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जैनसाहित्य और इतिहास
आचार्योंके ग्रन्थों में मिलते हैं । भगवती आराधना, मूलाचार, कुन्दकुन्दके ग्रन्थ, तिलोयपणत्ति आदि दिगम्बर ग्रन्थों में ही नहीं बल्कि श्वेताम्बर सम्प्रदायके नियुक्ति, प्रकीर्णक (पयण्णा) आदि ग्रन्थों में भी इस तरहके समान श्लोक हैं । इसी दृष्टिसे मैं उन श्लोकोंको परम्परागत कहता हूँ। जिस समय सब ग्रन्थ कण्ठस्थ रक्खे जाते थे उस समय ऐसा होना असम्भव नहीं।" ___ मैं इस बातको मानता हूँ; फिर भी यह प्रश्न रह जाता है कि क्या अपने स्वतंत्र ग्रन्थोंके मंगलाचरण या नमस्कारात्मक पद्य भी आचार्य स्वयं न बनाकर परम्परा. गत पद्योंमेंसे ले लेते होंगे ? सैद्धान्तिक पद्योंका ज्योंका त्यों उपयोग कर लेना तो समझमें आता है, पर मंगलाचरण-गाथाओंका लेना कुछ अद्भुत-सा लगता है। _ आचार्य कुन्दकुन्दका समय-निर्णय अभी तक ठीक ठीक नहीं हो सका है। परन्तु इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें जो कुछ लिखा है, उससे ऐसा मालूम होता है कि वे या तो यतिवृषभसे कुछ पीछे हुए हैं या लगभग एक ही समयके होंगे। क्योंकि यतिवृषभके बाद ही कुण्डकुण्डपुरमें पद्मनन्दि मुनिने षट्खण्डागमके पहले तीन खंडोंपर १२ हजार श्लोककी परिकर्म नामकी टीका लिखी थी। इस टीकाके उल्लेख भी धवला टीकामें कई जगह मिलते हैं । कुन्दकुन्दका ही दूसरा नाम पद्मनन्दि है और इसलिए परिकर्म-टीकाके कर्ता ही समयसार आदि ग्रन्थोंके कर्ता होंगे, ऐसा समझा जाता है। यदि यह ठीक है तो फिर कुन्दकुन्द यतिवृषभके ही समयके श० सं० ४०० के लगभगके हो जाते हैं। और इसकी पुष्टि कुन्दकुन्दके नियमसारकी सत्रहवीं गाथासे भी होती है जिसमें लोक-विभागका उल्लेख किया गया है
चउदहभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउब्भेदा।
एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥ इसपर पद्मप्रभ मलधारिदेवकी टीका है, " एतेषां चतुर्गतिजीवभेदानां विस्तारः लोकविभागाभिधानपरमागमे दृष्टव्यः” अर्थात् इन चतुर्गतिजीव-भेदोंका विस्तार
१ श्रुतावतारके १६०-६१ पद्य देखो। २ त्ति परियम्मे बुत्तं-धवला अ० १४१
ण च परियम्मेण सह विरोहो-धवला अ० २०३ आदि ।