________________
गर्भ विचार।
(४४३)
अतः सुकड़ कर के आम के समान अधो मुख करके रहना पड़ता है। इस समय मस्तक छाती पर लगा हुवा और दोनों हाथों की मुठिये आँखों के बाड़े दी हुई होती है। कर्म योग से दूसरा व तीसरा गर्भ यदि एक साथ होवे तो उस समय की संकड़ाई व पीड़ा वर्णनातीत है। माता की विष्टा ( मल ) गर्भ के नाक पर से होकर गिरती है । खराब से खराब गन्दगी में पड़ाहुवा होता है । बैठी हुई माता खड़ी होवे तो उस समय गर्भ को ऐसा मालूम होता है कि मैं
आसमान में फेंका जा रहा हूं नीचे बैठते समय ऐसा मालूम होता है कि मैं पाताल में गिराया जा रहा हूं चलती समय ऐसा जान पड़ता है कि मसक में भरे हुवे दहीके समान डोलाया जा रहा हूं रसोई करने के समय गर्भ को ऐसा मालूम होता है कि मैं इंट की भट्टी में गल रहा हूं। चक्की के पास पीसने के लिये बैठने पर गर्भ जाने कि मैं कुम्हार के चाक पर चढाया जा रहा हूँ। माता चित्ती सोवे तब गर्भ को मालूम हो कि मेरी छाती पर सवा मन की शिला पड़ी हुई है। मैथुन करने के समय गर्भ को ऊखल मूसल का न्याय है । इस प्रकार माता पिता के द्वारा पहुं वाये हुवे तथा गर्भ स्थान के एवं दो प्रकार के दुखों से पीडित, कुटाये हुवे खएडाये हुवे और अशुचि से तर बने हुवे इस गर्भ की दया शीलवान माता पिता बिना कौन देख सके? अर्थात् पापी स्त्री पुरुष ( विधि गर्भ से अज्ञात ) देख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org