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गर्भ विवार।
(४३३ )
प्राप्ति के निमित्त काम नहीं अासक्ता एक ग्रन्थ कार कहते हैं कि सूक्ष्म रीति से सोलह दिन पर्यन्त ऋतुस्राव होता है। यह रोगी स्त्री के नहीं परन्तु निरोगी स्त्री के शरीर में होता है। और यह प्रजाप्राप्ति के योग्य कहा जाता है ।
उक्त दिनों में से प्रथम तीन दिनों का ग्रन्थ कार निषेध करते हैं। यह नीति मार्ग का न्याय है और इस न्याय को पुण्यात्मा जीव स्वीकार करते हैं। अन्य मतानुमार . चार दिन का निषध है। क्योंकि चौथे दिन को उत्पन्न होने वाला जीव अल्प समय तक ही जीवन धारण कर सक्ता है। ऐसा जीव शक्ति हीन होता है व माता पिता को भार रूप होता है। पांचवें से सोलहवें दिन तक नीति शास्त्रानुसार गर्भाधारण संस्कार के उपयुक्त माने जाते हैं। पश्चात् एक के बाद एक (दिन ) का बालक उत्तरोत्तर तेजस्वी बलवान्, रूपवान, बुद्धिवान, और अन्य सर्व संस्कारों में श्रेष्ट दीघयुष्य वाला तथा कुटुम्ब पालक निवड़ता है ( होता है ) इनमें से छठी, आठवीं, दशवी, बारहवीं, चौदहवीं एवं सम (बेकी की ) रात्रि विशेष करके पुत्री रूप फल देती है । इस में विशेषता यह है कि पांचवीं रात्रि को उत्पन्न होने वाली पुत्री कालान्तर में अनेक पुत्रियों की माता बनती है । पांचवीं, सातवीं, नववीं, इग्यारहवीं, तेरहवीं, पन्द्रहवीं एवं विषम (एकी की) रात्रि का बीज पुत्र रूप में उत्पन्न होता है और वो ऊपर
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