Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीमूने जीवे स जीवः 'सयासमियं' सदा समितम् नो 'एयइ' एजते कम्पते 'जाव अंते अंतकिरिया भवई' यावत् अन्ते अन्तसमये अन्तक्रिया सकलकर्मक्षयरूपा भवति यावत्करणात् - 'नो व्येजते नो चलति नो स्पन्दते नो घट्टते नो क्षुभ्यति नो उदीरयति नो तं तं भावं परिणमति' इत्यादि संग्रह्याम् । एतावता उक्तसूत्रसन्दर्भस्य अयमाशयः यदा खलु संयतोऽपि सास्रवो जीवः सातावेदनीयं कर्मबध्नाति तदा असंयतसास्रवजीवस्य कर्मबन्धनं तु किमुत वक्तव्यम् तथा जीवनौकायाः कर्मजलपूर्यमाणतयाऽधःपतनरूपनिमज्जनमर्यादापन्नं, सक्रियस्य कर्मवन्धकथनाच्च निष्क्रियस्य तद्वैपरीत्येन कर्मबन्धाभावः च णं से जीवे सया समियं नो एयह जव अंते अंत किरिया भवई' इसलिये हे मंडितपुत्र! मैंने इस पूर्वोक्तरूप से ऐसा कहा हैं कि जबतक वह जीव एजनादि क्रिया नहीं करता है तब तक अन्तसमय में वह सकलकर्मक्षयरूप अन्तक्रिया करता है वहाँ यावत्पद से 'नो व्येजते, नो चलति, नो स्पन्दते, नो घटते, नो क्षुभ्यति, नो उदीरयति, नो तं तं भावं परिणमति' इत्यादि पाठ गृहीत हुआ है। इस सूत्र का यह आशय है कि संयत अवस्थावाला जीव जब सातावेदनीय कर्मका बंध करता है तो जो असंयत होकर आस्रववाला है ऐसा जीव कमेंका बंध क्यों नहीं करेगा, अवश्य ही करेगा, इस विषय में तो कहना ही क्या है। जीवरूप नौका कर्मरूप जल से भर जाने पर डूबती है तव यह बात प्रदर्शित की गई है तो इससे यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है कि सक्रिय आत्मा कर्मका बंध करता है और निष्क्रिय आत्मा, सक्रिय आत्मा से विपरीत होने के कारण કર્મ ક્ષયરૂપ અન્તક્રિયા કરે છે–મુકિત પ્રાપ્ત કરે છે. અહીં (યાવતું) પદથી 'नो व्येजते, नो चलति, नो स्पन्दते, नो घटते, नो क्षुभ्यति, नो उदीरयति, नो तं तं भावं परिणमति' त्या सूत्रा४ ४ ४२राये। छ. २॥ सूत्र द्वारा सूत्रકાર એ વાતનું પ્રતિપાદન કરે છે કે “જે સંયત આત્મા સાતવેદનીય કર્મને બંધ બાંધે છે, તે અસંયત આત્મા કે જે આસથી યુક્ત છે, તે કર્મને બંધ કરે એમાં શું આશ્ચર્ય છે !” જીવરૂપી નૌકા કર્મરૂપી જળથી ભરાઈ જવાથી ડૂબે છે. જે આ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તે તેના દ્વારા એ વાત તે આપ આપ જ સિદ્ધ થઇ જાય છે કે સક્રિય આત્મા કર્મને બંધ કરે છે અને તેનાથી વિપરીત એ નિષ્ક્રિય આત્મા કમને બંધ કરતા નથી. આ રીતે અનાસવદશામાં નિષ્ક્રિય
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩