Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ॐ नमो वीतरागाय श्रीमत्-श्यामार्य-वाचक-विरचित चतुर्थ उपांग पण्णवरणा सुत्तं : प्रज्ञापनासूत्र विषय-परिचय प्रज्ञापना जैन आगम वाङमय का चतुर्थ उपांग एवं अंगबाह्यश्रुत है। इसमें 36 पद हैं / उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है--- प्रज्ञापना का प्रथम पद 'प्रज्ञापना' है। इस पद में सर्वप्रथम प्रज्ञापना के दो भेद बतला कर अजीव-प्रज्ञापना का सर्वप्रथम निरूपण किया है, तदनन्तर जीव-प्रज्ञापना का। अजीव-प्रज्ञापना में प्ररूपी अजीव और रूपी अजीव के भेद-प्रभेद बताए हैं। जीव-प्रज्ञापना में जीव के दो भेद संसारी और सिद्ध बताकर सिद्धों के 15 प्रकार और समय की अपेक्षा से भेद बताए हैं / फिर संसारी जीवों के भेद-प्रभेद बताए हैं / इन्द्रियों के क्रम के अनुसार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक में सब संसारी जीवों का समावेश करके निरूपण किया है / यहाँ जीव के भेदों का नियामक तत्त्व इन्द्रियों की क्रमश: वृद्धि है। दूसरे स्थानपद में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नैरयिक, तिर्यंच, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक और सिद्ध जीवों के वासस्थान का वर्णन किया गया है / जीवों के निवासस्थान दो प्रकार के हैं--(१) जीव जहाँ जन्म लेकर मरणपर्यन्त रहता है, वह स्वस्थान और (2) प्रासंगिक वासस्थान (उपपात और समुद्धात)। ततीय अल्पबहुत्वपद है। इसमें दिशा, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, पाहार, भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव, अस्तिकाय, चरम, जीव, क्षेत्र, बन्ध, पुद्गल और महादण्डक, इन 27 द्वारों की अपेक्षा से जीवों के अल्प. बहुत्व का विचार किया गया है। * चतुर्थ स्थितिपद में नैरयिक, भवनवासी, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वि-त्रि-चतुः-पंचेन्द्रिय, मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक जीवों की स्थिति का वर्णन है / पंचम विशेषपद या पर्यायपद में चौबीस दण्डकों के क्रम से प्रथम जीवों के नेरयिक आदि विभिन्न भेद-प्रभेदों को लेकर वैमानिक देवों तक के पर्यायों की विचारणा की गई है / तत्पश्चात् अजोवपर्याय के भेद-प्रभेद तथा अरूपी अजीव एवं रूपी अजीव के भेद-प्रभेदों की अपेक्षा से पर्यायों की संख्या की विचारणा की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org