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छः आरों का वर्णन ।
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हैं। (क्षेत्राधिष्टित ) देव उन युगल के मृतक शरीर को क्षीर सागर में प्रक्षेप कर मृत्युसंस्वार ( मरण क्रिया) करते हैं। गति एक देव की।
इस बारे में वैर नहीं; ईया नहीं, जरा ( बुढापा) नहीं, रोग नहीं, कुरूप नहीं, परिपूर्ण अंग उपांग पाकर सुख भोगते हैं ये सब पूर्व भव के दान न्यादि सत्कर्म का फल जानना। ॥ इति प्रथम प्रारा संपूर्ण ।।
* दूसरा पारा * (२) उवत प्रकार प्रथम आरे की समाप्ति होते ही तीन करोड़ करोडी सागरोपम का ' सुखमा' ( केवल सुख ) नामक दूसरा पारा प्रारम्भ होता है उस वक्त पहिले से वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के पुद्गलों की उत्तमता में अनन्त गुणी हीनता हो जाती है इस बारे में मनुष्य का देहमान दो कोस का व आयुष्य दो पल्योपम का होता है । उतरते आरे एक कोस का शरीर व एक पल्योपम का आयुष्य रह जाता है घट कर पांसलिये केवल १२८ रह जाती है व उतरते बारे ६४। मनुष्यों में वज्र ऋषभ नाराच संघयन व समचतुरंस संस्थान होता है इस आरे के मनुष्यों को आहार की इच्छा दो दिन के अन्तर से होती है तब शरीर प्रमाणे आहार करते हैं। पृथ्वी का स्वाद शफेरा जैसा रह जाता है व उतरते आरे गुड़ जैसा ।
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