Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३३.२ सू. २ असुरकुमारदेवानामुत्पतिक्रियानिरूपणम् ३५१ रणविहरणपूर्वक निवर्तनं संग्राह्यम् । भगवनाह ' गोयमा ' ! इत्यादि । हे गौतम ! ' अणताहि ' अनन्ताभिः नास्ति अन्तो यासां ताभिः 4 उस्सप्पिणीहि ' उत्सर्पिणीभिः दशकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणावरोहकालविशेष लक्षणाभिः ' अणंताहिं ' अनन्ताभिः ' अवसप्पणीहिं' अवसर्पिणीभिः, दशकोटाकोटिसागमप्रमाणावरोहकालविशेषस्वरूपाभिः 'समतिक्क ताहिं ' समतिक्रान्ताभिः व्यतीताभिः, अर्थात् अनन्तोत्सर्पिणी - अनन्तावसर्पिणीनामककालव्यतीतानन्तरं यदा असुरकुमार देवानामूर्ध्व लोकोत्पतनं भवति तदा 'अत्थ णं' अस्ति खलु भवति तावत् 'एसभावे' एष भावः वृत्तान्तः ' लोयच्छेरयभूए ' सौधर्म स्वर्गतक जाते हैं पहिले वहीं तक गये हैं और आगे भी वहीं तक जावेगे सो आप हमे यह और समझा देनेकी दया करे कि वे असुरकुमारदेव यावत् सौधर्म स्वर्गतक कितने काल के बाद जाते हैं ? यहां जो यावत शब्द दिया है, उससे "पूर्वभवप्रत्ययिक वैरानुबंध और इसके निमित्त से वैक्रियशरीरका निर्माण, वैमानिक देवों को त्रास पहुँचाना, उनके यथोचित अल्पभारवाले बहुमूल्य रत्नोंको चुराना, चुराकर एकान्त प्रदेशमें ले जाना और फिर वहां से अपने स्थान पर लौट आना" यह सब पूर्वोक्त पाठ ग्रहण किया गया हैं । इस गौतमके प्रश्न का समाधान देनेके निमित्त प्रभु उनसे कहते है कि-'गोयमा ! ' हे गौतम ! जब 'अणताहि उस प्पिणीहिं' अनंत उत्सर्पिणी काल व्यतीत हो जाते है- अर्थात् १० - कोडाकोंडी सागरोपमका एक उत्सर्पिणी काल होता है-ऐसे काल जब अनंत हैं व्यतीत हो जाते है, ऐसे उत्सर्पिणीकाल एक, दो, तीन आदि संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं किन्तु अनंत जब समाप्त हो चुकते है, ओर ईसी तरह 'अनंताहिं अवसप्पिणीहिं' १० कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण अवसर्पिणीकाल भी जब अनन्त 'समति આગલા પ્રકરણમાં આવતા નીચેના ભાવાર્થ ગ્રહણ કરવાના છે—પૂર્વભવ પ્રત્યયિક વૈરાનુખ ધ–તે કારણે વૈક્રિય શરીરનું નિર્માણુ–વૈમાનિક દેવેશને ત્રાસ હલકાં વજનના બહુમૂલ્ય રત્નાને ચારીને એકાન્ત પ્રદેશમાં ગમન—ત્યાંથી પોતાને સ્થાને આગમન. આ થન અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યુ છે. હવે ગૌતમના પ્રશ્નને જે જવામ મહાવીર अलु आये छे ते नाथे दृर्शाव्यो छे " गोयमा !" हे गौतम ! " अणंताहिं उस्सप्पिणी हिं अणताहि अवसप्पिणीहिं समतिकंताहिं " न्यारे अनंत उत्सर्चिशी अण
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩