________________
धर्म ध्यान ।
(४७६)
नीच कुल, दरिद्री भतार को स्त्री रुप में, अलक्ष रुप दुर्भागिणी पन और नट पने प्रवर्त हुवा । तोभी मनुष्य पने स्त्री पुरुष के अवतार पूरे नहीं हुवे । तिर्यंच पंचन्द्रिय जलचरादि के अन्दर स्त्री वेद से प्रवर्त हुवा । वो जीव सात नरक में, पांच एकेन्द्रिय में, तीन विकलन्द्रिय तथा असंज्ञी तिर्यच मनुष्य के अन्दर नियमा नपुसंक वेद से तथा संज्ञी तिर्यच मनुष्य के अन्दर भी जीव नपुसंक वेद से प्रवत हुवा परमार्थ लागठ स्त्री वेद से प्रवर्त हुवा। उत्कृष्ट ११० पल्य और पृथक पूर्व क्रोड़ तक स्त्री वेद में खेला जधन्य आयुष्य भोगने के आश्री अन्त मुहूर्त. पुरुष वेद में उत्कृष्ट पृथक् सो सागर जाजेरा तक खेला। जघन्य अायुष्य भोगने के आश्री अन्तमुहूत, नपुंसक वंद उत्कृष्ट अनन्त काल चक्र अंसख्यात इल परार्वतन तक खेला । जहां गया वहां अकेला पगल के संयोग से अनेक रुप परावर्तन किये । यह सब रुप व्यवहार नय से जानना। इस प्रकार के परिभ्रमण को मिटाने वाले श्री जैन धर्म के अन्दर शुद्ध श्रद्धा सहित शुद्ध उद्यम पराक्रम करे तब ही आत्मा का साधन होवे व इस समय आत्मा के सिद्ध पद की प्राप्ति होती है । इसमें निश्चय नय से एक ही
आत्मा जानना चाहिये । जब शुद्ध व्यवहार में प्रवत हो कर अशुद्ध व्यवहार को दूर करे तब सिद्ध गति प्राप्त होती है । इस प्रकार की मेरी एक आत्मा है । अपर परिवार स्वार्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org