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थोकडा संग्रह।
रुप है । और पाउगसा मीससा और वीससा पुद्गल ये पयेव करके जैसे स्वभाव में हैं वैसे स्वभाव में नहीं रहते हैं अतः अशाश्वत है। इस लिये अपनी आत्मा को अपने कार्य का साधक व शाश्वत जानकर अपनी आत्मा का साधन करे ।
२ श्रणाच्चाणुप्पहा-रुपी पुद्गल की अनेक प्रकार से यतन करने पर भी ये अनित्य हैं । नित्य केवल एक श्री जैन धर्म परम सुख दायक है । अपनी आत्मा को नित्य जान कर समकितादिक संवर द्वारा पुष्ट करे । यह - दूसरी अणुप्पेहा है। .. ३ असरणाणुप्पेहा-इस भव के अन्दर व पर लोक में जाते हुवे जीव को एक समाकेत पूर्वक जैन धर्म विना जन्म जरा मरण के दुःख दूर करने में अन्य कोई शरण समर्थ नहीं ऐसा जान कर श्री जैन धर्म का शरण लेना चाहिये जिससे परम सुख की प्राप्ति होवे यह तीसरी अणुप्पेहा है।
४ संसाराणुप्पेहा-स्वार्थ रुप संसार समुद्र के अन्दर जन्म जरा मरण संयोग वियोग शारीरिक मानसिक दुख, कषाय मिथ्यात्व, तृष्णारूप अनेक जल कल्लोलादिक की लहरों से चार गति चोवीश दण्डक के अन्दर परिभ्रमण करते हुवे जीव को श्री जैन धर्म रुप द्वीप का अाधार है और संयम रुप नाव को शुद्ध समकित रूप निर्जामक नाविक (नाव चलाने वाला) है ऐमी नावों के
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