Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे यावन्ति यत्परिमाणानि 'रायगिहे नयरे' राजगृहे नगरे 'रूवाणि' रूपाणि मनुष्य पशुपक्ष्यादिरूपाणि वर्तन्ते 'एवइयाई' एतावन्ति तावद्रूपाणि 'विकुचित्ता' विकुर्वित्वा वैक्रियाणि कृत्वा 'वेभार पव्वयं' वैभार पर्वतम् 'अंतो अणुप्पविसित्ता' अन्तः अनुपविश्य वैभारस्यैव मध्ये प्रविश्य 'समंवा' समस्थलं वा पर्वतं वैभारम् 'विसम' विषमम् ‘करेत्तए' कर्तुम, 'विसम वा सम' विषमनिम्नोन्नतं वा समं सरल 'करेत्तए' कर्तुम् ? 'पभू' प्रभुः समर्थः किम् ? भगवान् आह-'गायमा ! नो इणटे समढे' हे गौतम ! नायम: समर्थः, नैवं भवितुमर्हति, बाह्यपुद्गलान् अपरिगृह्य नोक्तपर्वतं सम विषमं विषम वा समं कर्तुं समर्थः ‘एवं चेव बिइओ वि आलावगो' एवंचैव उक्तरीत्या च वैक्रिय पुद्गलोको अपरियाइत्ता' ग्रहण नहीं करके 'जावइयाइं रायगिहे नयरे ख्वाई' जितने भी राजगृह नगरमें पशु पक्षी मनुज्य के रूप है 'एवइयाई' इतने रूपांकी 'विकुवित्ता' विकुर्वणा करके 'वेभारं पव्वयं वैभार पर्वत के 'अंतो' भीतर 'अणुप्पविसित्ता' प्रवेश करके 'समं वा विसमं करेत्तए विसमं वा समं करेत्तए पभू' समस्थानवाले उस वैभार पर्वत का विषमस्थानवाला करने के लिये, और विषमस्थान को समतल करने के लिये समर्थ है क्या ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम! जो इणटे समठे' यह अर्थ समर्थ नहिं है अर्थात् वह भावितात्मा अनगार ऐसा नहीं कर सकता है। तात्पर्य यह कि--बाह्यपुद्गलोंका ग्रहण किये विना वह भावितात्मा अनगार उस वैभार पर्वतका समस्थल में विषमस्थलवाला और विषम स्थलमें समस्थलवाला नहीं कर सकता हैं । कारण कि वैक्रिय शरीरसे ही अनेक भिन्न रूपोंका निर्माण होता हैं। 'एवंचेव विइओ वि वैठिय पुगतान अड ४ा विना, 'जावईयाइ रायगिहे नयरे ख्वाई' २०४७ नामा मेटमा पशु, पक्षी मने मनुष्यना ३॥ छ 'एवइयाई विकुवित्ता' भेटमा ३पानी विg। ४शन, 'वेभारंपव्ययं वैमा२ ५'तनी 'अंतो' ४२ 'अणुप्पविसित्ता' प्रवेश ४ीने, 'समं वा विसमं करेत्तए विसमं वा समं करेत्तए पभ? समतल स्थानवाला तेना लागाने विषम स्थानवा॥ ४२वाने, मने विषभ સ્થાનને સમતલ કરવાને શું સમર્થ છે?
उत्तर- 'गोयमा !' 'णो इणद्वे समझे' सावितामा अगा२ मा પુદગલોને ગ્રહણ કર્યા વિના એવું કરવાને સમર્થ નથી. કારણ કે વૈક્રિય શરીરથી જ અનેક જુદાં જુદાં રૂપોનું નિર્માણ થાય છે. દારિક શરીરથી એવું થઈ શકતું નથી.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩