Book Title: Jainagama Thoak Sangraha
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 711
________________ भाषा-पद। ( ६६६) लोक के अन्त भाग तक चले जाते हैं, जो अभेदाते पुद्गल निकलें तो संख्यात योजन जाकर [विध्वंसी] लय पा जाते हैं। (११) भाषा के भेदाते पुद्गल निकलें । वो ५ प्रकार से (१( खण्डा भेद-पत्यर, लोहा, काष्ट आदि के टुकड़े बत् (२) परतर भेद-अवरख के पुडवत् (३) चूर्ण भेदधान्य कठोल वत् (४) अगुतड़िया भेद-तालाब की सूखी मिट्टी यत् (५) उक्करिया भेद-कठोल आदि की फलीयां फटने के समान इन पांचों का अल्प बहुत्व-सर्व से कम उकुकरिया, उनसे अणतडिया अनन्त गुणा, उनसे चूर्णिय अनन्त गुणा, उनसे परतर अनन्त गुणा, उनसे खण्डाभेद भेदाते पुद्गल अनन्त गुणा । (१२) भाषा पुद्गल की स्थिति ज० अं० मु० की (१३) भाषक का आन्तरा ज० अं० मु०; अनन्त काल का (वनस्पति में जाने पर)। (१४) भ पा पुदल काया योग से ग्रहण किये जाते हैं। (१५) भाषा पुद्गल वचन योग से छोड़े जाते हैं । (१६) कारण-मोह और अन्तराय कर्म के क्षयोपशम और वचन योग से सत्य और व्यवहार भाषा बोली जाती है । ज्ञानावरण और मोहकर्म के उदय से और वचन योग से प्रसत्य और मिश्र भाषा बोली जाती है। केवली सत्य और व्यवहार भाषा ही बोलते हैं । उनके चार पातिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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