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थोकडा संग्रह।
छी) परुपना है । अधिक परुपना-एक जीव सर्व लोक ब्रह्माण्ड मात्र में व्याप रहा है ऐसी एरुपना अधिक परुपना है । यह आत्मा पांच भूतों से उत्पन्न हुई है व इसके नष्ट होने पर जीव भी नष्ट होता है पांच भूत जड़ है इनसे चैतन्य उपजे व नष्ट होवे ऐसी परुपना विपरीत सर्दहे, परुपे फरस उसे मिथ्यात्व कहते हैं। जैन मार्ग से आत्मा अकृत्रिम [स्वभाविक ] अखण्ड अविनाशी व नित्य है सारे शरीर में व्यापक है तिवारे । तर गौतम स्वामी वंदना करके श्री भगवंत को पूछने लगे " स्वामीनाथ ? मिथ्यात्वी जीव को किन गुणों की प्राप्ति होवे ? तब श्री महावीर स्वामी ने जवाब दिया कि यह जीव रूपी दड़ी (गेंद) कम रूपी डंडे (गुटाटी) से ४ गति २४ दण्डक ८४ लाख जीवयोनि में वारं वार परिभ्रमण करता रहता है परन्तु संसार का पार अभी तक पाया नहीं।
दूसरे गुण स्थानक का लक्षणः-जिस प्रकार (जैसे ) कोई पुरुष खिर खाएड का भोजन करके फिर वमन करे उस समय कोई पुरुष उससे पूछे “कि भाई खीर खाएड का कैसा स्वाद है ?" उस समय उसने उत्तर दिया " थोड़ा सा स्वाद है" इस प्रकार भोजन के (स्वाद ) समान समकित व वमन के (स्वाद के ) समान मिथ्यात्व।
दूसरा दृष्टान्तः-जैसे घंटे का नाद प्रथम गेहर
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