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जिन सूत्र भाग:
परमात्मा खींचता है...और उसकी खींच में बहुत बल नहीं हो सकता। क्योंकि जिसे जाना नहीं, चखा नहीं, जीया नहीं, उसकी पुकार सुनोगे कैसे? वह बहुत दूर की धुंधली - सी आवाज, बस एक गूंज रह जाती है, प्रतिध्वनि - मात्र, छाया - मात्र । और जीवन की वासनाएं हैं, वे प्रगाढ़ ; वे तुम्हें खींचेंगी। तो तुम बंधे तो रहोगे जीवन के ही पहिये से, घसिटते तो रहोगे जीवन के रथ के साथ ही, धूल-धवांस तो जीवन की ही खाते रहोगे । हां, सपने तुम मोक्ष के, बैकुंठ के देखने लगोगे । इससे तुम शांत न होओगे। इससे तुम्हारी अशांति शायद थोड़ी और बढ़ जायेगी। इससे तुम परमात्मा को पा सकोगे, ऐसा तो कम दिखायी पड़ता है; इससे तुम जीवन में उदास और खिन्न और विषाद - युक्त हो जाओगे ।
इसलिए महावीर ने दूसरा मार्ग चुना। वे परमात्मा की बात ही नहीं करते। उसे अलग ही कर दिया, बाद ही दे दी, हाशिये पर भी नहीं रखा है, शास्त्र की तो बात छोड़ो। उसे हटा ही दिया। समाधि के प्रसाद गुण की बात नहीं करते, न आनंद की बात करते — वे तो तुम्हारे जीवन की, जहां तुम हो, उसकी ही बात करते हैं, और कहते हैं, यहां दुख है। वे तुम्हें जीवन के दुख की प्रगाढ़ता से परिचित करा देना चाहते हैं। वे तुम्हारे हृदय में चुभे हुए शूलों से तुम्हारी पहचान करा देना चाहते हैं । उनका सारा आधार तुम्हारी वस्तुस्थिति से तुम्हें परिचित करा देना है । तुम्हें पता चल जाए कि घर में आग लग गई है। तुम जल रहे हो, लपटों से घिरे हो। तो महावीर मानते हैं कि तुम दौड़कर बाहर निकल जाओगे। निकलोगे बाहर तो बाहर को जानोगे ।
. फूल भी खिले हैं । नहीं कि फूल नहीं खिले हैं। परमात्मा भी है। नहीं कि परमात्मा नहीं है। समाधि के भी मेघ बरस रहे हैं, अमृत की धार बह रही है। सब है। लेकिन महवीर उसकी बात नहीं करते। वे तो सिर्फ तुम्हारे जीवन के दुख की बार-बार पुनरुक्ति करते हैं । तुम्हें जीवन का दुख दिखाई पड़ जाये तो तुम जीवन को छोड़ने लगोगे । उसी छोड़ने में मोक्ष उतरता है।
इसलिए महावीर का मार्ग निषेध का है, नकार का है। महावीर का मार्ग चिकित्सक का है। तुम चिकित्सक के पास जाते हो तो वह स्वास्थ्य की चर्चा नहीं करता। नहीं कि स्वास्थ्य नहीं है, | लेकिन बीमार से स्वास्थ्य की क्या चर्चा करनी ! वह तुम्हारी बीमारी का निदान करता है; बीमारियों को उघाड़कर रखता है;
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एक-एक बीमारी की पकड़ करता है, जांच-परीक्षण करता है, डायगनोसिस करता है। बीमारी पकड़ में आ जाती है, बीमारी समझ में आ जाती है — औषधि बता देता है। स्वास्थ्य की कहीं कोई चिकित्सक बात करता है! बीमारी पकड़ में आ गई, चिकित्सा का पता चल गया – अब तुम्हारे ऊपर है। अगर तुम्हें बीमारी दिखाई पड़ती है, बीमारी की पीड़ा दिखाई पड़ती है, तो औषधि तुम वरण करोगे; चाहे औषधि कड़वी भी क्यों न हो। बीमारी से साक्षात्कार हुआ तो औषधि तुम अंगीकर कर लोगे। औषधि बीमारी को काट देगी। जो शेष रह जायेगा बीमारी के कट जाने के बाद, वह अनिर्वचनीय है; उसकी बात ही नहीं की जा सकती; वह अभिव्यक्ति के योग्य नहीं है; उसकी कोई अभिव्यंजना कभी नहीं कर पाया। कहो 'ईश्वर', तो भी कुछ पता नहीं चलता। कहो 'समाधि', तो भी शब्द ही हाथ में आता है। कहो 'कैवल्य', कुछ शब्द की गूंज होती है; हृदय में कोई अनुभूति का तालमेल नहीं बैठता। लेकिन जब तुम्हारी सारी बीमारी हट जाती है, तब अचानक जो घटता है— जीवंत, अस्तित्वगत - वही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य बताया नहीं जा सकता, अनुभव किया जा सकता है।
तो इसलिए महावीर के वचनों में तुम्हें बार-बार दुख की चर्चा मिलेगी। इससे तुम्हें थोड़ी बेचैनी भी होगी। क्योंकि तुम सुख की चर्चा सुनना चाहते हो ।
तुम कहते हो, यह क्या दुख का राग है !
इसलिए पश्चिम में जब महावीर के वचन पहली दफा पहुंचने शुरू हुए तो लोगों ने समझा, दुखवादी हैं। महावीर दुखवादी नहीं हैं। इनसे परम सुखवादी कभी पैदा नहीं हुआ। क्या चिकित्सक तुम्हारी बीमारी की चर्चा करे, औषधि का निदान करे, तो तुम यह कहोगे कि यह बीमारी का पक्षपाती है ? वह चर्चा ही बीमारी की इसलिए कर रहा है कि तुम उससे छूट जाओ। वह स्वास्थ्य की चर्चा नहीं कर रहा है, क्योंकि चर्चा करने से कभी कोई स्वस्थ हुआ ! इसलिए महावीर दुख का ही विश्लेषण करते चले जाते हैं। हजार तरफ से एक ही इशारा है उनका दुख । तुम्हें यह दिखाई पड़ने लगे कि तुम्हारा सारा जीवन दुख है – सुबह से सांझ तक, जन्म से मृत्यु तक — दुख का ही अंबार है, राशि है ।
ऐसी तुम्हारी पहचान जिस दिन हो जायेगी... और यही हो
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