Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती सूत्रे
अहो ? खलु भगवन् ! ईशानो देवेन्द्रः, देवराजो महर्द्धिकः, ईशानस्य भगवन् सा दिव्या देवर्द्धिः कुत्र गता, कुत्र अनुप्रविष्टा ? गौतम ! शरीरं गता, तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - शरीरं गता० ? गौतम ! तद्यथा नाम कूटाकार शरीरमनुप्रविष्टा शाला स्याद् द्विधा लिप्ता, गुप्ता, गुप्तद्वारा निर्वाता निर्वातगम्भीरा, तस्याः कूटाकारशालाया दृष्टान्तो भणितव्यः ॥ सू० १७ ॥ प्रकार पूछा - ( अहो णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया महिडीए ) हे भदन्त ! देवेन्द्र देवराज ईशान बड़ी भारी ऋद्धिवाला है (ईसाणस्स णं भंते! मा दिव्वा देविड्डी कहिं गया कहिं अणुपविट्ठा) हे भदन्त ! ईशानेन्द्रकी वह दिव्य देवर्द्धि कहां गई और कहां समागई हैं ? ( गोयमा ! सरीरं गया) हे गौतम ! ईशानेन्द्रकी वह दिव्य देवर्द्धि शरीरमें समा गई है । ( से केणटुणं एवं बुच्चइ - सरीरं गया ) हे भदंत ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि वह ईशानेन्द्रकी दिव्य देवर्द्धि उसके शरीर में समागई है ? (गोयमा ! से जहा नामए कूडागारसालासिया, दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा, णियाया शिवाय गंभीरा, तीसेणं कूडागारसालाए दितो भाणियो) हे गौतम ! जैसे कोइ एक कूटाकारशाला - शिखर के आकार जैसा- घर हो, और वह दोनों और से लिपा हुआ हो, गुप्त हो, गुप्त दरवाजेवाला हो, हवा उसमें न जाती हो, ऐसा वह हवा बिना का हो ऐसा कूटाकारशालाका दृष्टांत कहना चाहिये ।
प्रश्न पूछयो- (अहोणं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया महिड़ीए) के महन्त ! देवशन, हेवेन्द्र ईशान माटसी अधी महान ऋद्धिवाणी छे ! (ईसाणस्स णं भूते सा दिव्वा देवी कहिं गया कहिं अणुपविट्ठा ?) डे लहन्त ! घशानेन्द्रनी ते महान देवद्धि (हेव समृद्धि) ज्यां गर्छ, अयां समाई गा ? (गोयमा ! सरीरं गया !) डे गौतम! तेनी ते देवद्धि तेना शरीरमा ४ समा गई. ( से केणद्वेणं एवं बुच्चइ सरीरं गया ? ) હે ભદન્ત! આપ શા કારણે એવું કહેા છે કે ઈશાનેન્દ્રની વ્યિ દેવદ્ધિ તેના શરીરसंभाग छे ? (गोयमा ! से जहा नामए कूडागारसाला सिया, दुहओ लना गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा, तीसेणं कूडागारसालाए दितो भाणियच्चो) हे गौतम ! धारो भे टाअरशासा ( शिमरना भाभरनुं ઘર) છે. તે બન્ને તરફથી લીંપેલી હાય, ગુપ્ત હાય, ગુપ્ત દ્વારવાળી હાય, તેમાં હવા જઈ શકતી ન હોય. એવી હવા વિનાની કૂટાકારશાલાનું દૃષ્ટાંત આપવાથી આ વાત
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સમજાવી શકાય.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩