Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३उ.५ सू.२ अभियोगस्याभियौगिकस्य निरूपणम् ७०१ पराशररूपं वा, स भदन्त ! किं मायी विकुर्वति ? अमायी अपि विकुति ? गौतम ! मायी विकुर्वति, नो अमायी विकुर्वति अमायी भदन्त ! तस्य स्थानस्य वा अनालोचित प्रतिक्रान्तः कालं करोति, कुत्र उत्पद्यते ? गौतम ! अन्यतरेषु आभियोगिकेषु देवलोकेषु देवतया उपपद्यते, अमायी भगवन् ! तस्मात् घोडारूप है क्या ? (अणगारेणं से, णो खलु से आसे) हे गैतम! वह तो अनगार है घोडेरूप नहीं है। (एवं जाव परामररूवं वा) इसी प्रकार पराशर अष्टापदरूप तक जानना चाहिये। (से भंते ! मायी विकुव्वइ, अमायी वि विकुव्वइ) हे भदन्त ! ऐसी विकुर्वणा मायी अनगार करता है कि अमायी अनगार भी करता है ? (गोयमा ! मायी विकुब्वइ, नो अमायी विकुव्वइ) हे गौतम! ऐसी विकुर्वणा मायी अनगार ही करता है। अमायी अनगार नहीं करता है । (माई णं भंते ! तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ, कहिंउववजइ) हे भदन्त ! इस प्रकारकी विकुर्वणा करने के बाद उसकी आलोचना
और प्रतिक्रमण नहीं करनेवाला वह मायी अनगार मर कर कहाँ उत्पन्न होता है ? (गोयमा ! अण्णयरेसु आभियोगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उववजइ) हे गौतम ! इस प्रकारकी विकुर्वणा करके आलो. चना और प्रतिक्रमण नहीं करनेवाला अनगार काल करे तो कोइ एक आभियोगिक जाति के देवलोकों में देव के रूपमें उत्पन्न हो 3 महन्त ! शुते म॥२ मध३५ छ ? (अणगारे णं से, णो खल से आसे) 3 गौतम ! ते म॥२ १४ छ, मव३५ नथी. (एवं जाव परासरस्व वा) પરાશર (અષ્ટાપદ) રૂપ પર્યન્તના રૂપની અભિયેજના વિષે પણ એજ પ્રમાણે સમજવું. (से भंते ! मायी विकुव्वइ, अमायी वि विकुव्वइ ?) 3 महन्त ! मेवी विg. વણ માયી અણગાર જ કરે છે, કે અમારી અણગાર પણ કરે છે?
(गायमा ! मायी विकुव्वइ, नो अमायी विकुव्वइ) 3 गौतम ! भायी भा॥२ ०८ मेवा विशु ॥ छ, अभायी Aary॥२ ४२तेनथी. (माईणं भंते ! तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिकंते कालं करेइ, कहिं उववज्जइ ?) डे महन्त ! આ પ્રકારની વિકુવણ કરીને તેની આલોચના અને પ્રતિક્રમણ નહીં કરનાર માથી माणु॥२ ४ासरीने ४यां उत्पन्न थाय छ ? (गोयमा ! अण्णयरेसु आभियोगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ) गौतम ! A t२नी विg शन, मातोयना અને પ્રતિક્રમણ નહી કરનારે અણગાર, કાલકરીને કેઈ એક આભિગિક જાતિના દેવ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩