Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका. टीका श.३ उ.२ २.१ भगवत्समवसरणम् चमरनिरूपणच ३२५ कायं प्रव्यथन्ते, प्रभवो भगवन् ! असुरकुमारा देवास्तत्र गताश्चैत्र समाना स्ताभिरप्सरोभिः सार्धे दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जाना विहर्तुम् ! नायमर्थः समर्थः, अथ ततः प्रतिनिवर्तन्ते, ततः प्रतिनिवृत्य अत्रागच्छन्ति, यदि ता अप्सरसः आद्रियन्ते, परिजानन्ति, प्रभवस्ते असुरकुमाराः देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्धे दिव्यान् भोगभाग्यान भुञ्जाना विहाँ म् , अथ ताः अप्सरसो नो आद्रिबाद वैमानिक देवों द्वारा दी गई शारीरिक व्यथा भोगनी पडती हैं। (पभूणं भंते ! असुरकुमारा देवा तत्थ गया चेव समाणा ताहिं अरछराहिं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरित्तए) हे भदन्त ! वे असुरकुमार देव जाते साथ ही वहां की अप्सराओं के साथ दिव्य भोगने योग्य भागों को भोग सकते है क्या! ( णो इण? समटे ) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात् इस प्रकारका कत्य वे वहां जाते के साथ नहीं कर सकते है। हां (से तेणं तओ पडिनियत्तंति) जब वे वहां से वापिस होने लगते है और (तओ पडिनियत्तित्ता इह मागच्छंति ) वापिस होकर जब वे यहां अपने स्थान पर आ जाते है (जइणं ताओ अच्छराओ अढायंति) तब वे अप्सराएँ यदि उन यदि उन की इच्छा हो तो आदर करती है (परियाणंति) उन्हें अपना स्वामी तरीके मानती है (पभूणं ते असुरછે ત્યારે વૈમાનિક દેવે તેમને કોઈ પણ પ્રકારની સજા કરે છે કે નહીં?
उत्तर-(तओ से पच्छाकायं पव्वहति) गौतम ! ते असुमार वान रत्नो ચોરી જવાના કારણે શારીરિક સજા સહન કરવી પડે છે.
प्रश्न- (पभूणं भंते ! असुरकुमारा देवा तत्थ गया चेव समाणा ताहिं मच्छराहिं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरित्तए !) महन्त ! ते અસુરકુમાર દેવ શું ત્યાં જતાની સાથે જ ત્યાંની દેવાંગનાઓ સાથે દિવ્ય ભેગે ભેગવવાને સમર્થ છે?
उत्तर-(णो इणढे समद्रे ) 3 गौतम । मा प्रा२नुं कृत्य तेमा त्यindiनी साथ ॥ ४॥ यता नथी. (से तेणं तओ पडिनियनंत्ति) पयारे तेसो पा७i १२ता खाय छे भने (तभी पडिनियत्तित्ता इह मागच्छंति) न्यारे पाछ पीने घोताने स्थान आवी anय छे त्यारे (जइणं ताओ अच्छराओ अढायति ते अस२२मानी ४२छ। थाय तो तमे तेभनेमा४२ ४३ छ (परियाणंति) भने तेमने योताना स्वामी तरी गो छ. (पभ्रूणं ते असुरकुमारा देवा ताहिं अच्छराहिं
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩