Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे हे गौतम ! ' चत्तारि' चतस्रः 'चउसट्टीओ' चतुष्षष्टयः 'आयरक्खदेव साहस्सीओ' आत्मरक्षकदेवसाहस्थ्यः चतुष्षष्टिसहस्राणि चत्वारि - चतु गुणितानीत्यर्थः षट्पञ्चाशत्सहस्राधिकद्विलक्षसंख्यका (२,५६०००) चमरस्यात्मरक्षकदेवा वर्तन्ते, ' तेणं आयरक्खा' ते खलु आत्मरक्षकाः 'वण्णओ' वर्णकः अधस्तनवर्णनानुसारं विज्ञेयाः 'सनद्ध-बद्ध-वर्मितकवचाः, उत्पीडितशरासनपट्टिकाः, पिनद्धौवेयकाः, बद्धाबद्ध - विमलवरचिह्नपट्टाः, गृहीतायुधप्रहरणाः, त्रिनतानि, त्रिसन्धितानि वज्रमयकोटीनि धनूषि अभिगृह्य, हजार आत्मरक्षकदेव कहे गये हैं ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम! 'चत्तारिचउसट्टीओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' चमरके आत्मरक्षक देव चार चौसठ हजार
को चारगुणा करने पर दो लाख ५६ हजार होते हैं । 'तेणं आयरक्खावण्णओ' उन आत्मरक्षकों का वर्णन कर लेना चाहिये-जो इस प्रकार से है-'सनद्ध-बद्धवर्मितकवचाः जिन्होंने अपने शरीर ऊपर कवच को अच्छी तरहसे बांधा है, उत्पीडितशरामनपट्टिकाः' अपने २ धनुष के ऊपर प्रत्यंचा को आरोपित करके जिन्होंने उसे अच्छी तरह से तैयार कर रखा है 'पिनद्धग्रेवेयकाः' गले में जिन्होंने हारको पहिना है, 'बद्ध-आबद्ध- विमलवरचिन्ह पट्टाः' सुवर्णका बना हुआ वीरता का सूचक विमल, उत्तम चिह्न जिन्होंने अपने मस्तक पर धारण किया है, 'गहियाउहपहरणा' आयुध और प्रहरणोंको जिन्होंने अपने२ हाथों में ले रखा है, 'त्रिनतानि, त्रिसन्धितानि, वज्रमयकोटीनि प्रमाणे ४१५ मापे छ-'गोयमा !' गौतम ! ' चत्तारि चउसट्ठीओ आयरकावदेवसाहस्सीओं पण्णत्ताओ' मसुरेन्द्र, मसु२२।०४ यमरना यात्मरक्ष हे यार यास १२ प्रमाण छ. मेट ६४००० ४ ४-२५६००० मात्मरक्ष हेवी छ. 'तेणं आयरक्खावण्णओ' ते माम२६४ हेवानुं वन २ नसे. ते पान नीय प्रमाणे छ-' सन्नद्ध-बद्धवमितकवचा' भो पाताना शरी२ ५२ ५.२ धा२९५ ध्यु छ, 'उत्पीडितशरासनपटिका भणे पात पानां धनु। ५२ प्रत्यया यावीने तीशने सरासर तैयार राज्य छ, 'पिनद्ध ग्रैवेयकामा तेमना गाभा २ पर्या छ, 'बद्ध-आबद्ध-विमलवरचिन्ह पट्टाः सुना मनेal, वीरतासूय विभ, उत्तम चिह्न भो भस्त४ ५२ पा२१ ४ छ, 'गहियाउह पहरणा' भए आयुध भने शस्त्रास्त्राने पोत पाता यम धा२९५ ४२ai छ, 'त्रिनतानि, त्रिसन्धितानि, वज्रमयकोटीनि धनूषि अभिगृह्य' पश्ये भने मा.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩