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छः पारों का वर्णन।
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इस बारे में वनऋषभ नाराच संघयन व समचतुरंस्त्र संस्थान होता है। श्री में ६४ पांसलिये होती हैं व उतरते ओरे केवल ३२ पांसलिये रह जाती है । इस ारे में मनुष्यों को आहार की इच्छा एक दिन के अन्तर से होती है तब शरीर प्रशने आहार करते हैं । पथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा रहजाता है तथा उतरते ओरे कुछ ठीक । इस बारे में दश प्रकार के कल्पवृक्ष दश प्रकार का मनो वांछित सुख देते हैं मृत्यु के जब छ महिने शेष रहनाते है तब युगलिये परभव का आयुष्य बांधते हैं व उस समय युगलनी एक पुत्र व पुत्री का प्रसव करती है। बच्चे बच्ची का ७६ दिन पालन किये बाद वे ( पुत्र पुत्री ) दम्पती बन सुखोपभोग करते हुवे विचरते हैं और उनके माता पिता एक को छींक और दूसरे को उबासी आते ही मरकर देव गति में जाते हैं क्षेत्राधिष्टित देव इनके मृतक शरीर को क्षीर सागर में डाल कर मृतक क्रिया करते हैं । गति एक देव की।
इन तीन आरों में युगलियों का केवल युगल धर्म रहता है । जिसमें वैर नहीं, ईर्ष्या नहीं, जरा नहीं, रोग नहीं, कुरुप नहीं, परिपूर्ण अङ्ग उपाङ्ग पाकर सुख भोगते हैं ये सब पूर्व भव के दान पुन्यादि सत्कर्म का फल जानना।
॥ इति युगलिया धर्म सम्पूर्ण ।
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