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लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति
यदि ये सब आचार्य लगातार हुए होते तो उनके समयका कुछ अनुमान हो सकता था, परन्तु कई जगह इनके बीच-बीचकी शृंखला टूटी हुई है,, इससे नहीं हो सकता । यदि यतिवृषभका उपर्युक्त काल श० सं० ४०० के लगभग अर्थात् वीर निर्वाण १००५ माना जाय तो फिर उक्त सब आचार्योंके अन्तराल-कालको ३२२ वर्ष (१००५-६८३3३२२) मानना होगा और यह कल्पनामें आ सकता है।
पद्मनन्दि और यतिवृषभ इस ग्रन्थके अन्तमें तीर्थकरोंके स्तवन-प्रसंगमें नीचे लिखी गाथा मिलती है
एस सुरासुरमणुसिंदवंदियं धोदधादिकम्ममलं ।
पणमामि वड्डमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ ७७ यही गाथा प्रवचनसारकी प्रारंभिक गाथा है। अब प्रश्न यह होता है कि वास्तवमें इस गाथाके मूल रचयिता कौन हैं ? तिलोयपण्णत्तिके कर्ती या प्रवचनसारके का?
प्रवचनसार ग्रन्थकी यह सबसे पहली गाथा है और ऐसे स्थानपर है कि जहाँसे अलग नहीं की जा सकती। इस गाथामें वर्द्धमान भगवानको नमस्कार करके आगेकी गाथामें 'सेसे पुण तित्थयरे' शेष तेईस तीर्थकरोंको नमस्कार है । पहली गाथाको अलग कर देनेसे दूसरी गाथा लटकती हुई रह जाती है । __ अब तिलोयपण्णत्तिमें इस गाथाकी अवस्थितिको देखिए । जो प्रति हमारे समक्ष है, उसमें २४ तीर्थंकरोंकी स्तुतिकी २४ गाथाओंका क्रम इस प्रकार रक्खा है कि पहलेके आठ अधिकारोंके प्रारंभ और अन्तमें एक एक तीर्थकरकी एक एक गाथा. द्वारा स्तुति की गई है। ये सब १६ गाथायें हो जाती हैं। अब रहे शेष आठ तीर्थकर
-कुन्थुनाथसे वर्द्धमान तक-सो उनकी आठ गाथायें ग्रन्थके अन्तमें देकर २४ की संख्या पूरी कर दी गई है और इन्हीं आठमेकी अन्तिम गाथा प्रवचनसारकी उक्त गाथा है । बहुत सम्भव है कि ये सब गाथायें मूल ग्रन्थकी न हों, पीछेसे किसीने जोड़ दी हों और उनमें प्रवचनसारकी उक्त गाथा आ गई हो ।
डा० ए० एन० उपाध्येने इस विषयमें मुझे अपने पत्र ( २३-६-४१ ) में लिखा है कि " तिलोयपण्णत्ति और कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें इस तरहके समान श्लोक ज्यादा मिलते हैं। मेरा मत यह है कि इस प्रकारके श्लोक एक दूसरेसे लिये हुए नहीं किन्तु परम्परागत मौखिक साहित्यसे प्राप्त किये हुए हैं और वे एकाधिक