी हम पहचानेंगे। तू जीसस की तरह सूली पर लटक जायेगा, तो भी हमें धोखा न दे पायेगा !
धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं, जिसने परमात्मा को चुनौती दे दी कि अब तू हमें धोखा न दे पायेगा, हम पहचान ही लेंगे! तू जिस रूप में आये, आ जाना; क्योंकि हमने अब एक बात समझ ली है कि सभी रूप तेरे हैं। फिर
तुम कैसे चूकोगे? फिर जिंदगी की शाम कभी न होगी। फिर जिंदगी सदा सुबह ही बनी रहेगी। शंकराचार्य के जीवन में एक उल्लेख है।
कल ही मैं सांझ उनकी कहानी कह रहा था। शिष्यों को समझा रहे हैं। कुछ ऐसा उलझा हुआ प्रश्न खड़ा हो गया है। तो उन्होंने दीवाल पर कलम उठाकर एक चित्र बनाया—समझाने के लिए । चित्र में बनाया एक वृक्ष - बोधिवृक्ष । उसके नीचे बैठाया एक युवा संन्यासी को — गुरु की तरह । और फिर उस चित्र के आसपास, युवा संन्यासी के आसपास, बिठाये बड़े बूढ़े शिष्य, जीर्ण-जर्जर, बड़े प्राचीन! एक शिष्य ने खड़े होकर कहा, 'यह आप क्या कर रहे हैं ? शायद आप चूक गये। इस युवक संन्यासी को गुरु और इन बूढ़े वृद्ध ऋषि-मुनियों को शिष्य ! आपसे कुछ गलती हो गई है।'
शंकर ने कहा, गलती नहीं हुई, जानकर बना रहा हूं। क्योंकि शिष्य सदा बूढ़ा है। क्योंकि शिष्य का अर्थ है: मन। मन बड़ा प्राचीन है। मन बड़ा पुराना है । मन यानी पुराना । मन यानी अतीत। मन यानी जो हो चुका, उसकी धूल-धवांस; जो जा चुका उसके रेखा-चिह्न; जो बीत चुका उसके पद चिह्न ।
मन का अर्थ ही है : जो बीत चुका, उसकी लकीरें। बड़ा पुराना
मन !
शिष्य के पास मन है। गुरु का मन खो गया है, तो अतीत खो गया। तो शंकर ने कहा, 'गुरु तो सदा नित- नवीन है, युवा है, किशोर है।' इसलिए तुमने देखा ! राम की तुमने कोई बूढ़ी प्रतिमा देखी ? बूढ़े कभी तो हुए होंगे ! कोई जगत नियम तो नहीं बदलता - किसी के लिए नहीं बदलता । कृष्ण की तुमने बूढ़ी
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