________________
१२
जैनसाहित्य और इतिहास
शाली आचार्य हुए, इस लिए, उनका एक नाम ही कोण्डकुंद या कुन्दकुन्द हो गया, जैसे तुम्बलूर ग्रामके तुम्बलूराचार्य । पर उनसे भी पहले कौण्डकुंदान्वय नहीं था, यह नहीं कहा जा सकता । अतएव मर्कराके दानपत्रसे पद्मनन्दिको यतिवृषभके परवर्ती मानने में कोई बाधा नहीं पड़ सकती।
परन्तु इसपर डाक्टर ए० एन० उपाध्ये अपने पत्र ( २३-६-४१ ) में लिखते हैं कि “ सत्कर्मप्राभृत ( षट्खंडागम ) और कषायप्राभृत ये दोनों दो स्वतन्त्र परम्पराओंके ग्रन्थ हैं । पहलीका सम्बन्ध धरसेनसे और दूसरीका गुणधरसे है । यतिवृषभने जो चूर्णि-टीका लिखी वह कषायप्राभृतपर और पद्मनन्दि या कुन्द कुन्दने जो परिकर्म-टीका लिखी वह षट्खंडागमके पहले तीन खंडोंपर । इन्द्र नन्दिने कहनेके सुभीतेकी दृष्टिसे ही आगे पीछे उन टोकाओंका कथन किया है
और १६० वें पद्यमें जो यह कहा है कि द्विविध सिद्धान्त गुरुपाटोसे कुण्डकुण्डपुरमें पद्मनन्दिको ज्ञात हुए, सो इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि पद्मनन्दि यतिवृषभके बाद हुए । क्योंकि दोनोंने एक ही ग्रन्थपर टीकायें नहीं लिखीं, पृथक्ग्रन्थोंपर लिखी हैं । पद्मनन्दिको जो दोनों सिद्धान्तोंका ज्ञान हुआ, सो उसमें यतिवृषभकी चूर्णिका भी अन्तर्भाव हो जाता है, ऐसा कोई उल्लेख नहीं है।" पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारकी भी लगभग यही राय है ।
इसपर मेरा वक्तव्य यह है कि पद्मनन्दिको दोनों सिद्धान्तोंका जो ज्ञान हुआ उसमें यतिवृषभकी चूर्णिका अन्तर्भाव भले ही न हो, परन्तु इस बातका स्पष्ट उल्लेख है कि गुणधर आचार्यका दूसरा कषायप्राभूत सिद्धान्त उन्हें गुरुपरिपाटीसे प्राप्त हुआ, और उस कषायप्राभृतके कर्ता गुणधर आचार्यके और यतिवृषभके समयमें अधिकसे अधिक २०-२५ वर्षका ही अन्तर होगा। क्योंकि इन्द्रनन्दिके कथनानुसार गुणधर मुनिने वर्तमानके लोगोंकी शक्तिका विचार करके कषायप्राभृत ( प्रायोदोषप्राभृत) १८३ मूल सूत्र-गाथाओं और ५३ विवरण-गाथाओंमें बनाया और फिर १५ महा अधिकारों में विभाजित करके श्रीनागहस्ति और आर्यमा
१ एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुण्डपुरे ॥१६०