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उस आदमी ने कहा कि यह कुछ बदला नहीं है। वह थोड़ी देर चला जाता चुप रहा।
उसने फिर पूछा कि 'महाराज ! मैं भूल गया। आपका नाम क्या है ?' उन्होंने डंडा उठा लिया। कहा, 'तू होश में है ? कह दिया एक दफे कि मेरा नाम शांतिनाथ है।' वह आदमी थोड़ी देर फिर चुप रहा। उसने कहा, 'महाराज !' वह महाराज ही कह पाया था कि उन्होंने डंडा उस के सिर पर लगा दिया! उन्होंने कहा कि कह तो चुका इतनी बार! बुद्धि है कि मूढ़ है बिलकुल ? 'शांतिनाथ' मेरा नाम है।
उसने कहा कि महाराज ! लेकिन शांति कहीं पता नहीं चलती। मैं तो वही रूप देख रहा हूं, जिससे बचपन से परिचित हूं, कहीं कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता । ऊपर के आवरण बदल गये, भीतर की अंतरात्मा वही है।
विरक्ति ओढ़ना मत ! विरक्ति कोई वस्त्र नहीं है, आवरण नहीं | है कि तुम ओढ़ लो; भीतर तुम वही रहो और ऊपर से वस्त्र बदल लो। विरक्ति तो भीतर की भाव- दशा है। धीरे-धीरे | सम्मान करना। एक-एक उस घड़ी का जिससे विराग आता हो, उसका सम्मान करना। एक-एक इंच विराग की भूमि पर अपने को जमाना, चलाना। धीरे-धीरे संसार का बंधन छूट जाता है। क्योंकि बंधन राग के कारण है। जब विरक्ति आती है, छूट जाता है । गांठ जैसे बंधी है, जब उससे उलटा करने लगते हो, गांठ खुल जाती है।
' और आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता चला जाता है।' आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता चला जाता है, | क्योंकि एक वासना दस वासनाओं को जन्म देती है । वासना संतति-नियमन में भरोसा नहीं रखती। वासना की बड़ी संतान होती है। एक वासना दस को जन्मा देती है। दस वासनायें सौ को जन्मा देती हैं - ऐसा ही गणित फैलता चला जाता है।
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तुमने कभी एक कंकड़ फेंककर देखा पानी में ! एक कंकड़ फेंकते हो जरा-सा, कितनी लहरें उठती हैं! एक लहर उठती है, एक दूसरी को उठाती है, दूसरी तीसरी को उठती है। दूर कूल - किनारों तक सारा लहरों से भर जाता है सरोवर । एक जरा-सा कंकड़ फेंका था। एक जरा-सा कंकड़ वासना का और तुम्हारा सारा जीवन लहरों से विक्षुब्ध हो जाता है।
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परम औषधि: साक्षी भाव
अनासक्त व्यक्ति का संसार इसी क्षण टूटने लगता है, बिखरने लगता है; जैसे किसी ने भूमि ही खींच ली, बुनियाद अलग कर ली।
महावीर चले गये छोड़कर राजपाट। लेकिन बड़ी मीठी कथा है। महावीर छोड़ना चाहते थे, मां ने कहा, 'अभी मैं न छोड़ने दूंगी। जब तक मैं जिंदा हूं, मत छोड़ो !' महावीर ने फिर बात ही न उठाई। यह बड़ी हैरानी की बात है । बुद्ध तो भाग गये एक रात, बिना किसी को कहे, पत्नी को भी न कहा कि मैं जा रहा हूं। बारह वर्ष बाद जब आये थे तो पत्नी ने यही शिकायत की थी कि तुम्हें जाना ही था, तो मैं कैसे रोक पाती ? जानेवाले को कौन
तो महावीर कहते हैं, आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता रोक पाया है! तुम जाना ही चाहते थे तो तुम गये ही होते, लेकिन
'अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प ही सब दोषों के मूल हैं।' जो इस प्रकार के चिंतन में उद्यत होता है तथा इंद्रिय विषय दोषों के मूल नहीं हैं, इस प्रकार का संकल्प करता है— उसके मन में समता उत्पन्न होती है। और उससे उसकी काम - गुणों में होनेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है।'
एक और महत्वपूर्ण बात महावीर इस सूत्र में कहते हैं । वे कहते हैं, कामवासना के विषय कारण नहीं हैं। धन कारण नहीं है धनासक्ति का धन पड़ा रहे तुम्हारे चारों तरफ, आसक्ति न हो तो धन मिट्टी है। मिट्टी में भी आसक्ति लग जाये, तो मिट्टी धन
तुम्हारी आसक्ति से निर्मित होता है। तुम महल में रहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महल किसी को नहीं बांधता है। तुम झोपड़े में रहो और तुम्हारी आसक्ति गहन हो झोपड़े में तो झोपड़ा ही बांध लेगा। एक छोटी-सी लंगोटी बांध ले सकती है, और एक बड़ा साम्राज्य भी न बांधे।
सूत्र है : 'अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प ही सब दोषों के मूल हैं।' तुम्हारे भीतर ही हैं सारे मूल विषय भोगों के मूल नहीं हैं। इंद्रिय विषय-भोग दोषों के मूल नहीं हैं। जो इस प्रकार का संकल्प करता है, उसके मन में समता उत्पन्न होती है।' जैसे-जैसे तुम जानोगे और इस धारणा में गहरे जमोगे, जड़ें फैलाओगे कि वस्तुएं नहीं हैं, बाहर कुछ भी नहीं है जो मुझे बांधता है— मैंने ही बंधना चाहा है; मेरे बंधने की चाह ही बांधती है, मेरे भीतर ही मूल है। फिर बाहर के संसार को छोड़कर भाग जाने का बड़ा सवाल नहीं है। अगर कोई भाग भी जाये तो वह केवल प्रशिक्षण है।
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