Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रो मिथ्यादृष्टिः 'चीरियलद्धीए' वीर्यलब्ध्या 'वेउब्वियलद्धीए' वैक्रियलब्ध्या 'विभंगणाणलद्धीए' विभङ्गज्ञानलब्ध्या च 'वाणारसी नयरों' वाराणसी नगरी 'रायगिह च नयरं' राजेगृहश्च नगरम् 'अंतरा' अन्तरा. इति तयोर्मध्ये 'एगं महं' एक महान्तम्-विशालम् 'जणवयवग्गं' जनपदवर्ग देशसमूहम्, विकुणाशक्त्या च अङ्गवङ्गकलिङ्गादिदेशान् विकरोति 'समोहए' समवहतो विकुर्वितवान् ‘समोहणित्ता' समवहत्य वैक्रिय निर्माय 'वाणारसि नयरिं' वाराणसी नगरीम्, 'रायगिहं च नयरं' राजगृहं च नगरम् 'अंतरा' अन्तरा तयोर्मध्ये 'एगं महं' एक महान्तं 'जणवयवग्गं' जनपदवर्ग देशसमूहं — जाणइ, पासइ ?' जानाति, पश्यति ? भगवानाह-'हंता, जाणइ, पासइ ?' हन्त, जानाति, पश्यति । गौतमः पुनः मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार 'वीरियलद्धोए, वेउव्वियलद्धीए, विभंगणाणलद्धीए' वीर्यलब्धिद्वारा, वैक्रियलब्धिद्वारा, अथवा विभंगज्ञानलब्धिद्वारा 'चाणारसी नगरीं' वाणारसी नगरी और 'रायगिहं च नयरं' राजगृह नगरके 'अंतरा' बीच में "एगं महं' एक महान् 'जणवयवग्गं' जनपद वर्गकी-देशसमूहकी-'समोहए' विकुर्वणा करे-अङ्ग वङ्ग कलिङ्ग आदि देशोंको विकुर्वित करे और 'समोहणित्ता' विकुर्वित करकेअर्थात् अपनी विक्रिया शक्तिसे उनका निर्माण करके 'वाणारसिं नयरि रायगिह च नयरं' वाणारसी नगरी और राजगृह नगरके भीतर बीचमें-'एगं महंजणवयवग्गं' एक विशाल जनपद वर्गका-देशसमूह को 'जाणइ पासइ' जानता देखता है क्या ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतमसे कहते हैं कि 'हंता जाणइ-पासई' हे गौतम! हां वह जानता देखता है। गौतम इस पर प्रभुसे पूछते हैं कि-से भंते ! भायी भिथ्याट वितामा अ॥२, 'वीरियलद्धीए, वेउवियलद्धीए, विभंगणाणलदीए' पायou al, वैयिधिद्वारा मने विज्ञान सम्धि द्वारा 'वाणारसीं नयरीं रायगिहं च नयरं अंतरा' पारसी नगरी भने २०४९ नगरनी १२ये मावा स्थानमा 'एगं महं' में वि 'जणवयवग्गं यह वनी-देशसभृडनी ' समोहए ' विgu ४३-४ा। 3 241, 4, लिंग माह
शानी विgu ४२ तो 'समोहणित्ता' से प्रा२नी पोतानी यि तिथी तर्नु निभाए रीने 'वाणारसीं नयरीं रायगिहं च नयरं' पारसी नारी भने २०४23 नगरनी श्येन प्रदेशमा 'एगं महं जणवयवग्गं' शुतमे घg! भाटर न. ५४ समूडने 'जाणइ पास: jी शछे मन भी छ
उत्तर-'हंता, जाणड, पास' , गौतम ! ते तने onीछे मन भी ई.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩