Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे सूर्याभिमुख आतापनभूमौ आतापयन् आतापनां कुर्वन् विहरति तिष्ठति षष्ठः स्याऽपि पूर्वोक्ततपः कर्मणः पारणके पारणासमये आतापनभूमितः प्रत्यवरोहति अवतरति, प्रत्यवरुह्य अवतीर्य स्वयमेव दारुमय प्रतिग्रहम् आहारपानं गृहीत्वा ताम्रलिप्त्या नगर्याः उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि भिक्षाचर्य या भिक्षाचरणेन अटति भिक्षार्थ गच्छति, शुद्धोदनं प्रतिगृह्णाति, त्रिसप्तकृत्वः एक विंशतिवारान् उदकेन प्रक्षालयति, ततःपश्चात् आहारम् आहारयति इत्येतावता सूत्रेण प्रव्रजितस्य ताम्रलिप्तस्य तपश्चर्यादिकरण पूर्व कप्रव्रज्योचितनियमादि परिपालनमुक्तम् ॥ सू० ॥ १९ 'आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ' आतापनाभूमि में आतापना लेने लग गया 'छट्ठस्स वियणं पारणयंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहह' तथा जब छटुकी पारणा का दिन होता तब वह आतापना भूमि से उतरता और 'पच्चोकहित्ता' उतर करके 'सयमेव दारुमयं पडिग्गह गहाय' अपने आप ही दारुमय पात्र को लेकर 'तामलित्तीए नयरीए' ताम्रलिप्ती नगरीमें 'उच्चनीय मज्झिमाइं कुलाई उच्चनीच मध्यम घरों में 'घरसमुदाणस्स' गृह समूह की 'भिक्खायरियाए' भिक्षाप्राप्ति के निमित्त 'अडई' घूमता, भिक्षा में 'सुद्धोयणं पडिग्गाहह' मात्र शुद्ध भात ही लेता और उसे फिर अपने स्थान पर लाकर 'तिसत्तक्खुनो २१ बार 'उदएणं' पानी से 'पक्खालेइ' धोता 'तओ पच्छा आहार आहरेह' बाद में फिर उन्हें खाता, इतने सूत्र से सूत्रकार ने प्रत्र. जित ताम्रलिप्त ने तपश्चर्यादिकरणपूर्वक प्रब्रज्या के लायक नियमादिकों का पालन किया यह कहा है। ।। सू० १९ ॥ આ તપસ્યા દરમિયાન તેઓ બન્ને હાથ ઉંચા રાખીને, સૂર્યની તરફ મુખ રાખીને आयावणभूमिए आयावेमाणे विहरइ" ताजी भूमिमा मातना देता हता. "छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ" ना पाण्याने हिवसे तो माता५ना भूमि५२था नीचे उतरत। ता. "पच्चोरुहिता" त्यांथी उतरीन "सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय” पोताना थमin १०४ पान धन "तामलित्तीए नयरीए" तासित नगरीमा "उच्चनीचमज्झिमाइं कुलाइं घरसमदाणस्स" उंय, नीय मने मध्यम शुषमा - उसमुहानी "भिक्खायरियाए" मिक्षा प्राप्ति मथे “अडइ" ५२ता ता. "सुद्धोयणं पडिग्गाहई" ते शुद्ध मात पडारा ता. "तिसत्तक्खुत्तो उदएणं एक्खालेइ" ते मारने २१ मत शुद्ध अस्थित्त पाणथी धाता ता "तओ पच्छा आहारं आहरेई"
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩