Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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पमेयचन्द्रिका टी. श.३. उ.८ सू.१ भवनपत्यादिदेवस्वरूपनिरूपणम् ८६५ द्वीपकुमाराणामुपरि दश देवाः आधिपत्यादिकं कुर्वन्तो विहरन्ति, तत्र 'पुण्ण' पूर्णः, विसिह विशिष्टश्चेति द्वौ द्वीपकुमारेन्द्रौ तल्लोकपालानाह-'रु' रूपः, 'रूअंम' रूपांशः 'रूअकंत' रूपकान्तः, 'रूअप्पभ' रूपप्रभश्च, तथा अस्य व्याख्या पूर्ववत् कर्तव्या-' उदहि कुमाराणं' उदधिकुमाराणामुपरि दश देवाः आधिपत्यादिकं कुर्वन्तो विहरन्ति तत्र 'जलकते' जलकान्तः 'जलप्पभ' जलप्रभश्चेति द्वौ उदधिकुमारेन्द्रौ तयोर्लोकपालानाह-'जल' जल: 'जलरूय' जल रूपः 'जलकंत' जलकान्तः 'जलप्पभ' जलप्रभश्च, एवम् अस्य व्याख्या पूर्ववत् 'दीवकुमाराणं पुण्ण-विसीट्ठ-रूय, रूयंस, रूयकंत, रूयप्पभ' द्वीपकु. मारोके ऊपर अधिपतित्व आदि करनेवाले ये दस १० देव हैं इनमें पुण्य और विशिष्ट ये तो दो इन्द्र हैं और इनके रूप, रूपांश, रूपकान्त, और रूपप्रभ ये चार लोकपाल हैं । इस प्रकार पुण्य इन्द्र
और इनके चार लोकपाल एवं विशिष्ट इन्द्र और इनके चार लोकपाल मिलकर दश देव द्वीपकुमारोंके ऊपर अपना प्रभुत्व स्थापित किये हुए हैं। 'उदहिकुमाराणं' उदधिकुमारोंके ऊपर अधिपतित्व आदि रखने वाले ये दश देव हैं जलकते जलप्पभ' इनमें जलकान्त और जलप्रभ ये दो तो इन्द्र हैं तथा इन दोनोंके 'जल, जलख्य, जलकंत, जलप्पभ' जल, जलरूप, जलकान्त, और जलप्रभ ये चार लोकपाल हैं । इस प्रकार जलकान्त इन्द्र और उनके ये चार लोकपाल, जलप्रभ इन्द्र और उनके ये चार लोकपाल मिलकर दश देव उदधिकुमार देवोंके ऊपर अपना प्रभुत्व आदि स्थापित किये
'दीवकुमारा णं पुण्ण, विसिट्ठ- रूय, रूयंस, रूयकंत, रूयप्पभ' - દ્વીપકુમારે પર નીચેના દસ દેવો અધિપતિત્વ, પરિપત્ય આદિ ભેગવે છે. [१] पुष्य, [२] विशिष्ट [3 थी १०] पुण्य मन विशिष्टना यार या२ सामोરૂપ, રૂપાંશ, રૂપકાંત, રૂપપ્રભ. [પુણ્ય અને વિશિષ્ટ તેમના ઇન્દ્રો છે. બન્નેના ચાર, ચાર सापान नाम सेस२॥ छ] 'उदहिकुमारा गं' धिमा। ५२ माधिपत्य मा ४२॥२॥ ६स हेवोना नाम नीय प्रमाणे छ-'जलकंते, जलप्पभे' [१) al-d भने [२] NIUH, तमना मे -दी, अने 'जल, जलरूप, जलकंत, जलप्पभ' [3 થી ૧૦] જલ, જલરૂપ, જલકાન્ત અને જલપ્રભ, એ નામના ચાર, ચાર લેકપાલોઆ રીતે બે ઈન્દ્રો અને આઠ લેકપાલો મળીને કુલ દસ દે ઉધિકુમાર પર અધિપતિત્વ આદિ ભોગવે છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩