Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टी. श. ३. उ. ३ सू. ३ जीवानां एजनादिक्रिया निरूपणम् ५४५ भति ? नायमर्थः समर्थः, तत् नान एवम् उच्यते - यावच्च सजीवः सदा समितम् - यावत्-अन्ते अन्तक्रिया न भवति ? मण्डितपुत्र ! यावच्च स जीवः सदा समितम् यावत् - परिणमति, तावच्च स जीवः आरभते, संरभते, समारभते आरम्भे, वर्तते, संरम्भे वर्तते, समारम्भे वर्तते, आरभमाणः, संरभमाणः, समारभमाणः, आरम्भे वर्तमानः, संरम्भे वर्तमानः समारम्भे वर्तमानः बहूनां
है तब तक क्या उस जीवकी अन्त समयमें-- मरणकाल में अन्तक्रिया मुक्ति होती है ? (णो इट्ठे समट्ठे) हे मंडितपुत्र वह अर्थ ठीक नहीं है । (सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चइ, जावं च णं से जीवे सया समियं जाव अंते अंतकिरिया न भवइ) हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते है कि जबतक वह जीव सदा समित रहता है अथवा रागद्वेषरूप में कांपता हैं तबतक यावत् उस जीव की मुक्ति नहीं होती है ? (मंडियपुत्ता ! जाव णं से जीवे सया समियं जाव परिणमह, तावं च णं से जीवे आरंभइ, सारंभह, समारंभइ, आरंभे वहइ, सारंभे वहह, समारंभे वट्ट) हे मंडितपुत्र ! जबतक जीव समित रहता है- रागद्वेष सहित बना रहता है, अथवा रागद्वेषरूप में कंपता रहता हैं यावत् उन २ भावों रूपसे परिणमता रहता है, तबतक ऐसा जीव आरंभ करता है, संरंभ करता है, समारंभ करता है, आरंभ में वर्तता है
પરિણમે છે, ત્યાં સુધી તે જીવની અંત સમયે મરણકાળે-અન્તક્રિયા (મુકિત) થાય છે भरी ? (णो इणट्टे समट्ठे ) हे मंडितपुत्र ! मे मनतु नथी. सेवा व भरणुभणे भुति यामतो नथी. ( से केणणं भंते! एवं बुच्चइ, जावं च णं से जीवे सयासमियं जाव अंते अंतकिरिया न भवइ ?) हे लहन्त ! आप मे ं शा કારણે કહેા છે કે જ્યાં સુધી તે જીવ રાગાદિથી યુકત રહે છે અથવા રાગદ્વેષરૂપે એક પે छे, (यावत्) त्यां सुधी ते लवने भुक्ति भजती नथी ? ( मंडियपुत्ता ! ) डे भडितपुत्र ! (जाव णं से जीवे सया समियं जाव परिणमइ' तावं च णं से जीवे आरंभई, सारंभइ, समारंभ, आरंभे वट्ट, सारंभे वट्टर, समारंभ बट्टइ) न्यां सुधी સમિત રહે છે–રાગદ્વેષથી યુકત રહે છે, અથવા રાગદ્વેષ રૂપમાં કંપતા રહે છે, ઉપ*કત સવ ભાવે રૂપે પરિણમતે રહે છે, ત્યાં સુધી તે જીવ આર ંભ કરે છે, સર્ભ કરે છે, સમારંભ કરે છે, આરભમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, સોંરભમાં પ્રવૃત્ત રહે છે અને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩