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सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । तब कोष्ठ मध्य हाताहै । इनके विशेष लक्षण | अर्थ-इन तीनों दोषोंमें वायु रूक्ष, लघु
आगे वमनविरेचन विधिमें वर्णन कियेजांयगे। ( हलका ) ठंडा, कठोर, सूक्ष्म ( छोटे से - प्रकृतिका स्वरूप । । छोटे छिद्रोंमें प्रवेश करनेवाला,) चल ( एक शुकार्तवस्थैर्जन्मादौ विषेणेवविषाक्रिमेः।९।। स्थानसे दूसरे स्थानमें गमनशील है ) योगवा तैश्चतिस्रः प्रकृतयोहीनमध्योत्तमाःपृथक् । ही होने पर भी दोनों कामकरती है कहा है समधातुः समस्तासु श्रेष्टा निंद्या द्विदो- “ योगवाहः परंवायुः संयोगादुभयार्थकृत । षजाः ॥१०॥
दाहकृत्तेजसा युक्तः शीतकृत्सोमसंश्रयात् ,, अर्थ-जन्मसे पहिले गर्भाधानकालमें पि- वायुका स्वभाव शीतलहै इसलिये दाहोदय ताके वीर्यकी दो तीन बूंदोंसे माताके आर्तव | होने पर भी अपने शीतल गुणको नहीं त्या( रजोधर्म संबंधीरक्त ) की दो तीन बूंदोंके गतीहै और उष्ण उपचारसे उष्ण न होकर संयोगकालमें वातादिक तीनों दोष रहतेहैं पर शांत होजातीहै। वे गर्भका नाश नहीं करतेहैं जैसे विषसे उत्प- पित्त-कुछ चिकनाई लिये होताहै, तीक्ष्ण न्न हुए कीडेको विष नहीं मारताहै और वे ( सुईकीतरह भेदनकरनेवाला तेज, ) गर्म, तीनों दोष गर्भकी प्रकृतिको अपने अपने | हलका, विस्त्र (मत्स्यमांसके सदृश दुर्गन्धित ) अनुसार करलेतेहैं । जब वीर्य और रुधिरमें सर ( ऊपर नीचे गमनशील ) और पतलाहै । वायुकी अधिकता होतीहै तब प्राणी की हीन कफ-चिकना, शीतल, भारी, मन्द ( देर प्रकति. पित्तकी अधिकतासे मध्यप्रकृति, और में कार्यकरनेवाला, ) श्लक्ष्ण ( ल्हसदार ) कफकी अधिकतासे उत्तम प्रकृति होतीहै । मृत्स्न ( उंगलीसे चिपटनेवाला पिच्छिलगुण तथा गर्भाधानके समय जो वीर्य और रुधिरमें युक्त ) और स्थिर होताहै । इन तीनों दोषों तीनों दोष समानहों तो समप्रकृति होतीहै । | में से दो दो दोष अपने प्रमाण से बढकर वा इन सब प्रकृतियोंमें समप्रकृति सबसे उत्तम घटकर मिलें तो इनके मिलने को संसर्ग कहते होतीहै परन्तु वातपित्त, वातकफ और कफ- हैं और जो तीनों दोष अपने प्रमाण से न्यून पित्त इन दो दो दोषोंसे उत्पन्न हुई प्रकृति | वा अधिक होकर मिलेंतो सन्निपात कहलाताहै। निन्दित होतीहै क्योंकि ऐसी प्रकृतिवाले शरीर | धातुओं का वर्णन । रोगादि उपद्रवों के स्थान बने रहतेहैं। रसासभासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणिधा
वातादि दोषों के गुण । तवः । सप्त दूष्याः -- तत्रलक्षोलघुःशीत खरःमूक्ष्मश्चलोऽनिलः। अर्थ-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, पिसंसस्नेहतीक्ष्णोष्णंलघुवित्रंसरंद्रवम्११ मज्जा और वीर्य इन सातों की धातु संज्ञा है स्निधः शीतो गुरुमंदः श्लक्ष्णो मृत्स्नः । क्योंकि ये शरीरको धारण करतीहै और वातास्थिरः कफः । संसर्गः सभिपातश्च तद्वि- दिकदोष इनको दूषित कर देतेहैं इसलिये इन त्रिक्षयकोपतः॥१२॥
को दूष्य भी कहते हैं । याद रखने की बात
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