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(४४६)
भोकडा संग्रह।
न्तरों के न्यायानुसार गुरु ने शिष्य को उपदेश द्वारा कह कर सुनाया । अन्त में कहने लगे कि जन्म होने के बाद भङ्गियानी के समान कार्य द्वारा माता संभाल से उछेर कर सन्तति को योग्य उम्र का कर देती है । सन्तति की श्राशा में माता का यौवन नष्ट हुवा है, व्यवहारिक सुख को तिलांजलि दी गई है । एवं सर्व बातों को तथा गर्भवास व जन्म के दुखों को भूल कर यौवन मद में उन्मत्त बने हुवे पुत्र पुत्रिय महा उपकारी माता को तिरस्कार दृष्टि से धिक्कार देकर अनादर करते और स्वयं वस्त्रालङ्कार से सुशोभित होते हैं । तेल फुलेल, चोवा, चंदन, चंपा, चमेली, अगर, तगर, अमर और अतर आदि में मस्त होकर फूल हार व गजरे धारण करते हैं। इनकी सुगन्ध के अभिमान से अन्धे बन कर ऐसा समझते हैं कि यह सर्व सुगन्ध मेरे शरीर से निकल कर बाहर आरही है । इस प्रकार की शोभा व सुगन्ध माता पिता आदि किसी के भी शरीर (चमड़े ) में नहीं है । इस प्रकार के मिथ्याभिमान की आन्धी में पड़े हुवे बेभान अज्ञान प्राणियों को गर्भवास के तथा नरक निगोद के अनन्त दुख पुनः तैयार हैं । इतना तो सिद्ध है कि ये सब बिकार पापी माता की मूर्खता के स्वभाव का तथा कम भाग्य के उत्पन्न होने वाले पापी गर्भ के वक्र कर्मों का परिणाम है ।
अब दूसरी तरफ विवेकी और धर्मात्मा व शियल
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