Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे प्राणानाम् , भूतानाम् , जीवानाम्, सचानाम् दुःखापनतया, शोचापनतया, जूरापनतया, तेयापनतया, पिट्टापनतया, परितापनतया वर्तते, तत् तेनार्थेन मण्डितपुत्र ! एवम् उच्यते-यावच्च स जीवः सदासमितम् एजते यावत् - परिणमति, तावञ्च तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया न भवति, जीव खलु भदन्त ! संरंभ में वर्तता है, समारंभ में वर्तता है । इस तरह (आरंभमाणे, सारंभमाणे, समारंभमाणे, आरंभे वट्टमाणे सारंभे वट्टमाणे समारंभे वट्टमाणे) आरंभ करता हुआ संरंभ करता हुआ समारंभ करता हुआ, तथा आरंभ में वर्तमान होता हआ, संरंभ में वर्तमान होता हआ. समारंभ में वर्तमान होता हुआ वह जीव (बहणं पाणाणं भूयाण) अनेक प्राणियोंको अनेक भूतोको (जीवाणं) अनेक जीवोंको (सत्ताण) अनेक सत्त्वों को (दुक्खावणयाए) दुःखित होने में (सोयावष्णयाए) शोक से व्याकुल होने में (जरावणयाए) शोकातिरेक के उद्भावन से उनके शरीर को जीर्णता से युक्त होने में (तिप्पावणयाए) उन्हें बुरी तरह से रुलाने में (पिट्टावणयाए) पिटाने में (परियावणयाए) परितापना से युक्त होने में (वदृइ) कारण पडता है । (से तेणटेणं मंडियपुत्ता ! एवं वुच्चइ जाव च णं से जीवे सया समियं एयह, जाव परिणमइ) इस कारण हे मण्डितपुत्र मैंने ऐसा कहा है कि यावत् वह जीव जबतक सदा समित रहता है अथवा रागद्वेष सहित कांपता है, यावत् उन २ भावरूप परिणमता है (तावं च णं तस्स जीवस्स) सभामा प्रवृत्त २९ छे. ( आरंभमाणे, सारंभमाणे, समारंभमाणे, आरंभे वट्टमाणे सारंभे वट्टमाणे समारंभे वट्टमाणे) मा शते मास, स२० भने सभाરંભ કરતે, તથા આરંભમાં, સંરંભમાં અને સમારંભમાં પ્રવૃત્ત રહે તે જીવ (बहूणं पाणाणं भूयाणं) मने प्राशुमान, भने भूताने (जीवाणं) अनेछवाने, (सत्ताणं) भने सत्वाने (दुक्खावणयाए) भी थामा, (सोयावणयाए) येथी व्यात यामा, (जूरावणयाए) शाति३४ थाथी ते शरीरने [ ३२वाभां, (तिप्पावणयाए) तेने मई २१वाभा, (पिट्टावणयाए) भार भरावामi, (परियावणयाए) भने परितापना (पी) हेवाभां, (वट्टइ) १२४३५ मने छ. (से तेणटेणं मंडियपुत्ता ! एवं वुच्चइ जाव च णं से जीवे सया समीयं एयइ, जाव परिणमइ) 8 मजितपुत्र ! ते ॥२२ में मेj xयु छ ? नयां सुधी ७१ गया युत २ छे भयवा रागद्वेष सहित छ. (यावत) उपरोत सर्व ला१३५
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩