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लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति
लोक - विभागं नामके परमागम में देखना चाहिए ।
यदि यह लोकविभाग परमागम पूर्वोक्त सर्वनन्दिका ही लोक-विभाग है, तो इससे भी नियमसारके कर्त्ता कुन्दकुन्दका समय श० सं० ३८० के बाद सिद्ध होता है और इससे इन्द्रनन्दिके अभिप्रायकी पुष्टि हो जाती है कि कुन्दकुन्द ( पद्मनन्दि ) यतिवृषभ समकालीन टीकाकर्त्ता हैं ।
इस समयके माननेमें सबसे बड़ी बाधा यह है कि मर्करा ( कुर्ग ) के शिलालेखमें जो श०सं० ३८८ का लिखा हुआ है, चन्द्रनन्दि भट्टारक के पूर्व के पाँच गुरुओं का उल्लेख है और उन्हें कोण्डकुन्दान्वयका बतलाया है । यदि पाँच गुरुओं का समय सौ वर्ष ही मान लिया जाय और पहले गुरु गुणचन्द्रसे एक ही पीढ़ी पहले कुन्दकुन्दको माना जाय, तो फिर श० सं० २६८ के लगभग के ही वे ठहरते हैं और तब उनका यतिवृषभ के बाद मानना असंगत हो जाता है ।
पर इसका समाधान एक तरहसे हो सकता है और वह यह कि कौण्डकुन्दान्वयका अर्थ हमें कुन्दकुन्दकी वंश-परम्परा न करके कोण्डकुंदपुर नामक स्थान से निकली हुई परम्परा करना चाहिए। जैसे कि श्रीपुर स्थानकी परम्परा श्रीपुरान्वय, अरुंगलकी अरुंगलान्वय, कित्तूरकी कित्तूरान्वय, मथुराकी माथुरान्वय, आदि । अर्थात् जिस तरह पद्मनन्दि कोण्डकुंद के अन्वयके थे उसी तरह मर्कराके दानपत्र में बतलाये हुए मुनि भी कोण्डकुंदान्वयवाले हो सकते हैं, भले ही वे उनसे पहले हुए हों । चूँकि कोण्डकुंदपुरके अन्वय में पद्मनन्दि बहुत प्रसिद्ध और प्रभाव
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१ मूलमें ' लोकविभागेषु' शब्द बहुवचनान्त है, इसलिए यह आपत्ति की जाती है कि वहाँ लोकविभाग नामके किसी एक ग्रन्थकी नहीं किन्तु लोकविभागसम्बन्धी अनेक ग्रन्थाको देखनेकी प्रेरणा हैं । परन्तु एक तो टीकाकार पद्मप्रभ उससे लोक-विभाग नामक आगम इष्ट बतलाते हैं, दूसरे बहुवचनका प्रयोग इस लिए भी इष्ट हो सकता है कि लोक-विभागके अनेक विभागों या अध्यायों में उक्त मेद देखने चाहिए |
२ " ... श्रीमान् कोंगणिमहाराजाधिराज अविनीतनामधेयदत्तस्य देशी
गणं कौण्ड कुंदान्वय-गुणचन्द्र भटार ( प्र ) शिष्यस्य अभयनंदिभटार तस्य शिष्यस्य शीलभद्रभटारशिष्यस्य जनाणंदिभटार शिष्यस्य गुणणंदभटारशिष्यस्य चन्द्रणन्दि भटारर्गे अष्टअशीतित्रयोशतस्य संवत्सरस्य माघमासं...” - कुर्ग इन्स्क्रप्शन्स ( ए० क० ई० )
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