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पांच ज्ञान का विवेचन ।
(२६१)
(५) सत्यक, श्रुत-अरिहन्त, तीर्थकर, केवल ज्ञानी केवल दर्शनी, द्वादश गुण सहित, अट्ठारह दोष गहेत, चौतीश अतिशय प्रमुख अनन्त गुण के धारक, इन से प्ररूपित बाहर अंग अर्थ रूप अगम तथा गणधर पुरुषों से गुंथित श्रुत रूप (मूल रूप) बारह आगम तथा चौदह पूर्व धारी, तेरः पूर्व धारी बारह पूर्व धारी व दश पूर्व थारी जो श्रृत तथा अर्थ रूप वाणी का प्रकाश किया है वो सम्यक श्रुत, दश पूर्व से न्यून ज्ञान धारी द्वारा प्रकाशित किये हुवे आगन मश्रुत व मिथ्यः श्रुत होते हैं।
(६) मिथ्या श्रुतः- पूर्वोक्त गुण रहित, रागद्वेष सहित पुरुषों के द्वारा स्वमति अनुसार कल्पना करके मिथ्यात्व दृष्टि से रचे हुवे ग्रंथ-जैसे भारत, रामायण, वैद्यक, ज्योतिष तथा २६ जाति के पाप शास्त्र प्रमुख-मिथ्याश्रुत कहलाते हैं । ये मिथ्याश्रत मिथ्या दृष्टि को मिथ्या श्रुत पने परिणमे ( सत्य मान कर पढ इस लिये ) परन्तु जो सम्यक् श्रुत का संपर्क होने से झंठे जान कर छोड़ देवे तो सम्यक् श्रुत पने परिण मे इस मिथ्याश्रुन सम्यक्त्ववान पुरुष को सम्यक बुद्धि से वांचते हुवे सम्यवत्व रस से पारणमें तो बुद्धि का प्रभाव जान कर आचारांगादिक सम्यक् शास्त्र भी सम्यक् वान पुरुष को सम्यक हो कर परिण मते हैं और मिथ्या दृष्टि पुरुष को वे ही शास्त्र मिथ्यात्व पने परिणमते हैं।
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