Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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___ भगवतीसूत्रे भवस्थानां वा चरमभवे तिष्ठन्ति ये तेषां भवचरमभागस्थानां च्यवनकाले स्थितानामित्यर्थः 'इमेयारूवे' अयम् एतद्रूपः अग्रेऽधुनैव वक्ष्यमाणस्वरूपः 'अज्झस्थिए' आध्यात्मिकः आत्मगतः 'जावसमुज्जप्पइ यावत् समुत्पद्यते, यावत् करणात् चिन्तितः, प्रार्थितः, कल्पितः मनोगतः, संकल्प इति संग्राह्यम् , संकल्पस्वरूपमाह-'अहो ? णं अम्हे हि इत्यादि । अहो ? आश्चर्य खलु अस्मा भिः असुरकुमारैः 'दिव्वादेविडी' दिव्या देवद्धिः अपूर्वदेवसमृद्धिः 'जाव-लद्धा, पत्ता' यावत्-लब्धा, प्राप्ता 'अभिसमन्नागता सर्वप्रकारेणाभोगपरिभोगविषयीकृता, यावत्करणात् 'दिव्या देवद्युतिः दिव्यो देवानुभावः इति संग्राह्यम् 'जारि असुरकुमार देवों के अथवा च्यवनसमय में स्थित हुए मृत्यु के सन्निकट आये हुए-'देवाणं' देवोंके 'इमेयारूवे' इस प्रकार का यह 'अज्झिथिए जाव समुप्पज्जइ' आत्मगत यावत् यह विचार उत्पन्न होता है-यहाँ यावत्पदसे 'चिन्तित, प्रार्थित, कल्पित, मनोगत संकल्प' इन पदोंका ग्रहण हुआ है, इससे उनदेवोंको ऐसा आत्मगत, प्रार्थित, कल्पित, मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है-ऐसा यहां अर्थ करना चाहिये । कैसा वह संकल्प विचार-उत्पन्न होता है ? तो इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि-'अहो ! णं अम्हे हिं' इत्यादि, ऐसा विचार उत्पन्न होता है वे विचार करते हैं कि अहो बड़ा आश्चर्य है कि 'अम्हे हि हम-असुरकुमारों ने 'दिव्या' अपूर्व 'देविडूिढं' देवसमृद्धि 'जाव' यावत् दिव्य देवद्युति, दिव्यदेवप्रभाव 'लद्धा' लब्ध किया है 'पत्ता' प्राप्त किया है 'अभिसमन्नागया' सर्व प्रकार से आभोगपरिभोग में उसे लगा रक्खा है 'यावत्' शब्द से ही यहां 'दिव्या देवद्युति, दिव्यो देवानुभावः' इन पदोका संग्रह किया गया है । 'जारिसियाणं' जैसी ઉત્પન્ન થયેલા) અસુરકુમાર દેવોને અથવા જેનું દેવભવનું આયુ પૂરું થવા આવ્યું હોય सेवा वोने-त्यांथा २०वन वान। समय न७४ मावी पांच्या डाय मेवा 'देवाणं' वाने 'इमेयारूवे' मा प्रा२ने। "अज्झथिए जाव समुप्पज्जई' मायात्मि, यिFतत, प्रार्थित, ति, मनोगत ४८५ उत्पन्न थाय छे 3 'अहो ! णं अम्हे हि इत्याहि माडी ! मारे माश्चर्थनी पात छठे समे 'दिव्या देविडढी' हिव्य (मपूर्व) देवसमृद्धि, दिव्य वधुति, दिव्य प्रभाव 'लद्धा' भेजच्यो छ, 'पत्ता' प्रात ४ छे, 'अभिसमण्णागया' भने तेना ५२ प्रभुत्व भेजच्युछ-तना अपना ४३२ छी.मे. मही 'जाव' ५४थी 'दिव्या देवद्युतिः, दिव्यो देवानुभावः' मा पनि समावेश કરવામાં આવ્યું છે.
श्री. भगवती सूत्र : 3