Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ममेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.४सू.३ पारिणामिकबलाहकवक्तव्यतानिरूपणम् ६३१ गन्तुम् ! प्रभुः । भगवानाह 'हंता, पभू' हन्त सत्यं, प्रभुः समर्थ स योजनानि गन्तुम् । गौतमः पुनः पृच्छति-से भंते । इत्यादि । हे भगवन् ! स मेघः (किं) किम् 'आयड्ढीए गच्छइ' अत्मद्धर्या स्वशक्या गच्छति ! अथवा 'परिड्ढीए गच्छइ ? परद्धर्या गच्छति किम् भगवानाह-गोयमा । हे गौतम ! नो आयड्ढीए गच्छई' नो आत्मद्धर्या गच्छति, तस्याचेतनतया विवक्षितायाः स्त्र शक्तेरभावात् न आत्मद्धर्या स गन्तुमर्हति, वायुना देवेनवा प्रेरितस्तु गन्तुं समर्थः इत्यभिप्रायेणाह-'परिड्ढी गच्छई' परद्धर्या अन्यसामर्थ्येन पवनादि योजनों तक जाने के लिये स्थायी कैसे रह सकता है । इस विषय में प्रभु गौतमसे कहते हुए उन्हें समझाते हैं कि 'हत्ता पभू' हे गौतम ! हां वह मेघ स्त्रीके विशाल आकारमें परिणत होकर अनेक योजनों तक जा सकता है । अब गौतम प्रभुसे यह प्रश्न करते हैं कि भदन्त ! जब मेघ भिन्न आकारमें परिणत होकर अनेक योजनों तक जा सकने में समर्थ है तो हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि उसका इतनी अधिक दूरतक गमन करना अपनी निजकी शक्ति से होता है ? यही बात 'से भंते ! किं आयडूढीए गच्छइ, परिडूढीए गच्छइ' इस सूत्रपाठ द्वारा व्यक्तकी गई है। तब इस प्रश्नका उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो आयड्ढीए गच्छई' वह मेघ अनेक योजनों तक अपनी शक्तिसे गमन नहीं करता है किन्तु 'परिड्ढीए गच्छद' परकी सहायतासे गमन करता है। 'स्वशक्ति से गमन नहीं करता, तात्पर्य ऐसा है कि यह આકારે અનેક જિન પર્યન્ત ગમન કરવાને તે કેવી રીતે સમર્થ બને?
उत्त२-'हता पभ गौतम ! मेस्त्रीन। विशाल मारे परिणभीर भने જનપર્યત ગમન કરી શકે છે.
प्रश्न-'से भंते! कि आयडूढीए गच्छइ, परडूढीए गच्छइ ?' उहत ! મેઘ સ્ત્રીના વિશાલ આકારે પરિણમીને અનેક પેજને પર્યન્ત જે ગમન કરે છે તે તેની પોતાની શકિતથી કરે છે, કે અન્યની શક્તિથી (સહાયતાથી) કરે છે?
-'गायमा गौतम ! 'नो आयडढीए गच्छइ, परडढीए गच्छई' મેઘ તેની પોતાની શક્તિથી અનેક પેજના અંતર સુધી પોતાની શકિતથી ગમન કરે નથી, પણ અન્યની સહાયતાથી ગમન કરે છે. તે સ્વશક્તિથી ગમન કરી શકતા નથી તેનું કારણ એ છે કે તે અચેતન છે, તે કારણે તેનામાં તેની પોતાની શક્તિ તે હતી જ નથી.
श्री. भगवती सूत्र : 3