Book Title: Tulsi Prajna 1979 02
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड४-अक७-८ फरवरी-माज से तुलसी प्रज्ञा युवाचार्य-विशेषांक JOURNAL OF THE JAIN VISHVA BHARATI YUVACHARYA MAHAPRAJNA TA अनाविश्वभारती लादत (याजधान) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के मनोनयन पर हमारी हार्दिक अभिनन्दन व मंगल कामनाएं तेरापंथ धर्म संघ के प्राण, महान दृष्टा युगप्रधान आचार्य श्री द्वारा महाप्रज्ञ श्री जी का युवाचार्य के रूप में मनोनयन इस धर्म संघ के उत्तरोत्तर विकास का एक सर्वाधिक गौरवपूर्ण चरण है । हमारी हार्दिक मंगल कामनाएं व अभिनन्दन है। हनुमानमल बैंगानी, संस्थापक-प्रधान दृस्टी श्री मोतीलाल बैंगानी चेरिटेबल ट्रस्ट १२ इण्डिया एक्सचेंज प्लेस, कलकत्ता ट्रस्ट ने अपने प्रारंभकाल से सन् १९७८-७६ तक की बीस वर्ष की अवधि में २२ लाख ६३ हजार रुपयों से अधिक की राशि के अनुदान से जिन संस्थाओं की स्थापना व संचालन किया है* होम्यो होस्पीटल, लाडनूं * मोतीलाल बैंगानी साईस कॉलेज. लाडनूं * वर्तमान प्रत्यागार, जैन विश्व भारती, लाडनू * ठक्करबापा बालमन्दिर, लाडनू * मोतीलाल बैंगानी सभा-स्थल, राणावास * सेठ मोतीलाल बैंगानी ग्रन्यागार, बरौनी, बिहार * सेठ एम० एल० चेरिटेबल डिस्पेंसरी, (मित्र परिषद् भवन) कलकत्ता, (प० बंगाल)। सेठ मोतीलाल बेंगानी चेरिटेबल ट्रस्ट (स्थापत सन् १९५६ ई०) १२ इंडिया एक्सचेंज प्लेस कलकत्ता-७००००१ (प० बगल) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेल भारतीय बृह सम्मेल पंथी दिनांक अवरह ICC गोपाल आचार्य श्री तुलसी ने उत्तराधिकारी के रूप में युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ को नियुक्त किया । युवाचार्य श्री को आचार्य श्री उत्तराधिकार-पत्र प्रदान कर रहे हैं. उस समय का दृश्य । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3030 300 38888888 8380038085303 888560380866600308888888888883 33033333333333338 - 8235333 B ॐ -3303333333000 -- 30 - 3 00 83 3883 8008 - युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की उत्तराधिकारी घोषित करने के पश्चात् आचार्य श्री तुलसी ने उन्हें अपने पास पट्ट पर बिठाया । युवाचार्य श्री ने अत्यन्त संकोच के साथ पट्ट पर बैठना स्वीकार किया, उस समय का एक भावपूर्ण दृश्य । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेडियोजा युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की नियुक्ति के पश्चात् समस्त श्रमण-संघ खड़ा होकर अभिनन्दन कर रहा है। बीच में आचार्य श्री तुलसी पट्टासीन हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-3 333 33 105 - 230038 2888888888888888888888888 33 388 38 1980 35888 88 38888 तुलसी अध्यात्म नीऽम्, जैन विश्व भारती तथा अध्यात्म साधना केन्द्र के संयुक्त तत्त्वावधान में दिल्ली में १८ मार्च से २५ मार्च तक आयोजित नवम प्रेक्षा ध्यान शिविर में प्रवचन करते हुए युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ । आचार्य श्री तुलसी का सन्निध्य प्राप्त हो रहा है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - জুহিয়া-ভাঙ্গা सम्पादक डॉ. नथमल टाटिया सह-सम्पादक . डॉ. कमलेशकुमार जैन प्रबन्ध सम्पादक गोपीचन्द चोपड़ा विमाक्रवात निक जैन विश्व भारती लाडनू (राजस्थान) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजीवन सदस्यता शुल्क : 201-00 रुपये मात्र, वार्षिक शुल्क : 25-00 रुपये, एक अंक का मूल्य इस विशेषांक का मूल्य : 2-50 रुपये, : 10-00 रुपये प्रकाशित किये जाते मासिक बना दिया 'तुलसी प्रज्ञा' पहले मासिक पत्रिका थी, जिसमें केवल शोध - लेख ही थे, किन्तु अब इसे खण्ड ४, अंक ३-४ ( अक्टूबर-नवम्बर १९७८ ) से गया है । प्रस्तुत अंक भी युग्मांक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। 'तुलसी प्रज्ञा' में जैन विद्या के विविध क्षेत्रों में चल रही शोध प्रवृत्तियों से सम्बन्धित शोध निबन्ध एवं अन्य ज्ञानवर्धक सामग्री ( कथाएं, कवितायें, मुक्तक, महापुरुषों की जीवनियां संस्मरण, संस्था परिचय आदि) प्रकाशित की जायेगी । प्रकाशनार्थ प्रेषित निबन्ध एवं अन्य सामग्री अन्यत्र प्रकाशित नहीं होनी चाहिये । सामग्री कागज के एक ओर सुस्पष्ट रूप से हस्तलिखित या टंकित होनी चाहिए। साथ में लेखक अपना परिचय भी भेजें । जैन विद्या की विविध विधाओं से सम्बद्ध विषयों पर विश्वविद्यालयों के द्वारा स्वीकृत शोध महानिबन्धों के सार-संक्षेप भी प्रकाशनार्थ भेजे जा सकते हैं । 'साहित्य-समीक्षा' स्तम्भ के अन्तर्गत समीक्षार्थ भेजी जाने वाली पुस्तक की दो प्रतियाँ प्राप्त होनी चाहिए । नोट: यह आवश्यक नहीं है कि इस अंक में प्रकाशित लेखों में उल्लिखित विचार सम्पादक अथवा संस्थान को मान्य हों । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक ७-८ ३१५ ३१७ ३१६ ३२१ ३२३ ३२४ ३२५ खण्ड-४ फरवरी-मार्च १९७६ युवाचार्य विशेषांक लेख-सूची १. सम्पादकीय २. वचन वीथी -आगम वचन ३. आचार्य प्रवचन : अनासक्ति -युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ४. युवाचार्य का मनोनयन : एक ऐतिहासिक घोषणा ५. उत्तराधिकार पत्र ६. आचार्य प्रवर का शुभाशीर्वाद ७. नयी कसोरी : नया दायित्व -युवाचार्य महाप्रज्ञ ८. युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ : उल्लेखनीय तिथियां ६. मैं नये दायित्व के प्रति समर्पित रहूंगा -युवाचार्य महाप्रज्ञ १०. इस पल का भी अभिनन्दन –महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ११. श्रमण-परिवार द्वारा समर्पित अभिनन्दन-पत्र १२. श्रमणी-परिवार द्वारा समर्पित अभिनन्दन-पत्र १३. मैं तो आपको कृति हूं —युवाचार्य महाप्रज्ञ १४. दायित्व निर्वाह के उदग्र आकांक्षी : युवाचार्य महाप्रज्ञ –महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा १५. प्राचार्य श्री तुलसी के उत्तराधिकारी : युवाचार्य का अभिनन्दन —प्रो० दलसुख भाई मालवणिया १६. युवाचार्य महाप्रज्ञ : एक गम्भीर चिन्तक -----अगरचन्द नाहटा १७. समन्वयशील सन्त : युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ -~-जमनालाल जैन ३२८ ३२४ . ३३७ ३३८ mr ३४० ३४६ ३५१ ३५३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ३६१ ३६४ ३७२ ३७४ ३७६ ३७७ ३७६ १८. अद्वैत भी, द्वत भी, एकादश रूप भी -गोपीचन्द चोपड़ा १६. युवाचार्य की नियुक्ति : आचार्य का महान् दायित्व -जबरमल भंडारी २०. मुनिश्री नथमल जी की बहुमुखी योग्यता का समुचित बहुमान -रतिलाल भाई २१. युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ : आचार्यश्री तुलसी के दर्पण में —प्रस्तोता मुनि किशनलाल २२. युवाचार्य महाप्रज्ञ से एक भेंट —प्रस्तोता मुनि किशनलाल २३. युवाचार्य को नियुक्ति पर आचार्यश्री तुलसी के प्रति ____-मुनि नथमल (बागौर) २४. नाव से नाविक -मुनि नथमल (बागौर) २५. स्थितप्रज्ञ युवाचार्य -मुनि.छत्रमल २६. वे सारे संघ के शीर्षस्थ व्यक्ति बन गए —मुनि बुद्धमल २७. अपूर्व कलाकृति –मुनि दुलहराज २८. नया वायित्व, नये दायरे : युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ -साध्वी कनकश्री २६. युवाचार्य की जय हो --मुनि रवीन्द्रकुमार ३०. अध्यात्म के प्रेरणा-सोत : युवाचार्य महाप्रज्ञ -मुनि विमलकुमार ३१. हे योगिराज : शत शत प्रणाम —लूनकरण विद्यार्थी . ३२. आज करें किसका अभिनन्दन -साध्वी मोहनकुमारी (श्री डूंगरगढ़) ३३. एक उपलब्धि -साध्वीश्री आनन्दश्री ३४. युवाचार्य महाप्रज्ञ की नियुक्ति : एक अभिनव इतिहास-प्रसंग --सोहनराज कोठारी ३५. संस्मरणों के प्रकाश में उस समय के मुनि नथमल : आज के युवाचार्य ___-मुनिश्री बुद्धमल ३६. मर्यादा महोत्सव : विशिष्ट उपलब्धि -साध्वी संघमित्रा ३८० ३८३ ३८४ ३८५ ३८७ ३८८ ३९३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. मनीषी संत, साधक मन, वैज्ञानिक दार्शनिक और प्राज्ञ - डा० नरेन्द्र भानावत ३८. महाप्रज्ञ से धर्म अनुशास्ता : एक गौरवपूर्ण उपलब्धि —देवेन्द्रकुमार कर्णावट ३६. युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ: पहले और बाद में - साध्वीश्री कमलश्री ४०. युवाचार्य श्री का अभिनन्दन - उपाध्यायश्री अमरमुनि ४१. शब्द व भाव के अमर शिल्पी, संस्कार-निष्पन्न मनीषी एवं प्रबुद्ध साधक : युवाचार्य महाप्रज्ञ -- डा० छगनलाल शास्त्री ४२. अभिनन्दन ! अभिनन्दन ! ४३. अभिनन्दन का प्रत्युत्तर - युवाचार्य महाप्रज्ञ ४४. तेरापन्थ को आचार्यश्री तुलसी की देन - साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ४५. इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों से मुनिश्री अनोपचन्द जी ( नाथद्वारा ) — मुनि नवरत्नमल ४६. पाँच मुक्तक - मुनि मोहनलाल “शार्दूल" ४७. श्रीमज्जाचार्य रचित "झोणी चर्चा " - सम्पा० अनु० मुनि नवरत्नमल ४८. एक युवा श्रमणी महाश्रमणी - साध्वी यशोधरा ४६. आदर्श श्रावक - महावीर की कल्पना - मुनि किशनलाल ५०. नटकन्या और श्रेष्ठी पुत्र - सोहनराज कोठारी ५१. शोध-लेख : गृहस्थ धर्म का आध्यात्मिक महत्त्व - प्रो० कैलाशचन्द जैन ५२. चाय युग - डॉ० जेठमल भंगाली ५३. एक सन्देश : युवा पीढ़ी के नाम - कु० मुकेश जैन ५४. समाचार - दर्शन ५५. जैन विश्व भारती : प्रवृत्ति एवं प्रगति ५६. साहित्य समीक्षा ५७. प्रणाम महाप्रज्ञ - डा० नेमीचन्द जैन ४०१ ४०३ ४०५ ४०७ ४०८ ४११ ४२२ ४२३ ४३१ ४४१ ४४२ ४४६ ४५० ४५२ ४५६ ४६१ ४६५ ४६८ ૪૨૭ ५०० ५०३ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के नवम आचार्य एवं अणुव्रत अनुशास्ता २. युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जैन श्वेताम्बर तेरापंथ में आचार्य श्री तुलसी के उत्तराधिकारी (पूर्ण नाम मुनि नथमल ) ३. साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा जैन श्वेताम्बर तेरापंथ साध्वी समुदाय की प्रमुख एवं आचार्य श्री तुलसी की शिष्या ४. प्रो० दलमुख भाई मालवणिया भू० पू० निदेशक लाल भाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद-६ ५. श्री अगर चन्द नाहटा नाहों की गवाड़ बीकानेर (राजस्थान) ६. श्री जमनालाल जैन अभयकुटीर सारनाथ वाराणसी ( उ० प्र० ) ७. श्री गोपीचन्द चोपड़ा कुल सचिव जैन विश्व भारती लाडनू ं (राजस्थान)' ८. श्री जबरमल भंडारी जाटावास जोधपुर लेखक परिचय ३१२ ६. श्री रतिलाल भाई अहमदाबाद मुनि श्री किशनलाल आचार्य श्री तुलसी के शिष्य १०. ११. मुनि श्री नथमल (बागौर) जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के सर्वाधिकज्येष्ठ सन्त ( आचार्य श्री तुलसी के आज्ञानुवर्ती) १२- मुनि श्री दुलहराज आचार्य श्री तुलसी के शिष्य १३. मुनि श्री बुद्धमल्ल आचार्य श्री तुलसी के शिष्य एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के सहपाठी १४. साध्वी श्री कनकश्री आचार्य श्री तुलसी की शिष्या १५. मुनि श्री रवीन्द्रकुमार आचार्य श्री तुलसी के शिष्य १६. मुनि श्री विमलकुमार आचार्य श्री तुलसी के शिष्य १७. श्री लूनकरण विद्यार्थी प्रवक्ता जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान ) १८. साध्वी श्री मोहन कुमारी “श्रीडूंगरगढ़” आचार्य श्री तुलसी की शिष्या १९. साध्वी श्री आनन्दश्री आचार्य श्री तुलसी की शिष्या २०. श्री कन्हैयालाल फूलफगर हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मित्र परिषद, कलकत्ता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. श्री सोहनराज कोठारी न्यायाधीश, औद्योगिक न्यायाधिकरण ३१, गंगवाल पार्क जयपुर (राजस्थान) २२. साध्वी श्री संघमित्रा आचार्य श्री तुलसी की शिष्या २३. डा० नरेन्द्र भानावत प्राध्यापक, हिन्दी विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर (राजस्थान) २४. श्री देवेन्द्रकुमार कर्णावट सम्पादक “संस्थान", राजसमन्द २५. साध्वी श्री कमलश्री ___ आचार्य श्री तुलसी की शिष्या २६. उपाध्याय श्री अमर मुनि जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय के उपाध्याय वीरायतन, राजगृह २७. डा० छगनलाल शास्त्री सरदारशहर २८. मुनि श्री छत्रमल आचार्य श्री तुलसी के शिष्य २६. मुनि श्री नवरत्नमल आचार्य तुलसी के शिष्य ३०. मुनि श्री मोहनलाल 'शार्दूल' आचार्य श्री तुलसी के शिष्य ३१. साध्वी श्री यशोधरा । आचार्य श्री तुलसी की शिष्या ३२. प्रो० कैलाशचन्द जैन इतिहास विभाग श्री दि० जैन कालेज बड़ौत (उ० प्र०) ३३. डॉ० जेठमल भंसाली १० ई केमेक कोर्ट २५ केमेक स्ट्रीट कलकत्ता-१६ ३४. कुमारी मुकेश जैन इतिहास विभाग श्री दि० जैन कालेज बड़ौत (उ० प्र०) ३५. डा० नेमीचन्द जैन ___ सम्पादक, तीर्थंकर, इन्दौर ३६. डा० एस० के० रामचन्द्र राव बैंग्लोर ३७. श्री रामस्वरूप सोनी जैन विश्व भारती लाडनू (राजस्थान) ३८. सुश्री वीणा जैन जैन विश्व भारती लाडनू (राजस्थान) ३६. डा० नथमल टाटिया निदेशक, शोध विभाग जैन विश्व भारती लाडनू (राजस्थान) ४०.डा० शिवकुमार उच्चानुशीलन संस्कृत केन्द्र पूना विश्वविद्यालय पूना-७ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानों को सम्मतियाँ डा० नेमीचन्द जैन, सम्पादक 'तीर्थकर' इन्दौर (म०प्र०) 'तुलसी प्रशा' अच्छा निकल रहा है । उसका व्यक्तित्व और चरित्र अलग है। वह दूसरी तरह की भूख मिटाता है। उसका होना भी आवश्यक है। क्वालिटी की दृष्टि से सम्पादक गण बधाई के पात्र हैं। श्री कपूरचन्द जैन, प्रवक्ता के० के० जैन डिग्री कालेज, खतौली (उ० प्र०) 'तुलसी प्रज्ञा' का प्राप्त अंक देखकर प्रसन्नता हुई और यह जान कर और भी प्रसन्नता हुई कि अब यह पत्रिका मासिक से मासिक होने जा रही है । " ...."मैं आशा करता हूं कि यह पत्रिका समग्र जैन समाज की प्रतिनिधि स्तरीय पत्रिका होते हुए अपना उदाहरण आप होगी। - श्री कैलाशचन्द जैन 'मनीष', प्रवक्ता-दि० जैन कालेज बडौत 'तुलसी प्रज्ञा' आध्यात्मिक-ज्ञान, धर्म-दर्शन, संस्कृति के प्रकाश का भंडार है । भौतिक युग की चमक-दमक में आत्मिक चेतना धूमिल होती जा रही है, मानव-मन अशान्ति में डूबता जा रहा है । "तुलसी प्रज्ञा" में उच्चकोटि के विद्वानों के द्वारा हृदयग्राही, मानवीय, नैतिकता की शिक्षा देने वाले लेखों का महत्त्व स्वयं अभिव्यक्त है। "तुलसी प्रजा" धर्म-दर्शन, संस्कृति के छिपे हुए उपयोगी अध्यायों को प्रकट करने का प्रयास कर रही है। जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य धर्म-दर्शनों, प्राच्य इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता के तार्किक विवेचन के लेखों को स्थान देकर पत्रिका अपने उद्देश्य में अधिक सफलता प्राप्त कर सकेगी, जिससे इसका दृष्टिकोण और अधिक व्यापक होगा। श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिसिपल, शिक्षा निदेशालय, दिल्ली प्रशासन आपका पत्र और पत्रिका दोनों प्राप्त किए । धन्यवाद । पत्रिका बड़ी सुन्दर साजसज्जा एवं टिकाऊ कागज से परिपूर्ण है। रूप-रंग शोध-पत्रिका जैसा ही प्रतीत होता है। चिन्तन-परक सामग्री का बाहुल्य है । मुनि श्री नथमल जी की ताकिक शैली एवं चिन्तन निश्चय ही अनुसन्धित्सुओं के लिए पूर्णतया उत्प्रेरक हैं । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ प्रारम्भ से ही एक आचार्य के नेतृत्व में फला-फूला और विकसित हुआ है। यही कारण है कि समस्त धर्मसंघों में एकता की दृष्टि से इसका असाधारण स्थान है। इस धर्मसंघ में दीक्षित साधु-साध्वी-संघ एक ही आचार्य के कुशल निर्देशन में चलता है। भिक्ष स्वामी ने जिस धर्मवक्ष का बीजारोपण किया, उसे क्रमशः आचार्य भारिमाल, ऋषिराय, जयजश, मघवा, माणक, डालचन्द, कालूगणी और आचार्य श्री तुलसी ने सिञ्चित कर समृद्ध किया है। अणुव्रत अनुशास्ता युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी तेरापंथ धर्मसंघ के नवम-आचार्य हैं । आपके शासन काल में इस धर्मसंघ ने जो चातुर्दिश् उन्नति की है, वह आपकी कार्यक्षमता का निदर्शन है। किसी भी धर्मसंघ को एक सूत्र में पिरोए रहने का कार्य गुरुतर होता है और उससे भी गुरुतर कार्य होता है अपने सुयोग्य उत्तराधिकारी का चयन । किन्तु आचार्य श्री ने इस कार्य में अपनी जिस अलौकिक सूझ-बूझ का परिचय दिया है, वह अभिनन्दनीय है। गत ३ फरवरी को राजलदेसर में आचार्य श्री ने तेरापंथ धर्मसंघ के ११५वें मर्यादा महोत्सव के अवसर पर विशाल चतुर्विध संघ के समक्ष मुनि श्री नथमल जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है । कुछ ही महीनों पूर्व परमपूज्य आचार्यप्रवर ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से विभूषित किया था और अब उन्हें युवाचार्य के पद पर आसीन किया है। साथ ही साथ उनकी महाप्रज्ञ उपाधि को उनके नाम में परिवर्तित कर दिया है और अब महाप्रज्ञ विशेषण विशेष्य बनकर उनका स्वरूप बन गया है। इस प्रसंग में 'प्रज्ञा' शब्द के मौलिक अर्थ पर प्रकाश डालना अप्रासंगिक न होगा। प्रज्ञा के सामान्यतः तीन भेद गिनाये गये हैं-१. श्रुतमयी प्रज्ञा २. चिन्तामयी प्रज्ञा एवं ३. भावनामयी प्रज्ञा । आप्तवचन के आधार पर विकसित प्रज्ञा को श्रुतमयी प्रज्ञा, चिन्तनमनन पर आधारित प्रज्ञा को चिन्तामयी प्रज्ञा एवं समाधिजन्य ज्ञान को भावनामयी प्रज्ञा कहा गया है। ये तीनों प्रज्ञाएं आध्यात्मिक विकास के सोपान हैं। पातञ्जल योगभाष्य में एक श्लोक उद्धृत है, जो प्रज्ञा के स्वरूप पर विशद प्रकाश डालता है। वह इस प्रकार है खण्ड ४, अंड ७-८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयत्प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् ॥ यह उक्ति युवाचार्य के जीवन में अक्षरशः चरितार्थ होती है । आगमज्ञान एवं चिन्तन-मनन अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पा चुका है तथा ध्यान के आयाम प्रदान किये हैं । परमाराध्य आचार्य श्री ने मुनिश्री को युवाचार्य पद पर नियुक्त करके एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य सुसम्पन्न किया है, जो तेरापंथ महासंघ को और भी अधिक उज्ज्वल बनायेगा, ऐसा हमारा सुदृढ़ विश्वास है । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के सम्मान में 'तुलसी प्रज्ञा' का प्रस्तुत अंक युवाचार्य महाप्रज्ञ विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है । इसे प्रकाशित करने में हमें भाई कमलेश जी चतुर्वेदी द्वारा प्रसारित विज्ञप्तियों एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से काफी सहयोग मिला है, जिसके लिए हम अत्यन्त आभारी हैं । - नथमल टाटिया सम्पादक विज्ञापन दाताओं को आह्वान आप अपने से सम्बन्धित अथवा सम्पृक्त व्यावसायिक संस्थानों के विज्ञापन इस पत्रिका में प्रकाशित करा कर हमें सहयोग प्रदान करें । विज्ञापन दर प्रति अंक इस प्रकार है कवर का चौथा पृष्ठ कवर का द्वितीय व तृतीय पूरा पृष्ठ कवर का द्वितीय व तृतीय आधा पत्रिका के भीतर का पूरा पृष्ठ पत्रिका के भीतर का आधा पृष्ठ पृष्ठ ००/- रु० ३१६ आपका गम्भीर क्षेत्र को भी नये ५०० ४०० / - रु० २५०/- रु० - ३०० /- रु० १७५/- रु० विज्ञापन दाता की रुचि के अनुकूल स्पेशल आर्ट पेपर पर एक से अधिक रंगों की छपाई कराए जाने का भी प्रावधान है, जिनकी दरों के लिए कुल सचिव अथवा हमारे अधिकृत प्रतिनिधि से सम्पर्क स्थापित करें । विज्ञापन में कोई ब्लॉक देना अभीष्ट हो तो विज्ञापन दाता के ब्लॉक भेजने पर या उनके व्यय पर उसकी व्यवस्था भी हो सकेगा । लगातार तीन या किए जाने का भी अधिक अंकों में विज्ञापन देने पर उपरोक्त दरों में कुछ रियायत प्रावधान है, जिसके लिए संपर्क स्थापित करें । - गोपीचंद चौपड़ा प्रबन्ध सम्पादक तुलसी प्रज्ञा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन-वीथी खत्तियगणउग्गरायपुता माहणभोइय विविहा य सिप्पिणो। नो तेसि वयह सिलोगपूयं तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण भोगिक (सामन्त) और विविध प्रकार के शिल्पी जो होते हैं, उनकी श्लाघा और पूजा नहीं करता, किन्तु उसे दोष-पूर्ण जान उसका परित्याग कर जो परिव्रजन करता है-~-वह भिक्षु है। गिहिणो जो पव्वइएण विट्ठा अप्पव्वइएण व संयुया हविज्जा। तेसि इहलोइयफलट्ठा जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥ दीक्षा लेने के पश्चात् जिन्हें देखा हो या उससे पहले जो परिचित हों, उनके साथ इहलौकिक फल (वस्त्र-पात्र आदि) की प्राप्ति के लिए जो परिचय नहीं करता-वह भिक्षु सयणासणपाणभोयणं विविहं खाइमसाइमं परेसि । अदए पडिसेहिए नियण्ठे जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू ॥ ___ शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य गृहस्थ न दे तथा कारण विशेष से मांगने पर भी इन्कार हो जाए, उस स्थिति में जो प्रद्वेष न करे--वह भिक्षु है। जं किंचि आहारपाणं विविहं खाइमसाइमं परेसिं लद्ध । जो तं तिविहेण नाणुकम्पे मणवयकायसुसंवुडे स भिक्स् ॥ गृहस्थों के घर से जो कुछ आहार, पानक और विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य प्राप्त कर जो हस्थ की मन, वचन और काया से अनुकम्पा नहीं करता-उन्हें आशी र्वाद नहीं देता, जो मन, वचन और काया से सुसंवृत होता है-वह भिक्षु है । ओसामन, जौ का दलिया, ठण्डा-वासी आहार, काँजी का पानी, जौ का पानी जैसी नीरस भिक्षा की जो निन्दा नहीं करता, जो सामान्य घरों में भिक्षा के लिए जाता हैवह भिक्षु है। आयामगं चेव जवोदणं च सीयं च सोवीरजवोदगं च। नो होलए पिण्डं नीरसं तु पन्तकुलाई परिव्वए स भिक्खू ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदा विविहा भयन्ति लोए दिव्या माणुस्सगा तहा तिरिच्छा । भीमा भयभरवा उराला जो सोच्चा न वहिज्जई स भिक्खू ॥ लोक में देवता, मनुष्य और तिर्यञ्चों के अनेक प्रकार के रौद्र, अमित भयंकर और अद्भुत शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो नहीं डरता-वह भिक्षु है। वादं विविहं समिच्च लोए सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी उवसन्ते अविहेडए स भिक्खू ॥ लोक में विविध प्रकार के वादों को जानकर भी जो भिक्षुओं के साथ रहता है, जो संयमी है, जिसे आगम का परम अर्थ प्राप्त हुआ है, जो प्राज्ञ है, जो परीषहों को जीतने वाला और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है, जो उपशान्त और किसी को भी अपमानित न करने वाला होता हैवह भिक्षु है। प्रसिप्पजीवी अगिहे अमित्ते जिइन्दिए सव्वओ विष्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी चेच्चा गिहं एगचरे स भिक्खू ।। जो शिल्प-जीवी नहीं होता, जिसके घर नहीं होता, जिसके मित्र नहीं होते, जो जितेन्द्रिय और सब प्रकार के परिग्रह से मुक्त होता है, जिसका कषाय मन्द होता है, जो थोड़ा और निस्सार भोजन करता है, जो घर को छोड़ अकेला (रागद्वेष से रहित हो) विचरता है--वह भिक्षु है। (उत्तरज्झयणाणि, अ० १५/६-१६) तुलसी-प्रज्ञा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवचन* अनासक्ति आसक्ति और कर्म के आधार से पुरुष चार प्रकार के होते हैं - १. कुछ पुरुष आसक्ति छोड़ देते हैं, पर कर्म को नहीं छोड़ते । २. कुछ पुरुष कर्म को छोड़ देते हैं, पर आसक्ति को नहीं छोड़ते । ३. कुछ पुरुष आसक्ति और कर्म दोनों को छोड़ देते हैं । ४. कुछ पुरुष न कर्म को छोड़ते हैं और न आसक्ति को । महान् व्यक्ति वह होता है, जो कर्म और आसक्ति दोनों से मुक्त हो जाता है। पर ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं। सामान्य व्यक्ति दोनों को छोड़ने की क्षमता नहीं रखते । वे किसी एक से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं। कार्य उतना ही करना चाहिए, जितनी क्षमता हो। क्षमता के बाहर किया गया कार्य या तो कार्य-सम्पूर्ति से पहले ही छोड़ दिया जाता है अथवा वह विघ्नोत्पादक बन जाता है। कोई भी कार्य क्यों न हो, प्रारम्भ करके पीछे हटना क्लीवता का सूचक है। किसी नीतिकार ने कहा है प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः, प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति ।। ___ कुछ व्यक्ति विघ्न के भय से किसी कार्य को प्रारम्भ ही नहीं करते। उन्हें प्रतिक्षण सन्देह बना रहता है कि कार्य प्रारम्भ किया और विघ्न उपस्थित हो गया, तो फिर क्या होगा ? मध्यम श्रेणी के व्यक्ति कार्य को प्रारम्भ तो कर देते हैं, पर ज्योंही कुछ कठिनाइयाँ *आचार्य श्री तुलसी के प्रवचन से । खण्ड ४, अंक ७-८ ३१६ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आती हैं, कार्य को बीच में ही छोड़ देते हैं। तीसरी कोटि के व्यक्ति महान व्यक्ति होते हैं। वे धीर, वीर और गम्भीर होते हैं। भले उनके सामने कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न आएं, स्वीकृत मार्ग से वे एक इंच भी इधर-उधर नहीं होते। उनका विवेकी और पुरुषार्थी मानस कभी भी औचित्य का अतिवर्तन नहीं करता। जो विवेकपूर्वक आसक्ति और कर्म दोनों को छोड़ने की क्षमता रखता है, वस्तुतः वह महान् होता है। आत्म-साधना के क्षेत्र में अनासक्ति का बहुत बड़ा महत्त्व है। मोक्ष-प्राप्ति में गहत्याग की भी कम महत्ता नहीं है, पर आसक्ति से मुक्त हुए बिना केवल गृहत्याग फलदायी नहीं होता। भगवान् महावीर से पूछा गया—भन्ते ! क्या मोक्ष पाने के लिए गृहवास का त्याग करना और साधु-वेष धारण करना अनिवार्य है ? भगवान् ने कहा-वेष और गृहवास मोक्ष-प्राप्ति में इतने बाधक नहीं, जितनी बाधक है आसक्ति । मुक्ति का सम्बन्ध अन्तर्वत्तियों से है । अन्तर्वत्तियाँ यदि अनासक्त नहीं हैं, तो वेष बदल लेने पर भी मुक्ति नहीं होती और आन्तरिक वृत्तियाँ अनासक्त हैं, कषाय-मुक्त हैं, तो गृहवास से मुक्त हुए बिना भी मुक्ति हो जाती है। __कोई व्यक्ति यह आग्रह करे कि भगवान् ने गृहस्थ वेष में भी मुक्त होना बताया है, इसलिए मैं तो इसी वेष में रहूँगा, साधु-वेष स्वीकार नहीं करूंगा, यह चिन्तन भूल भरा चिन्तन है। गृहस्थ वेष का आग्रह भी मेरी दृष्टि में एक आसक्ति ही है। जब मनुष्य विरक्त बन गया, संसार-त्याग की ओर उन्मुख बन गया, फिर साधु-वेष धारण न करने का क्या प्रयोजन ? हमारे सामने अपवाद रूप में एक या दो उदाहरण ही ऐसे मिलते हैं, मरुदेवी माता व भरत चक्रवर्ती का, जिन्होंने गृहस्थ वेष में रहते हुए भी कैवल्य प्राप्त किया। साधु-वेष एक पहचान है, पर यह विचारों को भी बहुत प्रभावित करता है। साधक का यह चिन्तन रहता है कि मैंने साधु का वेष धारण किया है। मैं यदि अनुचित कार्य करूगा, तो लोग मुझे क्या कहेंगे ? मेरी एक गलती से सारा संघ बदनाम होगा। यह मेरे लिए उचित नहीं है । वेष भी मनुष्य का त्राण बन जाता है और उसे पथच्युत होने से बचा लेता है, ऐसे अनेक उदाहरण पढ़े और सुने जाते हैं। ३२० तुलसी प्रज्ञा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य का मनोनयन : एक ऐतिहासिक घोषणा आचार्य तुलसी [तेरापन्थ धर्म-संघ के राजलदेसर में आयोजित ११५वें मर्यादा महोत्सव (दि० ३ फरवरी, १९७६) के शुभावसर पर युग प्नधान आचार्य श्री तुलसी ने युग-निर्माण कारी घोषणा द्वारा चतुर्विध धर्म संघ को आत्मविभोर कर दिया। उन्होंने फरमाया-] __ आज मुझे इस धर्म संघ का नेतृत्व और दायित्व निभाते ४३ वर्ष हो गए और मैंने अपने दायित्व को मनसा, वाचा, कर्मणा निभाया और निभाता रहूँगा। आज मेरी अवस्था ६५ वर्ष की हो गई है । आप देखते हैं कि हमारे धर्म-संघ के अब तक जितने आचार्य हुए हैं, एक को छोड़कर सभी आचार्यों ने इस उम्र से पहले-पहले अपना दायित्व औरों को सौंप दिया । मैं भी आज एक घोषणा करना चाहता हूँ । (सारी सभा में एक सन्नाटा)। एक नाम की घोषणा करना चाहता हूँ। (लोगों की उत्सुकता तीव्रतम हो गई)। कुछ लोगों में बेचैनी है, क्या ? ६५ वर्ष की उम्र है, अब तक उत्तराधिकार की कोई चर्चा नहीं है, कहीं माणकगणी की तरह बरतारा न बीत जाए । कुछ लोगों को यह चिन्ता है कि आचार्य श्री परेशानी में हैं। करना चाहते हैं, किन्तु कर नहीं सकते । कुछ लोग यह कहते हैं कि करें क्या, साधुओं में बड़ा भारी विरोध है, न जाने कब क्या हो जाय । ऐसी बातें पागलपन की उपज हैं, निरर्थक हैं और असत्य हैं। आज तक मेरे मन में इसके लिए कभी भी एक क्षण भी बेचैनी नहीं हुई है। इस बारे में कभी मैंने निर्णय लिया ही नहीं। एक दो बार मेरे मन में यह बात जरूर आई । आकस्मिक बीमारी आई। तब मैंने सोचा कि अकस्मात् कोई काम हो जावे तो क्या करना चाहिए। मैंने कोई चिन्तन भी किया और फिर उसे छोड़ दिया। मैं ठीक कह रहा हूँ । धर्मसंघ के सब साधु-साध्वी बैठे हैं । मैंने इस विषय में कभी चिन्ता नहीं की। मुझे लगता है, आज भी मेरे लिए सं० १६६३ वि० का साल है। मेरा उल्लास, मेरी प्रसन्नता में कोई कमी नहीं है। लेकिन आज मैं एक नाम घोषित करना चाहता हूँ। लोग चिन्तन कर रहे होंगे। नाम पुराना है । भारतवर्ष में ही है, बाहर नहीं है । (लोगों का धैर्य विचलित हो रहा था। सब आचार्य श्री की ओर टकटकी बाँधे हुए थे।) मेरी दृष्टि में, मेरी आज्ञा में, मेरे चिन्तन और इगित पर चलने वाले साधु का नाम है। साधु सक्षम है मेरा दायित्व खण्ड ४, अंक ७-८ ३२१ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निभाने को । अब किन-किन का नाम लूं । मैं जिस किसी पर हाथ रख कर कहूँ कि तुम निभाओ, वही निभा सकता है। अब आप लोग आतुर हो रहे होंगे । मेरे समूचे जीवन का सबसे बड़ा निर्णय है। यह निर्णय समूचे संघ का निर्णय है । किसी साधु को कल ना नहीं है कि क्या होने वाला है आज ? यह पत्र (उत्तराधिकार) मेरे हाथ में है। इस पत्र को मैंने आज ही दिन के साढ़े ग्यारह बजे लिखा है । अब मैं अपने उत्तराधिकारी का नाम घोषित कर रहा हूँ। ____ आचार्य प्नवर ने आगे कहा, ''मैं आज तेरापन्थ धर्म संघ के ११५वे मर्यादा महोत्सव में अपने उत्तराधिकारी के रूप में महाप्रज्ञ मुनि नथमल को नियुक्त करता हूं।" बस, इतना सुनते ही आचार्य श्री तुलसी की जय जयकार से आकाश गुजित हो उठा। लो। थिरकने से लगे । खुशी का अपार समुद्र लहराने लगा। आचार्य प्नवर ने आगे कहा-मैं चाहता हूँ कि युवाचार्य महाप्नज्ञ एक क्षण के लिए मेरे आसन पर बैठे। ये संकोच कर रहे हैं । यह कोई नया काम नहीं है । जयाचा ने ऐसा किया था । जयाचार्य ने किसी विशिष्ट साधु को अपने पास बिठाया था। मैं तो युवाचार्य को बिठा रहा हूँ। किन्तु ये उपचार पसन्द नहीं करते हैं। मुझे लगता है कि इनका पट्ट पर बैठना बड़ा मुश्किल हो जायगा । मैं यह बहुत अच्छा मानता हूँ। ऊपर बैठने मात्र से कोई बड़ा नहीं होता है, नीचे बैठने से कोई छोटा नहीं होता है। सब लोग अपने-अपने स्थान पर बैठे-बैठे इनका अभिवादन करें। (उपस्थित जन समुदाय हर्ष-विभोर होकर वन्दन करता है।) मुझे बहुत प्रसन्नता है इस दायित्व को सौंप कर। तथापि मैं अपने को हल्का अनुभव नहीं कर रहा हूँ। दायित्व तो मैंने सौंप दिया, परन्तु मेरा भार तो मुझे वहन करना ही होगा । ये किसी दूसरे काम में संलग्न हैं । मैं बाधक बनना नहीं चाहता । मैं इनको आश्वासन देता हूँ कि तुम निश्चिन्त रह कर अपनी साधना को चलाओ । बाकी सब काम मैं सम्हालता रहूंगा। अभी मैं स्वयं सक्षम हूँ काम करने के लिए। हमारी साध्वी प्रमुखा ने कहा आप यह काम कर तो रहे हो, क्या आपको कार्य से राहत मिलेगी ? मुझे राहत नहीं मिलेगी और न मैं यह चाहता हूँ। इतना सुन्दर वातावरण देख कर मैं स्वयं हर्ष-विभोर हो रहा हूँ। धर्मसंघ के लिए एक अकल्पित काम हुआ है, जिससे धर्मसंघ की शोभा बढ़ेगी और इसका बहुमुखी विकास होगा। मैं अत्यन्त प्रसन्न मन से इनको आशीर्वाद देता हूँ कि इनके नेतृत्व में धर्मसंघ फूले-फले । मेरे जीवन का करणीय कार्य सम्पन्न हुआ। काम करने के बाद इतनी प्रसन्नता हुई कि कल रात को नींद भी निश्चितता की आई । मैंने अपना कार्य किया है । समूचा संघ प्रसन्न है।" - आचार्य तुलसी ३२२ तुलसी प्रज्ञा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराधिकार पत्र अहम् ।। नमोत्थणं समणस्त भगवओ महावीरस्स ।। ॥ श्री भिक्षु भारिमाल ऋषिराय जयजस मघवा माणक डालचन्द कालु गुरुभ्यो नमो नमः ॥ मैं आज तेरापन्थ धर्म संघ के ११५वें मर्यादा महोत्सव समारोह में अपने उत्तराधि- १ १ कारी के रूप में महाप्रज्ञ शिष्य मुनि नथमल को नियुक्त करता हूँ। मुनि नथमल प्रारम्भ से ही मेरे प्रति समर्पित रहा है और अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति करता रहा है । मेरा विश्वास है मुनि नथमल अपने दायित्व का समग्रता से निर्वाह है ६ करते हुए हमारे धर्म संघ को उत्तरोत्तर विकासोन्मुख बनाता रहेगा। आचार्य तुलसी साक्ष्य : साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा १ वि० सं० २०३५, माघ शुक्ला ७, शनैश्चर, दिनमान ११।। बजे नाहर-भवन, राजलदेसर (राज.) ६३।२।१९७६ खण्ड ४, अंक ७-८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रवर का शुभाशीर्वाद नथमल-नामगं सीसं, महापण्णं समप्पियं । आयरियो तुलसी हं, उत्तराहिगार मप्पेमि ।। ।। मैं आचार्य तुलसी अपने महाप्रज्ञ और समर्पित शिष्य मुनि नथमल को अपना उत्तराधिकार सौंपता हूं। जाणणं दसणेणं य, पेहाझाणेण संतयं । विगासं कुणमाणो सो, चिरं अच्छउ सासणे ॥२॥ ज्ञान, दर्शन और प्रेक्षा-ध्यान के द्वारा सतत विकास करते हुए युवाचार्य महाप्रज्ञ धर्म-शासन में दीर्घजीविता प्राप्त करें। सतो दंतो सुई दक्खो, ओयंसी सुपइट्टिओ। गहीयनव्वदाइत्तो, चिरं अच्छउ सासणे ।।३।। शान्त, दान्त, शुचि, दक्ष, ओजस्वी और सुप्रतिष्ठित युवाचार्य महाप्रज्ञ अपने नए दायित्व को स्वीकार कर धर्म-शासन में दीर्घ-जीविता प्राप्त करें। साहुणो साहुणीओ य, सावगा साविया तहा । सम्म आसासयंतो सो, चिरं अच्छउ सासणे ।।४।। साध-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं को पूर्ण रूप से आश्वस्त करते हुए युवाचार्य महाप्रज्ञ धर्म-शासन में दीर्घ-जीविता प्राप्त करें। संघे णवणवायामा, नवम्मेसा णवक्कमा। णिच्चं उग्घाडयंतो सो चिरं अच्छउ सासणे ॥५॥ धर्मसंघ में सदा नए-नए आयामों, उन्मेषों और अभिक्रमों का उद्घाटन करते हुए युवाचार्य महाप्रज्ञ धर्म-शासन में दीर्घ-जीविता प्राप्त करें। *आचार्य श्री तुलसी द्वारा अपने उत्तराधिकारी युवाचार्य श्री महाप्नज्ञ (पूर्वनाम-मुनि श्री नथमल) को पट्टाभिषेक के समय प्रदत्त आशीर्वाद । ३२४ तुलसी प्रज्ञा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयी कसौटी : नया दायित्व * युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ आचार्यवर ! आप बहुत शक्तिशाली हैं । आप में असीम शक्ति है । आपको राहत लेने की भी जरूरत नहीं और आपको कोई राहत दे सके, यह भी एक चिन्तनीय प्रश्न है । किन्तु आज आप स्वयं भारी हैं, गुरु हैं पर स्वयं राहत लेना भी नहीं चाहते और दूसरे को भारी बना देना चाहते हैं । यह दोनों बातें बहुत ही अजीब-सी हैं । मेरा सारा जीवन मेरे सामने चित्रपट की भाँति अंकित है । मैं जिस दिन दीक्षित होकर आया, पूज्य आचार्य कालूगणी जी ने कहा तुम मुनि तुलसी के पास जाओ। वहीं तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा होगी। मैं चला गया । उनके पास रहा। कैसे रहा, यह आपको बताऊ' तो शायद नहीं भी मानें । जानने वाले जानते हैं, जानने वाले भी बैठे हैं, जिन्होंने हमारे बचपन को देखा है । साक्षी हैं, जो जानते हैं । मैं आपको नहीं कह सकता कि आचार्य तुलसी के प्रति समर्पित हुआ, लोग कहते हैं ऐसा । किन्तु मैं इस बात को नहीं मानता । जहाँ अद्वैत लगता हो, वहाँ समर्पण की बात ही कैसे हो सकती है ? मैंने देखा, अनुभव किया, कोई ऐसा अज्ञात संस्कार या, जिसे मैं स्वयं नहीं समझता । एक घटना मैं आपको बताऊं । पाली की बात है । पूज्य कालूगणी विराज रहे थे । किसी कारणवश मैं कोई पाठ याद नहीं कर सका। मुनि तुलसी कुछ नाराज हो गये । यह मेरे लिए सबसे बड़ा दण्ड था । प्रतिक्रमण के बाद मैं गया और पैर यह कभी मान्य नहीं था । बहुत कठिन समस्या थी । पकड़कर बैठ गया । इतने समय तक बैठा रहा कि लगभग पूरा पहर बीत गया । न ये बोले और न मैं बोला । सोने का समय आया । उठकर चले । आप कल्पना कर सकते हैं कि यह समर्पण नहीं होता, यह कोई अद्वैत ही हो सकता है । आचार्यवर को लाडनूं रहना पड़ा, किसी कारणवश । मैं आ गया छापर पूज्य कालूगणी के साथ । मेरा तो मन नहीं लगता था, पर मुझे लगता था मन आचार्यवर का भी नहीं लगता था । कुछ साधु आए, सुखलाल जी स्वामी, अमोलकचन्द जी, प्रार्थना की। मुझे भेजा गया । मैं वहाँ पहुचा । सब साधु गोचरी गये हुए थे । केवल मैं बैठा था, आपकी उपासना में । आपने कहा- - क्या तुम भी मेरे जैसे बनोगे ? मैंने कहा - आप बनायेंगे तो बन जाऊंगा । नहीं बनायेंगे तो नहीं बनूंगा । मैं मानता हूँ कि मेरे जैसा निश्चिन्त व्यक्ति बहुत कम हो । मैंने अपनी कोई चिन्ता नहीं की । कभी नहीं की और करने की मुझे जरूरत नहीं । जब मेरे इतने बड़े चिन्ताकार वाचार्य श्री द्वारा उत्तराधिकारी - पद ग्रहण के पश्चात् प्रदत्त वक्तव्य । खण्ड ४, अंक ७-८ * ३२५ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का आशीर्वाद मेरे माथे पर है, तो मुझे करने की कोई जरूरत नहीं होगी। आप देखें, आज का साधु-साध्वी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता होगा कि पछेवड़ी ओढनी है, कब ओढ़नी है और कब सिलवानी है साध्वियों से । मुझे कोई पता नहीं होता। वस यन्त्रवत् होता है तो काम हो जाता है और नहीं होता तो चलता रहता है । मुझे कभी चिन्ता नहीं होती। इतनी निश्चिन्तता का जीवन मैंने जीया । जब कोई आचार्य बनता है, प्रसन्नता होती है । मैं यह सब कहता हूं। आचार्य तुलसी जब आचार्य बने तो सबको बहुत प्रसन्नता हुई, पर मुझे बहुत प्रसन्नता नहीं हुई । इसलिए नहीं हुई कि मैंने सोचा-जहाँ मैं रहता था, मेरे सारे जीवन का सम्बन्ध था, अब नहीं रहेगा। आचार्य श्री तुलसी पहले तो मेरे थे और अब सबके बन गये तो मैं बहुत कट गया। - मैं अपना सौभाग्य मानता है। आचार्यवर ने मुझ पर एक नया दायित्व सौंपा और कसौटियाँ तो मेरी बहुत होती रहीं हैं। समय-समय पर अनेक परीक्षाएं हुई हैं। पर आज सबसे बड़ी परीक्षा और कसौटी इन्होंने करनी चाही है। आज तक आचार्यवर ने मुझे जो भी काम सौंपा, मैं उसमें शत-प्रतिशत सफल हुआ हूं। मैं अपने आत्म-विश्वास के साथ आचार्यवर के चरणों में यह प्रार्थना उपस्थित करता हूँ कि आपने जो काम सौंपा है, आपके आशीर्वाद से यह भी शत-प्रतिशत सफल होगा, इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है। परम पूज्य आचार्य भिक्षु और आचार्य भिक्षु की समूची परम्परा में आचार्य कालूगणी तक सभी आचार्यों की जो एक महान् परम्परा और जिस परम्परा को आचार्यवर इतने लम्बे समय तक एक प्रगति के साथ जिस प्रकार अग्रसर कर रहे हैं, उसी कड़ी में मुझे जोड़कर और प्रगति का भागीदार मुझे बनाया है। मैं कृतज्ञता जैसे छोटे शब्द का प्रयोग करना नहीं चाहता। आचार्यवर ने अनन्त उपकार से मुझे उपकृत बना दिया है कि मैं उसके लिए शायद कोई नया शब्द गढूं, यह बात बहुत छोटी है। मैं अनुभव करता हूँ कि आचार्य वर का अनुशासन कठोर भी था और कोमल भी था। मेरे सभी सहपाठियों मुनि दुलीचन्द जी, मनि बधमल्ल जी, मुनि जंवरीमल जी आदि-आदि सभी दोनों प्रकार के अनुशासन से गुजरे हैं। इतने कठोर अनुशासन की परम्परा से हम लोग गुजरे हैं, शायद बहुत कम लोग गुजरते होंगे। एक बार मैं और मुनि बुधमल्ल जी पूज्य कालूगणी के पास गये । प्रार्थना की-गुरुदेव ! मुनि तुलसी हमें पढ़ाते हैं, सब कुछ करते हैं, पर बड़ा कठोर अनुशासन रखते हैं। हमने शिकायत की। उन्होंने कहा- तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। हम दोनों बैठ गये । पूज्य कालूगणी ने कहा काजी जी पढ़ा रहे थे। बहुत सारे छात्र थे। बादशाह का लड़का भी था। परीक्षा का समय आया । सब छात्र घर जा रहे थे। बाजार से गुजरे। काजी ने पाँच-दस सेर गेहूँ तुलवाये, एक पोटली बाँधी और बादशाह के शाहजादे के कन्धे पर रख दिये । परीक्षा हुई। परीक्षा में शाहजादा उत्तीर्ण हुआ। काजी का यह व्यवहार बादशाह को अच्छा नहीं लगा, शाहजादे को भी अच्छा नहीं लगा। बादशाह बोला-यह आपने अच्छा नहीं किया। काजी ने कहा -- मैंने बहुत सोच-समझकर किया है। यह बादशाह बनेगा। आपका उत्तराधिकारी होगा तो यह दूसरे को दण्ड देगा। पता चल जाए कि भार उठाने में कितनी कठिनाई होती है। इसलिये मैंने यह काम किया है। कालूगणी ने कहा- गुरु और ३२६ तुलसी प्रज्ञा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक जब बादशाह शाहजादे कन्धे पर पोटली रख सकते हैं तो जाओ तुम्हारी सुनवाई नहीं होगी । हम दोनों फंस गये । न तो कालूगणी ने सुनाई की और हमने सोचा कि बात मुनि तुलसी तक पहुंच जायेगी तो और कठिनाई होगी। मैं अनुभव करता हूँ कि आचार्यश्री ने जिस अनुशासन के साथ हमारे जीवन का निर्माण किया है, ऐसे अध्यापक भी शायद नहीं मिलेंगे । गुरुदेव ! मैं अब तक अपने साज में था और मेरे पास कुछ सन्त थे । काम करता था । आज मैं किसी विशेष का नहीं रहा । किसी व्यक्ति विशेष का नहीं रहा । न मेरा साज रहा, न मेरे पास रहने वाले साधु रहे, न कोई दूसरे रहे । मैं तो अब सबका हो गया हूँ । मैं आशा करता हूं कि साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, सब मुझे मेरा काम करने में पूरा-पूरा सहयोग देंगे। मैं चाहूँगा कि आचार्यवर का यह आशीर्वाद, असीम करुणा मुझे निरन्तर उपलब्ध रहे। मैं अपने महान् आचार्यों की परम्परा को और उज्ज्वल बना सकूं, तेरापंथ धर्मसंघ के गौरव को और बढ़ा सकूं, यही आशीर्वाद आचार्यवर से चाहता हूँ । 1:0:1 'तुम निश्चिन्त रहो' विक्रम संवत २०२१ का मर्यादा महोत्सव बालोतरा था । आचार्य प्रवर ने महोत्सव के दिन साधु साध्वियों के लिए दो श्रेणियाँ नियुक्त की - १ - भावियप्पा - भावितात्मा २ -- सेवट्ठी -- सेवार्थी । दोनों श्रेणियों के लिए उसी समय साधु-साध्वियों के नाम मांगे गये । कुछ साधु-साध्वियों ने अपने नाम भी दिये । मुझे युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने सेवट्ठी श्रेणी के लिए नाम देने का संकेत दिया, मुझे हिचकिचाहट हुई। मेरे में इतनी योग्यता कहाँ थी। लेकिन मैं युवाचार्य श्री के इंगित को कैसे टाल सकता था । आखिर मैंने अपना नाम दे दिया । उसके बाद कुछ संतों ने मुझसे कहा- अब तुम्हारा अध्ययन ठप्प हो जायेगा, क्योंकि तुमने सेवी श्रेणी में अपना नाम दे दिया । अब आचार्य श्री तुम्हें जब कभी भी जहाँ जरूरत होगी भेज देंगे । मैंने युवाचार्य श्री को संतों का कथन निवेदन किया । तब युवाचार्य श्री ने फरमाया- तुम निश्चिन्त रहो । युवाचार्य श्री के ये शब्द मेरे लिए आलंबन बन गये और मैं निश्चिन्त हो गया । — मुनि विमल कुमार खण्ड ४, अंक ७-८ ३२७ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ : उल्लेखनीय तिथियां १. जन्म-वि० सं० १९७७, आषाढ कृष्णा १३, टमकोर । पिता-तोलाराम जी चोरडिया । माता बालू जी। २. बीक्षा-वि० सं० १९८७, माघ शुक्ला १०, सरदार शहर। ३. अग्रगण्य-वि० सं० २००१ । ४. साझ -- वि० सं० २००४, रतनगढ़ । ५. निकायसभिव-वि० सं० २०२२, माघ शुक्ला ५, हिसार । ६. बक्शीश-काम-काज तथा बोझभार, वि०सं० २०२२, सरदारशहर। ७. महाप्रज्ञ-उपाधि-अलंकरण -वि० सं० २०३५, कार्तिक शुक्ला १३, गंगाशहर । ८. युवाचार्य पद-नियुक्ति - वि० सं० २०३५, माघ शुक्ला ७, राजलदेसर। ३२८ तुलसी प्रज्ञा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं नये दायित्व के प्रति समर्पित रहूंगा * युवाचार्य श्री महारश भाग्यविधाता आचार्यप्रवर, महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी, श्रमण-श्रमणी परिवार एवं अन्तरङ्ग परिषद् के सदस्य ! मैं सबसे पहले अपने उस गुरु को नमस्कार करता हूं, जिसने मेरी प्रज्ञा को प्रजागृत किया और चित्त को निर्मल किया, जो भिन्न नहीं 1 गुरु कभी भिन्न नहीं होता है । गुरु हो और भिन्न हो तो मानना चाहिए कि गुरु नहीं है । गुरु गुरु ही होगा । यह नहीं हो सकता कि गुरु भी हो और आलोच्य भी हो। दोनों बातें कभी एक साथ नहीं होती । मेरा बचपन का एक संकल्प था कि जिसको गुरु मान लिया, उसे गुरु ही मानना है, उसको और कुछ नहीं मानना है । गुरु भी मानते चले जाएं और सब कुछ भी करते चले जाएं, इससे दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना जीवन में और कुछ हो नहीं सकती । गुरु अभिन्न ही होगा, आत्मा से भिन्न नहीं होगा । मैं मानता हूँ, मेरे जीवन की सफलता का एक सूत्र था - - मैंने मुनि तुलसी और आचार्य तुलसी को गुरु रूप में स्वीकार किया । मैं वैसा कोई भी काम नहीं करूंगा, जिससे मुनि तुलसी और आचार्य तुलसी अप्रसन्न हों । इस सूत्र ने मुझे हर बार उवारा और मेरा पथ प्रशस्त किया । मैं आज इस श्रमण श्रमणी परिषद् में आचार्यप्रवर के प्रति अपनी सारी श्रद्धा समपित करना चाहूंगा और मानता हूँ कि यह पुनरावृत्ति ही कर रहा हूँ । संस्कारवश तो मैंने जिस दिन दीक्षा ली थी, उस दिन श्रद्धा ही नहीं अपने आपको सर्वथा समर्पित कर चुका था । मेरे पास ऐसा कुछ बचा नहीं था, जिसे मैं अपना कहूँ । पर इस अवसर पर उस बात को पुनः दुहराना भी जरूरी समझता हूँ और इसलिये समझता हूँ कि आचार्यप्रवर ने अपने विश्वास को दुहराया है । मुझ पर अपना भरोसा दुहराया है । मैं मानता हूँ कि विश्वास मुझ पर हमेशा बना रहा है और उसका सबसे बड़ा साक्षी मैं स्वयं हूँ कि मुझ पर कितना विश्वास रहा । किन्तु उस विश्वास को आचार्यप्रवर ने समूचे संघ के समक्ष जिस प्रकार * युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ द्वारा आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य में दिनाङ्क ७-२-७६ को साधु-साध्वियों की एक अन्तरङ्ग गोष्ठी में व्यक्त उद्गार । खण्ड ४, अंक ७-८ ३२ ६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुहराया और मुझे उस विश्वास से जितना भारी बनाया, उस विश्वास की पुनरावृत्ति के साथ-साथ मैं भी अपनी श्रद्धा की पुनरावृत्ति करना चाहता हूँ। मेरे लिए सबसे बड़ा संबल आचार्यप्रवर का इगित, निर्देश और आदेश ही होगा । उसी के अनुसार मेरे जीवन का समूचा क्रम चलेगा। मैं नन्हा-सा बालक था और छोटे-से गाँव में जन्म हुआ था। भोला-भाला था। कुछ पढ़ना-लिखना नहीं जानता था। किसने कल्पना की थी कि उसके प्रति हमारा समाज, भारतीय समाज, प्रबुद्ध समाज किन-किन संज्ञाओं से अपनी भावना प्रकट करेगा। कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था । मैं सारी बातें दोहराऊ तो लग सकता है कि गर्वोक्ति कर रहा हूँ। मैं नहीं चाहता कि गर्वोक्ति करू। किन्तु एक-दो बातें इसलिए कहना चाहता हूं कि मैं मेरी गर्वोक्ति नहीं, मैं उस कलाकार की कुशल साधना, कार्य-पद्धति और कृति का एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ कि यदि एक कुशल भाग्य-निर्माता मिलता है, तो वह किस प्रकार के व्यक्ति को भी कैसा बना सकता है। लोगों ने कहा कि आचार्य श्री आपने और भी बहुत कुछ दिया, किन्तु हमें एक विवेकानन्द दिया। पता नहीं, कौन विवेकानन्द है ? किन्तु यह आचार्य श्री की कर्तृत्वशक्ति का ही एक प्रयोग है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है। और भी न जाने कितनी बातें लोगों द्वारा कही गई और बराबर आचार्यवर के सामने दुहराई गई। ऐसे व्यक्तियों के द्वारा भी कही गई जो हमारे संघ से सर्वथा प्रतिकूल चलने वाले और विरोध रखने वाले थे । मैं मानता हूँ कि यह सारा जो कुछ हो रहा है, उसमें आचार्य श्री का कर्तृत्व एवं सृजनशीलता ही बोल रही है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है। जिस महान निर्माता ने मेरे जीवन का निर्माण किया, जिस कुशलशिल्पी ने मेरे भाग्य की प्रतिमा को गढा, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करू, बहुत छोटा शब्द है। उस भार को यह 'कृतज्ञता' शब्द उठा नहीं सकता है। और कोई दूसरा शब्द खोजू तो शायद शब्दकोश में मिलता नहीं है। सबसे अच्छा कोई शब्द हो सकता है तो यही हो सकता है कि गुरुदेव ! मैं सदा अभिन्न रहा है और इस अर्थ में ही सौभाग्यशाली होऊंगा। यह अभिन्नता सदैव बनी रहे । शाश्वत बनी रहे । कहीं भी भेद की रेखा सामने न आए। ___ एक बार भिवानी में आचार्यप्रवर ने कहा था-इतने लम्बे जीवन में एक साथ रहना और कभी मानसिक भेद न होना इसे मैं बहुत बड़ी बात मानता हूं । आचार्यप्रवर की सेवा में रहते हुए चार दशकों से भी अधिक समय बीत गया। मेरा सौभाग्य है कि मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि कहीं, कोई मन में भेद-रेखा आई हो। मैं कुछ बातें सुनता रहा हूँ, जिन्हें आज दुहराना जरूरी समझता हूं। बहुत लोग कहते हैं, मुनि नथमल को कहने का कोई अर्थ नहीं है । वे तो केवल आचार्य श्री की हाँ में हाँ मिला देंगे । उनको कहना या मन कहना कोई अर्थ नहीं । इससे भी कुछ कटु बातें मैं सुनता रहा-कुछ लोग कहते, इनको कहने का अर्थ क्या है ? आचार्य श्री कहेंगे कि शिला दो हाथ बढ़ गई, तो यह कहेंगे कि हाँ । आचार्य श्री कहेंगे कि शिला दो हाथ घट गई तो कहेंगे, हाँ ! मैं वैसे ही नहीं कह ३३० तुलसी प्रज्ञा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा हूँ, मैं बराबर ऐसी बातें सुनता रहा हूँ। पर मैंने कभी इन बातों की सफाई देने का प्रयत्न नहीं किया। मन में भी नहीं आया कि क्या कहा जा रहा है ? क्योंकि मैं अपने आप में स्पष्ट था। मैं मानता था कि मेरा आचार्य कितना यथार्थवादी है कि कभी ऐसी बात मुझसे कहलाता ही नहीं। कल्पना करने वाले कल्पना करते रहें । यथार्थ कुछ और है। कल्पना कुछ और चलती रहे तो उस कल्पना के लिए हमें सफाई या साक्ष्य के लिए कोई जरूरत नहीं होती । हाँ, मैं एक बात निश्चित कहता रहा कि कोई मेरा चाहे कितना ही निकट का क्यों न हो, मैं सबसे पहले आचार्य श्री को प्रसन्न रखना चाहता हूं, फिर कोई बाद में दूसरा हो सकता है। मुझसे कोई यह आशा न करे कि मैं दूसरों की प्रसन्नता के लिए इस प्रसन्नता को तराजू पर रख दू। यह अगर आशा है तो सर्वथा निराशा होगी। यह एक सचाई है और सभी लोग इसे जानते हैं । जो व्यक्ति एक सिद्धान्त को लेकर चलता है, उसके सामने ऐसी कठिनाइयाँ आती हैं। किन्तु कभी मेरी धृति ने मुझे धोखा नहीं दिया। मेरे धैर्य ने मुझे धोखा नहीं दिया। मैं जिस संकल्प को लेकर चला था, चल रहा हूँ और पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में इसी प्रकार चलता रहूँगा। जिस महान् गुरु ने मेरे जीवन का निर्माण किया, मुझे अपना विश्वास दिया और विश्वास तथा श्रद्धा ली और उस विश्वास को अब चरम बिन्दु पर सब लोगों के सामने प्रस्तुत कर दिया, उसके प्रति कुछ भी समर्पित करू, बहुत तुच्छ बात होगी। उदयपुर चातुर्मास के बाद एक दिन आत्मा (मेवाड़ का एक छोटा-सा गाँव) में आचार्यप्रवर ने मुझे अपना कुछ अन्तरङ्ग काम सौंपा । आपने कहा--२७ वर्षों के बाद आज मैं अपना कुछ अन्तरङ्ग काम पहली बार तुम्हें सौंप रहा हूँ। इस बार आचार्यप्रवर ने मुझे वह सब कुछ सौंप दिया, जो कुछ सौंपा जा सकता है । __ मैं सोचता हूं कि मैंने कभी कुछ नहीं माँगा । मेरे लिए मैंने कभी कोई माँग नहीं रखी। कभी नहीं रखी। इस बात की सचाई स्वयं आचार्य श्री जानते हैं और भी जानने वाले जानते हैं कि कभी मेरी कोई माँग नहीं थी। आप ज्ञान, दर्शन चारित्र की बात छोड़ दीजिए। मैं उसकी बात नहीं कह रहा हूँ। वह तो जीवन की शाश्वत माँग है, किन्तु किसी वस्तू की कभी कोई माँग नहीं की। केवल एक ही माँग थी कि मुझे आचार्य श्री तुलसी मिलता रहे । मुझे उपलब्ध रहे । बस इतनी माँग थी। वह मेरी माँग पूरी हुई। आचार्य श्री तुलसी मुझे उपलब्ध थे, उपलब्ध और हो गये । जब आचार्य तुलसी मुझे स्वयं उपलब्ध हो गये तो उनका जो कुछ था, वह मुझे स्वयं उपलब्ध हो गया। यह मेरी कोई माँग नहीं थी। __इस अवसर पर मैं क्या कहूँ ? तीन-चार दिनों से पता नहीं मेरी स्थिति क्या बन गई है ? शायद कुछ बोल नहीं पाता। बोलता हूँ तो भाव-विभोर हो उठता हूँ । आचार्यप्रवर के चरणों में व्यवहारतः, वास्तव में तो उनकी आत्मा में, किन्तु व्यवहार की भाषा में कहूँ तो उनके चरणों में फिर अपने सर्वस्व को समर्पित करता हूँ और यह आशीर्वाद चाहता हूँ कि गुरुदेव ! आपका आशीर्वाद मुझे निरन्तर उपलब्ध होता रहे । आपने जिस प्रकार मेरे भाग्य का निर्माण किया, उसकी पूरी सफलता सार-संभाल सब कुछ आपके कर-कमलों द्वारा निरन्तर होती रहे। खण्ड ४, अंक ७-८ ३३१ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर ने मुझ पर असीम विश्वास किया है । एक छोटे-से बालक को जिसे एक दिन अपने हाथों में लिया था, आज उसी को अपने बराबर बिठा दिया। मेरे जैसा छोटा बच्चा और इतने महान् आचार्य ! मैं तो इनके सदा चरणों में रहने वाला था और उन्होंने हाथ पकड़कर अपने बराबर बैठा दिया । मैंने प्रार्थना की - आप और कुछ कहें, किन्तु बराबर बैठने के लिए न कहें, पर आखिर निर्देश निर्देश होता है, आदेश आदेश होता है । न चाहते हुए भी मुझे वैसा करना पड़ा। यह आचार्यवर का गौरव, उनकी गुरुता, महानता और विशालता है कि जिस अवोध बालक को उन्होंने अपने हाथों में लिया और एक दिन उसी बच्चे को अपने बराबर बना दिया और बैठा दिया । इस महानता के प्रति मैं कोई भावना व्यक्त करू, मेरे पास कोई शब्द नहीं है। आचार्यप्रवर ने जो विश्वास किया, जो अनुग्रह किया, जो आशीर्वाद दिया, उसे समूचे श्रमण-श्रमणी संघ ने जिस प्रकार झेला और मुझे आदर दिया, मेरे प्रति श्रद्धा, निष्ठा और भावना की, उसके लिए मैं बहुत कृतज्ञ हूँ और सबके प्रति आभार प्रदर्शित करता हूं। प्रथम क्षण में ही आप लोगों ने मेरे प्रति जो सद्भावना प्रकट की है, वह भाग्य से ही मिल सकती है या गुरु के आशीर्वाद से ही मिल सकती है । मैं अपने आप को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मेरे गुरु का आशीर्वाद और आप सब लोगों की सद्भावना, दोनों मुझे एक साथ उपलब्ध हैं । मैं सचमुच गौरवशाली हूँ, भाग्यशाली हैं। __ मैं अपने भाग्य की क्या प्रशंसा करू और आप सबके प्रति गौरव की क्या बात को ? मैं केवल अपने कर्तव्य को प्रकट कर देना चाहता हूं कि आचार्यवर ने जो सेवा का कार्य मुझे सौंपा है, संघ के प्रति मुझे जो सेवा का उत्तरदायित्व सौंपा है, उस कार्य के निर्वाह के लिए मैं अपने आपको समर्पित करता हूँ। आचार्यवर के निर्देशों के अनुसार संघ की प्रगति के लिए, संघ के विकास के लिए मैं अपनी सारी प्रज्ञा को समर्पित करता हूँ। ___ अब आचार्यवर ने मुझे नामातीत बना दिया है। मेरा नाम भी समाप्त कर दिया। महाप्रज्ञ कोई नाम नहीं होता, यह तो स्वयं में एक पद है या कुछ है। कोई नाम तो नहीं होता । विशेषण है। आचार्यवर ने मुझे बिल्कुल अकिंचन बना दिया है । कम से कम व्यक्ति का नाम तो अपना होता है। उस पर अपना अधिकार तो होता है, और किसी पर हो या न हो । वह भी मेरा छीन लिया। जिस नाम को बीस-तीस वर्षों के कर्तृत्व से अजित किया, लोग जानने पहचानने लगे, वह भी समाप्त हो गया । जब नामातीत हो गया हूं तो सम्बन्धातीत भी हो गया हूँ। कोई सम्बन्ध नहीं रहा । किसी के साथ सम्बन्ध नहीं रहा; और जब किसी के साथ नहीं होता है तो सहज ही सबके साथ हो जाता है । क्योंकि जब मुनि-अवस्था में था, तब सम्बन्ध रखना भी जरूरी होता है और अपेक्षा भी होती है, किन्तु जब आचार्यवर ने मुझे यह कार्य सौंप दिया, तो किसी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहा । अतीत की कोई रेखा भी मेरे मन में नहीं हो सकती कि किस व्यक्ति ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया। कितना अच्छा किया था। कितना अप्रिय भी किसी ने किया होगा। किसी ने मेरे साथ अप्रिय व्यवहार नहीं किया, यह मैं जानता हूं। मैं इस अर्थ में भाग्यशाली रहा हूँ, किन्तु ३३२ तुलसी प्रज्ञा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर भी कुछ हो भी सकता है । किन्तु जब सारे सम्बन्ध समाप्त हैं और यह काँच वैसा ही निर्मल हो गया, जिसमें कोई भी रेखा नहीं रही। सम्बन्ध कार्यों का भी होता है, पारिवारिक भी होता है और जन्मजात भी होता है। मेरी स्वर्गीया माता जी बालू जी आज नहीं हैं, अन्यथा वे भी दीक्षा में थीं। बहिन भी दीक्षा में हैं। कई बहिनें हैं। भानजियाँ भी हैं। कम से कम एक परिवार के हम सात लोग दीक्षित हुए। मेरे संसारपक्षीय पिताजी चार भाई थे और चारों के हम दीक्षित हैं । सम्बन्ध का अपना व्यावहारिक पक्ष होता है । किन्तु जहाँ संघ का सम्बन्ध है, वहाँ और सारे सम्बन्ध गौण हो जाते हैं । वहाँ सम्बन्ध कभी मुख्य नहीं होता। वहाँ संघ मुख्य होता है और सब बातें गौण हो जाती हैं। संघ के कार्य में किसी भी सम्बन्ध को या किसी भी निजी या निकट के व्यक्ति को कभी मुख्यता नहीं दी जा सकती है । और जब गौण बातें मुख्य बन जाती है तथा मुख्य बातें गौण बन जाती हैं, वहाँ बड़ी कठिनाइयाँ और समस्याएं पैदा हो जाती हैं। तो मैं अपनी ओर से स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कोई भी यह अनुभव न करे कि हम तो सम्बन्धी हैं और हम सम्बन्धी नहीं हैं । मेरे लिए सम्बन्ध की कोई भेद-रेखा नहीं है । मेरे लिए सब उतने ही निजी और मेरे अपने हैं, जो आचार्यवर की, संघ की मर्यादा एवं अनुशासन में दक्ष हैं। अब मैं उन लोगों की स्मृति कर लेना चाहता हूँ जिनका मेरे जीवन में योगदान रहा है। सर्वप्रथम पूज्य कालूगणी के चरणों में अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति समर्पित करता हूं, जिनका वरद हस्त मेरे सिर पर टिका और भाग्य का सूर्योदय हुआ। उनके प्रति नत होना यह कोई मेरा ही व्रत नहीं है, मेरे गुरु का भी यही व्रत है । आचार्य श्री के सामने भी जब कोई स्थिति होती है, तब वही व्रत होता है। महामुनि मंत्री मुनि की स्मृति भी करना चाहता हूं। उनके शिक्षा-पदों ने मुझे बहुत अवकाश दिया संभलने का । मैं एक घटना का उल्लेख कर देना चाहता हूँ। लाडनूं में प्रतिक्रमण करने के बाद उनके पास वंदना करने के लिए गया । मंत्री मुनि बोले--देखो ! तुम ग्रंथ पढ़ रहे हो, अध्ययन कर रहे हो, पर एक बात का ध्यान रखना, कभी अहंकार नहीं आना चाहिए । हम साधु बन गये हैं। रोटी के लिए हाथ पसारते हैं तो फिर अहंकार किस बात का, अभिमान किस बात का। इन बातों ने मेरे बालक मन पर बड़ा असर किया । उन्होंने आचार्य प्रवर से भी निवेदन किया--महाराजाधिराज । नत्थू बहत ग्रंथ पढ़ रहा है पर मूल तो ठीक है ? आचार्य श्री ने कहा--ठीक है । चिन्ता की कोई बात नहीं है । उनका समय-समय पर जो दिशा-निर्देश मिला, वह मेरे जीवन के लिए बहुत सम्बल बना। स्वर्गीय भाईजी महाराज चम्पालाल जी स्वामी को मैं नहीं भूल सकता। उन्होंने बचपन से ही हमारे साथ सारणा-वारणा का प्रयोग किया और इन वर्षों में तो उनका इतना अटूट स्नेह मुझे मिला कि जिसकी शायद पहले कल्पना भी नहीं थी। वे बहुत बार कहते-- यह पाँचवाँ आरा है, अगर चौथा होता तो केवली हो जाते । न जाने कितनी बार इस बात को दोहराते। खण्ड ४, अंक ७-८ ३३३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीया माता जी बालूजी ने आचार्य श्री के प्रति समर्पित रहने में पूरा योग दिया। वे हमेशा यही कहतीं कि आचार्य श्री की दृष्टि हमेशा ध्यान में रखना । गुरुदेव की दृष्टि के प्रतिकूल कभी कोई कार्य मत करना । यह उनका एक सूत्र था। ___ अब मैं अपनी अन्तिम बात करना चाहता हूं। संघ की प्रगति और विकास के लिए हमें क्या करना है ? हमारे संघ की प्रगति और विकास का सबसे बड़ा सूत्र है अनुशासन । आचार्य श्री में अनुशासन की शक्ति है, कर्तृत्व की शक्ति है, वे कर सकते हैं। इसलिए हम संभावना करते हैं कि आचार्य श्री के द्वारा संघ का बहुत बड़ा विकास हो सकेगा। भारतीय चिन्तन का विकास हो सकेगा। जैन धर्म का विकास हो सकेगा। तो सबसे पहली हमारी शक्ति है अनुशासन । इसे हम कभी गौण नहीं करें। तेरापंथ की आज जो कर्मजा शक्ति सारे विश्व के सामने प्रस्तुत हो रही है और आज बड़े-बड़े समाज आचार्य श्री तुलसी का लोहा मान रहे हैं, उसका आधार क्या है ? यही अनुशासन है । एक अनुशासन में इतने योग्य और क्षमता-शील साधु-साध्वियों का होना, मैं बड़े सौभाग्य की बात मानता हूँ । डेढ़ हजार वर्ष के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि एक आचार्य के नेतृत्व में ऐसे सशक्त साधु-साध्वियाँ हों और इतने कार्यशील साधु-साध्वियाँ हों। किसी आचार्य के पास पाँच-दस हो सकते हैं, किन्तु जहाँ पचासों-पचासों साधु-साध्वियां सक्षम हो, यह किसी विरल, भाग्यशाली आचार्य को ही उपलब्ध हो सकता है। यह हमारा गौरव है । इसका मूल आधार है अनुशासन । आचार्य प्रवर ने समय-समय पर जो निर्देश दिये और साधुसाध्वियों ने तत्परता से उनका पालन किया, परिणामत: आज हमारा धर्म-संघ बहुत शक्तिशाली बन गया। दूसरी बात, विकास के लिए बहुत जरूरी है शिक्षा की । अनुशासन हो और बौद्धिक विकास न हो, शिक्षा न हो, तो काम बहुत आगे नहीं बढ़ सकता । हम एक साथ रह सकते हैं, अच्छे ढंग से रह सकते हैं, पर दूसरों को जो देना चाहते हैं, वह नहीं दे सकते । समाज के प्रति और एक विशाल समाज के प्रति हमारा कोई अनुदान नहीं हो सकता। वह तब हो सकता है, जब हमारा बौद्धिक विकास हो । हमारे संघ ने आचार्य श्री के नेतृत्व में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है, पर एक बात साथ-साथ यह भी कहना चाहता हूँ, जो प्रगति हो रही थी, उसमें थोड़ा-थोड़ा अवरोध भी आया है। प्रगति का युग वह था, जब मुनि तुलसी हमें पढ़ाते थे और हम पढ़ते थे। वह क्रम बराबर चलता तो आज संघ का रूप ही कुछ दूसरा होता । किन्तु क्या कहूँ, वैसा नहीं हो सका। मुनि तुलसी मुनि नहीं रह सके और मुनि नथमल, मुनि बुधमल विद्यार्थी नहीं रह सके। सब कुछ बदल गया। हम लोग शिक्षा के क्षेत्र में एक कार्यक्रम बनाएं और जो कीर्तिमान हमारे धर्मसंघ ने स्थापित किया है, उस कीर्तिमान को स्थायी रखें तथा उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करें। __ अनुशासन भी हो, शिक्षा भी हो और बौद्धिकता भी हो, किन्तु अध्यात्म की साधना न हो तो बौद्धिकता लड़ाने वाली हो सकती है। आप इस बात को कभी न भूलें । तर्क आदमी को लड़ाता भी है, यह हमें ध्यान रखना चाहिए। अध्यात्म की साधना हमारे ३३४ तुलसी प्रज्ञा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए बहुत जरूरी है । शिक्षा अनुशासन और अध्यात्म, इन तीनों दिशाओं में हमें प्रगति करना है। हम कठिनाइयों की ओर भी थोड़ा ध्यान दें। सबसे बड़ी कठिनाई है स्वास्थ्य की। यह बहुत चिन्त का प्रश्न आज हमारे सामने है । साधुओं में और विशेषकर साध्वियों में यह स्वास्थ्य का प्रश्न कुछ जटिल बनता जा रहा है । इससे बहुत बड़ी बाधाएं आती हैं । पहली बाधा तो स्वयं के जीवन में आती है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र की जो आराधना होनी चाहिए, वह स्वास्थ्य के अभाव में नहीं हो पाती । दूसरी बाधा आती है संघीय प्रगति में । आचार्य श्री जहाँ भेजना चाहते हैं, वहाँ नहीं पहुंच पाते । जो कार्य करवाना चाहते हैं, वह नहीं हो पाता । यह बहुत बड़ा प्रश्न है । इस पर सबको विचार करना है । मैं प्रार्थना करता हूँ आचार्यप्रवर से कि इस पर भी ध्यान दें और कुछ ऐसे रास्ते खोजें जिससे साधु-साध्वीसमुदाय का स्वास्थ्य ठीक हो सके। मानसिक स्वास्थ्य काफी अच्छा है। आचार्य प्रवर ने प्रायः सभी साधुओं को अपने पास बुलाया और उनके स्वास्थ्य आदि के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की। मैंने देखा कि साधु बहुत उल्लिसित थे। इस बार मानसिक स्वास्थ्य का आचार्य श्री ने बहुत सुन्दर प्रयोग किया। मैं एक बार पुन: आचार्य श्री के चरणों में एक प्रार्थना प्रस्तुत करता हूं--पूज्य गुरुदेव ! यह आत्मा का अद्वैत सदा बना रहे और आपका मार्ग-दर्शन मुझे मिलता रहे । मैं अपने जीवन के इस दृढ़ संकल्प को फिर दोहराता हूँ कि आपका जो भी इगित होगा, वह मेरे लिए बड़े से बड़ा व्रत होगा और उस व्रत में सदा मैं अपने जीवन को खपाता रहूंगा।" अलौकिक चमत्कार युवाचार्य के नाम की घोषणा के तत्काल बाद ही एक चमत्कार घटा । मंच पर लगे शामियानों को छोड़कर सारे पण्डाल के शामियाने बीच में से गुब्बारे की भांति ऊपर उठे । बल्लियां ऊपर उठी। बल्लियों को थामने वाले ऊपर उठे। पण्डाल के बाहर न तूफान न हवा । सारा वातावरण शान्त, सौम्य और सुखद । जिस प्रकार वह ऊपर उठा उसी प्रकार धीरे-धीरे वह नीचे आकर यथास्थान जम गया । यह क्यों हुआ? क्या था ? ये प्रश्न अनुत्तरित ही रहे । कुछ लोगों ने इसे दैविक चमत्कार माना। खण्ड ४, अंक ७-८ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पल का भी अभिनन्दन* महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा आज मुदित है संघ-चतुष्टय, कण-कण में छाया उल्लास । मनोनयन शुभ युवाचार्य का, नए सृजन का वह इतिहास ॥१॥ गणमाली ने निज हाथों से जिस पौधे को सींचा है। उसने भी ऊपर से नीचे तक पूरा रस खोंचा है ॥२॥ ज्योतिपूञ्ज आचार्यप्रवर से, ऊर्जा मिलती है पल-पल । युवाचार्य की ऊर्जाधारा, हुई प्रवाहित अब कल-कल ॥३॥ कलाकार के कुशल करों ने, जिस प्रतिमा को उत्केरा। आज उसी की अर्चा करने, उत्कंठित है मन मेरा ॥४॥ युवाचार्य आचार्यप्रवर का, युगल रहे युग-युग अविचल ।। जयघोषों से रहे निनादित, धारा और पूरा नभतल ॥५॥ सविनय साध्वी-संघ समूचा, करता हार्दिक अभिवन्दन । हर संकेत तुम्हारा प्राणों में भर दे अभिनव स्पन्दन ॥६॥ अभिनन्दन आचार्यप्रवर का, युवाचार्य का अभिनन्दन । धर्मसंघ का अभिनन्दन है, इस पल का भी अभिनन्दन ॥७॥ *युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के अभिनन्दन में साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभा जी द्वारा पठित अभिनन्दन गीतिका। ३३६ , तुलसी प्रज्ञा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परिवार द्वारा समर्पित अभिनन्दन पत्र* महामहिम युवाचार्य ! तेरापंथ धर्मसंघ के क्रान्तद्रष्टा युगप्रवान आचार्य श्री तुलसी द्वरा अपने उत्तराधिकारी के रूप में आप श्री का चयन समग्र धर्म-संघ के लिए गौरव का सूचक है आप जैसा प्रज्ञाशाली युवाचार्य को पाकर हम सब गौरवान्वित हुए हैं। महान् दार्शनिक ! ___ आपके दार्शनिक स्वरूप ने सत्य के अनेक कोणों का उद्घाटन कर विश्व के वैचारिक क्षेत्र में एक नई संभावना को जन्म दिया है। आपके अध्यात्म-अनुस्यूत दर्शन एवं साहित्य की कृतियों ने धर्म-संघ को विश्व मंच पर आरूढ होने का अवसर प्रदान किया है। . प्रेक्षा-ध्यान के पुरस्कर्ता! अध्यात्म जगत के ज्योतिपुञ्ज भगवान महावीर की ध्यान-परम्परा के विलुप्त रहस्यों का अन्वेषण कर आपने अध्यात्म परंपरा को नव जीवन देते हुए प्रेक्षाध्यान की वैज्ञानिक पद्धति को प्रस्तुत किया। इससे जैन समाज ही नहीं, अपितु समग्न विश्व आशाआप्लावित हुआ है। आगम-वारिधि ! युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के वाचना-प्रमुखत्व में आपने आगम-मंथन के महान् कार्य का जिस कौशल से वहन किया वह आगम इतिहास की एक नई देन बन गया है । जैन धर्म के रहस्यों का अन्वेषण करने वाले विश्व के मनीषी निःशंसय इससे लाभान्वित होंगे । आशाओं के दीप! ज्योतिःपुञ्ज आचार्य श्री तुलसी आपको युवाचार्य बनाकर तेरापंथ धर्म-संघ की गौरवशाली परंपरा की जो अग्रिम कड़ी जोड़ी है उसने हमारी आज्ञाओं और उल्लासों के दीप प्रज्ज्वलित कर दिए हैं । आप श्री उनमें निरन्तर स्नेह-दान करते रहेंगे, यही मंगल आशंसा है। महाप्रत ! आपका जीवन शिशु-सा सुन्दर, जल-सा पवित्र, भावक्रिया से उद्भासित चैतन्य का चित्र, महकते हुये गुलाब के फूलों-सा। . यह समर्पित है संघ द्वारा ".." अभिनन्दन पत्र। २०३५ माघ शुक्ला ८ आपका विनयावनत राजलदेसर तेरापंथ श्रमण संघ *[यह अभिनन्दन पत्र श्रमण वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए मुनि श्री बुद्धमल ने युवाचाचार्य श्री महाप्रज्ञ को समर्पित किया। खण्ड ४, अंक ७-८ ३३७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणी परिवार द्वारा समर्पित अभिनन्दन पत्र विश्वदीप ! - तुमने एक ऐसी निष्कम्प दीप-शिखा को प्रज्वलित किया है जो हमारी गौरवशाली परंपरा के आर और पार को सदियों, सहस्राब्दियों तक उद्भासित करती रहेगी। इसलिए हम तुम्हारा अभिनंदन करती हैं। तुमने एक ऐसे ऊर्जा-पुञ्ज को जन्म दिया है जो मनुष्य के अन्तस में छिपी लक्ष-लक्ष जीवनी शक्तियों को युग-युग तक उद्घाटित करता रहेगा। इसलिए हम तुम्हारा अभिनन्दन करती हैं। आर्षप्राज्ञ ! तुम ने एक ऐसी विभूति को जन्म दिया है जिसका आधार है रचनात्मक प्रतिभा । अमूर्त सत्य के अन्वेषण की प्रतीक वह प्रतिभा युग-युग से आवृत सत्यों का अनावरण करेगी। उस पारदर्शी प्रतिभा की एक-एक रश्मि से प्रस्फुरित होगा तुम्हारा व्यक्तित्व तुम्हारा कर्तृत्व और तुम्हारा नेतृत्व । इसलिए हम तुम्हारा अभिनंदन करती हैं। कुशल अनशास्ता! तुम ने तेरापंथ धर्मसंघ के एक सौ पन्द्रहवें मर्यादा महोत्सव के पुनीत अवसर पर अपने सुयोग्य उत्तराधिकारी का निर्वाचन कर संघ को कृतार्थ किया है, जिसमें सन्निहित है अतीत का गौरव, वर्तमान का समाधान और भविष्य की उज्ज्वल सम्भावनाएं, इसलिए हम तुम्हारा अभिनंदन करती हैं। ___ अन्तःकरण की समस्त सुकोमल भावनाएं समर्पित करती हैं आचार्य चरण में, युवाचार्य चरण में। अप्रतिम कलाकार, तुम्हें नमस्कार तुम्हारी कृति को नमस्कार, जिसमें तुम स्वयं साकार । पा तुम दोनों का आधार । दृढ़ दृढ़तर, दृढ़तम बन जाएगा। गण उपवन का प्राकार। तुम्हारे निर्णय का चमत्कार, तुम्हारी शक्ति, तुम्हारी युक्ति, तुम्हारी नियुक्ति में सौ-सौ बार बधाई देगा समूचा संसार । तुम्हें नमस्कार, तुम्हारी कृति को नमस्कार, अनुकृति को नमस्कार करता शत-शत श्रमणा परिवार । ___ *यह अभिनन्दन पत्र आचार्य श्री को संबोधित कर लिखा गया है अतः साध्वी प्रमुखा महाश्रमणी श्री कनकप्रभा जी ने इसे आचार्य श्री के हाथों में समर्पित किया । आचार्य श्री ने इसे युवाचार्य श्री को दिया। ३३८ तुलसी प्रज्ञा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं तो आपकी कृति हूं - युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ आचार्यवर ! मैं अपने आप से नहीं जाना जाता । मैं तो आपकी कृति हूं । मेरा अपना कुछ भी नहीं है । एक दिन में इतना सबका प्यार पाकर मैं गद्गद् हो रहा हूँ । श्रमण संघ ने अभिनन्दन किया। मुनि बुद्धमल जी ने उसे भेंट किया और उन्होंने आज की घटना भी बताई । साथी-साथी ही रहेगा । जो पचास वर्षों से साथी रहे हैं। दस वर्ष की अवस्था से साथी हैं । हमारे धर्म-संघ में आज जो शक्ति है, वह सौभाग्य से ही मिलती है । मुझे गर्व है कि तेरापंथ धर्म संघ में इतने युवक साधु और साध्वियाँ प्रबुद्ध हैं । एक आचार्य को इतने योग्य शिष्य और शिव्याएं भाग्य से ही मिलते हैं । आचार्य तुलसी धन्य हैं, जिन्हें ऐसे योग्य साधु-साध्वियाँ मिले हैं । मैं आज आचार्य श्री का नेतृत्व पाकर गौरवान्वित हूँ, महान् धर्म-संघ का उत्तराधिकार पाकर गौरवान्वित हूँ, महान् आचार्य का उत्तराधिकार पाकर गौरवान्वित हूँ । एक बार फिर आचार्यवर को वन्दन करता हुआ आशीर्वाद चाहता हूँ कि आप शक्ति प्रदान करें, ऊर्जा प्रदान करें ताकि जो सौंपा है, उसे निभाने में सफल हो सकू । आचार्य प्रवर ने कहा - तथास्तु । *युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ द्वारा अभिनन्दन के उत्तर में प्रस्तुत वक्तव्य । 'अकारण वत्सल' विक्रम संवत २०१८ का मर्यादा महोत्सव गंगाशहर था। आचार्य प्रवर ने मेरे साथ दीक्षित दो मुनियों को बहिबिहारी संतों के साथ भेज दिया । मुझे भी भेजने की बात चल रही थी । लेकिन युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने निवेदन किया - इन्हें मत भेजिये | आचार्य श्री युवाचार्य श्री की बात पर विशेष ध्यान देते थे । उन्होंने उनकी बात मान ली । और मुझे अपने पास ही रखा तथा युवाचार्य श्री का सान्निध्य दिया । इसे मैं अपना बड़ा सौभाग्य मानता हूं कि युवाचार्य श्री मेरे लिए अकारण वत्सल बने और मुझे प्रगति का अवसर दिया । - मुनि विमल कुमार खण्ड ४, अंक ७-८ ३३६ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायित्व निर्वाह के उदग्र आकांक्षी युवाचार्य महाप्रज्ञ महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा माघ शुक्ला सप्तमी का उजला मध्याह्न । मर्यादा महोत्सव की भव्य सुषमा । मंच पर सैकड़ों साधु-साध्वियों की अमल धवल परिषद् । सामने हजारों-हजारों श्रावकों का विशाल समुदाय । मध्य में ऊंचे पट्ट पर आसीन तेरापंथ धर्मसंघ के नवम अधिशास्ता आचार्यश्री तुलसी । मर्यादागीत ( वार्षिक मर्यादोत्सव आया, खुशियों की झोली भर लाया ।) का संगान, मर्यादा - पत्र का वाचन और उसके बाद एक महत्त्वपूर्ण निर्णय की अप्रत्याशित घोषणा । उपस्थित जनसमूह विस्मय-विमुग्ध हो गया । क्या होगा ? यह प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया सबकी आंखों के सामने । श्रोताओं की प्रश्नायित आंखों की उत्सुकता को अधिक न बढ़ाकर गुरुदेव ने कहा मैं आज अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति करूंगा । उत्सुकता घटी नहीं, प्रत्युत सहस्रगुनी बढ़ गई । नियुक्ति होगी । किसकी ? कौन व्यक्ति इस गरिमामय उत्तराधिकार की अर्हता के लिए उचित रहेगा ? मस्तिष्क में हलचल शुरू हो गई। आचार्यवर ने अपने निर्णय को अभिव्यक्ति के बिन्दु पर पहुंचाने के स्थान पर अधिक संगोपित कर लिया और कहा वह व्यक्ति हिन्दुस्तान के किसी भी कोने में हो सकता है । कुछ श्रोता प्रतीक्षा की आकुलता को अपने भीतर समेट कर उत्कर्ण हो गए और कुछ श्रोताओं के मन की गति तीव्र हो गई । वे अपने मन से पूरे भारत में भ्रमण कर आए, किन्तु उनके नयनों में कोई एक व्यक्तित्व बिम्बित नहीं हो सका । जिज्ञासा और सन्देह के तटों के मध्य बहती हुई अनिश्चय की वाहिनी का कल्पना की नाजुक भुजाओं से पार पा लेना संभव नहीं था । इसलिए सबकी ट लगी थी गुरुदेव की शब्दमयी नौका पर, जिसके सहारे वह मचलती स्रोतस्विनी सहजता से तीर्ण हो सकती थी । उत्सुकता का उभार आचार्यश्री ने उपस्थित जन समूह को विचारों की निःश्रेणी पर आरोह-अवरोह करते देखा और उस पर एक मन्द मुस्कान बिखेर दी । आखिर जब अन्तःकरण की उफनती हुई उत्सुकता तट तोड़कर आगे बढ़ने लगी तो एक दिव्यध्वनि वायुमण्डल में मुखर हो गई - मन की यह निर्लक्ष्य यात्रा आपको समाधि नहीं दे सकेगी। इस दौड़धूप को छोड़ आप सब एकाग्र हो जाएंगे, तभी रहस्य का अनावरण हो सकेगा । निर्देश मात्र की देर थी, सबके मन ३४० तुलसी प्रज्ञा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौट आए उस मर्यादा-महोत्सव-पण्डाल में और आचार्यवर ने ऊचे स्वर से उद्घोषणा कीखड़े हो जाओ मुनि नथमल जी। ___ हजारों-हजारों श्रोताओं के नयन-युगलों से निसृत होने वाली रश्मियां अब दो ही व्यक्तियों पर टिकी थीं। वे व्यक्तित्व हैं - युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी और महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी। आचार्यवर ने अपना उत्तराधिकार लिखित और मौखिक दोनों प्रकार से मुनिश्री नथमल जी को सौंपकर उन्हें युवाचार्य के रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुति का नयनाभिराम दृश्य दर्शकों के प्राणों को ठेठ तक छू गया। युवाचार्य के गौरवमय पद से अभिषिक्त होते ही मुनिश्री नथमल जी 'युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ' की अभिधा में रूपान्तरित हो गए। एक अठावन वर्षीय प्रौढ व्यक्तित्व की सशक्त भुजाओं पर धर्मसंघ का समग्र दायित्व नियोजित कर आचार्यश्री तुलसी ने अष्टमाचार्यश्री कालूगणी की भांति चौंका देने वाला इतिहास भले ही न दोहराया हो, पर एक दूरदर्शितापूर्ण सूझबूझ का परिचय देकर भारतीय लोक-मानस की अध्यात्म-चेतना को ऊर्ध्वारोहित होने का विरल अवसर प्रदान किया है। परिचय परिवार का . युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ का शैशव एक छोटे से कस्बे (टमकोर) में बीता । आपका जन्म वि० सं० १९७७ आषाढ कृष्णा त्रयोदशी (१४ जून १९२०) को हुआ। आपके पिताश्री का नाम तोलाराम जी चोरड़िया और माता का नाम बालूजी (साध्वी) था। आप अपनी दो बहिनों के इकलौते भाई थे। पिता का साया बचपन में ही आपके सिर से उठ गया। मां के सहज धार्मिक संस्कारों से अनुप्राणित आपकी चेतना संतों के संपर्क से उबुद्ध हो गई। वि० सं० १९८७ माघ शुक्ला दसमी के दिन आपने सरदारशहर में पूज्य गुरुदेव कालूगणी के कर कमलों से दीक्षा स्वीकार की। आपकी मां (साध्वी बालूजी, अब दिवंगत) भी आपके साथ - साध्वी-जीवन में दीक्षित हो गई। कालान्तर में आपकी एक सहोदरी (साध्वी मालूजी) ने भी आपके पथ का अनुसरण किया। शंभू से महाप्रज्ञ दस साल का वह मासूम बच्चा यथार्थ के धरातल पर खड़ा होकर कठोर साधना के प्रति समर्पित हुआ या अपने धर्माचार्य के वात्सल्य को पाकर अभिभूत हुआ ? कहा नहीं जा सकता। किन्तु जिस दिन से उसने धर्मसंघ में प्रवेश पाया, स्वर्गीय आचार्य कालगणी की असीम कृपा से वह आप्लावित हो गया। कालूगणी ने शैक्ष मुनि को शिक्षित और संस्कारित करने की पूरी जिम्मेवारी सौंप दी मुनि तुलसी को । सोलह वर्षीय मुनि तुलसी ने केवल मुनि नथमल जी को ही नहीं उनके समवयस्क कई बाल मुनियों की पतवार अपने हाथ में ली और अत्यन्त कुशलता से उनकी जीवन-नौका खेनी शुरू कर दी। कठोर अनुशासन और कोमल वात्सल्य ने बाल मुनि की प्रसुप्त प्रज्ञा के केन्द्र में अप्रत्याशित विस्फोट किया। उस विस्फोट का ही परिणाम है कि बंगू, हाबू और शंभू नामों से पहचाने जाने वाले मुनि नथमल जी ने युवाचार्य महाप्रज्ञ की ऊंचाई का स्पर्श कर लिया। खण्ड ४, अंक ७-८ ३४१ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि तुलसी बाईस वर्ष की उदीयमान युवावस्था में तेरापंथ संघ के एक मात्र आचार्य बन गए । मुनि नथमल जी को कुछ अटपटा सा लगा। उन्होंने अनुभव किया कि उनके विद्या-गुरु उनसे छीन लिए गए हैं । किन्तु शीघ्र ही उनको संभाल लिया गया। धर्मसंघ का संपूर्ण दायित्व पूरी कुशलता से निभाहते हुए भी आचार्यश्री तुलसी बाल मुनियों की बौद्धिक चेतना का जागरण करने के लिए भी सतत जागरूक थे। उन्होंने इस दिशा में नएनए सपने संजोए। उन सपनों को साकार करने वालों में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं हमारे युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ । युवाचार्य आचार्यश्री के प्रति जितने समर्पित रहे हैं, कोई विरल बौद्धिक व्यक्ति ही रह सकता है । सफल भाष्यकार तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य आचार्यश्री भिक्षु के सफल भाष्यकार रहे हैं। इसी श्रृंखला में यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ भी आचार्यश्री तुलसी के सक्षम भाष्यकार हैं। आचार्यश्री द्वारा सूत्र-रूप में प्राप्त तथ्यों को आपने जिस विस्तार से विश्लेषित किया है, उसने आपकी मेधा को नया निखार दे दिया। केवल तेरापंथ या जैन समाज ही नहीं समग्र भारतीय समाज पर आपकी प्रत्युत्पन्न मेधा और गंभीर दार्शनिकता का प्रभाव है। साहित्य के क्षेत्र में आपने मौलिक सृजन की दिशा में जो कीर्तिमान स्थापित किया है, वह इस युग के साहित्यकारों की चेतना को झकझोरने वाला है। लेखक की सबसे जीवन्त रचना वही होती है, जिसे पढ़ने से ऐसा प्रतीत हो कि लेखक का जीवन इसमें बोल रहा है। युवाचार्यश्री ने अपनी सृजन-चेतना में जीवन की चेतना का संप्रेषण कर साहित्य-जगत को उपकृत किया है। अम्युदय की यात्रा साधना, शिक्षा और साहित्य की त्रिवेणी में सतत अवगाहन कर युवाचार्यश्री ने अपने व्यक्तित्व का अन्तर्मुखी निर्माण किया । आपकी सन्निधि से अन्य व्यक्ति भी लाभान्वित हों, इस दृष्टि से वि० सं० २००४ रतनगढ़ में आपको साझ (आचार्यश्री के साथ रहने वाले मुनियों के समूह) का अग्रगण्य नियुक्त किया गया। इसी क्रम में वि० सं० २०२२ माघ शुक्ला सप्तमी (हिसार) को आप निकाय-सचिव के गरिमामय सम्मान से सम्मानित हुए। ज्ञातव्य है कि इससे एक साल पूर्व आचार्यश्री ने निकाय-व्यवस्था का एक प्रयोग अपने धर्मसंघ में किया था। प्रबन्धनिकाय, व्यवस्थानिकाय, शिक्षानिकाय और साधना-निकाय-इस चतुनिकाय-व्यवस्था के मुख्य सचिव का दायित्व आपको मिला और आपने कुशलता के साथ उसका निर्वहन किया। वि० सं० २०२६, माघ शुक्ला सप्तमी (हैदराबाद) के दिन आपने निकायपद का विसर्जन किया। जिसे अपनी स्वीकृति देकर आचार्यश्री ने उस सामयिक निकाय-व्यवस्था को स्थगित कर दिया। वि० सं० २०३५ के गंगाशहर चातुर्मास में कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी को आप 'महाप्रज्ञ' की विशिष्ट उपाधि से अलंकृत हुए और इसी वर्ष मर्यादामहोत्सव के भव्य समारोह में युवाचार्य महाप्रज्ञ बन गए । यह है आपके अभ्युदय की छोटीसी यात्रा, जिसमें झांक रही है अबोध शिशु सी निश्छलता, स्त्री-सुलभ समर्पण, ज्ञान और ३४२ तुलसी प्रज्ञा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना की तीव्र अभीप्सा तथा दायित्व-बहन की उदग्र आकांक्षा। इन सब विशेषताओं के धनी हमारे युवाचार्य महाप्रज्ञ आचार्यश्री तुलसी की सुखद सन्निधि में अपनी चेतना के विशिष्ट केन्द्रों में विस्फोट कर धर्मसंघ में नई ऊर्जा को संचरणशील करते रहेंगे, ऐसा विश्वास है। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ अपनी साधना, बौद्धिकता और दार्शनिकता के द्वारा देश के क्षितिज पर उभर कर सामने आए हुए हैं। आपके जाने-पहचाने व्यक्तित्व के सम्बन्ध में मैं कुछ लिखू, इसकी अपेक्षा अधिक अच्छा यह होगा कि इस सर्वोच्च पद पर अभिषिक्त होने के बाद उनकी प्रतिक्रिया, मनःस्थिति और भावी कार्यक्रम के सम्बन्ध में सही जानकारी प्रस्तुत करू। पहली प्रतिक्रिया ___इस प्रस्तुति के लिए मैं १५ फरवरी को मध्याह्न में युवाचार्यश्री के पास पहुंची। यद्यपि वह समय उनके विश्राम का था, फिर भी उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ मेरी जिज्ञासाओं को समाहित करने की स्वीकृति दे दी। वहां जाने से पहले मन में थोड़ा संकोच और भय था, पर युवाचार्यश्री की सहज और मधुर आत्मीयता ने मेरी झिझक समाप्त कर दी। मैंने सारी औपचारिकताओं को छोड़कर अपना पहला प्रश्न किया- आचार्यश्री ने आपको तेरापंथ धर्मसंघ के सर्वोच्च पद पर अप्रत्याशित रूप से प्रतिष्ठित कर दिया। संभव है, उस समय आप स्तब्ध रह गए हों। किन्तु जब आपको इस सम्बन्ध में एकान्त क्षणों में कुछ सोचने का अवकाश मिला, इस घटना की आपके मन पर पहली प्रतिक्रिया क्या हुई ? मेरे इस प्रश्न ने एक क्षण के लिए युवाचार्यश्री को गंभीर बना दिया। अपनी गंभीरता को सहजता में रूपायित कर आप बोले इस नियुक्ति के बाद मेरे मन में यह आया कि आचार्यश्री ने मुझे समाज के उस स्थान पर प्रतिष्ठित किया है, जहां व्यक्ति व्यक्ति नहीं रहकर स्वयं समाज बन जाता है। उसे पूरे समाज को आत्मसात् करना होता है। उसके लिए न केवल समाज को साथ लेकर ही चलने की अपेक्षा है, अपितु उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर चलना जरूरी है। मैं अकेलेपन की स्थिति में अधिक रस लेता था, पर यह न नियति को इष्ट था और न स्वयं आचार्यश्री को ही । इसलिए मैं एक व्यक्ति से समाज में रूपान्तरित हो गया। इस भूमिका पर आरूढ होने के बाद आचार्य प्रवर ने जो गुरुतर दायित्व मुझे सौंपा है, उसके समुचित निर्वाह हेतु मैं अधिक शक्तिस्रोतों की आवश्यकता अनुभव करता हूँ। आचार्यवर के आशीर्वाद, अपनी अध्यात्म-साधना और समग्र समाज की सद्भावना, इस त्रयी के योग से मैं उन शक्तिस्रोतों को उद्घाटित करू', यह मेरी पहली प्रतिक्रिया है। ___ युवाचार्यश्री की यह प्रतिक्रिया मुझे स्वाभाविक नहीं लगी। इसलिए मैंने : सी विषय को आगे बढ़ाते हुए पूछा-यह दस-बारह दिनों का समय आपको कैसा लगा ? क्या आप अपने भीतर कोई परिवर्तन अनुभव कर रहे हैं ? . युवाचार्यश्री ने सहजभाव से उत्तर दिया जहां तक मेरे अन्तःकरण या भीतरी व्यक्तित्व का प्रश्न है, वहाँ तक मुझे अस्वाभाविक जैसा कुछ भी नहीं लगता, क्योंकि मेरा मन खण्ड ४, अंक ७-८ ३४३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना से इतना भावित है कि उस पर किसी प्रकार के भार का अनुभव होता ही नहीं। दूसरी बात-मुझे आचार्यवर का साक्षात् सान्निध्य उपलब्ध है, इसलिए भी मैं अपने आप में बहुत हल्का हूं। "बाह्य व्यक्तित्व के सन्दर्भ में मैं अपने आप में भी और वातावरण में भी एक परिवर्तन देख रहा हूं । इन दिनों मुझे एक चिन्तन बार-बार आन्दोलित कर रहा है कि आचार्यवर ने मुझं इतना बड़ा दायित्व सौंपा और समूचे संघ ने उसके प्रति इतना उल्लास व आनन्द प्रदर्शित किया। केवल तेरापंथ समाज ही नहीं, व्यापक रूप से मेरे प्रति जो आकांक्षाएं संजोई जा रही हैं, उससे मेरा दायित्व और अधिक व्यापक हो जाता है। उन सब आकांक्षाओं की पूर्ति मैं कैसे करूं, यही विचार मुझे बार-बार उत्प्रेरित करता रहता है।" ____ अगले प्रश्न में मैंने यूवाचार्यश्री की साधना और साहित्य-लेखन में अवरोध की बात उपस्थित की तो आपने फरमाया - यह निर्णय यदि पांच-दस साल पहले होता तो मेरी साधना और लेखन दोनों में अन्तर आता। किन्तु यह काम एक अवधि के बाद हुआ, इसलिए मेरे सामने कठिनाई या अवरोध जैसी कोई स्थिति नहीं है। क्योंकि साधना की एक सीमा मैं अतिक्रान्त कर चुका हूं और लेखन को भी अब वक्तृत्व में बदल चुका हूं। प्रशासन भी मेरी रुचि आपकी रुचि प्रशासन है या ध्यान ? इस प्रश्न को उत्तरित करते हुए युवाचार्यश्री ने कहा – मेरी काम करने की पद्धति यह रही है कि या तो मैं कोई काम करूं नहीं, करूं तो पूरी रुचि के साथ करूं । अस्वीकार या पूरी तन्मयता इन दोनों मार्गों में से एक मार्ग का निर्धारण कर मैं चलता हूं । अतः प्रशासन को भी अपनी रुचि का अंग बनाकर ही चलूंगा। रुचि-निर्माण के स्थान पर रुचि के अनुरूप काम हाथ में लेने का प्रश्न आता तो मैं इस सम्बन्ध में कुछ निवेदन भी करता, पर ऐसा अवकाश ही मुझे नहीं मिला। दूसरी बात यह है कि दूसरों के सामने किसी भी काम के स्वीकार या अस्वीकार में मैं पूरी स्वतंत्रता का उपयोग करता हूं, किन्तु आचार्यवर का जो आदेश मिल जाता है, उसके सर्वथा अस्वीकार की बात मेरे लिए बहुत कठिन हो जाती है। जिस समय आचार्यश्री ने मुझे अपने सामने खड़ा होने का निर्देश दिया, मैं एक बारगी स्तब्ध रह गया । मुझे लगा-मैं कोई स्वप्न देख रहा हूं या यथार्थ के धरातल पर खड़ा हूं। नियति का निर्माण ___ आपने अपने बारे में कभी ऐसी कल्पना की थी क्या ? अपने भविष्य के सम्बन्ध में आपका क्या चिन्तन था ? मेरी इस जिज्ञासा के समाधान में आपने कुछ ज्योतिर्विदों के और कुछ अपने प्रातिभ ज्ञान-सम्बन्धी नए रहस्यों का उद्घाटन किया । फिर चिन्तन के स्तर पर कुछ बिन्दुओं को स्पष्ट करते हुए कहा - मैं तेरापंथ संघ की सेवा का कुछ विनम्र प्रयत्न कर चुका हूं । अब मेरी इच्छा थी अध्यात्म के व्यापक क्षेत्र में समग्र मानव जाति की सेवा । इस चाह ने मुझे चिन्तन का नया परिवेश दिया। उस परिवेश में मेरी कल्पना थी मैं अपने ३४४ तुलसी प्रज्ञा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसंघ में साधना की विशिष्ट भूमिका में रहूं और उसी माध्यम से मानव जाति की सेवा करता हुआ अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढू । संघ का दायित्व आचार्यवर किसी को भी सौंपें, उसमें न मेरा कोई हस्तक्षेप होगा और न मैं किसी व्यवस्था में भाग ही लूंगा। मैं केवल अध्यात्म की दिशा में, अध्यात्म-चेतना का जागरण करने के लिए चलता रहूंगा, चलता रहूंगा इस सम्बन्ध में मैंने कई बार आचार्यश्री से प्रार्थनाएं भी की। एक बार लिखित निवेदन भी किया ध्यान की विशेष भूमिका पर आरूढ होने के लिए, किन्तु वैसा नहीं हो सका। अब मैं सोचता हूं कि मेरी नियति यही थी या आचार्यवर ने मेरी नियति का निर्माण इसी क्रम से गुजरने के लिए किया है, इसलिए मैं कल्पना, संभावना आदि सब स्थितियों में न उलझ अपने दायित्व का निर्वहन करने की दिशा में आगे बढू । एक रहस्योद्घाटन ___ मैं अपने कुछ प्रश्न लेकर जिस समय युवाचार्यश्री के पास पहुंची तो आपने कहातुम मेरा समय लोगी या आचार्य प्रवर का भी ? मैंने निवेदन किया-जब आपके ही बारे में मुझे लिखना है तो आचार्यवर का समय लेकर क्या करूंगी? उस समय तक मेरे मन में नहीं था कि मैं आचार्यश्री से भी कुछ पूछु, किन्तु जब ऐसी बात सामने आ ही गई तब मैंने झिझकते हुए एक प्रश्न गुरुदेव से भी पूछ लिया। मेरे प्रश्न का आशय था आपने अप्रत्याशित रूप से अपने उत्तराधिकारी के मनोनयन का निर्णय लिया। इस निर्णय के पीछे कोई ठोस आधार था ? यह आपका दीर्घकालीन निर्णय था ? या किसी परिस्थिति की प्रेरणा से आपने तात्कालिक निर्णय लिया ? ___ आचार्यवर मेरी बात सुन दो क्षण मुस्कराए, फिर एक अज्ञात रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा दो वर्ष पहले (वि० सं० २०३३) में सुजानगढ़ में था, उस समय डीडवानानिवासी श्रावक जयसिंह मुणोत उपपात में बैठा था। वह पामिस्ट तो था ही, विशिष्ट ज्योतिर्विद भी था। उसने मेरे हाथ की रेखाएं देखी । मैंने कहा - कोई विशेष बात ध्यान में आए तो बताना । वह कुछ गंभीरता से रेखाओं पर दृष्टि टिकाकर बोला-गुरुदेव ! मैं दो महत्वपूर्ण बातें निवेदन करूंगा (१) आप अपनी आयु के ६५वें वर्ष में अपना उत्तराधिकारी घोषित करेंगे। (२) आप जिसे अपना उत्तराधिकारी बनाएंगे, उसका पहला अक्षर 'म' होगा। । ये दोनों बातें नोट कर ली गई । उस समय मेरा न कोई चिन्तन था और न किसी तात्कालिक निर्णय का प्रश्न था । किन्तु फिर भी मैंने मकारादि मुनियों पर दृष्टिपात किया। मेरी नजर चारों ओर घूमी, किन्तु वह कहीं भी स्थिर नहीं हुई। उसके बाद मैं एक प्रकार से उस बात को भूल-सा गया। वि० सं० २०३५ का मेरा चातुर्मास गंगाशहर था। वहां मैंने मुनि नथमल जी को महाप्रज्ञ की उपाधि से अलंकृत किया । किन्तु इस अभिक्रम में मेरा . कोई विशेष लक्ष्य नहीं था। क्योंकि अब तक मैंने कभी निर्णायक रूप से कोई चिन्तन ही नहीं किया था । उस उपाधि की अभिधारूप में परिणति अनायास ही हुई या उस ज्योतिर्विद की भविष्यवाणी को सत्यापित करने के लिए हुई, कहा नहीं जा सकता । पर मेरे मन में ऐसा कुछ भी नहीं था। यह सब कुछ घटित हो जाने पर एक दिन मेरे मस्तिष्क में सुजानगढ खण्ड ४, अंक ७-८ ३४५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाली स्मृति उभर आई और मैंने अनुभव किया कि किस प्रकार सहजभाव से किया गया कार्य भी किसी घटना के साथ जुड़ जाता है। "मर्यादा-महोत्सव के अवसर पर अपने निर्णय को उद्घोषित करके मैं स्वयं एक निश्चिन्तता का अनुभव कर रहा हूं। इस सन्दर्भ में इतना अवश्य ज्ञातव्य है कि मेरे सामने न तो किसी परिस्थिति की विवशता थी और न ही कोई दूसरी समस्या। मैंने अपने तटस्थ चिन्तन के आधार पर जैसा उचित समझा, वैसा किया। अपने धर्मसंघ की शालीन और गौरवमयी परंपरा के अनुसार साधु-साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं तथा अन्य प्रबुद्ध लोगों ने मेरे निर्णय का स्वागत किया, इसकी मुझे प्रसन्नता है। मैं अब भी अपनी कार्य-क्षमता में किसी प्रकार की कमी का अनुभव नहीं करता हूं, इस दृष्टि से मैं चाहता हूं युवाचार्य महाप्रज्ञ अपनी साधना के चालू क्रम को निर्विघ्न रूप से आगे बढ़ाएं । साधना के तेज से अपने बहुआयामी व्यक्तित्व को निखार कर वे विनम्र भाव से धर्मसंघ को सेवाएं देते रहें। तनाव तथा संत्रास से आक्रान्त संपूर्ण मानव-जाति को मानसिक शान्ति की दिशा में अग्रसर करते रहें।" भावी योजना आचार्यश्री द्वारा किए गए रहस्योद्घाटन से पाठकों को परिचित करा मैं पुनः युवाचार्यश्री के चिन्तन की यात्रा कराने ले जा रही हूं। पिछले प्रश्नों की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए मैंने पूछा-आप अपने नेतृत्व में धर्मसंघ को कौन-सा नया मोड़ देना चाहेंगे ? प्रश्न की गंभीरता के अनुरूप गंभीर आकृति से गंभीर तथ्य प्रकट करते हुए युवाचार्यश्री ने अपने भावी कार्यक्रम को संभावना को अभिव्यक्त करते हुए कहा-हमारे सामने दो बातें हैं अध्यात्म और समाज । समा शक्तिशाली तब बनता है, जब वह अध्यात्म से अनुप्राणित हो, जब उसमें सांस लेने वाला हर व्यक्ति सशक्त हो। आचार्यवर ने जब मुझे समाज में काम करने का अवसर दिया है, तो मैं चाहूंगा कि मेरा दर्शन समाज में क्रियान्वित हो । सुकरात का नाम सुना होगा तुमने । उसका यह सिद्धान्त था कि शास्ता किसी दार्शनिक को होना चाहिए। दार्शनिक शास्ता अपनी जनता को जीवन-दर्शन की गहराई से परिचित करा सकता है और उसे तदनुरूप व्यवहार भी दे सकता है । ___मेरी आकांक्षा यह है कि सबसे पहले व्यक्ति अपने जीवन का निर्माण करे। वह व्यक्तिगत निर्माण की बात को प्राथमिकता दे और संघ-सेवा का काम उसके अनन्तर क्रियान्वित करे । जीवन-निर्माण का यह दर्शन मुझे आचारांग से उपलब्ध हुआ है । वहां एक सूक्त है--प्रावोलए, पवीलए निवोशए-इस एक सन्दर्भ में मुनि के समग्र जीवन का स्पष्ट निदर्शन है । दीक्षित होने के बाद मुनि सबसे पहले अध्ययन और साधना में अपना जीवन लगाए, यह आपीडन है । उसके बाद वह संघ से जो सेवा ली है, उसका ऋण चुकाए, यह प्रपीडन है, और ऋण-मुक्त होने के बाद समाधिमरण की तैयारी करे, यह निष्पीडन है; मैं चाहता हूं, मेरा यह दर्शन हमारे धर्मसंघ में क्रियान्वित हो । ३४६ तुलसी प्रज्ञा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति-निर्माण की बात मेरे मन को बहुत भाई। मैं स्वयं भी ऐसा ही कुछ सोच रही थी, पर उसकी कोई प्रक्रिया मेरे सामने स्पष्ट नहीं थी । युवाचार्यश्री के द्वारा जब यह तथ्य मैंने सुना तो अपनी जिज्ञासा को रोक नहीं पाई और छूटते ही पूछ बैठी-आपका यह दर्शन और उसकी क्रियान्वति बहुत अच्छी बात है, किन्तु इसका तरीका क्या होगा ? "तरीका तो कुछ निर्धारित करना ही होगा ? वैसे हर कार्य की निष्पत्ति के लिए कुछ विशिष्ट परिस्थितियों का निर्माण जरूरी होता है। जीवन-निर्माण के दर्शन की क्रियान्वति का श्रीगणेश व्यक्तिगत साधना के लिए कम से कम एक घण्टा समय लगाने के संकल्प सं शुरू हो ही गया है । इसकी निष्पन्नता के आसार मैं आगामी दशक में देख रहा हूं। इतनी बड़ी योजना के क्रियान्वयन में दस वर्ष का समय कोई अधिक नहीं है । मुझे विश्वास है कि आचार्यवर का सफल मार्ग-दर्शन उपलब्ध होने पर यह काम और अधिक सरल हो जाएगा।" युवाचार्यश्री के इस अभिमत से सहमत होने पर भी मेरे मन का एक और सन्देह उभर कर सामने आया। उससे प्रेरित होकर मैंने पूछ ही लिया -साधना में एक घण्टा समय लगाने का संकल्प कई साधु-साध्वियों ने लिया है, पर क्या समय लगाने मात्र से हमारा लक्ष्य पूरा हो जाएगा? मुझे तो ऐसा लगता है कि जब तक वृत्तियों का रूपान्तरण नहीं होगा, व्यक्ति-निर्माण का स्वप्न भी मात्र स्वप्न बनकर रह जाएगा। इस सम्बन्ध में आपकी क्या राय है ? "केवल समय लगाने मात्र से वृत्ति परिवर्तन की बात से मैं भी सहमत नहीं हूं। एकदो घण्टे के समय में स्वयं को प्रशिक्षित करने की विधि हस्तगत हो जाए, यह जरूरी है। इसके लिए मैं सोचता हूं कि साधु-साध्वियों को प्रशिक्षण के लिए व्यवस्था और अवकाश दिया जाए, तो हमारा स्वप्न स्वप्न न रहकर यथार्थ बन जाएगा। इस स्वप्न को फलीभूत देख मुझे जो प्रसन्नता होगी, वह भी अनिर्वचनीय ही होगी। युवाचार्य के सपनों का साध्वीसमाज मैं केवल दो-चार बात पूछने के लिए गई थी, पर युवाचार्य श्री के उत्तरों ने मेरे मन में जिज्ञासा का ज्वार ला दिया। समय काफी हो चुका था। फिर भी मेरे प्रश्नों की बौछार जोर पकड़ती जा रही थी। आखिर आचार्यवर ने आगम-कार्य के लिए युवाचार्यश्री को याद किया, तो मैं बोली - एक प्रश्न और पूछ लूं ? आपकी स्वीकृति पाकर मैंने पूछाआपका साध्वी-समाज संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा है । संख्या के अनुपात से गुणात्मकता भी बढ़े, इस दृष्टि से आप साध्वीसमाज से क्या अपेक्षाएं रखते हैं तथा क्या विशेष निर्देश देना चाहते हैं ? दो क्षण आज्ञा-चक्र पर मन को केन्द्रित कर हाथ के हल्के से स्पर्श से उसे परिस्पन्दित कर आप बोले हमारा साध्वी-समाज निश्चित ही एक बड़ा समाज है। उसमें नई जिज्ञासाओं की स्फुरणा है । वह कुछ होने या बनने की चाह भी रखता है, पर इसके लिए उसे विशिष्ट संकल्पशक्ति का संचय करना होगा तथा तद्नुरूप अपने आपको ढालना होगा। खण्ड ४, अंक ७-८ ३४७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस दृष्टि से सबसे पहली बात है स्वार्थ का विसर्जन । कोई भी व्यक्ति या समाज तब तक विशिष्ट नहीं बन सकता, जब तक उसमें स्वार्थ-चेतना से मुक्त होने का संकल्प दृढ़ नहीं हो जाता । व्यक्ति की स्वार्थ-चेतना उसे खानपान जैसी छोटी बातों में उलझा देती है तो कभी किसी बड़ी बात को लेकर उत्पात मच जाता है । साध्वियों से मेरी दूसरी अपेक्षा है-दीर्घकालीन चिन्तन की क्षमता का विकास । तत्काल जो कुछ प्राप्त होता है, उस पर तात्कालिक प्रतिक्रिया दीर्घकालीन हितों के पक्ष में नहीं होती। इसलिए तत्कालीन प्रतिक्रिया को सुरक्षित रखते हुए समय पर ही उस सम्बन्ध में निर्णय लेना उचित है। तीसरी बात है शिक्षा का गहरा अभ्यास । अध्ययन का धरातल ठोस न हो तो पल्लवग्राही विद्वता से व्यक्ति न अपने आपको उपलब्ध कर सकता है और न ही शिक्षा के क्षेत्र में नए आयामों का उद्घाटन कर पाता है। "सबसे अधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक बात है अनुप्रेक्षा और ध्यान का अभ्यास, वह भी वृत्तियों को रूपान्तरित करने के उद्देश्य से । इन सब बातों के प्रति साध्वी-समाज जागरूक रहा तो वह वर्तमान की अपेक्षा अधिक प्रबुद्ध और गतिशील हो सकता है।" साध्वियों के सम्बन्ध में मेरी कुछ और भी जिज्ञासाएं थीं, पर एक साथ सब कुछ जानने की अभीप्सा भी तो परिपूर्ण जानकारी में बाधा बन जाती है। जीवन को पूरी तरह जीने के लिए दीर्घकालीन धृति की अपेक्षा होती है, वैसे ही किसी भी विषय को समग्रता से समझने के लिए भी पर्याप्त समय की अपेक्षा रहती है। वैसे युवाचार्यश्री का व्यक्तित्व जानापहचाना है । हजारों-हजारों लोगों की सहज श्रद्धा आपको प्राप्त है। आचार्यवर का मार्गदर्शन युवाचार्यश्री के लिए प्रकाशदीप का काम करे तथा युवाचार्यश्री का भविष्य धर्मसंघ तथा संपूर्ण मानव-जाति के उज्ज्वल भविष्य का दर्पण बनकर प्रस्तुत हो, इसी विश्वास के साथ मैं अपने अन्तःकरण की समस्त कोमल भावनाओं से आचार्यवर और युवाचार्यश्री की मंगलमय दीर्घजीविता की कामना करती हूं। विष्णुगढ़ के प्रो सुरगे गुलाब तव चरणों में अर्पित श्रद्धा का सैलाबा -साध्वी आनंद श्री ३४८ तुलसी प्रज्ञा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री तुलसी के उत्तराधिकारी : युवाचार्य का अभिनन्दन प्रो० वलसुख भाई मालवणिया मुनि श्री नथमल जी का मेरा परिचय बहुत पुराना है । हमने वाद-विवाद भी किया है । इन प्रसंगों में आपका वर्ताव विद्वान् जनोचित और अद्वितीय था । मैंने आपको सदा प्रसन्न ही देखा है । विनम्रता और गुरु के प्रति समर्पण भाव – ये दो आपकी उत्कृष्ट विशेषताएं हैं । आपको गुरु भी ऐसे उपलब्ध हुए हैं, जिन्होंने आपको स्व-चिन्ता मुक्त किया है । यदि गुरु सारी चिन्ताओं का भार ढोने की स्वीकृति दे देते हैं, तो भला कोई क्यों अपनी चिन्ता करेगा ? ऐसी परिस्थिति में आपने जो विकास साधा है, वह अपूर्व है, ऐसा कहा जा सकता है । गुरु क्या किया और मैंने क्या किया, इस भेद की अनुभूति आपको कभी नहीं हुई । गुरु-शिष्य की ऐसी अभेद भूमिका आज के आधुनिक युग में विरल है । यदि इस अभेद भूमिका का साक्षात्कार करना हो, तो वह आचार्य तुलसी और उनके ये शिष्य मुनि श्री नथमल जी में किया जा सकता है । विद्वत्ता के साथ विनम्रता का योग भाग्य से ही प्राप्त हो सकता है । विद्वत्ता और विनम्रता की पराकाष्ठा मुनि नथमल जी में है, यदि मैं यह कहूं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जैन संघ में संयम की साधना विविध प्रकार से होती है । किन्तु इस साधना में जो ध्यान-साधना की कमी थी और जो प्रायः विस्मृत हो चुकी थी, उसका पुनरुत्थान मुनि श्री नथमल जी ने किया है । मैंने स्वयं देखा है कि इस साधना के कारण अनेक जैन और अजैन युवकों को धर्माभिमुख करने का श्रेय भी आपने प्राप्त किया है । आपने प्रेक्षा ध्यान की पद्धति को विकसित किया है । आपने योग में स्वयं निष्णातता प्राप्त की और योग की समग्र भारतीय पद्धतियों से परिचित हो कर प्रेक्षा ध्यान पद्धति का प्रसार किया है। इसमें समग्र मारतीय योग-साधना के तत्त्वों का समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है । परम्परा से सर्वथा अलग-अलग पड़ कर नहीं, किन्तु परम्परा में आवश्यक परिवर्तन कर आपने जो ध्यान पद्धति का निरूपण और प्रयोग किया है, यह नई होने पर भी परम्परा से सर्वथा मुक्त नहीं है - यह आपकी ध्यान-पद्धति की मुख्य विशेषता है और यह विशेषता आपकी उत्कृष्ट विद्वत्ता और साधना के कारण है, ऐसा मानना चाहिए । खण्ड ४, अंक ७-८ ३४ε Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक वर्षो की आपकी ज्ञानाराधना और उसके परिणामस्वरूप आपने जो साहित्यसाधना की है, वह मात्र जैन समाज की ही नहीं, समग्र भारतीय साहित्य के साहित्य सेवी होने का स्थान सहज ही प्राप्त करा देती है । संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषा में आपने जो साहित्य रचा है, वह आपकी नवीन शैली के कारण बहुत ही आकर्षक है । आपके अनेक ग्रन्थों का अंग्रेजी में अनुवाद भी हुआ है । मौलिक साहित्य के निर्माण के साथ-साथ आपने अपने सम्प्रदाय के साहित्य-भंडार को भरने का भी प्रयत्न किया है। जैन आगमों का उद्धार भी आपने पूर्ण विद्वत्ता के साथ किया है । आप आचार्य तुलसी के भाष्यकार हैं, इतना कहना मात्र पर्याप्त नहीं है । आप भारतीय संस्कार परम्परा के भाष्यकार हैं, यह कहना आवश्यक है । तेरापंथ समाज के वैचारिक उन्नयन में आपकी जो देन है, वह चिरस्मरणीय रहेगी । इसी के आधार पर गत वर्ष ( कार्तिक शुक्ला १३, गंगाशहर में आचार्य तुलसी ने आपको 'महाप्रज्ञ' की उपाधि से विभूषित किया, यह उचित ही था और इस नये वर्ष के प्रारम्भ में आचार्य श्री तुलसी ने आपको अपने उत्तराधिकारी के लिए योग्य सहर्ष यही कहा जा सकता है कि आचार्य श्री तुलसी ने योग्य दिया है । ) माना है, इस विषय में व्यक्ति को योग्य पद आचार्य श्री तुलसी ने जैन समाज को जो दिया है, उससे भी अधिक केवल जैन समाज को ही नहीं किन्तु समग्र भारतीय समाज को, ये मुनि नथमल जी, आचार्य बनकर देंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है । [६-२-७६ के वैनिक 'सन्देश' से साभार उद्धृत गुजराती का हिन्दी अनुवाद ] ३५० इतनी दूर क्यों भेजा ? विक्रम संवत् २००१ की घटना है । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का चातुर्मास देहली था । हम सात संत उनके साथ थे । उस समय मेरे नकसीर की शिका यत रहती थी । अतः गर्मी का ध्यान रखना पड़ता था। एक बार संतों ने मुझे किसी कारणवश गोचरी (भिक्षा) के लिए पहाड़गंज भेजा । मैं गोचरी करने के लिए चला गया । पीछे से युवाचार्य श्री को मालूम पड़ा कि मुझे इतनी दूर गोचरी के लिए भेजा गया है तब उन्होंने संतों से कहा – विमलकुमार जी को इतनी दूर क्यों भेजा ? बात छोटी थी । लेकिन उसमें प्रकट होता था युवाचार्य श्री का वात्सल्य और पर दुःख द्रवत्व । जो व्यक्ति पर पीड़ा को स्वपीड़ा-तुल्य समझता है, वही दूसरे का प्रिय बन सकता है । -मुनि विमल कुमार प्रज्ञा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य महाप्रज्ञ : एक गंभीर चिन्तक अगरचन्द नाहटा जैन धर्म में स्वाध्याय और ध्यान को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी नामक अध्ययन में साधु-साध्वी की समाचारी में तो यहां तक कह दिया गया है कि प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में गोचरी आदि शारीरिक क्रियाए, चतुर्थ प्रहर में फिर स्वाध्याय । इसी तरह रात्रि में एक प्रहर की निद्रा बाकी प्रहरों में स्वाध्याय और ध्यान का क्रम चालू रखने का विधान है । अर्थात् दिन और रात के आठ प्रहरों में साधु-साध्वी चार प्रहर का स्वाध्याय, दो प्रहर का ध्यान, एक प्रहर गोचरी आदि और रात्रि का एक प्रहर निद्रा, यह मुनिचर्या है । पर देश और काल की स्थिति में इतना अन्तर आया कि आज उस क्रिया का पालन बहुत कठिन हो गया है। मध्यकाल में ध्यान की पद्धति साधारणतया लुप्त-सी हो गई थी। अतः मेरे मन में यह बारबार आता रहता था कि ध्यान की पद्धति साधु-साध्वियों में फिर से चालू हो । यद्यपि बीचबीच में कुछ ऐसे जैन मुनि हुए हैं, जिन्होंने लम्बे समय तक ध्यान की साधना की है।। जब आचार्य श्री तुलसी का कलकत्ते में चातुर्मास था, तो एक दिन रात को जब उनसे मिलने गया, तब अपना मनोभाव व्यक्त किया कि आपने साधु-साध्वियों में पढ़ाई तो बहुत अच्छी चालू कर दी है । थोड़े वर्षों में ही काफी विद्वान्, लेखक, लेखिकाएं तैयार कर दी, पर आगमोक्त ध्यान की परम्परा चालू करने की बड़ी कमी नजर आती है, तो आचार्य श्री ने कहा कि आपकी बात बहुत ठीक है, हम भी चाहते हैं। आपकी जानकारी में कोई ध्यानयोगी या साधक जैनों में हो, तो उसका तथा जैन योग-संबंधी ग्रन्थों का नाम बतलाइये। तो मैंने अपने पूज्य गुरु सहजानन्द जी का नाम बतलाया, जो वर्तमान में बहुत अच्छे ध्यान योगी हैं . साथ ही कुछ ध्यान संबंधी ग्रन्थों की भी सूचना दी। मुझे यह देखकर और जानकर बहुत ही प्रसन्नता होती है कि आचार्य श्री तुलसी जी, मुनि श्री नथमल जी, मुनि श्री किशनलाल जी आदि के प्रयत्न से तेरापंथी साधु-साध्वियों में ध्यान की अच्छी प्रगति हुई है । मुनि श्री नथमल जी के गंभीर और ठोस चिन्तन ने ध्यान की जैन पद्धति, जिसे प्रेक्षा-ध्यान नाम दिया गया है, सबके लिए सुलभ कर दी है। सैकड़ों श्रावक-श्राविकाएं ही नहीं, जैनेतर भी इससे लाभ उठा रहे हैं । इस युग की मैं इसे बहत बड़ी उपलब्धि मानता हूं। मुझ यह खण्ड ४, अंक ७-८ ३५१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिक और विचारक के रूप में मुनि श्री नथमल जी बहुत समय से प्रसिद्ध रहे हैं, उन्होंने अपने चिन्तन को और आगे बढ़ाया । अध्ययन भी बहुत अच्छा किया । इन दोनों विशिष्टताओं के कारण प्राचीन जैन आगमों के सम्पादन- अनुवाद और टिप्पणियां लिखने में बहुत अच्छी सफलता मिली है । इधर चिन्तन की गहराई से ध्यान में भी बहुत अच्छी प्रगति हो सकी और उनकी मौलिक चिन्तन पद्धति से अनुभव के द्वार खुले । मुनि श्री नथमल जी ने "मैंने कहा" नामक पुस्तक की प्रस्तुति में स्वयं लिखा है कि मैंने दर्शन की भाषा को समझा, पर कहानी की भाषा को नहीं समझा था । मैं दर्शन की सच्चाई को दर्शन की भाषा में ही प्रस्तुत करता, तब मेरे श्रोता मेरी बात सुनने से पहले ही आशंका से भर जाते, भयभीत हो जाते। उनकी आशंका इस निर्णय तक पहुंच जाती कि मुनि नथमल बोल रहे हैं, अब कुछ समझ में आने वाला नहीं है, वे सुनने की मुद्रा में ही नहीं रहते, इसलिए सचमुच उनकी समझ में नहीं आता और उनकी आशंका धारणा में बदल जातीं । लगभग दो दशक तक यह क्रम चलता रहा । मैंने नयी यात्रा शुरू की । आचार्य श्री तुलसी ने एक दिन कहा - " तुम दर्शन की भाषा को कुछ सरसता में बदलो जिससे जनता उसे समझ सके ।” मेरी नयी यात्रा शुरू हुई । मैंने दर्शन की भाषा के साथ कहानी की भाषा को जोड़ दिया । केवल कहानी की भाषा को ही नहीं जोड़ा, किन्तु दर्शन की भाषा को भी कहानी की भाषा में कहना शुरू कर दिया। थोड़े समय बाद ही कुछ ऐसा हुआ कि लोग मुझे सुनने की ही मुद्रा में बैठते हैं और दर्शन की गंभीर चर्चा प्रस्तुत करता हूं तो उसे भी कहानी के रूप में सुन लेते हैं । वास्तव में उनके जीवन में नये नये उन्मेष खेलते रहे हैं, पहले वे साधारण थे, बढ़ते बढ़ते असाधारण बन गये । पहले वे कुछ ही लोगों के समझने योग्य थे, अब सबके लिए उपयोगी बन गये। पहले साम्प्रदायिक दृष्टि में आबद्ध थे, अब उससे ऊपर उठ गये । हर व्यक्ति को उनके अनुभव - ज्ञान से कुछ न कुछ नयी जानकारी और प्र ेरणा मिलती है । आगमों का कार्य और ध्यान -पद्धति का विस्तार विशेष रूप से उल्लेखनीय है । उनके साथ रहने और काम करने वाले कई मुनि भी काफी कार्यक्षम और योग्य बन सके हैं । यह भी बहुत महत्त्व की बात है कि उनके भाषण टेप कर लिये जाते हैं, जिससे सहज ही में अनेकों ग्रन्थ तैयार होकर प्रकाशित भी हो गये । सहयोगी मुनि श्री दुलहराज आदि ने उनके अनेक ग्रन्थों का सम्पादन कर दिया, अन्यथा वे इतने जल्दी प्रकाश में नहीं आ पाते । श्रद्धा, जैन मुनियों में वे अपने ढंग के एक ही हैं । आचार्य तुलसी के साथ लम्बे समय तक रहने से उनकी प्रसिद्धि और योग्यता भी इतनी अधिक बढ़ सकी । गुरू के प्रति समर्पण भाव, निष्ठा और विनय उनकी योग्यता के विकास में बहुत बड़े कारण हैं । जिस शिष्य पर गुरु प्रसन्न हो जाये और गुरु का अन्तर हृदय से आशीर्वाद मिले, उसकी महिमा का क्या कहना । एक तो स्वयं ही योग्य एवं प्रतिभासम्पन्न, दूसरा अनुकूल वातावरण एवं सहयोग । फिर तो दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होते देर नहीं लगती । आचार्य तुलसी ने पहले 'महाप्रज्ञ' का पद दिया और अब युवाचार्य का । वास्तव में यह सर्वथा उपयुक्त और सूझ-बूझ वाला निर्णय है । वे जैन शासन की खूब सेवा एवं प्रभावना करे, तथा आत्मोन्नति के चरम शिखर पर पहुंचेंगे । यही शुभ-कामना है । de ३५२ तुलसी प्रज्ञा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयशील सन्त : युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ श्री जमनालाल जैन श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय के अनुशास्ता युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी जी ने अपने लब्ध-प्रतिष्ठ अन्तेवासी महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमल जी महाराज को युवाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित करके न केवल तेरापंथ सम्प्रदाय की, अपितु समग्र श्री जैन संघ की महान् सेवा की है। मुनि श्री नथमल जी सच्चे अर्थों में तपस्वी एवं ज्ञानी सन्त हैं। उनकी कृशकाया में विराट आत्मा विराजमान है। 'समणसुत्त' ग्रंथ के प्रसंग पर दिल्ली में सभी सम्प्रदायों के सन्तों एवं श्रावकों की जो संगीति आयोजित हुई थी उसमें आपकी प्रखर तर्क-शक्ति, समन्वयशील-वृत्ति तथा दूसरों के प्रति सम्पूर्ण समादर-भावना का दर्शन करके मन मुग्ध हो उठा था। उनके सान्निध्य में एक साधारण-से मनुष्य को भी ऐसा लगता है मानो गंगा के घाट पर बैठकर स्नान किया जा रहा हो । वात्सल्य, स्नेह-सौजन्य तो उनकी आँखों से मानो निरंतर झरता है। - मुनि श्री के प्रांजल एवं ज्ञान सम्पन्न व्यक्तित्व का वह साक्षात्कार तो मैं कभी भूल नहीं सकता, जब समणसुतंकी संगीति के तत्काल बाद स्व० साहू शाँतिप्रसाद जी जैन तथा भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से ब्र० जिनेन्द्रवर्णी जी का सम्मान किया गया। यह सम्मानसमारोह मुनि श्री नथमल जी के सान्निध्य में ही किया गया था। तब मैंने मन ही मन अनुभव किया कि आज भले ही ये तेरापंथ-सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हों, किन्तु इनकी आत्मा इतनी उन्नत एवं व्यापक है कि वह किसी भी प्रकार के चौखट या दायरे में आबद्ध नहीं रह सकती। एक दिन आयेगा जब वह सूर्य व्यापक क्षितिज पर प्रकट होगा और इनका चिन्तन सम्पूर्ण मानव-समाज के अभ्युत्थान के लिए उन्मुक्त रूप से उपलब्ध होगा। मुनि श्री दृढ़ निश्चय के धनी हैं । आप में आत्म-नियंत्रण एवं संघ-नियंत्रण की सहज क्षमता है । जैन विश्व भारती के गठन, विकास एवं विस्तार में, उसकी प्रगति में आपका योगदान अपूर्व रहा है। अत्यल्प अवधि में जैन विश्वभारती को जो समादर का स्थान प्राप्त हुआ है, वह आपके ही सत्प्रयास का परिणाम है । खण्ड ४, अंक ७-८ ३५३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने जैन आगम साहित्य का जैसा सुरुचिपूर्ण, परिशुद्ध एवं वैज्ञानिक सम्पादन किया है, वह एक आदर्श है । इसी प्रकार जैन दर्शन: मनन और मीमांसा, श्रमण महावीर, सत्य की खोज. मन के जीते जीत आदि आपकी कृतियाँ तरुण पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी हैं। सरल-सुबोध शैली में, छोटे-छोटे वाक्यों के द्वारा मुनि श्री अपनी बात सहज ही गले उतार देते हैं । धर्म एवं दर्शन की गुत्थियों को वैज्ञानिक निकष पर कस कर अपने अनुभव को व्यक्त करने की अपूर्व क्षमता मुनि श्री की विशेषता है। तेरापंथ समाज के लिए तो यह गौरव की बात है ही कि आचार्य तुलसी ने मुनि श्री को युवाचार्य अर्थात् अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया है। सम्पूर्ण जैन श्री संघ के लिए, सभी सम्प्रदायों के लिए भी यह प्रसन्नता का अवसर है। मुनि श्री की असाम्प्रदायिक एवं व्यापक समन्वयशील प्रज्ञा का लाभ उठाने का दायित्व समाज पर सहज ही आ गया है। विविध घेरों में आबद्ध शक्ति को संगठित करके समाज' यदि प्रयास करे तो मुनि श्री की मनीषा में से आणविक ऊर्जा जैसी एकता उत्पन्न हो सकती है। आचार्य श्री तुलसी जी ने अपने आचार्य-काल में तेरापंथ-समाज को अनेक नये मोड़ दिये हैं, क्रांति का सूत्रपात किया है । बीसवीं शताब्दी में जैन-संसार में होने वाले परिवर्तनों की शृंखला में आचार्य श्री तुलसी के योगदान का उल्लेख स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। मुनि श्री नथमल जी आचार्य श्री तुलसी जी के निकटतम एवं प्रिय अन्तेवासी रहे हैं, जैसे कि भगवान् महावीर के इन्द्र भूति गौतम थे। समस्त परिवर्तन-प्रक्रियाओं के आप साक्षी रहे हैं--सारे मोड़ों और घटना-चक्र को समर्पण एवं निरहंकार भाव से आत्मसात् किया है। ग्रंथों के बीच भी आप निर्ग्रन्थ रहे हैं । ग्रंथों के पारगामी एवं रचयिता होने पर भी ग्रंथों से ऊपर रहे हैं । जो भी अपने गुरु से पाया है, उसे पचाया है और तभी कहा है जब वह अनुभव में उतर चुका है। फिर भी एक बात कहने को मन करता है कि इस समर्पित व्यक्तित्व के भीतर भी एक क्रांतिकारी सूर्य आकार लेता रहा है। युग की अनेक चुनौतियाँ आपके समक्ष उपस्थित होने वाली हैं। इसमें सन्देह नहीं कि मुनि श्री अपने हाथों आचार्य श्री तुलसी जी के आशीर्वाद से उनसे भी आगे बढ़कर समाज को एक नई दिशा दे सकेंगे। इससे आचार्य श्री का आचार्यत्व-गुरुत्व सौ गुना गौरवान्वित होगा, धर्म और दर्शन धन्य होगा, तरुण पीढ़ी का कल्याण होगा। ___सबसे पहले मैंने मुनि श्री के दर्शन निकट से बंबई में, सन् १९६८ में किये थे। उनकी तत्परता, विद्वानों के प्रति आत्मीयता, छोटों के प्रति भातृवत् वात्सल्य देखने लायक था। उनकी यह हार्दिक आकांक्षा है कि जैन धर्म और दर्शन का वैज्ञानिक प्रयोगशाला की भाँति विश्लेषण-प्रयोग हो-उसकी निर्मम शल्यक्रिया आवश्यक हो तो वह भी की जाय । गतानुगतिकता, पारम्परिकता को वे समाज के लिए घातक मानते हैं। भौतिकता की चरम उपलब्धियों की सम्भावना के बीच भी वे निर्लिप्त रहते हैं। भौतिक सुविधाओं के उपभोग अथवा ग्रहण की तनिक भी लालसा आपके व्यवहार से नहीं टपकती। यही कारण है कि सभी सम्प्रदाय वालों के मन में आपके प्रति अविरोधमूलक समादर का भाव है । समयचक्र तेजी से घूम रहा है । वह किसी का इन्तजार नहीं करता । हम देखें-देखें तब तक तो ३५४ तुलसी प्रशा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा का विपुल जल बह जायेगा । इसलिए सम्पूर्ण समाज के लिए आचार्य श्री तुलसी जी ने एक अमूल्य अवसर उपस्थित कर दिया है कि जितना वे अपने आचार्यत्व-काल में नहीं कर पाये, वह इस मनीषी सन्त से करवा लिया जाय । समाज साम्प्रदायिक नींद से या उन्माद से जाग सके और मुनि श्री जगा दें, तो देखते-देखते नव निर्माण की सम्पूर्ण क्रांति घटित हो सकती है। व्यक्ति यहाँ गौण है । जो व्यक्तित्व समष्टिगत हो जाता है, विराट क्षितिज' जिसको अपना लेता है, उससे निरा व्यक्ति क्या अपेक्षा करे ? आकाँक्षा यही है कि उनके स्नेहवात्सल्य पूर्ण ज्ञानकणों का हलका-सा स्पर्श भी परमसुख देने वाला बने ! अपनी आन्तरिक वन्दना के ये दो शब्द उनके चरणों में अर्पित करने का सौभाग्य मुझे मिला, यह परम आह्लाद का विषय है । विवेह के साधक विक्रम संवत २०२२ की घटना है । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी हर मंगलवार को मौन किया करते थे । एक दिन आपके मंगलवार का मौन था और उस दिन लंबा विहार भी। आपके पैर में पीड़ा हो गई । लेकिन आपने उस दिन किसी को संकेत तक नहीं किया । दूसरे दिन प्रसंगवश बात चलने पर आपने दर्द का जिक्र किया तब मैंने निवेदन किया-आप थोड़ा संकेत कर देते तो मैं पाँव दबा देता। मेरा कथन सुन आप मुस्करा गये । यह थी आपकी विदेह की साधना । विदेह का साधक शरीर और आत्मा की भिन्नता का अनुभव करता हुआ शरीर पर आने वाले हर कष्ट को समभाव से सहन करता है और आत्मानन्द का अनुभव करता है। -मुनि विमल कुमार खण्ड ४, अंक ७-८ ३५५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्वैत भी, द्वैत भी, एकादश रूप भी ! गोपीचंद चोपड़ा वह ऐतिहासिक दिवस प्रतिदिन नानाविध घटनाए घटित होती रहती हैं, किन्तु महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाए कई दशकों या शताब्दियों के अन्तराल में ही हुआ करती हैं। ऐसी ही एक विशेष महत्त्वपूर्ण घटना दिनांक ३-२-७६ के दिन घटित हुई, जो तेरापंथ के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखित रहेगी। माघ महोत्सव (माघ शुक्ला सप्तमी सं० २०३५ वि०) का पावन दिवस राजलदेसर में गुरुदेव के सान्निध्य में कई चरणों में मनाया जा रहा था। दूसरे चरण के प्रारंभ में प्रसन्नवन्दन श्रद्धेय आचार्य प्रवर ने परम आह्लाद एवं परमानन्दानुभूति के साथ जलदगंभ र स्वर में महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमल जी को तेरापंथ संघ के युवाचार्य और अपने उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा की। इस घोषणा ने चतुर्विध संघ को सहसा आनन्द विभोर कर दिया। प्रकृति ने भी इसका पूर्णरूपेण समर्थन किया। मुनि श्री नथमल जी अनासक्त, निरभिमानी, वीतरागता के साधक, साधना व ध्यान के पथ-प्रदर्शक तथा ज्ञान-ज्योति के उपासक तो हैं ही, किन्तु उनकी सर्वाधिक योग्यता आचार्य-चरणों के प्रति समर्पण भावना है । गुरुदेव ने मुनि श्री की समर्पण भावना की भूरि-भूरि प्रशंसा की। समग्र समाज आकुल था गुरुवर एवं युवाचार्य महाराज का अभिनन्दन करने के लिए, किन्तु सभी को मौका मिलना संभव नहीं था, अतः मैंने तो मूक श्रद्धांजलि अर्पण कर ही संतोष किया। यथा गुरु, तथा शिष्य हमने आचार्य प्रवर को एक बार नहीं अनेक बार देखा है कि वे यथा अवसर "वज्रादपि कठोराणि मदूनि कुसुमापि" रह कर शासन की "सारणा-वारणा" करते आ रहे हैं । युवाचार्य जी महाराज में मृदुता का गुण अपेक्षाकृत अधिक है। श्रद्धय मंत्री मुनिराज (मुनि श्री मगनलाल जी महाराज) के महाप्रयाण के बाद सेवाभावी मुनि श्री चम्पालाल जी (भाईजी महाराज) उनके रिक्त स्थान की पूर्ति यथासंभव ३५६ तुलसी प्रज्ञा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते आ रहे थे। और सर्वप्रिय भाईजी महाराज के दिवंगत होने के पश्चात् मुनि श्री नथमल जी अधिकतर गुरुकुल में ही रहने के कारण उनकी पूर्ति बहुतांश में करते रहे हैं। मुनि श्री नथमल जी परमाराध्य आचार्य देव के भाष्यकार होने के साथ-साथ उनके एक Friend, Philosopher and Guide (मित्र, परामर्शक एवं दार्शनिक) के रूप में प्रस्तुत रहे हैं। गुरुदेव ने "प्राप्ते तु षोडसे वर्षे पुत्र मित्रवदाचरेत्" के सनातन नीति वाक्य के अनुसार शिष्य-स्थानीय पुत्र को मित्रवत् सदा ही अपने हृदय में स्थान दिया, जो कि पितृतुल्य गुरु के अनुरूप ही था। किन्तु हमने मुनि श्री को सदैव ही गुरुदेव को श्रद्धास्पद पितृरूप में देखते हेए पाया। उन्होंने गुरुदेव को कभी भी मित्ररूप में नहीं समझा। उनके समक्ष वे सदा ही मोले बालक की तरह रहे । यह उनकी गुरुदेव के प्रति परम श्रद्धा एवं समर्पण भावना का द्योतक है। अद्वत, त, एकादश (अनन्त) इस अवसर पर गुरुदेव ने मुनि श्री नथमल जी का नाम भी सदा के लिए बदल कर "महाप्रज" कर दिया और इस प्रकार गुण और गुणी में अभेद की स्थापना कर दी। यह भी एक असामान्य घटना है। .. जब भी अवसर आया मुनि श्री यह भावना व्यक्त करते रहे हैं कि गुरुदेव में और उनमें कोई भेद नहीं है। वे दोनों अद्वैत हैं—दोनों मिलकर एक इकाई हैं । उनका कहना अनेकान्त की दृष्टि से हम सही मान सकते हैं। १४१ एक ही होता है, किन्तु बीच-बीच में जी चाहता है कि हम इन दोनों विराट पुरुषों को क्यों न १+१=२ के रूप में देखें। क्या ये एक दूसरे के पूरक रहकर शासन और समाज की गौरव-वृद्धि में द्विगुणित काम करते नहीं आए हैं ? और अब तो यह जी चाहता है कि गणित के इन गुणा व योग के चिह्नों (X तथा +) को उपाधियों को मिटाकर हम इन महान् आत्माओं को एक और एक ग्यारह के रूप में अर्थात् अनन्त ही के रूप में क्यों न देखें। हमारी भावना है कि ये दोनों महान् पौरुष एवं व्यक्तित्व के धारक "एक" या "दो" न रह कर ग्यारह गुणी ही नहीं अनन्त गुणी सेवा समाज और शासन को युग-युग तक देते रहें। वह अनमोल पारस : आचार्य श्री श्रीमज्जयाचार्य जी ने अपनी एक गीतिका में भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति इन शब्दों में की है कि-'पारस, तू प्रभु सांचो पारस, आप समों कर देव हो" । हम सभी यह सुनते आये हैं कि “पारस" लोहे को सोना बनाता है। पारस को किसी ने प्रत्यक्ष देखा है, ज्ञात नहीं; और, उसमें लोहे को सोना बनाने की शक्ति कहाँ तक सही है, यह भी हम निश्चयतः नहीं बता सकते । किन्तु हम यह जानते हैं कि हमारे आचार्यों में ऐसी अद्भुत शक्ति रही है। उन्होंने अनेक लौह-खण्डों को सोना बनाया है और विशिष्ट गुण-सम्पन्न लौह-खण्ड को महान् कृपावश अपने ही तरह का पारस बना दिया। इसी श्रृंखला में हम पा रहे हैं अपने युगप्रधान महान् आचार्य प्रवर को । हम आभारी हैं उनके इन लोकोत्तर कृतियों के कारण । ऐसे कलाकार हैं हमारे श्रद्धेय आचार्य श्री, उन्होंने अपनी घोषणा से न केवल चतुर्विध संघ को आश्वस्त किया है, किन्तु हर्षित भी किया है समग्र आस्थाशील मानव समाज को और गुरुदेव स्वयं भी उऋण होकर अवश्य ही अपने को बहुत हल्का महसूस कर रहे हैं । उनकी खण्ड ४, अंक ७-८ .३५७ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह महान् लाघवता चिरस्थायी हो । यह हमारी हार्दिक कामना है । साहित्य का अजल एवं अटूट स्रोत युवाचार्य महाप्रज्ञ जी की लगभग १०० कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं । और अनक अप्रकाशित कृतियाँ भी है। इनका विद्वत्समाज में पूरा मूल्यांकन हुआ है। मैंने उनकी सब पुस्तकें तो नहीं, बहुत थोड़ी ही पुस्तकें पढ़ी हैं । किन्तु मैं यह कह सकता हूं कि जिस पुस्तक के जिस भाग को भी मैंने पढ़ा, उसी से मैं प्रभावित हुआ। उनकी सम्बोषि, महापोर को साषमा का रहस्य, श्रमन महावीर, सत्य की खोज अनेकान्त के आलोक में, जनवर्शन के मौलिक तत्व, विजय यात्रा, तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो, चेतना का उध्वारोहण, जन योग, भिक्ष विचार दर्शन आदि पुस्तकें तो अतीव प्रेरणादायक हैं। हमने कई पुस्तकों का तो कई बार परायण भी किया है। इनका पठन मानसिक पुष्टिकर आहार का काम करता है। आज आवश्यक है कि उनकी पुस्तकों का सस्ता संस्करण प्रकाशित हो ताकि साधारण मध्यमवर्ग के व्यक्ति भी सहज ही उनसे लाभान्वित हो सकें । आगम ग्रंथों का सम्पादन कार्य तो उनके विशाल अध्यवसाय व अगाध ज्ञान का परिचायक है। मोक्ष-मार्ग के मुख्य साधन 'ध्यान' की लुप्तप्रायः जाह्नवी-धारा को उन्होंने जिस अध्ययन एवं अध्यवसाय के आधार पर भागीरथ की भाँति उद्धार किया है, उसके लिएमानव समाज उनका सदा ऋणी रहेगा । जैन साधना व ध्यान-पद्धति को शताब्दियों के बाद उजागर करना आपका अतीव महत्त्वपूर्ण अनुदान है। व्यवहार नय : निश्चय नय युवाचार्य महाराज बहुधा यह भावना व्यक्त करते रहते हैं कि हमारा "व्यवहार पक्ष" अधिक व्यापक बनता जा रहा है क्योंकि यह पक्ष आकर्षक है। वास्तव में ही आज निश्चय नय(अध्यात्म) का पलड़ा ऊपर उठा लगता है । हम आशा करते हैं कि आचार्य देव के आशीर्वाद से युवाचार्य महोदय का ऐसा उपक्रम रहेगा कि अचिर भविष्य में अध्यात्म का पलड़ा जो कि निश्चयनय पर आधारित है, बहुशाखी, बहुफलवान् वृक्ष की तरह नीचे झुकता दिखाई देगा। ___इस अवसर पर हम यह भी बताना चाहेंगे कि युवाचार्य श्री जी महाराज के अतीत में कई प्रसंगों पर सुष्ठु मतान्तर रहा है, किन्तु उनके हमारे प्रति स्नेह में कभी किसी प्रसंग पर कमी नहीं रही है, यह उनके वात्सल्य एवं उदार मानस का परिचायक है । वास्तव में स्वस्थ मतभेदों का होना विचारशीलता एवं जीवन्तता का परिचायक है । मैन विश्व भारती के आशाकेन्द्र हम, विश्व की इन दोनों महान् विभूतियों से "देहि देहि" की रटन लगाकर कोई और अन्य मांग नहीं करना चाहते हैं। शिक्षा, शोध, साधना, सेवा, संस्कृति की जीवन्त प्रतीक जैन विश्व भारती के एक सेवक के रूप में हम आपके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि व समर्पण-भावना व्यक्त करते हुए आपके प्रति यह कामना करते हैं कि आप पूर्ण स्वस्थ एवं दीर्घायु हों और आपका सात्त्विक मार्ग-दर्शन सदैव हमें मिलता रहे तथा जैन समाज की यह संस्था अपने महान् उद्देश्यों की सम्पूर्ति में निरतन्तर जागरूक एवं अप्रमत्त रहे । ३५८ तुलसी प्रशा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य की नियुक्ति : आचार्य श्री का महान् दायित्व जबरमल भंगरी पंच परमेष्ठी में आचार्य का पद मध्य में है । पंच परमेष्ठी के अंतिम दो पदों में से आचार्य निर्वाचित होते हैं। आचार्य स्वयं तो संयम पालते ही हैं, साथ-साथ अन्यों को संयम पालने में सहायक बनते हैं। जैन शासन के आचार्य शृंगार होते हैं और चतुर्विध संघ की सारणा-वारणा करते हैं । जैनों में जैन श्वेताम्बर तेरापंथी एक बहुत बड़ा संघ है । इस संघ के सभी आचार्य उत्तरोत्तर प्रभावशाली हुए हैं। इस संघ के वर्तमान आचार्य श्री तुलसी गणी हैं। उन पर चतुर्विध संघ की विशेष जिम्मेवारी है। साधु-साध्वी समुदाय बहुत बड़ा है, फिर भी सब संघ के सदस्यों को परोटने की महान् दक्षता आचार्य श्री में है । युग बराबर पलटता जा रहा है। पलटते युग में जो युग की मांग के अनुसार अपने को नहीं पलटता वह पिछड़ जाता है। आचार्य श्री तुलसी ने युग की परिवर्तन-शीलता को भली प्रकार समझा है और भविष्य में युग क्या करवट लेगा उसको वे पहले से ही भली प्रकार जान लेते हैं, इसलिए उनका कदम संयम की साधना करते हुए समयानुकूल आगे बढ़ता जा रहा है। तेरापंथ शासन की हमेशा से यह मर्यादा रही है कि वर्तमान आचार्य अपने शासनकाल में युवराज की नियुक्ति करते हैं, जो चतुर्विध संघ को मान्य होती है। इस नियुक्ति में किसी का हस्तक्षेप नहीं होता। नियुक्ति की पूरी जिम्मेवारी वर्तमान आचार्य की ही रहती है। अतः आचार्य श्री का यह गुरुत्तर दायित्व होता है कि वे अपने पीछे होने वाले आचार्य का नाम घोषित करे । आचार्य तुलसी आगम दृष्टि के महान् धनी हैं । माघ शुक्ला सप्तमी को मर्यादा-महोत्सव के अवसर पर आचार्यप्रवर ने अपनी जिम्मेवारी को ध्यान में रखते हुए मुनि श्री नथमलजी को युवाचार्य घोषित कर तेरापंथ संघ को ही नहीं अन्य धर्मावलम्बियों एवं भारत के चिंतकों तथा बुद्धिजीवियों को एक महान् देन दी है। इस घोषणा से चारों ओर उल्लास ही उल्लास है । युवाचार्य महाराज सबके जाने पहचाने हैं । शायद कई व्यक्तियों ने उनका साक्षात्कार नहीं भी किया हो, परन्तु उनके कर्तृत्व से सभी परिचित हैं। मुनि श्री की दीक्षा स्वर्गीय प्रातःस्मरणीय पूज्य कालूगणीजी के द्वारा हुई थी। परन्तु मुनि श्री दीक्षा के बाद से निरन्तर आचार्य श्री तुलसी (जब बे सामान्य साधु थे) के सान्निध्य में रहे हैं । अतः मुनि श्री ने जो भी विकास किया है, वह सब आचार्य श्री तुलसी की देन है। खण्ड ४, अंक ७-८ ३५९ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री नथमलजी पूज्य आचार्य श्री के इंगित-आकारों को समझते हैं। मैं यह कहं तो अत्युक्ति नहीं होगी कि मुनि श्री आचार्य श्री तुलसी के भावों के भाष्यकार हैं। मुनि श्री एक महान् दार्शनिक विद्वान् संत हैं, जो आगमों की गुत्थियों को सुलझाने में दक्ष हैं। इसी कारण पूज्य गुरुदेव ने कुछ समय पूर्व उन्हें "महाप्रज्ञ" की उपाधि से विभूषित किया था। मैं बीमार होने के कारण राजलदेसर मर्यादा महोत्सव पर जा नहीं सका। श्रीमान् राणमलजी जीरावाला का तार आया कि मुनि श्री नथमलजी युवाचार्य घोषित किये गये हैं। हृदय प्रसन्नता से गद्गद हो गया। उस समय की हृदय विभोरता शब्दों में नहीं बांधी जा सकती । मैंने इस शुभ समाचार को समाज के महानुभावों के पास भेजा और मेरे पास बहुत से लोग प्रसन्नता प्रकट करने के लिए आये । मैंने हर्ष एवं अह्लाद का लम्बा तार राजलदेसर देने के लिए लिखा, उसमें पूज्य गुरुदेव से सविनय अर्ज भी की कि युवाचार्य महाराज का नाम पलट देवें । तार लिख चुका था, लोगों ने देखा तो कहा कि तार बहुत लम्बा है और नाम पलटने की अर्ज करना श्रावकों के लिए उचित नहीं। तब मैंने केवल हर्ष एवं प्रसन्नता का तार दिया। उसके कुछ समय बाद लाडनूं से आए यात्रियों द्वारा मालूम हुआ कि युवाचार्य जी महाराज का नाम पलट दिया गया है। अब से युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के नाम से सम्बोधित होंगे । मुझे इस बात की अत्यन्त खुशी हई । खासकर कि पूज्य गुरुदेव ने दूर होते हुए भी मेरे हृदय के भाव जान लिये । . युवाचार्य श्री एक महान् ज्ञानवान् दार्शनिक संत हैं। गुरु ने क्या किया, शिष्य ने क्या किया, यह विचार मुनि श्री (वर्तमान युवाचार्य) के मन में कभी नहीं आया । जो भेद रेखा थी आचार्य और शिष्य की, युवाचार्य होने के बाद वह भेद रेखा भी नहीं रही। दोनों अभेद रूप हो गये । .. . जब पूज्य गुरुदेव का ध्यान आगम कार्य की ओर गया तो. युवाचार्य महाराज इस कार्य में ऐसी निष्ठा के साथ जुड़े कि थोड़े समय में कई आगमों के सम्पादन का श्रम-साध्य कार्य निष्पक्षता से किया और आगे भी कर रहे हैं । जब आचार्य श्री का ध्यान, ध्यान की ओर गया तो युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने सर्वप्रथम ध्यान के प्रयोग स्वयं पर किए और जब उनमें निष्णात हुए तो जैन पद्धति का शास्त्रोचित्त "प्रेक्षा ध्यान" का विकास किया । जैनजनेतरों को उस ध्यान की ओर आकर्षित ही नहीं किया अपितु ध्यान की सही परिपाटी बतलाई। युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ एक कुशल सलाहकार हैं । वे समय-समय पर पूज्य गुरुदेव को आवश्यक सलाह देते रहते हैं। युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन दर्शन के महान् उद्भट विद्वान् हैं। जिस विषय पर उनकी कलम चल पड़ी उस विषय को उन्होंने बड़ी कुशलता से पाठकों के सामने रखा है । वे संस्कृत प्राकृत एवं हिन्दी के महान् विद्वान् हैं । साथ-साथ अंग्रेजी में भी गति की है । आपने प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी में अनेक पुस्तकें लिखी हैं जो साहित्यिक एवं आध्यात्मिक जगत् के लिए एक अमूल्य देन है । युवाचार्य श्री की कई पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है। भगवान् महावीर एवं गौतम गणधर के समान पूज्य आचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की जोड़ी है । मैं आचार्य देव का एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का हार्दिक अभिनन्दन करता हुआ यह कामना करता हूं कि यह जोड़ी नित्य बनी रहे और संघ ही नहीं समस्त जन मानस को उत्तरोत्तर विकासोन्मुख बनाते रहें और संसार का पथ-प्रदर्शन करते रहें। ३६० ... तुलसी प्रज्ञा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री नथमलजी को बहुमुखी योग्यता का समुचित बहुमान रतिलाल भाई जो व्यक्ति सत्य की खोज कर जीवन को सत्यमय, धर्ममय बनाने के लिए उतावला हो जाता है, जिसको यह रंग चढ़ जाता है, उसको दुनियां के सभी राग-रंग फीके लगते हैं और वह अपने आत्मभाव के रंग को और अधिक गहरा बनाने के लिए वैराग्य की शरण में जाता है। ऐसी स्थिति में वह तप, त्याग, संयम और तितिक्षा को अपना जीवन साथी बनाने के लिए नहीं हिचकता । जब ऐसा भाग्योदय जागृत हो जाता है, तब उसको संसार के दुःख नं दुःखरूप और न तीव्र ही लगते हैं। इसके विपरीत सांसारिक सुखोपभोग और आनन्द उसे उपाधिरूप और विघ्नकारक प्रतीत होते हैं। ऐसी कष्टप्रद जीवन-साधना को आनन्दमय बनाने के लिए वह दिव्य रसायन का आलंबन लेता है। वह रसायन है सत्य के विविध पक्षों के स्वरूप की सही जानकारी करने की उत्कट अभीप्सा। ऐसा साधक अपने मूलस्वरूप को, जगत् के स्वरूप को और परम तत्त्वरूप परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करने और जीवन को विमल बनाने के लिए उत्कट अभीप्सा को जागृत करता है। .. तेरापंथ धर्मसंघ के मुनि नथमलजी (अब युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ) शील और प्रज्ञा अर्थात् ज्ञान और क्रिया के समान प्रकर्ष से सुशोभित हैं । वे सत्य की खोज द्वारा आत्मा की गवेषणा करने वाले एक श्रमण-संत हैं । उन्होंने श्रमण-धर्म की अन्तर्मुख और आत्मलक्षीमोक्षलक्षी अप्रमत्त साधना के द्वारा जो बहुमुखी योग्यता प्राप्त की है, उससे प्रेरित और प्रभावित होकर तेरापंथ के नौवें आचार्य श्री तुलसी जी ने गत नवम्बर मास में उनको 'महाप्रज्ञ' की उपाधि से सम्मानित किया। अभी-अभी (३-२-१९७६) आपने अपने उत्तराधिकारी के रूप में मुनि श्री नथमलजी का मनोनयन कर उनकी योग्यता का संघ में जो सन्मान-बहुमान किया है, वह एक सुयोग्य, ज्ञानी और गुणवान व्यक्ति के व्यक्तित्व के अनुरूप बहुमान के रूप में स्मृति-पटल पर अंकित रहने योग्य हैं। तेरापंथ धर्मसंघ तथा आचार्य श्री तुलसी से ऐसे विरल सम्मान को प्राप्त कर मुनि श्री नथमलजी अत्यधिक धन्यवाद और अभिनन्दन के पात्र बने हैं। - किसी व्यक्ति को कोई उपाधि या पद प्राप्त हो और उसके विषय में कुछ लिखा खण्ड ४, अंक ७-८ ३६१ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाए-ऐसी प्रेरणा भाग्य से ही प्राप्त होती है । मुनि श्री नथमलजी की अपनी एक विशेषता है । वे प्रत्येक विचार को अपने मौलिक और स्वतंत्र चिन्तन की कसौटी पर कसते हैं और नवनीत रूप उसके निष्कर्ष को स्वीकार करने के लिए तत्पर रहते हैं। उनमें यह गुणग्राहकवृत्ति और सत्य को सौम्य सुन्दर रूप में अभिव्यक्त करने की अद्भुत कला है। उनकी यह क्षमता सैकड़ों सहृदय गुणवान् व्यक्तियों द्वारा प्रशंसनीय है । मैं भी इसी से प्रेरित होकर कुछ लिखने के लिए तत्पर हुआ हूं और यह उचित भी है। जिस व्यक्ति को सत्य और गुणों का शोधक अर्थात् अनेकान्तवाद का जीवन्त उपासक बनना हो उसको सबसे पहले अपनी ज्ञान-साधना की सीमा को विशाल ही नहीं करना होता है, किन्तु पूर्वाग्रहों तथा सभी प्रकार के अन्य बंधनों से सर्वथा मुक्त कर देना होता है । ऐसी ज्ञान-साधना के प्रकाश में जो ज्ञेय (जानने योग्य), जो हेय (त्यागने योग्य) और जो उपादेय (स्वीकार करने योग्य) होता है, उसको जीवन में उतारने के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि ऐसा होता है, तभी 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः'- इस सूत्र की जीवन में सार्थकता मानी जा सकती है। इसी विधि से मोक्ष प्राप्ति के साधन रूप समता की साधना हो सकती है। ____ मैंने तेरापंथ के युवाचार्य श्री नथमल जी द्वारा संपादित तथा स्वतंत्र रूप से लिखित छोटे-बड़े पचास से अधिक ग्रन्थों का सूक्ष्मदृष्टि से निरीक्षण किया है। कितना व्यापक और विशाल है आपका अध्ययन तथा कितना गहन और समभाव युक्त होता है आपका मननचिन्तन, यह ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात हुए बिगर नहीं रहता। युवाचार्य श्री अपनी आत्मसाधना तथा जीवन-शोधन के लिए कितने अप्रमत्त जागृत रहते हैं, यह तथ्य भी आपकी साहित्य-साधना तथा संयम-वैराग्य की साधना से ज्ञात हो जाता है। यह कहना चाहिए कि जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचार अर्थात् जैन दर्शन और जैन धर्म को अपने जीवन में समानरूप से प्रतिष्ठित कर आपने अपने श्रमण धर्म की साधना को चरितार्थ और उन्नत किया है। सत्य की खोज और आत्म-खोज के लिए परोक्षज्ञान से आगे बढ़कर प्रत्यक्षज्ञान प्राप्त करने की आपकी अभिलाषा कितनी तीव्र है, इसका उल्लेख आपने 'महाप्रज्ञ' की उपाधि स्वीकारते समय अपने वक्तव्य में किया था। आपने अपने भाषण में कहा - मेरे मन का एक स्वप्न था, बहुत पुराना स्वप्न । मैंने आचार्यवर श्री तुलसी से बहुत पहले प्रार्थना की थीमैं अभी संघ की सेवा में संलग्न हूं। मैं जब ४५ वर्ष का हो जाऊं तब मुझे सभी प्रकार की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया जाए। मैं केवल प्रज्ञा की साधना करना चाहता हूं तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए समर्पित होना चाहता हूं। हम सब केवल परोक्षज्ञानी बने रहें और यही रटन लगाते रहें कि शास्त्रों में यह लिखा है, वह लिखा है, यह मैं नहीं चाहता । किन्तु आज ऐसा ही हो रहा है । हम प्रत्यक्ष ज्ञान की उपेक्षा कर रहे हैं। अब हम स्वयं जागृत हों और यह कहने की स्थिति उत्पन्न करें कि मैंने स्वयं इस तथ्य का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और मैं अपने अनुभव के आधार पर यह बात कह रहा हूं। केवल परोक्ष की दुहाई न दी जाए, केवल शास्त्र की रटन ही न होती रहे, हम स्वयं अनुभव करें और जिन-जिन साधकों ने अनुभव किया है, उनके साथ साक्षात् संपर्क करें।" इस वक्तव्य में कहे अनुसार मुनि श्री संघ को संभालने के उत्तरदायित्व से तो मुक्त नहीं हो सके, किन्तु उनका कथन इस बात का साक्षी है कि वे कितने लम्बे समय से शास्त्र३६२ तुलसी प्रज्ञा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग से आगे बढ़कर सामर्थ्ययोग को सिद्ध करने के लिए कितने उत्सुक थे । अन्तर्मुख या आत्माभिमुख व्यक्ति ही कीर्ति, नाम और कामनाओं से अलिप्त रहकर ऐसी उत्सुकता रख सकता है। मुझे यह भी प्रतीत होता है कि भले ही आपने अपनी सारी शक्ति या सारा समय इस प्रत्यक्षज्ञान को प्राप्त करने के लिए न लगाया हो, फिर भी आपने अतीन्द्रियज्ञान की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के ग्रन्थ तथा लेख आज अत्यन्त लोकप्रिय हो रहे हैं । इसका कारण है आपकी सुगम और सरस भाषा तथा मधुर और सरल शैली। इसके साथ-साथ आपकी निरूपण की विशदता भी अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। इन सब विशेषताओं से भी अति महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि आपके साहित्य में प्रत्यक्ष अनुभव, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और स्वतंत्र चिन्तन की प्रकाश-रेखाएं पग-पग पर परिलक्षित होती हैं । ऐसे प्रकाशपुंज साधक के ज्ञान और क्रिया से संबंधित अथवा अन्यान्य विषय-संबंधी प्राचीन और दुर्गम शास्त्रीय तथ्य भी जिज्ञासु व्यक्ति ऐसी सहजता से समझ सकता है कि वह उन तथ्यों के रहस्यों को सहजरूप से आत्मसात् कर लेता है । जैन साहित्य की ऐसी उत्तम और आकर्षक पुस्तकों का सर्जन करना मुनि श्री की अनोखी विशेषता है। इससे जैन श्रमण संघ और जैन साहित्य का गौरव बढ़ा है, इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। मुनि नथमल जी ने दस वर्ष की छोटी अवस्था में दीक्षा ली और अभी आपकी अवस्था है ५८ वर्ष की । आपको दीक्षित हुए लगभग ४८ वर्ष हो चुके हैं। आपने अपना यह पूरा समय समर्पण भाव से गुरु की सेवा और आज्ञापालन करने में बिताया है और साथ-साथ ज्ञान-ध्यान पूर्वक संयम की आराधना भी करते रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी निष्पत्ति यह हुई कि आप अपने से भिन्न या विरोधी विचार रखने वाले व्यक्ति को शान्ति पूर्वक सुन सकते हैं, समझ सकते हैं और अपनी बात दूसरों को समझाने का धैर्य पूर्वक प्रयत्न करते हैं । इससे आपकी सत्यनिष्ठा और समता की साधना की कीर्तिगाथा बनी रह सकती है। पन्द्रह या कुछ अधिक वर्ष पूर्व एक जापानी विद्वान् भारत आए थे । वे आचार्य श्री तुलसी से मिले । जापान में बौद्ध धर्म का प्रभुत्व है और उसकी साधना में ध्यान का भी महत्त्व है। उसे 'जेन बुद्धिज्म' कहा जाता है। वे जापानी विद्वान् स्वयं बौद्ध धर्मावलम्बी थे। उन्होंने आचार्य श्री तुलसी से पूछा-ध्यान-साधना भारत की बपौती है, फिर भी आज भारत में उसकी उपेक्षा क्यों हो रही है ? आचार्य श्री ने कहा-आपकी बात सत्य है । किन्तु अब हम इस ओर विशेष ध्यान दे रहे हैं। उसके बाद ही तेरापंथ में ध्यान-साधना की दिशा में सजीव और निष्ठायुक्त प्रयत्न होने लगे। इन प्रयत्नों में युवाचार्य श्री का देय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इतना ही नहीं, स्वयं आपने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। ऐसे सत्य, समता और सहिष्णुता के समर्थ उपासक मुनिवर अपने कंधों पर आए हुए उत्तरदायित्व के नए भार का भलीभांति निर्वाह करते हुए अत्यधिक यशस्वी होंगे, इसमें शंका नहीं है। *साप्ताहिक 'जन' (गुजराती) से साभार खण्ड ४, अंक ७-८ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ : आचार्य तुलसी के दर्पण में प्रस्तोता : मुनि किशनलाल श्रद्धास्पद आचार्य प्रवर ! नमन है आपके कर्तत्व को । समर्पित है सारा संघ आपके विलक्षण व्यक्तित्व पर । मेरे मानस में कुछ प्रश्न उभर रहे हैं, जिसका समाधान आपके श्रीमुख से पाना चाहता हूं। प्रश्न--आपने अपने महान् उत्तरदायित्व की घोषणा आकस्मिक क्यों पसन्द की? जबकि लाखों-लाखों लोग इस ऐतिहासिक क्षण के दर्शन के लिए लालायित थे। उत्तर यह आचार्य का व्यक्तिगत मामला है। इसका संपूर्ण दायित्व आचार्य पर होता है कि वह इस महत्त्वपूर्ण कार्य को किस प्रकार संपन्न करे । यह उसके मन की बात होती है । हमारे पूर्वाचार्यों ने भी कभी इस कार्य को प्रच्छन्न रूप में करना पसन्द किया, तो कभी पहले से सूचित कर दिया। कभी पहले सूचित किया, तो कभी ऐसा नहीं किया। मैंने सोचा कि इस कार्य को करना अवश्य है। किन्तु पहले सूचित कर देने से कार्य का उतना आकर्षण नहीं रह जाता है। आकस्मिक किया गया काम कई दृष्टियों से लाभप्रद होता है और उल्लास का वातावरण भी जितना आकस्मिक का होता है, उतना पहले से घोषित किए गए कार्य का शायद नहीं होता। एक कठिनाई और है। इस कार्य के लिए पहले से घोषणा कर दी जाती, तो इतनी जनता उपस्थित हो जाती कि उसे व्यावहारिक दृष्टि से संभालना कठिन होता। मर्यादामहोत्सव के अवसर पर वैसे ही बीस-पचीस हजार आदमी इकट्ठ हो जाते हैं और यदि इसकी पहले से घोषणा कर देता, तो लाखों लोग इकट्ठ हो सकते थे । यदि एक लाख आदमी अनायास उपस्थित हो जाएं तो उन सबकी व्यवस्था कितनी कठिन हो सकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । फिर यह शीतकाल का समय है। इस समय में व्यवस्था और कठिन होती है। इन्हीं सब दृष्टियों से मैंने आकस्मिक घोषणा करनेका निर्णय लिया। प्रश्न-लाखों लोग इस ऐतिहासिक दृश्य को देखने से वंचित रह गए। वे लोग उपालंभ की भाषा में निवेदन करते हैं कि आचार्यवर को हमें इस महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम से वंचित नहीं करना था ? उत्तर - मैंने इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए कितना महत्त्वपूर्ण अवसर ढूंढा । यह उन लोगों को सोचना चाहिए, जो नहीं पहुंच पाए। मर्यादा-महोत्सव का ऐसा अवसर है, जिस तुलसी प्रज्ञा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर जहां तक संभव हो सके, सभी को उपस्थित रहना चाहिए । जो उपस्थित नहीं हो सके, यह उनकी त्र ुटि है । मैं इसमें क्या कर सकता हूं ? यदि मैं गुपचुप करता, तो कोई ऐसा कह सकता था । जबकि मैंने इस कार्य के लिए मर्यादा - महोत्सव का अवसर चुना। इस अवसर पर भी जो लोग अपनी नींद न उड़ाएं, उनके लिए मैं क्या कर सकता हूं ? जो लोग इस महत्त्वपूर्ण अवसर पर नहीं पहुंचे हैं, वे जीवन भर महसूस करेंगे कि एक सुन्दर अवसर से वंचित रह गए । दूसरी बात यह है कि यदि मैं पहले से भी घोषणा कर देता, तो भी लाखों लोग वंचित रह जाते। सभी लोग कैसे पहुंच सकते थे ? जो आ गए सो आ गए, जो रह गए सो रह गए । प्रश्न - युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के निर्वाचन के लिए उनकी कौन-कौन सी विशेषताएं आपको आकृष्ट कर सकीं ? उत्तर - उनकी अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं । मैं उन सबको कैसे बतला सकता हूं? मेरे साथ इनका सदा से ही अद्वैत रहा है । मैं नहीं समझता कि कौन-सी विशेषता का अंकन करूं और कौन-सी विशेषता को छोडूं ? किन्तु कुछ बातें रख देना आवश्यक समझता हूं । पहली बात तो यह है कि उनका मेरे प्रति जो समर्पण भाव दीक्षा लेने के बाद हुआ और आज तक है, वह विलक्षण है । मैं स्वयं इसे बहुत कठिन बात मानता हूं । यह बहुत कठिन चीज है । बचपन में समर्पण होना एक बात है, किन्तु बौद्धिक बनने के बाद, शिक्षित होने के बाद और बहुत बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद ऐसा समर्पण भाव कठिन होता है । युवाचार्य तो अब बने हैं । किन्तु उससे पहले भी समाज में इनकी प्रतिष्ठा कम नहीं थी । अपने समाज में ही नहीं, सारे समाजों में भी इनकी प्रतिष्ठा थी । ऐसी स्थिति में भी इनका समर्पण भाव सदैव एक समान रहा । इनके इस समर्पण भाव ने मुझे बहुत आकृष्ट किया । दूसरी बात यह है कि जिन-जिन क्षेत्रों में इन्होंने ज्यों-ज्यों विकास किया, फूल के साथ कांटा आता है, मेघ के साथ आंधी आती है और प्रकाश के साथ कज्जल आता है, किन्तु विकास के साथ इनमें किसी भी प्रकार का अहंकार नहीं देखा । यह कोई कम महत्त्व - पूर्ण विशेषता नहीं है । ये जितने निरहंकारी बचपन में थे, उतने ही विकास के समय रहे । मैं यह भी कह सकता हूं कि ये जैसे-जैसे विकास करते गए, वैसे-वैसे और अधिक विनम्र बनते गए । तीसरी सबसे बड़ी विशेषता है चरित्र की । इस पद के लिए, इस गरिमापूर्ण पद के लिए जिस सर्वाधिक विशेषता का अंकन किया जाता है, वह है चरित्र - संपन्नता । मैंने इनमें अक्षुण्ण चरित्र-संपदा को पाया । शिक्षा, साहित्य, लेखन, वक्तृत्व आदि-आदि जितनी भी कलाएँ हैं, जितने भी गुण हैं, वे सब साधु के लिए एक तरफ हैं, चरित्र-संपन्नता सबसे बड़ी चीज़ है । मैं इसे बहुत महत्त्व देता हूं । चौथी विशेषता यह है कि जब ये किसी गुरुतर दायित्व पर नहीं थे, तो भी संघ की ३६५ खण्ड ४, अंक ७-८ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत-सी गतिविधियों की आर्त-गवेषणा करते रहते थे। संघ में किन चीजों का, किस प्रकार विकास होना चाहिए, इस पर ये बराबर चिन्तन करते रहते थे और अपनी भावना मेरे सामने रखते थे। इससे भी यह अंकन करने का अवसर मिला कि जो व्यक्ति पहले से ही संघ-विकास के लिए इतना चिंतन करता है, वह दायित्व देने के बाद, उस दिशा में और अधिक प्रयत्न करेगा। इन सब विशेषताओं को देखकर मैंने इन्हें अपना दायित्व सौंपा । में ऐसा सोचता हूं कि मैंने यह निर्णय करके संघ का बहुत बड़ा हित किया है। प्रश्न-लोग आपके इस निर्वाचन से बहुत प्रसन्न हैं । आपने जो पद प्रदान किया है, उससे भी अधिक लोग युवाचार्य श्री का मूल्याकंन करते हैं। किन्तु अवस्था को लेकर लोगों के मन में विचार आ सकता है। किसी युवक को अगर इस पद पर लाते, तो युवाजगत धर्म की ओर आकर्षित होता । इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ? उत्तर-युवकत्व और वार्धक्य मात्र उम्र सोचना एकांगी बात है। साठ वर्ष की अवस्था में एक ऐसा युवक हो सकता है, जो लाखों व्यक्तियों में पचीस-तीस वर्ष की अवस्था में भी नहीं हो सकते । युवकत्व का संबंध अवस्था से उतना नहीं है, जितना कार्य से है, विचारों से है और क्षमता से है । मैं तो इन्हें इन सब चीजों की दृष्टि से वृद्ध नहीं मानता हूं। इस अवस्था में भी आज ये जितना युवा-पीढी को आकृष्ट कर रहे हैं, शायद हजारों युवक नहीं कर सकते हैं । जब मैं स्वयं अपने को युवक मानता हूं, तो मेरे से सात वर्ष ये छोटे हैं, बूढा कैसे मानूं ? सभी दृष्टियों से मैं इन्हें किसी युवक से कम नहीं मानता हूं। प्रश्न- आपके प्रवचनों से लगा कि आपने बहुत थोड़े समय में ही यह निर्णय लिया और आकस्मिक रूप में ही घोषणा की। इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ? उत्तर-निर्णय करना एक बात है और क्या करना है, इसका चिन्तन करना दूसरी बात है। निर्णय मैंने बहुत पहले नहीं लिया, किन्तु मस्तिष्क में चिन्तन तो मेरा था ही। मेरे संघ में जितने साधु हैं, वे एक-एक मेरे से अज्ञात नहीं हैं, अपरिचित नहीं हैं। मैं सबको भली-भांति जानता हूं और तुलनात्मक दृष्टि से भी सबको देखता हूं। निर्णय मैंने आकस्मिक रूप से घोषित किया, किन्तु मेरे चिन्तन में, मेरे दिमाग में बहुत पहले से था। मैंने अपने प्रवचन में भी कहा था कि एकाधिक साधु मेरे सामने हैं । बल्कि मुझे कहना चाहिए कि साध्वियां भी ऐसी हैं, अगर मैं उनको मेरा संपूर्ण दायित्व सौंप दूं, तो बहुत अच्छे ढंग से आचार्य-पद का दायित्व संभाल सकती हैं । यह हमारे धर्मसंघ के लिए गौरव की बात है। फिर भी उन सबकी तुलना में मैंने देखा तो सर्वाधिक योग्य इन्हें पाया । इसलिए मैंने इनका निर्वाचन किया। प्रश्न-युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के माध्यम से आप विश्व को किस ओर गतिशील देखना चाहते हैं ? उत्तर-मैं विश्व से पहले आत्मा की बात करना चाहता हूं। मैं युवाचार्य को समग्रतया आत्मस्थ देखना चाहता हूं और ठियप्पा - स्थितप्रज्ञ के रूप में देखना चाहता हूं। इसके लिए इनको कुछ करना नहीं पड़ेगा । आज इनके भीतर से जो ऊर्जा निकल रही है, उससे हजार गुना अधिक निकलेगी और वह विश्व के लिए बहुत हितकारी बनेगी। अपने तुलसी प्रज्ञा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपको छोड़कर विश्व की बात करना बेकार है । सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं आत्मस्थ बनना चाहिए और उसके बाद विश्व की बात करनी चाहिए । फिर भी जो एक तनावपूर्ण वातावरण है, एक बेचैनी और अशान्ति संसार में फैली हुई है, उसे मिटाने में भी इनके द्वारा बहुत बड़ा सहारा मिलेगा। इनके माध्यम से मुझे काम करने का अवसर मिलेगा और मेरे माध्यम से इन्हें काम करने का मौका मिलेगा । मैं चाहता हूं कि विश्व में एक ऐसा वाता - वरण बने, आज जो अध्यात्म थोड़ा धूमिल हो रहा है, वह अध्यात्म विकास में आए और दूसरी बातें गौण हो जाएं । यह बात मैं इनके माध्यम से कराना चाहता हूं । प्रेक्षा का एक ऐसा सक्षम माध्यम मिल गया है, जिसके द्वारा भी संसार के प्रबुद्ध मानस को शान्त और उन्नत देखना चाहता हूं । प्रश्न - अपना उत्तरदायित्व सौंपने के बाद क्या आप ध्यान और योग की विशेष साधना में लगना चाहेंगे ? हूं उत्तर - मैं ध्यान योग की साधना से अपने को अब भी अलग नहीं मानता हूं । वर्तमान में भी मैं ध्यान और योग की साधना में और अगर मुझे विशेष अवकाश मिलेगा, तो और भी अधिक लगाना चाहूंगा । वर्तमान में इनकी जो साधना चल रही है, मैं उसमें और अधिक गति देखना चाहता हूं । मैं अपने आपको अपने दायित्व से संलग्न रखकर इनको और अधिक अग्रसर करना चाहता हूं। वर्तमान में भी मैं योग-साधना से उपेक्षित नहीं हूं, किन्तु इस विषय में इन्होंने जो एक अच्छी प्रक्रिया अपनाई है, मैं अपने आपको गौण करके भी उस दिशा में इन्हें और अधिक गतिशील देखना चाहता हूं । प्रश्न - युवाचार्य श्री की घोषणा का धर्मसंघ ने जिस उल्लास से स्वागत किया है, उसका आपके मानस पर क्या प्रतिबिम्ब है ? उत्तर-- हमारे धर्मसंघ ने जिस हर्ष और उल्लास से स्वागत किया है, वह मेरे लिए कोई नई बात नहीं है । यह बात मेरे चिन्तन से परे की नहीं है । मैं ऐसा सोचता ही था, ऐसा समझता ही था । जैसे मैंने सोचा था, वैसा ही हुआ है । इतना जरूर है कि हर कार्य में कुछ किन्तु परन्तु रहती है। सौ में से एक व्यक्ति मिल ही जाता है, जो अच्छे से अच्छे कार्य के बारे में कह सकता है कि ऐसा होता तो और ठीक होता । किन्तु मेरी इस घोषणा को, इस निर्वाचन को लेकर मैंने किन्तु परन्तु भी नहीं सुनी। यह हमारे धर्मसंघ का सौभाग्य है | अपने धर्मसंघ के प्रति लोगों में जो अटूट निष्ठा है, उसे मैं बहुत बड़ी बात मानता हूं । मेरी इस घोषणा से धर्मसंघ की आयु बहुत बढ़ गई है और धर्मसंघ की नींव पाताल में चली गई है, ऐसा लगता है | मेरा धर्मसंघ प्रसन्न है, इसलिए में भी बहुत प्रसन्न हूं । प्रश्न - आप एकतंत्र एवं जनतंत्र, इन दोनों प्रणालियों में किसे राष्ट्र के हित में मानते हैं ? उत्तर - एकतंत्र और जनतंत्र की अपनी-अपनी अच्छाइयां और बुराइयां होती हैं । किन्तु मेरा विश्वास आत्मतंत्र में है । हमारे यहां एकतंत्र एवं जनतंत्र नहीं, अध्यात्मतंत्र है । जब तक आत्मतंत्र का विकास नहीं होता है, तब तक एकतंत्र एवं जनतंत्र दोनों खतरनाक बन सकते हैं । खण्ड ४, अंक ७-८ ३६७ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य महाप्रज्ञ से एक भेंट प्रस्तोता-मनि किशनलाल प्रश्न- युवाचार्य पद के निर्वाचन के लिये आपको शतशः बधाई । हम सब सौभाग्यशाली हैं कि आप जैसे युवाचार्य हमें आचार्यश्री द्वारा उपलब्ध हुए हैं। मर्यादा महोत्सव के दिन प्रवचन पण्डाल में आचार्यश्री द्वारा प्रवचन में यह कहने पर कि "मैं अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करूंगा।" आपके मन में उस क्षण क्या प्रतिक्रिया हुई, घोषणा के पूर्व क्षण तक क्या आपको एहसास था कि मेरे नाम की घोषणा होगी? उत्तर-आचार्यश्री ने जब यह घोषणा की उस समय सब सुन रहे थे, मैं भी उनकी पंक्ति में शामिल था, मैं भी सुन रहा था और बड़े कुतूहल के साथ सुन रहा था। मुझे पता कैसे चले ? आचार्यश्री ने कभी मुझसे पूछा नहीं और न कभी मुझे बताया । कोई संकेत भी नहीं दिया, इगित भी नहीं किया। अगर मुझसे बात करते, कोई परामर्श करते, मुझे थोड़ा-सा संकेत देते, तो मैं भी मेरी समस्याएं सामने प्रस्तुत करता, किन्तु मेरे सामने कोई प्रश्न ही नहीं आया, तो जिस प्रकार आप सब लोग सुनने वाले थे उसी पंक्ति में मैं था, उससे अतिरिक्त कुछ नहीं। प्रश्न - आप जैसे चिन्तनशील व्यक्ति के मन में बहुत से प्रश्न हो सकते हैं। उस समय क्या प्रतिक्रिया हुई ? हम तो श्रोता हो सकते हैं, आप तो चिन्तक और दृष्टा हैं ? उत्तर--चिंतनशील होना और दृष्टा होना एक बात है और तात्कालिक बात पर एक प्रति क्रिया करना दूसरी बात है। आचार्यवर ने इतना अवसर ही नहीं दिया कि मैं लम्बे समय तक सोच सकूँ या प्रतिक्रिया कर सकू। घोषणा के कुछ क्षणों बाद मुझे उपस्थित ही कर दिया तो फिर सोचने का अवकाश ही कहाँ रहा ? यह मैं मानता हूं कि आचार्यवर का कोई निर्णय होगा, वह सब दृष्टियों से संतुलित, उचित होगा। इसमें मुझे कभी संदेह नहीं था, किंतु मैं अपने लिये सोचूं, इसके लिये मुझे कोई जरूरत भी नहीं थी। उस क्षण इतना भावनापूर्ण वातावरण था कि चिंतन, भावना से दब गया। कोई भी व्यक्ति चिंतन की स्थिति में नहीं था। आचार्यवर ने इस प्रकार एक भावनात्मक ढंग से सारे वातावरण को भावना से प्रभावित कर दिया कि सब लोग भावित हो गए थे। जब भावित हो जाते हैं, तब वहाँ तुलसी प्रज्ञा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिंतन के क्षण नहीं होते हैं । वहाँ प्रतिक्षण उत्सुकता होती है कि अगले क्षण क्या होता है । प्रश्न अंतरमानस में क्या प्रतिक्रिया हुई ? - निर्वाचन की घोषणा के साथ ही आपके उत्तर -- जब आचार्यवर ने मुझे इस पद के लिये उपस्थित किया, वह क्षण मेरे लिये बहुत विचित्र था और एक साथ इतनी बातें मस्तिष्क में घूम गई कि उसका विश्लेषण करना भी मेरे लिये कठिन है । जिस दिन दीक्षित हुआ उस दिन से लेकर आज तक का समूचा जीवन चित्र पटल पर दृश्य की तरह आ गया । हमारा सम्बंध, तादात्म्य और आचार्यवर से मिली सारी प्रेरणाएं, उसके परिणाम और भविष्य की कल्पना वृत्त के रूप में एक साथ घूम गयी। उस एक क्षण का विश्लेषण करूं तो उसके लिए हजारों क्षण मुझे चाहिये, किंतु अज्ञात रूप में सारी बातें जैसे एक साथ चित्र-पटल पर उतर आयी। मुझे यही लगा कि अगर पहले अवकाश आचार्यवर मुझे देते तव तो मैं अपने मन की बातें भी और कठिनाइयां भी सामने प्रस्तुत करता । गुरुदेव ने बिना अवकाश दिये सीधा निर्देश और आदेश ही दे दिया । मेरे जीवन का व्रत है कि जो आदेश आचार्यवर से मिल जाता है उसे शिरोधार्य करना । उसे स्वीकृत करने के सिवाय मेरे सामने कोई उपाय नहीं था । - प्रश्न – विशाल संघ का महान् उत्तरदायित्व आपश्री द्वारा किये गये एकान्त साधना के संकल्प में बाधक नहीं बनेगा ? उत्तर -- हमारा धर्म-संघ स्वयं साधना का स्थल है । यह संघ किसी दूसरी प्रवृत्ति का होता, तो निश्चित ही यह बाधा मेरे सामने आती, किन्तु मैं जो साधना कर रहा हूं वह समूचे धर्मसंघ में प्रतिबिम्बित होने की बात है । तब मैं इसे बाधा कैसे मानूं ? यह धर्मसंघ साधना का और आराधना का है । जैन विश्वभारती, लाडनूं में पिछले वर्ष मैंने प्रयोग शुरू किया, तो आचार्यवर ने अपना सन्देश दिया । उसमें उन्होंने कहा कि "यह तुम्हारा प्रयोग केवल तुम्हारा नहीं है, यह मेरा प्रयोग है, समूचे संघ का प्रयोग है ।" जब मेरे प्रयोग को आचार्यवर समूचे संघ का प्रयोग मानते हैं, तो उस स्थिति समूचे संघ की साधना के निमित्त मैं सेवा करूं, तो उसमें कोई बाधा नहीं मानता, किन्तु मानता हूं कि जो मैं कर रहा हूं, उसका व्यापक प्रतिबिम्ब होगा । साधना को अधिक बल मिलेगा । मैं स्वतंत्र चिंतन कर रहा हूं, फिर भी यह मानता हूं कि साधना का विकास होना चाहिये । इसकी परम्परा भी होनी चाहिये, अकेला व्यक्ति कुछ करे अपने लिये तो बहुत मूल्यवान् है, किंतु वह समाज व्यापी बने यह और अधिक मूल्यवान् है । मैंने कभी केवली बनने की बात नहीं सोची, तीर्थंकर-चरणों का अनुसरण करने की बात सोची । केवली हर कोई व्यक्ति हो सकता है । केवली और तीर्थंकर में यही अन्तर है कि केवली अपने लिये होता है । तीर्थंकर वह होता है, जो दूसरों का भी भला कर सके, कल्याण कर सके । केवली के पदचिह्नों का अनुसरण मैंने कम किया । तीर्थंकरों के पदचिह्नों पर चलने का जो मेरा प्रयोग था, अनुसरण की प्रवृत्ति थी, उसे देखते हुए मैं कह सकता हूं कि इसमें मुझे कोई बाधा प्रतीत नहीं होती । खण्ड ४, अंक ७-द्र ३६६ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- आपके मानस में तेरापंथ धर्मसंघ के विकास के लिए क्या परिकल्पना है । उत्तर-बचपन से ही मेरा एक चिंतन रहा कि जिस धर्मसंघ में हम हैं, वह धर्मसंघ शक्ति शाली बने । दुर्बल धर्मसंघ में रहना हमें पसंद नहीं है, मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। जो व्यक्ति स्वयं शक्तिशाली होना चाहता है और संघ को शक्तिशाली देखना चाहता है, वह कभी दुर्बलता को पसंद नहीं करता। तो सबसे पहले मेरे मन में कल्पना थी कि हमारा धर्मसंघ शक्तिशाली बने और शक्ति के जितने स्रोत हैं, वे सारे उद्घाटित हों । मैं मानता हूं कि धर्मसंघ में शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत है अध्यात्म-चेतना का जागरण । अध्यात्म-चेतना जागृत होती है, तो संघ बहुत शक्तिशाली बनता है। मैं कुण्ड को या खड्डे को पसंद नहीं करता, कुए को पसंद करता हूं। जिसमें पानी बाहर से डाला जाथे। बहुत सीमित बात होती है। कुए में स्रोत फूटता है, जिससे कुए का पानी असीम होता है। कुण्ड में पानी डाला हुआ ससीम होता है, ये बात मुझे पसंद नहीं। मुझे यह बात पसंद है कि ऐसा स्रोत फूटे जिससे अनन्त जल निकलता ही चला जाए। मैं मानता हूं कि अध्यात्म-चेतना का जागरण एक ऐसे कुए को खोदना है, जिसमें शक्ति का स्रोत फूट जाए और शक्ति का अनंत प्रवाह उसमें निकलता रहे। मैं मेरे धर्मसंघ को उस शक्ति से सम्पन्न देखना चाहता हूं, जिसमें शक्ति का स्रोत फूट जाए। मुझे विश्वास है कि आचार्यवर के नेतृत्व में ऐसा संभव हो सकेगा । मैं चाहता हूं कि आचार्यवर हमें दीर्घकाल तक अपनी छत्रछाया दें और वे देखें कि उनका एक शिष्य अपने संघ को अतीन्द्रिय चेतना-जागरण के लक्ष्य तक पहुंचाने में निमित्त बना। प्रश्न- समाज, राष्ट्र और विश्व की समस्याओं के समाधान में आपका धर्मसंघ किस प्रकार उपयोगी बन सकता है ? उत्तर-संसार की मूलभूत समस्या क्या है, जो सारी समस्याओं को जन्म दे रही है ? मुझे लगता है-अपने आपकी विस्मृति । व्यक्ति अपने आपको भूल रहा है और दूसरों को सुधारना चाहता है। दूसरों का भला करने से पूर्व व्यक्ति अपने जीवन का निर्माण करे । यदि व्यक्ति के जीवन का निर्माण होगा तो विश्व को सुधरने में कोई समय नहीं लगेगा । संसार में विचित्र चल रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की चिंता से चिंतित है; किंतु अपनी चिंता किसी को नहीं है। आध्यात्मिक चेतना के जागरण का सबसे पहला सूत्र होगा व्यक्ति चौबीस घण्टों में कम से कम एक घण्टा अपने लिये निकाले, उसमें दूसरों की कोई चिन्ता न करे। वह अपने को देखे, संवारे, निर्मित करे । यदि ऐसा होता है तो हम विश्व की समस्या का समाधान देने में मूल बात को पकड़ पायेंगे। जिसको पकड़े बिना सुलझाई जाने वाली समस्याएं उलझन बन जाती हैं। साम्यवादी देश का नागरिक जैसे पोपपाल प्रतिष्ठित पद पर निर्वाचित हुए। उन्होंने जिन नीतियों की घोषणा की उनका स्वागत हुआ । एकतन्त्रीय संघ-प्रणाली से आप भी निर्वाचित हुए हैं। आप दोनों को अलग-अलग धर्म-परम्परा का नेतृत्व मिला । आपकी और उनकी किन-किन प्रणालियों में समानता की कल्पना की जा सकती है ? तुलसी प्रज्ञा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-ईसाई धर्म का क्षेत्र बहुत व्यापक है, बहुत बड़ा है और पोपपाल ने जो घोषणा की है वह वर्तमान युग के सन्दर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है । कुछ परम्पराओं से हटकर और नयी चेतना, नये दृष्टिकोण को अपनाने की बात जो सामने आई है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। मैं मानता हूं कि सौभाग्य से मुझे वह कार्य पहले से ही उपलब्ध हो गया। मेरे आचार्य ने पहले से ही कुछ ऐसे उदार व्यापक और विशाल दृष्टिकोण अपनाये हैं, जिनसे मैं स्वयं बहुत लाभान्वित हुआ हूं और हमारा संघ लाभान्वित हुआ है । आज ईसाई भी अध्यात्म-चेतना के प्रति आकृष्ट होता जा रहा है और उनके धर्मगुरु स्वयं पोपपाल ध्यान, साधना जैसे आध्यात्मिक प्रणालियों के प्रति अपनी रुचि प्रदर्शित करते हैं । सौभाग्य से हमारे संघ में भी आज सबसे ज्यादा किसी बात को महत्त्व दिया जा रहा है, तो अध्यात्म चेतना के जागरण को दिया जा रहा । उसके बिना मानवीय चेतना या सामाजिक चेतना या नैतिक चेतना विकसित नहीं हो सकती, कभी विकसित नहीं हो सकती। यह एक साम्य का बिंदु है कि हम जिस कल्पना को लेकर चल रहे हैं और ईसाई जगत का मानस भी उस बिंदु की ओर आ रहा है। संभव हो सकता है कि कभी ऐसा हो कि उस अध्यात्म-चेतना जागरण के बिंदु पर हम दोनों एक हो जाएं । कोई कठिनाई नहीं तो बहुत बड़ी संभावनाएं हैं और इन संभावनाओं पर विचार होना भी जरूरी है । मैं सोचता हूं आचार्यवर विचार करेंगे, मुझे भी कुछ मार्ग-दर्शन देंगे। मैं भी उस पर कुछ प्रयत्न करूं या आज सारे संसार को यदि किसी एक बिंदु पर लाया जा सकता है तो वह धर्म का बिंदु ही हो सकता है। इन भौतिकता के बिंदुओं ने यह प्रमाणित कर दिया कि इन आधारों पर चलने से संसार में विघटन होता है; कभी एकता स्थापित नहीं होती। अगर एकता का कोई बिंदु होगा तो अध्यात्म का बिंदु होगा और आने वाला युग अध्यात्म का ही युग होगा। हमने जो मार्ग चुना है, जो नेतृत्व और मार्ग-दर्शन आचार्यवर का मिल रहा है, वह पहले से ही इतना कल्याणकारी और श्रेयस्कर है। उस विंदु को और विकसित करने में मैं कुछ योगभूत बनूं तो यह मेरे लिये बहुत शुभ होगा। खण्ड ४, अंक ७-८ ३७१ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य की नियुक्ति पर आचार्य श्री तुलसी के प्रति मुनि नथमल (बागोर) अनुवादक-मुनि राजेन्द्र कुमार मानन्दैकमयं सुमङ्गलमयं कल्याणसम्पन्मयं, हर्षोल्लासमयं सुधारसमयं स्वात्मकसविन्मयम् । यौवाचार्यपदस्य वाचिकमिदं संश्रुत्य मोदामहे, तत्प्रस्तुतसन्नियुक्तिकरणात् कीयों न के कर्गणी ॥१॥ ये ये राजलदेसरात सुनगरात् प्रत्यक्षतद्दशिन स्तैस्तरागतसर्वमानवगण रोमाञ्चितः सञ्चितः । तवत्यं वरवर्णनं हृदयतो यच्छावितं तच्छ ते जाताः सम्मदमेदुराः खलु वयं वाङ्गोचरागोचराः ॥२॥ . संसाराग्धितितीर्घ भाग्यवशतः श्रीभिक्षरासीन्महान्, मर्यादापुरुषोत्तमेन समयात् तेनैव दीर्घक्षणः । एकाचार्यसुयोजना विरचिता स्वोपज्ञगच्छे स्वयं, लब्धतत्सुविधा ततोऽत्रभवता पूर्णप्रतिष्ठावती ॥३॥ कल्पितं कल्पनातीतं, कार्यमावश्यकं ततः । ____ शमिताश्च स्वराः सर्वे, धन्यधन्यकनावतः ।।४।। वीर्घायुश्चिन्तकः स्मार्यः, सुधर्मागणभृत्प्रभोः । दीर्घदृष्ट्या कृतात् कार्यादाचार्योतिप्रशस्यते ।।। भारान्मुक्तीप्यमुक्तोऽप,, साधं धर्मदयाश्रयात् । स्याद्वावप्रतिबोषाय, दृष्टान्तीभूय कि स्थितः ? ॥६॥ श्रीमदाचार्यवाँय, सुखपृच्छाभिवादनम् विज्ञपयामि सानन्दं, सुखं विहरताच्चिरम् ।।७।। शिष्यः सोहनलालस्ते नगराजश्च सविधेः वन्देते प्रणमन्मौली, सुखपृच्छाभिपृच्छको ॥८॥ वर्धापनपरा पत्री, परमालावपूरिता प्रेष्यते श्रीमतां पार्वे नथमलर्षिणा शुभम् ॥६॥ ३७२ तुलसी प्रज्ञा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. युवाचार्य पद का निर्वाचन सुनकर हम मुनिजन बहुत प्रमुदित हुए। यह समाचार वस्तुतः हमारे लिए आनन्दकारी, मङ्गलमय, कल्याणजन्य, हर्षोत्फुल्ल, अमृतरस से प्रपूरित और अपने आपके लिए आत्मतोष का विषय था। ऐसी सुन्दर नियुक्ति के लिए किन-किन व्यक्तियों ने आचार्य श्री तुलसी की सराहना नहीं की अर्थात् सबने की। २. जिन-जिन व्यक्तियों ने प्रत्यक्षद्रष्टा बनकर राजलदेसर की पुण्यभूमि पर उस भव्य दृश्य को देखा उन सबका मन पुलकन से भरा हुआ था। जब उन्होंने अपने ही मुख से वहाँ के हृदयद्रावक भव्यवृतान्त को सुनाया तब उसे सुनने पर हम मुनिजन इतने हर्ष स्निग्ध हो गए कि उसे वाणी में व्यक्त करना असंभव है। ३. संसार-समुद्र से तैरने के इच्छुक महापुरुष श्रीमद् भिक्षु स्वामी सौभाग्य से तेरापंथ धर्मसंघ के भाग्य विधाता बने । उन स्वयं मर्यादापुरुष ने ही समय के अनुकूल अपनी दूरदर्शिता से अपने संघ में एक आचार्य के होने का प्रावधान किया। आज उसी सुपरम्परा के कारण आचार्य श्री तुलसी ने पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित उस सुविधा का उपभोग किया जिससे वे युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का निर्वाचन कर सकें। ४. विरासत से संप्राप्त उस सुविधा के कारण ही आचार्यवर श्री तुलसी ने ऐसे कठिन कल्पनातीत आवश्यक कार्य को कर दिखाया जिस कार्य के होने पर धन्य-धन्य के जयनारों से शेष सब स्वर (ऊहापोह अटकलबाजियाँ) स्वतः फीके पड़ गए । अशेष हो गए। ५. युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी बड़ी उम्र में है-जो लोग ऐसा चिन्तन करते हैं उन्हें भगवान महावीर के गणधर सुधर्मा स्वामी का चिन्तन करना चाहिए, जो ८० वर्ष की आयु में भगवान के उत्तराधिकारी बने । यह सत्य है कि दूरदृष्टि से किया हुआ कार्य आचार्य के लिए प्रशस्त होता है। ६. भारमुक्त होने पर भी आप मारयुक्त हैं---इस युगल धर्म का आश्रय स्याद्वाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन है। उस सिद्धान्त के प्रतिबोध के लिए आप स्वयं दृष्टान्त बन गए हैं। ७. मैं [मुनि नथमल बागोर] आचार्यवर के लिए कुशलक्षेमपूर्वक श्री चरणों में अपना अभिवादन निवेदित करता हूँ। प्रभो ! आप चिरकाल तक सानन्द और सुखपूर्वक विचरण करते रहें। ८. आपके सुशिष्य मुनि सोहनलाल और मुनि नगराज-दोनों ही सविधि मस्तक झुकाकर श्री चरणों में वन्दना करते हैं और आप से सविनय कुशलक्षेम पूछते हैं। ६. मैं [मुनि नथमल बागोर] सम्यक् प्रकार से आचार्यवर के श्री चरणों में परम आह्लादकारी यह बधाई पत्र भेज रहा हूँ। खण्ड ४. अंक ७-८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाव से नाविक मुनि नथमल (बागोर) अनुवादक-मुनि राजेन्द्रकुमार सौभाग्यात् सच्चरणकमलन्यासतः पूर्वमेव, प्रत्यक्ष नः पटुगढपुरं पावनी कृत्य योगात् । श्रीपादाब्जेष्वभिनवपदं येन लब्धं ललाम, स्वान्तः स्तौमि स्तवननिचयस्तं युवाचार्यवर्यम् ॥१॥ सगुणमपगुणं वा प्रत्ननामावि लात्वा, गुणयुतमभिधानं तेऽद्य नूनं वितीयं । समुदितमुषितं यत् स्वप्रभुत्वं प्रसिद्धं, सकलजनसमक्षे वत्तमार्यस्ततः किम् ? ॥२॥ हृष्टास्तुष्टा अभिनयपराः मिष्टमेघान्मयूरा चञ्चच्चन्द्रात् प्रकटपुलकाश्चारचित्ताश्चकोराः । सर्वा गोत्रा हरितभरिता फुल्लिता वै वसन्तात्, (प्रत्यूषाकच्चिपलचपलाश्चक्रवाकाः प्रवाकाः) ___ त्वन्नयुक्या वयमिह तथा पुण्यपूर्णाः प्रसन्नाः ॥३।। पोतास्वीयाऽनुनयविनयः पोतवाहः प्रजात, आश्चर्य तरिकचहृदये नैव माति प्रथिष्ठम् । वाञ्छाम्येवं भवतु फलवत् पोतवाहत्वमेत ल्लोके श्लोकः प्रसरतुतरां सर्वत: सर्वथैव ॥४॥ सामध्यं कीदृशं शस्तं तेरापंथपथेशितुः । क्षणेनकेन यविन्दोः, सिन्धुनिमितवानहो ! ॥५॥ चन्द्रश्चन्द्रिकया रविः स्वविभया वज्रण वजेश्वरः, विश्वं शान्तिमयं यथा वितनुते ज्योतिर्मयं शासितम् । पूर्वोपाजितपुण्यपुञ्जपणवै रत्नत्रयेणाद्भुत महच्छीमुनिभिक्षुशासनमयं कुर्वीत वीतस्पृहः ॥६॥ स्तूयमानः सदा स्तोत्रयुवाचार्यों नवोदयः । दर्शनीयो द्वितीयेन्दुवत् सर्वनित्यवर्द्धनः ॥७॥ वर्धापनपरा पत्री, परमाह लादपूरिता प्रेष्यते श्रीयुवाचार्य, नथमलर्षिणा शुभम् ॥८॥ ३७४ तुलसी प्रज्ञा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मैं युवाचार्यवर्य श्री महाप्रज्ञ जी की अपने अन्तःकरण से स्तवना करता हूं। सौभाग्य से जिन्होंने युवाचार्य बनने के पूर्व ही अपने पावन चरण कमलों द्वारा लाडनूं पधारते समय हमारे मध्यवर्ती नगर सुजानगढ़ को प्रत्यक्ष रूप से पावन किया। तत्पश्चात् जिन्होंने आचार्य श्री तुलसी के चरणों में युवाचार्य जैसे अभिनव, ललित और गरिमामय पद को पा लिया। २. पूज्यवर आचार्यवर ने मर्यादा महोत्सव पर जनसमूह के बीच सगुण अथवा निगुण 'नथमल' इस पुरातन नाम को बदल कर उनको गुणयुत 'महाप्रज्ञ' के नाम से संबोधित किया । पर नाम से क्या ? 'महाप्रज्ञ' नाम आज निश्चित ही विस्तृत होकर सम्यक् प्रकार से उदित हो गया है और अपनी प्रभुता के कारण प्रसिद्ध बन गया है। ३. जिस प्रकार काली घटा वाले बादलों को देखकर मयूर हर्षित और प्रफुल्लित होकर नाचने लग जाते हैं, चकोर पक्षी उद्गत होते हुए चंद्रमा को देखकर आनन्दित हो जाते हैं और वसन्त ऋतु के आने पर सारी पृथ्वी हरी-भरी और लहलहाने लग जाती है, उसी प्रकार युवाचार्यश्री की नियुक्ति से हम मुनिजन अत्यन्त प्रसन्न और अपने आपको धन्य मानते हैं। ४. अपने अनुनय-विनय के द्वारा मुनि 'नथमल' नाव से नाविक बन गए-शिष्य से गुरु बन गए-यह बहुत बड़ा आश्चर्य हमारे हृदय में नहीं समा रहा है। मैं उनके प्रति अपनी मंगल कामना करता हूं कि उनका नेतृत्व फलदायी बने और उनकी यशोगाथा सर्व प्रकार से सर्वत्र व्याप्त हो। ५. तेरापंथ धर्मसंघ के अधिशास्ता का कैसा प्रशस्त सामर्थ्य है कि जिन्होंने एक क्षण में बिन्दु को सिंधु बना दिया। ६. जिस प्रकार चंद्रमा अपनी ज्योत्स्ना से विश्व को शीतलता देता है, सूर्य अपनी किरणों से विश्व को ज्योति देता है और इन्द्र अपने शस्त्र वज्र से विश्व को शासित करता है, उसी प्रकार कामनाओं से रहित युवाचार्य श्री 'महाप्रज्ञ' अनेक अर्हताओं से सम्पन्न, पूर्वाजित पुण्य समूह से प्राप्त इस भिक्षु शासन को रत्न-त्रय से वर्धापित करें-उसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रशस्त मार्ग पर और आगे बढ़ायें। ७. नवोदित युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी स्तवना के द्वारा श्लाघ्य होते हुए सदा दर्शनीय दूज के चंद्रमा की भांति नित्य विकास करते रहें। ८. मैं (मुनि नथमल बागोर) श्री युवाचार्य महाप्रज्ञ के प्रति आह्लाद से पूरित यह बधाई-पत्र भेज रहा हूं। खण्ड ४, अंक ७-८ ३७५ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितप्रज्ञ : युवाचार्य मुनि छत्रमल १. विद्यानिधि ! प्रतिमाधनी!, आशुप्रज्ञ! समयज्ञ! आगमज्ञ! स्थितप्रज्ञ! जय, युवाचार्य महाप्रज्ञ! २. श्रद्धास्पद ! श्री चरण में, सन्त 'छत्र' नगराज । मोहनमुनि युत वंदना, करते हम अव्याज ।। ३. किया देव ने आप को, सकल सङ्घ सिर मौर । सुनकर शुभ संवाद यह, हैं हम हर्ष विभोर ।। ४. काश ! देखते दृश्य वह, हम भी रह कर पास । किन्तु गात्र बाधक बना, था न पूर्व आभास ॥ ५. सह जाए, सह वढिए, बहुत रहे हैं साथ । देख समुन्नति फूलता, सीना नौ-नौ हाथ ।। ६. योग्य देखकर आपको, समुचित समय नियुक्त । बहुत-बहुत गुरुदेव ने, किया काम उपयुक्त । ७. आप सरीसे शिष्य से, थे गुरुवर आश्वस्त । किन्तु हो गया संघ भी, अब निश्चिन्त समस्त । ८. स्वीकृत करें बधाइयां, भूरि-भूरि शुभ वेष । हैं हमेश प्रस्तुत, मिले, जो आज्ञा निर्देश ।। ६. चिरजीवी गणपति रहें चिरजीवी हों आप । युगल हस्तियों का बढ़ें, दिन-दिन प्रबल प्रताप ।। १०. ही-श्री-धी-ति-कीत्ति से, वर्धमान हों आप । आधि-व्याधि-उपाधियां, सहसा हो सब साफ । ११. आशा ही नहीं अपितु है, दिल में दृढ़ विश्वास । होगा संघ विकास हित, प्रतिपल सफल प्रयास ।। १२. उवघाटित करते रहें, नये-नये उन्मेष । धर्म-संघ की मगत में, शोभा बढे विशेष ।। १३. शुभाशंसाएं ये सभी, करें "छत्र' की दर्ज। आय्यं प्रवर ! श्री चरण में करें वन्दना अर्ज ।। ३७६ तुलसी-प्रज्ञा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे सारे संघ के शीर्षस्थ व्यक्ति बन गए साहित्य परामर्शक मुनि बुद्धमल आज हमारे लिए मर्यादा-महोत्सव अतिरिक्त महोत्सव बन गया। यह कल्पना नहीं थी कि इस प्रकार आज यह एक नया कार्य होने वाला है । आचार्य श्री अपने कार्यों को अत्यन्त गुप्त रखते हैं और अचानक लाट्री खोल देते हैं। आचार्यवर ने आज अपने उत्तराधिकारी के रूप में महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमल जी का चुनाव करके संघ की एक बहुत बड़ी आवश्यकता की पूर्ति कर दी है । इससे आचार्य श्री ने जहाँ अपने दायित्व का निर्वाह किया है वहाँ सारे समाज को आनन्द से आप्लावित कर दिया है। आज की यह घटना हम सबकी एक चिरकालीन प्यास को शान्त करने वाली है। मुनि श्री नथमल जी आचार्य श्री के एक विद्वान एवं दार्शनिक शिष्य हैं। उनकी कर्मठता से हर कोई परिचित है। ऐसे सुयोग्य युवाचार्य को पाकर हम सब अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। आचार्य श्री नए-नए कार्य करने के लिए तो प्रसिद्ध रहे ही हैं, पर उनकी कार्यपद्धति बहुधा चौंका देने वाली भी होती है । अपने रहस्य को वे इतना गुप्त रखते हैं कि किसी को भनक नहीं पड़ने देते । आज का यह कार्य भी उन्होंने उसी प्रकार से अचानक किया कि सभी को कल्पनातीत लगा। इस चुनाव में सभी को प्रसन्नता हुई है, पर मुझे अतिरिक्त प्रसन्नता हुई है । मुनि श्री बाल्यावस्था से ही मेरे सहपाठी एवं अभिन्न साथी रहे हैं। हमारे समय में अन्य भी अनेक बाल साधु थे। परन्तु हम दोनों में बहुत अच्छी बनती थी। हम लोग आचार्य श्री (मुनि तुलसी) के पास साथ-साथ पढ़ा करते थे। एक दूसरे को देखकर हम हंसा बहुत करते थे, इसलिए पाठ याद करते समय हमें कमरे के दो कोनों में भींत की ओर मुह करके बिठाया जाता था, फिर भी बालचापल्य के कारण हम एक दूसरे को देखा करते और हंसा करते। हमारी मित्रता बहुत अच्छी और गहरी थी। बड़े होने के पश्चात् भी यदा-कदा हम मजाक कर लिया करते थे। मुझे याद है एक बार किसी बात पर मैंने मुनि श्री से कहा था कि आप मुझे कहने के अधिकारी नहीं है। क्योंकि मैं आपसे अवस्था में नौ दिन बड़ा हूं। मुनि श्री ने तत्काल कहा-तुम तो नौ दिन ही बड़े हो, पर मैं तुमसे दीक्षा में नौ महीने बड़ा हूं। खण्ड ४, अंक ७-८ ३७७ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज मैं देखता हूँ कि वे मेरे से और भी अधिक बड़े हो गए हैं। वे सारे संघ के शीर्षस्थ व्यक्ति बन गए हैं। इतने दिन वे मेरे एक सहृदय साथी थे। अब आराध्य बन गए हैं। समय-समय पर हम में मतभेद भी रहा है पर वह सब तो दो मित्रों की स्थिति थी। अब वे हमारे धर्मसंघ के शिरोमणि बन गए हैं । मैं उन्हें इस गौरवास्पद पद की प्राप्ति के अवसर पर मेरी ओर से एवं समग्र श्रमण समाज की ओर से बधाई देता हूं और आशा करता हूं कि वे सारे संघ की आशाओं और कल्पनाओं के अनुरूप अपने दायित्व को निभाएगे।" जुड़ी कड़ी इतिहास की -मुनि नवरत्नमल जुड़ी कड़ी इतिहास की, नई एक फिर आज । तुलसी प्रभु ने दे दिया, विधिवत् पद युवराज ॥१॥ भैक्षव-शासन की रही, स्वस्थ प्रणाली एक । मर्यादोत्सव समय में, ली आँखों से देख ॥२॥ बांसो दिल सब संघ के, (वा) लगे उछलने बांस । देख नये इतिहास को, बढ़ा अमित उल्लास ॥३॥ दिया 'महाश्रमणी' पदक, किया अधिक सम्मान । बनता व्यक्ति महान् वह, जिधर तुम्हारा ध्यान ॥४॥ युग-युग तक आता रहे, मर्यादोत्सव नये-नये उन्मेष से, रहे मनाते पर्व । सर्व ॥५॥ छह सौ चौरासी सभी, तुलसी युग के रत्न । छह सौ चौरासी अभी, तुलसी युग में रत्न ॥६॥ ३७८ तुलसी-प्रज्ञा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्व कलाकृति मुनि दुलहराज युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ! आपने ज्ञान को आत्मा से अनुबंधित कर ज्ञान की आराधना की। •आपने अपनी श्रद्धा को आत्मा में केन्द्रित कर दर्शन की आराधना की। आप ने अपने समस्त कर्म को आत्मा की परिक्रमा में प्ररित कर चारित्र की आराधना की। आचार्य श्री तुलसी ने आपको प्रकाश से ही नहीं भरा, आपको प्रकाश बना दिया। आपने एक ऐसी परछाई का अनुसरण किया, जो परछाई आगे से आगे बढ़ती गई। किन्तु एक बिन्दु ऐसा आया कि आपने उस परछाई को पकड़ लिया। आज हम उस कलाकार की अर्चा-पूजा कर रहे हैं, जिसकी कलाकृति आज स्वयं कलाकार बन गई है। आज हम उस कृति की अर्चा पूजा कर रहे हैं, जिसने अध्यात्म जगत में एक क्रान्ति का शंखनाद किया है और अपने अमूल्य अनुभवों से जनत्रास को मिटाने का अनुपम प्रयास किया है। तेरापंथ-सङ्घ के सभी श्रमण आज आपको पाकर धन-धन्य हैं, कृतकृत्य हैं । हम सब अप ने अन्तस्तल से आप के प्रति श्रद्धा-नत हैं और यह प्रतिज्ञा करते हैं कि हम आपके आदेशों का उसी रूप में पालन करते रहेंगे जैसे हम करते रहे हैं । •आपके पावन चरण सफलता की ओर निरंतर बढ़ते रहें। हम सब आपके साथ हैं । खण्ड ४, अंक ७-८ ३७६ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया दायित्व, नये दायरे : युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ साध्वी कनकधी __ जैन आगमों के पारगामी मनीषी, भारतीय विद्याओं के मर्मज्ञ विद्वान्, महान दार्शनिक, अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय सेतु, युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी के एक विशिष्ट अन्तेवासी जो महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमल के नाम से सुविश्रुत हैं, वे अब तेरापंथ धर्म-संघ के युवाचार्य बन गए हैं । अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी ने अपना उत्तराधिकार प्रदान करते हुए उनका नाम भी परिवर्तित कर दिया । फलतः अब महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमल 'युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ" के नाम से सम्बोधित होंगे। युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का व्यक्तित्व हंस-मनीषा, सूक्ष्मग्राही मेघा, सृजनात्मक प्रतिभा और ऋतंभरा प्रज्ञा की अद्वितीय समन्विति है। उन्हें चिन्तन की ऊंचाई और ज्ञान की गहराई सहज प्राप्त है। विनम्रता, सहजता और समर्पण उनके परिपूर्ण एवं अखण्ड व्यक्तित्व के प्रमुख घटक तत्त्व रहे हैं । युवाचार्य श्री को पुरुष-सुलभ पराक्रम सहज उपलब्ध है । पुरुषार्थ की लौ अनवरत प्रखरता से प्रज्वलित रहती है उनके अंतस में। फिर भी वे अपने कृतित्व के अहं से सदा अस्पृष्ट रहे हैं । वे नारी नहीं हैं, पर नारीत्व के घटक तत्त्व श्रद्धा, समर्पण और मृदुता उन्हें उपलब्ध हैं । युवाचार्य श्री के शब्दों में-- “मैं अद्धनारीश्वर की स्थिति में हूँ। मुझे नारी-सुलभ मृदुता और पुरुष-सुलभ पराक्रम--ये दोनों उपलब्ध हैं। इनका समन्वय मुझे कठोरता और अहंकार इन दोनों से बचा रहा है । यह मेरे लिये संतोष का विषय है।" वैसे किसी भी व्यक्ति की महत्ता को जान पहचान पाना सरल कार्य नहीं हैं, फिर भी युवाचार्य श्री के निकट सम्पर्क, प्रवचन-श्रवण तथा उनकी साहित्यिक कृतियों के अध्ययन-अनुशीलन से ऐसा ज्ञात होता है, कि वे वर्तमान युग-संध्या के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं, भारतीय अध्यात्म परम्परा के आर और पार को उद्भासित करने वाले निष्प्रकम्प दीप हैं और मनुष्य के अंतस् में छिपी लक्ष-लक्ष जीवनी शक्तियों को उद्घाटित करने वाले ऊर्जापुञ्ज हैं। जीवन और जगत् के अज्ञात रहस्यों के उद्घाटन में अहर्निश निरत उनकी सृजनात्मक प्रतिभा आज के बौद्धिक युग का एक महान् आश्चर्य है । उनके अगाध ज्ञान सागर का ३८० तुलसी-प्रज्ञा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कहीं ओर है न छोर । इसीलिये अनेक विद्वान् उन्हें चलता-फिरता विश्वकोश (Encyclopaedia ) कह देते हैं । राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने तो उन्हें भारत का दूसरा 'विवेकानन्द' कहा था । - भारतीय और पश्चिमी दर्शनों की मीमांसा करते हुए जब वे किसी भी दार्शनिक, तात्त्विक या सैद्धान्तिक पहलू को विश्लेषित करते हैं, तब ऐसा लगता है मानो सम्पूर्ण वाङमय उनके सामने बिछा पड़ा है । उनकी सन्निधि में आकर जहाँ देश-विदेश के शीर्षस्थ विद्वान् धन्यता का अनुभ करते हैं, शोध -विद्यार्थी नया मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं, वहाँ शोध विद्वान् भी उनसे नई अन्वेषणात्मक दृष्टि प्राप्त कर अपनी अनुसन्धानात्मक प्रवृत्तियों में नये उन्मेष लाते हैं । वे महान् दार्शनिक, आशुकवि, ओजस्वी वक्ता और सशक्त लेखक हैं । चिन्तन की मौलिकता उनके साहित्य की अपनी विशेषता है । "जैन दर्शन मनन और मीमांसा" "जैन न्याय का विकास" "अहिंसा तत्व दर्शन" “भिक्षु विचार दर्शन" आदि उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियां जैन दर्शन को प्रतिनिधि ग्रन्थों क े रूप में विद्वत् जगत् में समादरणीय स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में युवाचार्य श्री द्वारा सम्पादित आगम ग्रन्थों ने भारतीय और पश्चिमी विद्वानों की दृष्टि में अतिरिक्त मूल्यवत्ता और प्रतिष्ठा प्राप्त की है । वैज्ञानिक नहीं हैं, पर वैज्ञानिक दृष्टि उन्हें उपलब्ध है । इसीलिए बनी बनायी राहों पर चलना, सहारों पर जीना और दूसरों प्रकाश से अपने पथ को आलोकित करना उन्हें कभी नहीं भाया । उनका जीवन सूत्र है - "अध्यणा सच मेसेज्जा" स्वयं सत्य की खोज करो । सत्य की खोज के लिए ही वे अनवरत अध्यात्म-साधना के प्रयोगों की राहों से गुजरते रहे हैं और चेतना की ऊंचाइयों को छूते रहे हैं । वे जागृत चेतना के उपासक हैं । अन्तः जागरण से फलित होने वाली शान्ति और समाधि के समर्थक हैं । इसीलिये वे जीवन में मूर्च्छा और जड़ता लाने वाले प्रयोगों से निष्पन्न शान्ति और समाधि को कभी मान्यता नहीं देते । साधना के नाम पर असंयम को बढ़ावा देने वाली तथा मुक्त भोग को मान्यता प्रदान करने वाली विचारधारा के प्रति अपनी नितान्त असहमति प्रकट करते हैं । विगत एक दशक से वे ध्यान-योग की विशिष्ट साधना एवं प्रयोगों में सलग्न हैं । ध्यानयोग को व्यापकता प्रदान करते हेतु, आचार्य श्री के नेतृत्व में प्रेक्षा ध्यान शिविरों का संचालन कर रहे हैं । इन शिविरों के माध्यम से हजारों युवा प्रतिभाएं धर्म और अध्यात्म की ओर आकर्षित हो रहीं हैं । उन्होंने अध्यात्म को जीवन-दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसके आलोक में विश्व - चेतना युगीन समस्याओं का समुचित समाधान प्राप्त कर सकती है । खण्ड ४, अंक ७-८ ३८१ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्यवर द्वारा लिखित "मैं, मेरा मन, मेरी शान्ति" "मन के जीते जीत" "चेतना का कारोहण" "महावीर की साधना का रहस्य" आदि योग सम्बन्धी ग्रन्थ अत्यन्त लोकप्रियता प्राप्त कर चुके हैं। युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ वि० सं० १९७७ में राजस्थान के एक छोटे-से कस्बे 'टमकोर' में जन्मे, दस वर्ष की वय में तेरापन्थ के अष्टामाचार्य श्री कालूगणी के करकमलों से दीक्षित हुए और उन्हें शिक्षा-गुरु के रूप में मिले कुशल जीवन-शिल्पी आचार्यश्री तुलसी। हीरे की मूल्यवत्ता उसकी काट-छाँट और तराश पर निर्भर करती है । सही ढंग से तराशे हुए हीरे के भीतर से उठने वाली चमक के परावर्तन से उसकी चमक शतगुणितसहस्रगुणित हो जाती है और उसी के आधार पर उसका मूल्य-निर्धारण होता है । युवाचार्य श्री जिस दिन आचार्य श्री तुलसी की सन्निधि में आये थे, वे सचमुच एक बिना तराशे हुए हीरे थे। आज उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व की प्रत्येक चमकपूर्ण रश्मि में महान् सृजनधर्मी आचार्य तुलसी की अद्वितीय सृजनक्षमता परिलक्षित होती है । युवाचार्य श्री प्रारम्भ से ही आचार्य श्री तुलसी के विचारों के प्रशस्त भाष्यकार, उनके अनन्य सहयोगी तथा तेरापंथ की प्रगति के हर चरण से संपृक्त रहे हैं। उन्होंने चार वर्ष तक निकाय-सचिव के रूप में संघ को अपनी विनम्र सेवाए प्रदान की। वि० सं० २०३५ गंगाशहर चातुर्मास में आचार्य श्री तुलसी ने उन्हें 'महाप्रज्ञ' विशेषण से अलंकृत किया और मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक अवसर पर उन्हें युवाचार्य पद से विभूषित कर अपना 'उत्तराधिकारी घोषित किया। आचार्य श्री के इस सामयिक निर्णय में सन्निहित है अतीत का गौरव, वर्तमान का समाधान और भविष्य की उज्ज्वल संभावनाए। महाप्रज्ञ श्री को युवाचार्य के रूप में प्राप्त कर केवल जैन समाज ही नहीं अपितु समग्र अध्यात्म-जगत् गौरवान्वित हुआ है तथा आचार्य श्री तुलसी जैसे महान आचार्य के महान् उत्तराधिकार को प्राप्त कर स्वयं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ भी धन्यता का अनुभव कर रहे हैं। महाप्रज्ञ श्री का नया दायित्व समग्र विश्व के लिए, अध्यात्म के नये दायरे और नये आयाम उद्घाटित करे तथा महान् अध्यात्म प्रचेता आचार्य श्री तुलसी और युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की समन्वित शक्ति अध्यात्म की धारा में त्राण खोजने वाली सम्पूर्ण मनुष्य जाति का युग-युग तक पथ-दर्शन करती रहे, यही मंगल-कामना है। ३८२ तुलसी-प्रज्ञा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य की जय हो * मुनि श्री रवीन्द्रकुमार जी ( लय- संयममय जीवन हो ) युवाचार्य की जय हो, महाप्रज्ञ की जय हो । ज्योतिर्मय भैक्षव - शासन की जय हो, सदा विजय हो । युवा० ॥ युगप्रधान अणुव्रत अनुशास्ता के हम सब आभारी । पाकर इनसे विश्व प्रेरणा अविरल बने अभय हो || १ || महाप्रज्ञ के अथ से इति तक तुम जीवन-निर्माता । हुए धन्य ये पाकर तुमको तुम ही भाग्य-विधाता ॥ युवाचार्य तसवीर तुम्हारी जग में ध्रुव उपनय हो ||२|| महा दार्शनिक लेखक वक्ता उच्चकोटि के ज्ञानी । गुरु चरणों में पूर्ण समर्पित आगम- अनुसंधानी ॥ विश्व भारती तुम से उपचित, अक्षय सौरभमय हो ||३|| मंगल-गीत सुनाएँ । प्रेरणा पाएँ । संयममय हो ॥४॥ वाराणसी की हम महिलाए युगों युगों तक युवाचार्य से गुरु इंगित पर बढ़ते जाएँ खण्ड ४, अंक ७-८ सतत जीवन * युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के अभिनन्दन में वारणसी महिला मंडल द्वारा समुच्चरित गीतिका । ३८३ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म के प्रेरणा-स्रोत : युवाचार्य महाप्रज्ञ ___ मुनि श्री विमलकुमार विक्रम संवत् २०२२ का मर्यादा महोत्सव हिसार में था। गुरुदेव ने मुझे बहिविहरण के लिए मुनि श्री शुभकरण जी के साथ मध्यप्रदेश तथा उड़ीसा की ओर भेजा । उसके पूर्व मैं दीक्षा के कुछ महिनों के बाद से युवाचार्य महाप्रज्ञ (मुनि श्री नथमल जी) के पास में रह रहा था । युवाचार्य श्री की वात्सल्यमयी प्रेरणा मेरे जीवन-निर्माण में सहायक बनी। मेरी आन्तरिक इच्छा न होते हुए भी गुरुदेव ने मुझे बहिबिहार का आदेश दिया। उस समय मेरा मन खिन्न हो रहा था । विदा होते समय युवाचार्य श्री ने मुझे एक पत्र लिखकर दिया जो युवाचार्य श्री के अभ्यन्तर व्यक्तित्व का परिचायक है । पत्र इस प्रकार है २०२२ फाल्गुन शुक्ला १० मुनि विमलकुमार, जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण आध्यात्मिक होना चाहिए। आध्यात्मिकता का अर्थ है अपनी तुला से अपने आप को तोलना, अपने मान-दण्ड से अपने आपको मापना । अध्यात्म के मूल सूत्र हैं--- १-अपने आप में सतत प्रसन्न रहना । शक्ति, आनन्द और प्रकाश का विशिष्ट अनुभव करना। २-सेवा और समर्पण-सबके प्रति आत्मीयता की अनुभूति । ३.-सुख-दुःख के प्रति समभाव का अभ्यास । ४-सहिष्णुता का अभ्यास । ५-~-अप्रियता को अपने आनंद में विलीन करना। ६-विनय । ७--शान्त सहवास। तुम मेरे पास रहे हो, मेरे निकट सहवास में रहे हो, इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम अधिक से अधिक आध्यात्मिक बने रहोगे । इस दिशा में अधिकाधिक विकास करोगे । निकाय सचिव मुनि नथमल' यथार्थतः ऐसे वाक्य वही व्यक्ति लिख सकता है, जिसका जीवन अध्यात्म से ओत प्रोत हो। आध्यात्मिक व्यक्ति हर स्थिति में अपने आप में प्रसन्न रहता है। आध्यात्मिकता ही प्रगति का मूल है । उसके अभाव में बाह्य प्रगति अधिक टिक नहीं सकती। युवाचार्य श्री के विकास की पृष्ठभूमि आध्यात्मिकता ही है । आप जैसे आध्यात्मिक, दार्शनिक, साहित्यकार, वक्ता, लेखक, युवाचार्य को प्राप्त कर हमारा सारा धर्म-संघ प्रमुदित है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपके शासनकाल में हमारा धर्म-संघ आध्यात्मिक तथा शैक्षणिक दिशा में और अधिक विकास करेगा । १. हिसार मर्यादा महोत्सव पर आचार्य श्री ने मुनि श्री को 'निकाय सचिव' उपाधि से अलंकृत किया था। ३८४ तुलसी-प्रज्ञा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे योगिराज ! शत-शत प्रणाम - लूनकरण 'विद्यार्थी' पुंज ! हे योगिराज ! शत-शत प्रणाम । विश्व, यह आत्मज्ञान से सफल काम ॥ (१) आचार्य भिक्षु का शासन यह, आचार्यों की सुन्दर माला जो करती रहती अन्ध जगत में, ज्योतिकिरण का उजियाला । हे युवाचार्य तुझको पाकर, खिल गये धर्म के पुण्य धाम, हे महाप्रज्ञ ! हे ज्योतिपुंज ! हे योगिराज ! शत-शत प्रणाम ।। (२) प्रेक्षा के शिविर सुखद लगते, जन-जन अनुप्राणित होता है, "अर्हम्" "अर्हम्" ध्वनि गूंज रही, अज्ञान तिमिर को खोता है । तुलसी वाणी के व्याख्याता, तेरा हो जग में अमर नाम, हे महाप्रज्ञ ! हे ज्योतिपुंज ! हे योगिराज ! शत-शत प्रणाम || हे महाप्रज्ञ ! हे ज्योति तेरे चिन्तन से हुआ (३) गम्भीर तुम्हारी वाणी है, अनुभव का निर्झर जड़ चेतन जग के सूक्ष्म भेद की ज्ञान कथायें जिसने अमृत रसपान किया, उसको न सताता कुटिल काम, हे महाप्रज्ञ ! हे ज्योतिपुंज ! हे योगिराज ! शत-शत प्रणाम || नवयुग प्रवाहिनी के वाहक, भव्य पुरातन विशद ज्ञान, भारत वसुन्धरा के तट पर लाते मुनिवर स्वर्णिम विहान । ओ युग प्रधान के अनुगामी ! निज ध्यान मग्न दिग्पालयाम, हे महाप्रज्ञ ! हे ज्योतिपुंज ! हे योगिराज ! शत-शत प्रणाम || बहता है, कहता है । (५) सुनकर गुरुवर की सुखद घोषणा, जन मानस अति हर्षाया, शासन का सविता चमकेगा, विश्वास हृदय में सरसाया । अनवरत रहेगा चिर प्रकाश होगी न धर्म की कभी शाम, हे महाप्रज्ञ ! हे ज्योतिपुंज ! हे योगिराज ! शत-शत प्रणाम || (६) अनुपम भावों से भरे हृदय से, श्रद्धा हे पथदर्शक ! तेरे चरणों में, तुम तपो धरा पर प्रखर किरण, हे महाप्रज्ञ ! हे ज्योतिपुंज ! हे तेरे चिन्तन से हुआ विश्व यह, खण्ड ४, अंक ७-८ सुमन चढ़ाते हैं, अपना शीश झुकाते हैं । तुलसी रवि तेरा पथ ललाम, योगिराज ! शत-शत प्रणाम । आत्म ज्ञान से सफल काम ॥ ३८५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज करें किसका अभिनन्दन ? —साध्वी मोहनकुमारी (श्री डूंगरगढ़) आज करें किसका अभिनन्दन ? एक ओर वह कलाकार है जिसने कृति का रूप संवारा अपने श्रम से अपने क्रम से जिसका अन्तर्बाह्य निखारा अग-जग करता उसको वन्दन आज करें किसका अभिनन्दन ? करुणा की महनीय मूर्ति-सी अनुपमेय कृति अपर ओर है जिसे देखकर अमरों के भी अन्तस् में उठती हिलोर है झुक झुक कर करते अभिवन्दन आज करें किसका अभिनन्दन ? अमर रहें आचार्य हमारे युवाचार्य नयनों के तारे बढ़े साधना के पथ पर हम पाकर शुभ संकेत तुम्हारे रहे प्रफुल्लित गण-वन-नन्दन आज करें किसका अभिनन्दन ? तुलसी-प्रज्ञा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक उपलब्धि साध्वी आनन्द श्री युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के अपनी जन्म भूमि में दो दिवसीय स्वल्प प्रवास में मैंने युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ को सूक्ष्मता से देखा। युवाचार्य के रूप में जन्म भूमि में आपका पदार्पण प्रथम था, उस समय सात साध्वियों के साथ मैं भी थी। इस निकटता में उनके विराट व्यक्तित्व, गहराई, सौहार्द एवं आत्मीयता की प्रवाहित सरिता को देखकर मैं मन ही मन श्रद्धावनत थी। उनकी अनाग्रह वृत्ति ने मेरे नर्वस मन की कई उलझी ग्रन्थियों को सुलझा दिया। साधना, संस्कृति और साहित्यमयी त्रिवेणी के उद्गम आपके बारे में क्या लिखा जाये, यह प्रश्न चिह्न मेरे सम्मुख है । समाधान हेतु इतना ही कह सकती हूँ : तुम एक गुल हो, तुम्हारे जलवे हजार हैं। तुम एक साज हो, तुम्हारे नगमें हजार हैं। जन्म-भूमि के प्रांगण में आपका वह प्रवचन हृदय को भाव विभोर बनाने वाला ही नहीं वरन् दर्शन व विज्ञान के साथ अध्यात्म की सरस व्याख्या भी मन को तरोताजा बनाने वाली थी। प्रवचन के अन्तर्गत आपने फरमाया--"कई लोगों ने मेरे से कहा-आप अमुक व्यक्ति को साधु-सन्तों के दर्शन का नियम दिलायें। मैंने उनसे कहा--मैं उन्हें स्वदर्शन के बारे में उपदेश व बल दे सकता हूं। मेरा विश्वास है कि ऐसा प्रयोग करने वाले संत दर्शन किये बिना रह नहीं पायेंगे। मेरे दृष्टिकोण से प्रेक्षा-ध्यान एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है । जिसके द्वारा समाज में विकास के अनेक आयाम खोले जा सकते हैं।" युवाचार्य महाप्रज्ञ के प्रति -कन्हैयालाल फूलफगर मौन हो गये ग्रन्थ जहां पर, तुमने दी फिर वाणी। गुंजेगी वह दिग् दिगन्त में, बन कर के कल्याणी। श्रद्धा और समर्पण कोई, सीखे पास तुम्हारे । कोटि-कोटि वन्दन अभिनन्दन, ओ जग के उजियारे ॥ खण्ड ४, अंक ७-८ ३८७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य महाप्रज्ञ की नियुक्ति : एक अभिनव इतिहास-प्रसंग सोहनराज कोठारी तेरापंथ धर्मसंघ के ११५वें मर्यादा महोत्सव पर संवत् २०३५ के माघ शुक्ला सप्तमी के दिन संघ अधिशास्ता परम आराध्य युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने महाप्रज्ञ युवाचार्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर एक अभिनव इतिहास का सजन किया है। स्वयं आचार्यश्री ने इस नियुक्ति को अपने जीवन का सबसे बड़ा निर्णय कहा है व इसे समूचे संघ का निर्णय बताया है । आचार्यश्री ने अपने आशीर्वचन में यह भी व्यक्त किया है कि यह धर्मसंघ के लिये अकल्पित काम हुआ है, पर इस कार्य से सारे संघ की शोभा बढ़ेगी व संघ का आशा से अधिक बहुमुखी विकास होगा। इस देश में सभी धर्मसंघों में यही परम्परा रही है कि संघ का आचार्य ही अपने उत्तराधिकारी का मनोनयन करता है व उसे सारा संघ स्वीकार कर लेता है । तेरापंथ धर्मसंघ के जन्मदाता श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने तो संघीय विधान के प्रथम मर्यादा पत्र (संवत् १८३२ मीगसर बदी ७) में यह स्पष्ट प्रावधान किया कि 'वर्तमान आचार्य की इच्छा हो तब वह अपने गुरुभाई अथवा शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुन ले, उसे सभी साधु-साध्वी-गण आचार्य मान लें व एक आचार्य की आज्ञा में सब रहें।' इस मर्यादा का तेरापंथ के आत्मार्थी साधु-साध्वियों ने बहुत ही आन्तरिकता से पालन किया है। ___ इस धर्मसंघ के इतिहास में इस बार युवाचार्य की नियुक्ति का प्रसंग करीब आधी शताब्दी बाद आया, पर इस प्रसंग पर सारे संघ ने आशातीत हर्ष और उल्लास के साथ आचार्यश्री द्वारा की गई नियुक्ति का स्वागत किया । परिणामतः आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री को भी अपूर्व आनंद और आह्लाद की अनुभूति हो रही है। धर्मसंघ की प्रभावना बढ़ाना आचार्य का सर्वोपरि कर्तव्य है और उस हेतु वे विविध आदेश-निर्देश देते हैं व संघ को अध्यात्म की नई दिशाओं में प्रवृत्त करते हैं, पर आचार्य का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक कर्तव्य है, संघ की भावी व्यवस्था के संचालन के लिए सक्षम एवं योग्य उत्तराधिकारी की नियुक्ति, ताकि धर्मसंघ प्रगति की दिशा में उत्तरोत्तर गतिमान रहे। इस दृष्टि से आचार्यश्री ने अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर सहज कर्तव्य का निर्वाह मात्र ही किया है और इसे कोई नई बात होना नहीं कहा जा सकता, पर इस घोषणा ३८८ तुलसी-प्रज्ञा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क साथ कुछ ऐसे विशेष ज्ञातव्य तथ्य उद्घाटित होते हैं जिनमें से कुछ एक का उल्लेख मैं इस निबंध में करना चाहूंगा, जिससे इस घटना को निस्संकोच एक अभिनव इतिहास प्रसंग कहा जा सकता है। आचार्यश्री तुलसी संवत् १६६३ के भादवा सुदि ३ को केवल २२ वर्ष की आयु में युवाचार्य बने, व तीन दिन बाद पूर्वाचार्य श्रीमद् कालूगणी जी के स्वर्गवास होने पर, आचार्य बन गए । तेरापंथ के इतिहास में इतनी कम आयु में कोई युवाचार्य या आचार्य नहीं हुआ। संभवतः भगवान् महावीर के बाद समूची जैन परम्परा में भी, इतने बड़े धर्मसंघ का, (जिसमें उस समय लगभग ५०० साधु-साध्वियाँ थीं) इतनी कम उम्र में कोई आचार्य नहीं बन पाया। युवाचार्य महाप्रज्ञ की अवस्था इस समय ५६ वर्ष के करीब है और यह एक तथ्य है कि इस धर्मसंघ में इतनी बड़ी आयु में कोई युवाचार्य मनोनीत नहीं हुआ। यह एक विचित्र संयोग है कि सबसे कम उम्र में होने वाले आचार्य ने सबसे अधिक आयु के साधु को अपना युवाचार्य चुना। इतना ही नहीं आचार्यश्री ने अपने शासन काल में बहुत लंबे अंतराल (लगभग ४३ वर्ष) के बाद ६५ वर्ष की आयु में उत्तराधिकारी की घोषणा की। तेरापंथ धर्मसंघ में किसी आचार्य ने शासन काल के इतने वर्षों बाद या इतनी अधिक आयु में ऐसी घोषणा नहीं की। नव आचार्यों में छठे आचार्य माणकगणि जी अकस्मात देवलोक हो गए; अतः वे युवाचार्य का मनोनयन नहीं कर सके-शेष आचार्यों ने ६५ वर्ष की आयु के पूर्व मनोनयन कर लिया। स्वयं आचार्यश्री के शब्दों में "हमारे धर्मसंघ के अब तक जितने आचार्य हुए हैं एक को छोड़ कर सभी आचार्यों ने इस उम्र के पहले पहले अपने दायित्व को औरों को सौंप दिया।" स्वयं आचार्यश्री को युवाचार्य बनने के बाद ही नहीं, अपितु आचार्य बनने के बाद भी, करीब १२ वर्ष तक, एक ही प्रदेश में रह कर धर्मसंघ के प्रचार-प्रसार के लिये बहुत तैयारी करनी पड़ी, व कई अनुभवों की प्रक्रिया से निकलना पड़ा व अनुभवसिद्ध साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं से बहुत कुछ सीखना पड़ा और तभी वे एक समर्थ व तेजस्वी आचार्य के रूप में नितर सके, पर महाप्रज्ञ युवाचार्य को संघ-व्यवस्था के लिए कुछ भी नया सीखना आवश्यक नहीं है, वे वर्षों से संघ की गतिविधियों में आचार्यश्री के प्रमुख परामर्शदाता रहे हैं, व ४६-४७ वर्षों की लंबी संयम यात्रा में चतुर्विध संघ से भली भांति परिचित हैं, तेरापंथ के सिद्धान्तों के वे अभूतपूर्व भाष्यकार हैं और इसलिये तेरापंथ धर्मसंघ को भावी नेतृत्व के लिए एक सिद्धहस्त योगी मिला है जिसकी परिपक्व अनुभूतियों से संघ निश्चित रूप से लाभान्वित होगा। उसे योग्यता की तलाश में कोई प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। वस्तुतः अन्य प्रयोगों की तरह आचार्यश्री का यह एक अभिनव प्रयोग है, जिसमें संघ की सुरक्षा व विकास का हित सन्निहित हैं। यह तथ्य सर्वविदित है कि युवाचार्य की घोषणा के पूर्व मुनिश्री नथमल जी सभी दृष्टियों से आचार्यश्री के योग्यतम शिष्यों में थे। स्वयं आचार्यश्री ने इसी वर्ष कार्तिक शुक्ला १३ को गंगाशहर में उन्हें 'महाप्रज्ञ' की उपाधि प्रदान की और संभवतः यह विरल उपाधि आज तक किसी आचार्य ने, अपने शिष्य की योग्यता का अंकन कर नहीं दी होगी। युवाचार्य महाप्रज्ञ ने भगवद् वाणी के प्रामाणिक संकलन आगमों का शोधन कर, तटस्थ वृत्ति से, उसकी वाचना का संपादन किया; श्रीमद् भिक्षु स्वामी द्वारा प्रणीत अटल सत्य खण्ड ४, अंक ७-८ ३८६ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तों की युग की नई शैली में प्रशस्त व्याख्या की, आत्मलक्षी अध्यात्मपरक साहित्य के सृजन से बुद्धिजीवियों को प्रबुद्ध किया, प्रेक्षा-ध्यान के रूप में व्यक्ति की संकल्प-शक्ति जगाने व चेतना को मुखरित करने की प्रेरणा दी, स्वयं स्थिर योग की साधना कर वीतरागता की ओर बढ़ने का आदर्श प्रस्तुत किया और इन सबके उपरांत आचार्यश्री के प्रति संपूर्णतः समर्पित होकर उनकी आज्ञा, अनुज्ञा, संकेतों का परिपूर्ण पालन किया व संघ के युगान्तरकारी परिवर्तन में आचार्यश्री को महान् योगदान दिया, जिसके फलस्वरूप न केवल तेरापंथ धर्मसंघ में, अपितु अन्यान्य धर्म सम्प्रदायों में भी महान् दार्शनिक, तत्त्वशोधक, प्रबुद्ध चिंतक, साहित्य-सृष्टा के रूप में उनकी प्रख्याति हुई । तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्यश्री के बाद संभवतः उन्हें चतुर्विध संघ से सबसे अधिक सम्मान मिला और ऐसी स्थिति में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि युवाचार्य की नियुक्ति से उन्हें कोई अधिक सम्मान नहीं मिला, इससे तो उन्हें जो अब तक सम्मान मिला था, उसका ऐतिहासिक एवं वैधानिक स्वीकरण मात्र हुआ। ऐसे युवाचार्य को पाकर संघ का ही गौरव और सम्मान बढ़ा है और संभवतः इतिहास में पहली बार ऐसा परिलक्षित हुआ कि पद से भी व्यक्ति बड़ा होता है। युवाचार्य महाप्रज्ञ पद-प्राप्ति के पूर्व भी सम्मानित थे और इसलिए यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि उनकी नियुक्ति से युवाचार्य पद का जितना सम्मान बढ़ा है, उतना उनका नहीं। इसके पूर्व कई साधु तो आचार्य बनने के पूर्व तक प्रकाश में नहीं आ सके। इस दृष्टि से यह नियुक्ति अपने आप में विलक्षण है। इस प्रसंग की महत्ता इस तथ्य से भी प्रकट होती है कि इस घोषणा से सारे धर्मसंघ व इतर सम्प्रदायों में सर्वत्र हर्ष प्रकट किया गया। इस बार मर्यादा-महोत्सव पर अधिकांश वयोवृद्ध व अपने समय के प्रखर एवं बहुमानी साधु, कई कारणों से उपस्थित नहीं हो सके, पर घोषणा के बाद उन्होंने जो प्रशस्तिपूर्ण प्रतिक्रियाएं व्यक्त की, श्रद्धा-उद्गार भेजे, उस पर स्वयं आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री को आह्लादपूर्ण आश्चर्य हुआ। तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में इतनी सार्वजनिक एवं सर्वमान्य सुखद प्रतिक्रिया पहले कभी व्यक्त नहीं हुई। संघ के साधु भी छद्मस्थ ही तो होते हैं व उन्हें रागद्वेष, ईर्ष्या सता सकते हैं। पूर्व में कुछ ऐसे प्रसंगों पर कुछ साधु रुष्ट व असंतुष्ट भी हुए, हालाँकि उनकी संख्या नगण्य ही रही। तेरापंथ के चतुर्थ अधिशास्ता श्रीमद् जयाचार्य ने जब संवत् १९२० में मघराज जी स्वामी को युवाचार्य घोषित किया, तब उनके समकक्ष योग्यता वाले छोगजी चतुर्भुज जी आदि ने तो संघ तक से अपना संबंध विच्छेद कर दिया, व विरोध में जुट गए, जिससे श्री जयाचार्य को उनका विरोध निरस्त करने में पर्याप्त श्रम व शक्ति लगानी पड़ी। इसके पूर्व व पश्चात् भी यत्र-तत्र ऐसे प्रसंगों पर असंतोष, ईर्ष्या, द्वेष के कुछ क्षणिक स्फुलिंग उछले, हालांकि आत्मानुशासन से प्रेरित श्रमण-श्रमणी वृन्द उससे प्रभावित नहीं हुआ, व सारे स्फुलिंग आत्मसाधना के शीतल जल में स्वयं तिरोहित हो गये। इस तार्किक एवं प्रचार के युग में जब कि चारों ओर पद-लिप्सा की ज्वाला से सारा विश्व त्रस्त है, व अधिकांश धर्मसंघ भी उससे अछूते नहीं रह पाए हैं, तब लगभग सात सौ साधु-साध्वी-संघ के अनुशास्ता, व लाखों-लाखों अनुयायियों के श्रद्धानायक के रूप में, युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का मनोनयन, तुलसी-प्रज्ञा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विध संघ द्वारा सहज रूप से हर्षातिरेक के वातावरण में स्वीकार करना तेरापंथ धर्मसंघ की ही नहीं, विश्व इतिहास की अलौकिक घटना कही जा सकती है। यह सब आचार्यश्री की दूरदर्शितापूर्ण सूझबूझ एवं युवाचार्यश्री की विशिष्ट योग्यताओं का ही परिणाम है व संघ इस बात से निश्चित है कि युवाचार्यश्री की विशिष्टताओं का नेतृत्व-रूप में जो लाभ मिलेगा, वह सभी दृष्टियों से इतिहास में अपूर्व व अविस्मरणीय होगा। इस प्रसंग की एक विशेषता यह भी है कि अब तक जिन समर्थ आचार्यों ने अपने उत्तराधिकारी को चुना, वे उनके अनुकरण मात्र ही करने वाले थे। आचार्यश्री स्वयं इसके अपवाद अवश्य रहे और इसका कारण उनकी छोटी आयु भी था, पर आचार्यश्री ने परिपक्व अवस्था के युवाचार्य जी का जो मनोनयन किया, उसमें यह आधार नहीं बन पाया । यह सही है कि आचार्यश्री ने तेरापंथ धर्मसंघ की व्यवस्था में जो युगान्तरकारी परिवर्तन किए उसमें महाप्रज्ञ का प्रारंभ से शतप्रतिशत समर्थन, सहयोग, व योगदान रहा और उन्होंने कभी किसी अवसर पर आचार्यश्री से भिन्न अनुभूति नहीं की और सदा उनसे अभिन्न अद्वैतात्मक स्थिति में रहे, पर यह भी निश्चित कहा जा सकता है कि युवाचार्यश्री कई दृष्टियों से आचार्यश्री के अनुगामी न होकर, पूरक भी हैं। यह दोनों व्यक्तित्वों की निजता है, जो उनके व्यवहार व कार्य-शैली में स्पष्ट परिलक्षित होती हैं। आचार्यश्री ६५ वर्ष की अवस्था में भी सदा उत्फुल्ल रहने वाले हंसते-खिलते सुवासित गुलाब के फूल की तरह हैं, जिनके मानस पर अवस्था अपना विशेष प्रभाव छोड़ने में असमर्थ रही हैं। गत तीन चार दशाब्दियों में जब-जब उनके दर्शन सेवा करने का अवसर मिला, तब-तब मैंने उनके चेहरे पर तारुण्य भरी मुस्कान व प्रफुल्लता के ही दर्शन पाए। भयंकर विरोध व विषादपूर्ण परिस्थितियों में भी उनका असीम आशावाद न्यून नहीं हो पाया, उनकी प्रसन्नता को मिटा न सका, वे उस सदाबहार उद्यान की तरह रहे जिसके कण-कण में नई छटा, नया रंग, नई सुवास सतत विद्यमान रहती है और यही कारण है अबोध बच्चे व अनभिज्ञ ग्रामीण से लेकर बड़े-बड़े सत्ताधीश एवं विद्वज्जन उनसे समान रूप से आकर्षित रहे और सभी क्षेत्रों में इतनी लोकप्रियता आज तक किसी धर्माचार्य को नहीं मिली। इसके ठीक विपरीत युवाचार्यश्री के चेहरे पर मैंने सदा ही गांभीर्य और सात्त्विक तटस्थता का ही भाव देखा- उनको न तो मैंने कभी खुलकर हंसते देखा, न उनके चेहरे पर कभी उन्मुक्त एवं व्यापक मुस्कान देखी। अगाध पांडित्य के साथ उन्हें अहं तो छू नहीं पाया, पर गांभीर्य अछूता न रह सका। तटस्थता व अनासक्त भाव के साथ-साथ सहज उदासीनता ने उनमें स्पष्ट अभिव्यक्ति पाली । युवाचार्यश्री शांत पद्म-सरोवर के शरद् ऋतु के श्वेत कमल की तरह निलिप्त और साम्ययोगी हैं। आचार्यश्री आज भी युवक की तरह उत्साही एवं प्रसन्न-वदन रहते हैं, जब कि युवाचार्यश्री अपने भर यौवन में परिपक्व व्यक्तित्व लिए हुए लगते थे। आचार्यश्री की सहज मुस्कान के पीछे लोक के सारे प्राणियों के प्रति करुणा व समता भाव छलक कर बाहर आता प्रतीत होता है, और युवाचार्यश्री की तटस्थ वृत्ति में प्राणी मात्र की वेदना उनके अंतरतम में गहरी पैठ कर स्वपर आत्म-कल्याण की भावना में रूपान्तरित हो जाना चाहती है और विभाव से स्वभाव में जाने की प्रक्रिया का यह संघर्ष उनके चेहरे पर बरबस अपनी झलक छोड़ देता है । एक ही लक्ष्य के पथिक दोनों के मार्ग श्रेय होने पर भी भिन्न-भिन्न हैं । खण्ड ४, अंक ७-८ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री की ओज भरी वाणी व उसमें यदा कदा फूटने वाली संगीत लहरी से आम जनता एवं बुद्धिजीवी समान रूप से भाव विभोर हो उठते हैं, तो युवाचार्यश्री द्वारा धर्म के गूढ़ तत्त्वों को थोड़े ग्राह्य शब्दों में सुलझाने की विशेष शैली से बड़े से बड़े विज्ञजन मंत्र-मुग्ध हो उठते हैं। एक में आम जनता के हृदय को झकझोरने की अजेय शक्ति है, तो दूसरे में मस्तिष्क को सीधे छूने की प्रज्ञाशक्ति है और ये दोनों शक्तियाँ व्यक्ति को आत्मलक्षी बनाने में अद्भुत प्रेरणा का कार्य करती हैं। एक ने अपनी अपार करुणा से जन-जन का स्नेह प्राप्त किया है, तो दूसरे ने हित-चिंतन की सतत साधना में जन-जन का सम्मान पाया है, ऐसी स्थिति में दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, ऐसा निश्चित रूप से कहा जा सकता है । दोनों कदम एक साथ नहीं चल सकते । एक पदचाप पर ही दूसरा पदचाप नहीं पड़ता, फिर भी दोनों चरण अलग-अलग रह कर एवं चलकर भी एक साथ ही रहते हैं व उनसे प्रगति की ओर गति प्राप्त होती हैं । युवाचार्यश्री के मनोनयन के अवसर पर आचाश्री ने सारे संघ को आश्वस्त किया है कि महाप्रज्ञ जी को दायित्व सौंपकर भी वे उनकी साधना की गतिशीलता में कोई व्यवधान नहीं पड़ने देंगे व अपना दायित्व उसी तरह निभाते रहेंगे। यह आश्वासन सौभाग्य-सूचक है व सारे धर्मसंघ की कामना है कि आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री दोनों पूर्ण आरोग्य एवं सुदीर्घ जीवन प्राप्त करें व संघ को अपना सबल नेतृत्व देते रहें ताकि विश्व की अध्यात्म शक्तियों को बल मिल सके। इस बात में किंचित् संशय नहीं किया जा सकता, कि समय आने पर युवाचार्यश्री अपने में आचार्यश्री की सारी शक्तियों को समाहित करने की क्षमता रखते हैं। इसी आशा और विश्वास के साथ मैं आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री दोनों महापुरुषों का इतिहास के इस अभिनव प्रसंग पर श्रद्धा पूर्वक हार्दिक अभिनंदन करता हूँ। ३६२ तुलसी-प्रज्ञा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरणों के प्रकाश में उस समय के मुनि नथमल : आज के युवाचार्य महाप्रज्ञ मुनि श्री बुद्धमल संस्मरणों की यात्रा युवाचार्य महाप्रज्ञ तेरापंथ धर्मसंघ के भावी आचार्य हैं। वे महाप्राण युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के द्वारा नियुक्त उनके उत्तराधिकारी हैं। इस नियुक्ति के अभिनन्दन में "तुलसी प्रज्ञा" अपना विशेषांक निकाल रही है। मैं युवाचार्य का समवयस्क हूं, इससे भी अधिक मैं उनका बाल-साथी एवं सहपाठी रहा हूं, अतः उनसे संबंधित कुछ संस्मरण लिखने के लिए मुझे कहा गया है। पिछले अड़तालीस वर्षों के निकट सम्पर्क के प्रकाश में जब मैं अपने जीवन के उतार-चढ़ावों की ओर दृष्टिपात करता हूं तब पाता हूं कि मस्तिष्क में खट्टे-मीठे संस्मरणों की एक भीड़ धक्का-मुक्की करती हुई प्रवेश कर रही है, मैं उन सबको इस समय अपने पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर सकू-यह संभव नहीं है। परन्तु कुछ को सम्मुख लाना आवश्यक भी प्रतीत होता है । तो लीजिए, ये उपस्थित हैं हमारी बाल्यावस्था के कुछ नन्हें-मुन्ने संस्मरण, इनसे मिलिये । परन्तु एक बात का ध्यान रखिये, इनकी यात्रा मेरे बाल सखा मुनि नथमल के परिपार्श्व से प्रारंभ होती है और युवाचार्य महाप्रज्ञ तक पहुंचती है, फिर भी मंजिल और आगे है, यात्रा चालू है। बाल साथी हम दोनों जन्मना ढूंढाड़ (तत्कालीन जयपुर राज्य) के हैं। मुनि नथमल जी का . जन्म टमकोर (विष्णुगढ़) में और मेरा पिलानी के समीपस्थ ग्राम लीखवा में हुआ। मेरा लालन-पालन एवं प्रारंभिक शिक्षा ननिहाल में हुई, अतः मैं सादुलपुर में ही रहा और वहीं का हो गया। मेरा जन्म सं० १९७७ आसाढ़ कृष्णा ३ का है और युवाचार्य जी का आसाढ़ कृष्णा १३ का। उन्होंने तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी से सं० १९८७ के माघ में दीक्षा ग्रहण की और मैंने १९८८ के कार्तिक में। प्रशिक्षण के लिए हम दोनों मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) को सौंपे गये । समवयस्कता के साथ-साथ तभी से हम दोनों साथी और सहपाठी बन गये । यद्यपि उस समय अन्य भी अनेक बाल-साधु थे, परन्तु हम दोनों की पटरी कुछ ऐसी बैठी कि प्रायः हर क्रिया और प्रतिक्रिया में हम एक साथ रहते । हमारे खण्ड ४, अंक ७-८ ३६३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम भी प्रायः सभी के मुख पर समस्तपद की तरह एक साथ रहते थे। पूज्य कालूगणी हमें “नत्थू-बुद्ध" कह कर पुकारते थे और हमारे अध्यापक मुनि तुलसी "नथमल जीबुद्धमल जी" कहा करते थे। हंसने का दण्ड बाल-चापल्य के कारण हम दोनों हंसा बहुत करते थे । सकारण तो कोई भी हंस लेता है, पर हम अकारण भी हंसते थे। पाठ याद करते समय हम दोनों को कमरे के दो कोनों में भींत की ओर मुह करके बिठाया जाता था, फिर भी झुक झुक कर हम एक दूसरे की ओर देखते और हंसते । छोटी-मोटी कोई भी घटना या स्थिति हमारे हंसने का कारण बन जाती थी। हम अभिधान चितामणि कोष कंठस्थ कर रहे थे । मुनि तुलसी के पास वाचन करते समय जब “पेढालः पोट्टिलश्चापि" जैसे विचित्र उच्चारण वाले नाम हमारे सामने आये तो हम दोनों अपनी हंसी रोक नहीं पाये । कठोर अनुशासन पंसद करने वाले हमारे अध्यापक मुनि तुलसी ने उस उदंडता के लिए कई दिनों तक हमारा शिक्षण बंद रखा । इसी प्रकार मेवाड़ से आये एक व्यक्ति की फटी-फटी सी बोली सुनकर भी हम अपनी हंसी नहीं रोक सके और दंड स्वरूप कई दिनों तक शिक्षण बंद रहा। बच गए तारानगर की बात है । मैं पानी पीने के लिए गया। उसी समय मुनि नथमल भी वहाँ पहुंच गये । वे मुझे हंसाने का प्रयास करने लगे। बहुत देर तक उन्होंने मुझे पानी नहीं पीने दिया । आखिर झल्लाकर मैंने उनको धमकी दी कि मुनि तुलसी के पास मैं आपकी शिकायत कर दूंगा । तब वे रुके और मैं पानी पी सका । उस समय हम दोनों को ही पता नहीं था कि पास के कमरे से महामना मगनलाल जी स्वामी हमारी कारस्तानी देख रहे हैं। सायंकालीन भोजन परोसते समय मंत्री मुनि ने कालूगणी के सम्मुख ही हमसे पूछा कि आज मध्याह्न में पानी पीते समय तुम दोनों क्या कर रहे थे ? हम दोनों की तो मानों घिग्घी ही बंध गई । मंत्री मुनि ने हंसते हुए हमारी नोक-झोंक कालूगणी को सुनाई और कहा-दोनों ही बहुत चंचल हैं। आचार्यश्री ने अर्थभरी दृष्टि से हमारी ओर देखा और मुस्करा दिये । हम दोनों तब आश्वस्त हो गये कि बच गये । बड़ा बनना है या छोटा? लगता है आचार्यप्रवर ने हमारे हंसने के उस स्वभाव को बदलने के लिए मनोवैज्ञानिक प्रयोग किया। हम दोनों उपपात में बैठे थे तब उन्होंने कहा-आओ एक सोरठा याद करो। उन्होंने सिखाया "हंसिये ना हुंसियार, हंसिया हमकाई हुवे । हंसिया दोष हजार, गुण जावं गहलो गिणे ॥" एक बार उन्होंने यह श्लोक कंठस्थ कराया ३६४ तुलसी-प्रज्ञा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "बाल-सखित्वमकारणहास्यं स्त्रीषु विवादमसज्जन-सेवा । गर्दभयानमसंस्कृत-वाणी, षट्सु नरो लघुतामुपयाति ॥" आचार्यश्री ने हमें शिक्षा देते हुए कहा-"बच्चे के साथ मित्रता, अकारण हास्य, स्त्रियों के साथ विवाद, दुर्जन की संगति, गधे की सवारी और अशुद्ध वाणी-इन छह बातों से मनुष्य छोटा बन जाता है।" शिक्षा के बीच में ही आचार्यश्री ने हमसे प्रश्न किया-- "तुम लोग बड़ा बना चाहते हो या छोटा ?" हम दोनों ने एक साथ उत्तर दिया--"बड़ा" आचार्यश्री ने तब हमारी ओर एक विचित्र दृष्टि से देखते हुए कहा-"बड़ा बनना चाहते हो तो इन बातों से बचना चाहिए।" सहज भाव से दी गई उक्त शिक्षा हमारे अन्तरंग में उतरती गई और हम शीघ्र ही अकारण हास्य के उस स्वभाव से मुक्त हो गये । पारस्परिक स्पर्धा गहरी मित्रता के साथ-साथ हम दोनों में स्पर्धा भी चलती रहती थी। खड़िया से पट्टी कौन पहले लिखता है, श्लोक कौन शीघ्र याद करता है, आचार्यश्री की सेवा में कौन पहले पहुंचता है, मुनि तुलसी का कथन कौन पहले कार्यान्वित करता है-ये हमारी स्पर्धा के विषय हुआ करते थे। कभी-कभी अन्य विषयों में भी स्पर्धा हो जाया करती थी। सं० १९८६ में एक बार श्री डूंगरगढ़ में कालूगणी की सेवा में मुनि नथमल जी बैठे थे । आचार्यश्री ने अपने "पु?" से भर्तृहरि का नीतिशतक निकाल कर उन्हें दिया। उन्होंने आकर मुझे दिखाया तो मैंने भी गुरुदेव से उसकी माँग की। एक बार तो उन्होंने फरमाया कि "पु?" में एक ही प्रति थी, वह दे दी गई, अब तुम्हारे लिए कहाँ से आये ? इस पर भी मैंने अपनी माँग को दुहराया, तब मुनि चौथमल जी के “पु?" से एक दूसरी प्रति निकलवाकर उसी समय मुझे दी गई। सं० १९६० में बीदासर में आचार्यश्री का प्रवास था। मैं अकेला आचार्यश्री की सेवामें था। आचार्यश्री ने अपने “पु?" से एक कवितापत्र निकाला और मुझे दिया। मैंने मुनि नथमल जी को वह दिखलाया, तो उन्होंने भी उसकी माँग की। दूसरा पत्र उपलब्ध नहीं था, अतः नया लिखवाकर उन्हें दिया गया । सं० १९८६ के सरदारशहर चातुर्मास में दीक्षाएं हुई, तब जो वस्त्र आया, उसमें से एक कंबल को अलग रखते हुए आचार्यश्री ने कहा-यह नत्थू-बुद्ध को देना है। किसी मुनि के द्वारा हमें उक्त सूचना तो मिली ही, साथ ही यह भी पता चला कि उस कंबल के एक भाग में कुछ काले धब्बे हैं। मध्याह्नकालीन भोजन के पश्चात् कालूगणी ने कंबल के दो टुकड़े किए और हमें देने लगे तब हम दोनों ने ही बिना धब्बे वाले टुकड़े की मांग की। आचार्यश्री ने हमें समझाने का प्रयास किया कि धोने पर ये धब्बे मिट जायेंगे, परन्तु धब्बे वाला भाग लेने के लिए हम दोनों में से कोई भी उद्यत नहीं था । आखिर आचार्यश्री ने दोनों भागों को अपनी गोद में दबाया और वस्त्र से ढक दिया । केवल दो छोर ऊपर रखकर हमसे कहा कि एक-एक छोर पकड़ लो। हम दोनों ठिठके तो सही, परन्तु फिर एक-एक खण्ड ४, अंक ७-८ ३६५ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I छोर पकड़ लिया । धब्बों वाला भाग मुनि नथमल जी को मिला । वे थोड़े उदास हुए, परन्तु जब दोनों भाग धुलकर पुनः हमारे पास आये तब हम पहचान ही नहीं पाये कि धब्बों वाला भाग कौनसा था ? मुनि तुलसी अर्थ करते सं० १९८६ में हम दोनों अभिधान चिन्तामणि कोश कंठस्थ कर रहे थे । आचार्यश्री ने फरमाया—मध्याह्न में प्रतिदिन एक श्लोक सिंदूर प्रकर (सूक्ति मुक्तावलि) का भी याद किया करो | हम वैसा ही करने लगे । कुछ श्लोक कंठस्थ हो जाने के पश्चात् हमें आदेश हुआ कि सायं प्रतिक्रमण के पश्चात् तुम दोनों श्लोकों का गान किया करो और तुलसी अर्थ किया करेगा । बाल्यावस्था के कारण उस समय हमारा स्वर महीन और मधुर था । आचार्यश्री के सम्मुख खड़े होकर हम दोनों उपस्थित जन समूह में प्रतिदिन चार श्लोकों का गान करते और हमारे अध्यापक मुनि तुलसी उनका अर्थ किया करते । एक शिकायत मुनि तुलसी हमें काफी कड़े अनुशासन में रखते थे । इधर-उधर घूमने की छूट तो देते ही नहीं थे, परस्पर बात भी नहीं करने देते थे । हम दोनों ने कालुगणी के पास शिकायत करने का निर्णय किया। रात्रि में जब आचार्यश्री सोने की तैयारी कर रहे थे, तब हम गये और पास जाकर वन्दन किया । आचार्यश्री ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा - "बोलो क्यों आये हो ?" हम दोनों ने कुछ संकुचाते और कुछ साहस करते हुए कहा - "तुलसीराम जी स्वामी हमें बात भी नहीं करने देते, बहुत कड़ाई करते हैं ।" आचार्यश्री ने पूछा--"यह सब वह तुम्हारी पढ़ाई के लिए ही करता है या अन्य किसी कारण से ?" हमने कहा - " करते तो पढ़ाई के लिए ही हैं । " आचार्यश्री बोले – “तब फिर क्या शिकायत रह जाती है ?" " इस विषय में तो वह जैसा चाहेगा वैसा ही करेगा । तुम्हारी कोई बात नहीं चलेगी । " हम दोनों अवाक् थे । न कुछ कह पाये और न उठकर ही जा पाये । आचार्यश्री ने गुरुकुल में पढ़ा करता था । अन्य छात राजकुमार को राजा के पास ले जा रहे और गठरी राजकुमार के सिर पर उतरवा दी गई । वे सब राजसभा व्यवहार कैसा रहा ?" आचार्य ने राजकुमार से भी पूछा - " आचार्य जी ने राजकुमार ने हमें एक कहानी सुनाते हुए कहा- राजा का पुत्र भी वहाँ पढ़ते थे । पढ़ाई सम्पूर्ण होने पर आचार्य थे । राजधानी के बाजार में उन्होंने कुछ गेहूं खरीदे रख दी । कुछ दूर तक ले चलने के पश्चात् वह गठरी में पहुंचे । राजा ने आश्चर्य से पूछा - "राजकुमार का कहा- -: " बहुत अच्छा, बहुत विनययुक्त ।” राजा ने तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया ?" सकुचाते हुए तो बहुत अच्छा व्यवहार किया, परन्तु आज का व्यवहार उससे में इन्होंने मेरे से भार उठवाया ।” राजा ने खिन्न होकर आचार्य से इसका कारण पूछा । ३६६ तुलसी- प्रज्ञा कहा - "इतने वर्षों तक भिन्न था । आज बाजार Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ने कहा - "यह भी एक पाठ ही था । भावी राजा को यह ज्ञात होना चाहिए कि गरीब का श्रम कितना मूल्यवान होता है ।" आचार्यश्री ने कहानी का उपसंहार करते हुए कहा- - "अध्यापक तो राजा के पुत्र से भी भार उठवा लेता है, तो फिर तुम्हारी शिकायत कैसे मानी जा सकती है ? तुलसी ने तो तुम्हें बात करने से ही रोका है । जाओ, मन लगाकर पढ़ा करो और जैसा वह कहे वैसा ही किया करो। " हम आशा लेकर गये थे, परन्तु निराशा पाकर लौट आये। दूसरे दिन मुनि तुलसी के पास पढ़ने के लिए गये तो मन में धुकुर-पुकुर मची हुई थी कि कहीं हमारी शिकायत का पता लग गया तो क्या होगा ? किशोरावस्था में बाल्यावस्था से किशोरावस्था में पहुंचने पर हमारी स्पर्धा के विषय बदल गये । सं० १६६१ में जोधपुर चातुर्मास में हमने राजस्थानी भाषा की प्रथम काव्य रचना की । सं० १९९४ के बीकानेर चातुर्मास में संस्कृत भाषा में प्रथम काव्य रचना की । हम एक दूसरे को अपनी रचना दिखाते और उसके गुण-दोषों पर चर्चा करते । अन्य विषय पर भी हमारी परस्पर चर्चा चलती रहती थी । हम शौच के लिए प्रायः सबसे दूर जाया करते । वहाँ आसन किया करते । संस्कृत भाषण का अभ्यास भी किया करते । एक दूसरे से प्रायः प्रेरणा ग्रहण करते रहते । शिक्षार्थी साधुओं को व्याकरण, काव्य और दर्शन - शास्त्र आदि अनेक विषयों का प्रशिक्षण देने का कार्य भी हम लोगों ने किया । परिहास के क्षणों में समय-समय पर हम दोनों में परिहास भी चलता रहता था। एक बार मुनि नथमल जी ने किसी विषय पर मुझे कोई सुझाव दिया। मैंने उसे अस्वीकार करते हुए उनका मजाक उड़ाया कि मैं आपसे आयु में नौ दिन बड़ा हूं, अतः मुझे शिक्षा देने का आपको कोई अधिकार नहीं है । उन्होंने भी मुझे उसी लहजे में तत्काल उत्तर दिया कि तुम नौ दिनों के घमण्ड में फूले हो, मैं दीक्षा में तुम्हारे से नौ महीने बड़ा हूं । एक बार मैंने उनको कोई सुझाव दिया तो उसका मजाक उड़ाते हुए उन्होंने कहा"तुम्हारा तो नाम ही बुद्ध है, तुम मुझे क्या सुझाव दे सकते हो ?" मैंने भी "जैसे को तैसा" उत्तर देते हुए कहा -- " मैं समझदार व्यक्ति के कथन को ही महत्त्व देता हूं । “ऐरे गैरे नत्थू खैरे” मेरे विषय में क्या कहते हैं, उस पर कभी ध्यान नहीं देता ।" जो आज भी याद है आक्षेपात्मक परिहास प्रायः कटुता उत्पन्न कर देते हैं, जबकि गुदगुदाने वाले परिहास तृप्तिदायक होते हैं । वे बहुधा अपनी स्मृति में भी वैसी ही तृप्ति प्रदान करते हैं । सं० २००० में मेरे द्वारा किया गया एक परिहास, जिसे मैं भूल चुका था, परन्तु युवाचार्य खण्ड ४, अंक ७-८ ३६७ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी को आज भी वह याद है । इसका पता मुझे तब लगा जब युवाचार्य बनने से तीन-चार दिन पूर्व ही बात-चीत के सिलसिले में उन्होंने मुझे उस घटना का स्मरण कराया। उक्त घटना सं० २००० के चातुर्मास से पूर्व ग्रीष्मकाल की है । उस समय आचार्य श्री तुलसी ने मुनि नथमल जी को अग्रणी रूप में बहिबिहार के लिए भेजा था । बाइस वर्ष की चढ़ती अवस्था और निश्चित स्वतंत्र विहरण ने उनके शरीर पर काफी अच्छा प्रभाव डाला । कुछ महीनों के पश्चात् जब वे वापस आये तो रक्ताभ मुख उनकी स्वस्थता का अग्रिम परिचय दे रहा था । मैंने उनको वन्दन किया और परिहासमय प्राचीन श्लोक का एक चरण सुनाते हुए उसी के माध्यम से उन्हें सुखपृच्छा की । स्थित्यनुकूल सटीक बैठने वाला अपना परिहास सुनकर वे खिलखिला पड़े । अभी-अभी राजलदेसर में युवाचार्य बनने से पूर्व उन्होंने मुझे मेरी परिहास - प्रकृति का स्मरण दिलाते हुए वही चरण गुनगुना कर कहा था -- क्या तुम्हें याद है कि तुमने मेरे लिए इसका प्रयोग किया था ? लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व किये गये उस परिहास को याद कर हम दोनों एक बार फिर खिलखिला कर हंस पड़े । साथ के साधु जिज्ञासापूर्वक उस श्लोक के लिए पूछते रहे । इस पड़ाव पर आचार्यश्री तुलसी ने सं० २००० का चातुर्मास करने के लिए मुझे अग्रणी बनाकर श्री डूंगरगढ़ भेज दिया । उसके पश्चात् धीरे-धीरे मुझे बहिविहारी ही बना दिया गया । तभी से हम दोनों के कार्यक्षेत्रों में पार्थक्य प्रारंभ हो गया। मुनि श्री नथमल जी को आचार्यश्रा के सामीप्य का निरंतर लाभ प्राप्त होता रहा, मुझे वह नहीं मिल पाया । पैंतीस वर्षों के इस प्रलंब बहिविहार-काल में मैंने जीवन की दुर्गम घाटियों के अनेक उतार-चढ़ाव पार किये हैं । आज जिस पड़ाव पर खड़ा हूँ, वहाँ से पूरे अतीत को बहुत स्पष्टता से देख रहा हूं । विगत का पूरा लेखा-जोखा मेरे मस्तिष्क में अंकित है । उसके पृष्ठ उलटतापलटता हूं तो पाता हूं कि बाल सखा मुनि नथमल जी युवाचार्य महाप्रज्ञ बनकर भी आज मेरे वही निकटतम साथी है। यात्रा मार्ग और पड़ावों की दूरियाँ हमारे सख्य में कोई बाधा उपस्थित नहीं कर पाई हैं । नया मोड़ आ रहा है आचार्यश्री तुलसी ने मुनि नथमलजी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया । चारों ओर वातावरण में एक हर्षोत्फुल्लता छा गई । मैंने एक अतिरिक्त आह्लाद और गौरव का अनुभव किया। दूसरे दिन प्रातः प्रतिलेखन आदि कार्यों से निवृत्त होकर बैठा ही था कि अचानक युवाचार्य मेरे कमरे में प्रविष्ट हुए । मैंने उठकर उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा -- "तुम तो मेरे साथी हो, साथी के लिए आया हूं ।" उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और कहा चलो आचार्यश्री के पास चलें । मैं उनके साथ गया तो आचार्यश्री ने उस स्थिति पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए जो कुछ कहा वह मुझे गद्गद् कर गया । उसी दिन प्रातः कालीन व्याख्यान में युवाचार्य का अभिनन्दन करते हुए मैंने उक्त घटना का उल्लेख किया तो उत्तर देते समय युवाचार्य ने मेरी बात को छूते हुए कहा -- "साथी तो साथी ही रहता है ।" मैंने अनुभव किया संस्मरणों के प्रवाह में अवरोध नहीं, एक नया मोड़ आ रहा है । ३६८ Xx तुलसी- प्रज्ञा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्यादा महोत्सव विशिष्ट उपलब्धि साध्वी श्री संघमित्रा मर्यादा.महोत्सव तेरापंथ धर्मसंघ की सुदृढ़ नींव है । यह महोत्सव प्रतिवर्ष माघ शुक्ला सप्तमी के दिन मनाया जाता है । इस समय पर सैकड़ों साधु-साध्वियों की उपस्थिति, आचार्यप्रवर का महान प्रेरक सान्निध्य, परस्पर विचारों का विनिमय, चिन्तन-मननपूर्वक आचार्य देव द्वारा अनेक नये निर्णयों की घोषणा, एवं अग्रिमवर्ष के लिये चातुर्मासों की नियुक्ति आदि आकर्षण के मुख्य केन्द्र बने रहते हैं । यह मर्यादा महोत्सव धर्मसंघ के लिये विविध उपलब्धियों का महोत्सव होता है । इस बा का यह महोत्सव राजलदेसर में सम्पन्न हुआ था । मर्यादा महोत्सव के दिन मध्याह्न के समय मर्यादा - पत्र वाचन के बाद चतुर्विध संघ के बीच आचार्य देव ने एक अनुपम ऐतिहासिक निर्णय लिया था । आचार्य के कन्धों पर अनेक प्रकार के महत्त्वपूर्ण दायित्व होते हैं । उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण दायित्व भावी आचार्य का नाम घोषित कर देना है। आचार्य द्वारा किये गये इस निर्णय से सारा संघ चिन्ता-विमुक्त हो जाता है । इस निर्णय में आचार्य को अत्यन्त सतर्कता से काम करना पड़ता है। संघ हित की दृष्टि से योग्य व्यक्ति का निष्पक्ष निर्णय आवश्यक है | योग्य व्यक्ति की संघ में उपलब्धि न होने पर आचार्य के सामने संकटपूर्ण प्रश्न उपस्थित हो जाता है । वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी में आचार्य प्रभव के सामने यही प्रश्न अत्यन्त जटिल बन गया था । आचार्य प्रभव वृद्धावस्था में थे-- एक दिन उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के विषय में चिन्तन किया। पूरे जैन समाज में संघ दायित्व निर्वहणार्थ कोई भी व्यक्ति उनकी दृष्टि में नहीं था। ब्राह्मण समाज में से उद्भट विद्वान्, नेतृत्व - कला कुशल शय्यंभव को उद्बोधन देकर आचार्य प्रभव ने उन्हें श्रमण दीक्षा दी एवं आचार्यपद का दायित्व सौंपा था। आर्यरक्षित के सामने भी आचार्य पद को लेकर गम्भीर स्थिति पैदा हो गई थी । आर्यरक्षित दुर्बलिका पुष्यमित्र को अपना उत्तराधिकार सौंप रहे थे । संघ के कुछ सदस्य आर्य फल्गुरक्षित एवं गोष्ठामाहिल के पक्ष में थे । फल्गुरक्षित आर्यरक्षित के लघु-भ्राता और गोष्ठामाहिल शास्त्रार्थ - निपुण महान् विद्वान् श्रमण । आर्यरक्षित ने घृत, तेल, उड़दकणों भृत कलशय का दृष्टान्त दिया और कहा - "आर्य दुर्बलिका पुष्यमित्र मेरी ज्ञान राशि खण्ड ४, अंक ७-८ से ३६६ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को ग्रहण करने में अत्यधिक सफल हुआ है ।" सबके मन को समाहित कर आर्यरक्षित दुर्बलका पुष्यमित्र का नाम आचार्यपद के लिये चुना । इससे संघ में सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी । तेरापंथ धर्मसंघ में कवि, लेखक, वक्ता, विद्वान्, दार्शनिक एवं दायित्व वहन करने में सक्षम सैकड़ों श्रमण श्रमणी हैं । आचार्यप्रवर ने अपने प्रवचन में एक दिन श्रमण श्रमणियों की योग्यता का उल्लेख करते हुए कहा था- "मेरे संघ में साध्वियाँ भी ऐसी हैं, अगर मैं उनको मेरा सम्पूर्ण दायित्व सौंप दूं तो बहुत अच्छे ढंग से आचार्य पद के दायित्व को संभाल सकती हैं । यह हमारे धर्मसंघ के लिए गौरव की बात है ।" राजलदेसर मर्यादा महोत्सव पर आचार्यश्री तुलसी ने विविध विशेषताओं के धनी, सर्वाधिक सुयोग्य महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमल जी का नाम अपने उत्तराधिकारी के रूप में घोषित किया । युवाचार्य के रूप में इस बार धर्मसंघ को मर्यादा महोत्सव की यह विशिष्ट उपलब्धि हुई । महाप्रज्ञ श्री जैन दर्शन के अधिकृत विद्वान्, ऊर्ध्वमुखी व्यक्तित्व के धनी उच्चकोटि क्रे दार्शनिक एवं आचार्यश्री तुलसी के सफल भाष्यकार हैं । योगधारा को नए संदर्भ में प्रस्तुत कर महाप्रज्ञ श्री ने समग्र जैन समाज को अनुपम दे दी है । बहुविध साहित्य के माध्यम से धर्म का वैज्ञानिक रूप प्रस्तुत कर युवा पीढ़ी को उन्होंने धर्म की ओर आकृष्ट किया है । विशिष्ट ध्यान योग की साधना से मुनि श्री दुर्बलिका पुष्यमित्र की भाँति कृशकाय है | ज्ञान- सम्पदा, ध्यान - सम्पदा एवं शरीर - सम्पदा से आप इस युग के द्वितीय दुर्बलिका पुष्यमित्र ही प्रतीत होते हैं । संघ आपको युवाचार्य के रूप में पाकर धन्य हुआ है । बधाई के पात्र हैं – आचार्य श्री तुलसी । योग्य व्यक्ति को योग्य अपने दायित्व को वहन करने में पूर्णतः सफल हुये हैं । इस अवसर पर कोटिशः पद पर प्रतिष्ठित कर वे महाप्रज्ञश्री ने अपनी साहित्य - साधना, ध्यान-साधना से बहुत कुछ समाज को दिया है | विश्वास है अब उनकी ऊर्ध्वगामी चेतना धर्मसंघ को उन्नति के शिखर पर आरूढ़ करने में सक्षम सिद्ध होगी ! बधाई ! बधाई !! बधाई !!! ४०० तुलसी- प्रज्ञा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनीषी संत, साधक मन, वैज्ञानिक दार्शनिक और प्राज्ञकवि -डा. नरेन्द्र भानावत मुनि श्री नथमलजी तेरापंथ धर्म संघ के ही नहीं समस्त जैन जगत के और कहना तो यह चाहिए कि सम्पूर्ण भारतीय दार्शनिक परम्परा के जगमगाते नक्षत्र हैं । वे सच्चे अर्थों में दार्शनिक हैं। उन्होंने ज्ञान को आत्मसाक्ष्य भाव से देखा है और उसे आचरण में उतारा है। इसी लिए ज्ञान की उष्मा उन्हें मात्र तार्किक नहीं बनाती वरन् अनुभूति के प्रकाश में रूपांतरित होकर, उन्हें प्राज्ञ-महाप्राज्ञ बनाती है। मुनि श्री नथमलजी से मेरा पन्द्रह-सोलह वर्षों से परिचय है । उनका बहुरंगी और बहुआयामी साहित्य मैंने पढ़ा है। कई बार उनसे बौद्धिक संलाप करने के भी अवसर आये हैं । मैंने उन्हें सदा समुद्र की तरह गंभीर, हिमालय की तरह उन्नत और आकाश की तरह अवकाशी पाया है । जीवन के ठोस यथार्थ धरातल से बात शुरू कर वे उसे उदात्त आदर्शों और जीवन-मूल्यों की ओर इस प्रकार अग्रसर करते हैं कि श्रोता या पाठक उससे अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। __ मुनि श्री कारयित्री एवं भावयित्री दोनों प्रतिभाओं के समान रूप से धनी हैं। उनकी कारयित्री प्रतिभा से संस्कृत और हिन्दी भाषा में अनेक काव्य कृतियों का निर्माण हुआ है। संस्कृत काव्य “सम्बोधि" में साधना क्षेत्र में दुर्बल और शंकालु मेघ कुमार महावीर से सम्बोधि पाकर अपने आत्म-पुरुषार्थ को जाग्रत करता है। "अश्रुवोणा" में अश्रुप्रवाह के माध्यम से चन्दनबाला का संदेश प्रेषित किया गया है। "तुला-अतुला" में मुनि श्री के आशुकवित्व की परिचायक विविध रचनाएं संग्रहीत हैं। हिन्दी काव्य संग्रह “फूल और अंगारे" तथा "गूंजते स्वर : बहरे कान" में मुनि श्री की ऐसी कविताएं संकलित हैं जो चिन्तनशील होती हुई भी आत्मानुभूति के रस से सिक्त हैं, अनेकान्तधर्मी होती हुई भी भावना के घनत्व से आर्द्र हैं और लोकभूमि से जुड़ी होकर भी आत्मनिष्ठ हैं । अर्थ-गाम्भीर्य और शब्दलालित्य से वे सम्पन्न हैं । मुनि श्री का साधक मन जब भीतर की गहराई में डूबता है, तब सहज आनन्द की निश्छल और निरावरण अभिव्यक्ति ही कविता के रूप में फूट पड़ती है । मुनि श्री की कविता आत्मोल्लास के क्षण में लिखी होने पर भी लोकोल्लास को अभिव्यक्त करती है। "स्व" को "सर्व" में विलीन करने की यह रचना प्रक्रिया मुनि श्री के सन्त और साधक व्यक्तित्व का परिणाम है। खण्ड ४, अंक ७-८ ४०१ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री की भावयित्री प्रतिभा उन्हें गूढ़ दार्शनिक अगम्य तत्त्ववेत्ता, सूक्ष्म विवेचन और विशद व्याख्याता बनाने में निखरी है। "जैन दर्शनःमनन और मीमांसा," "अहिंसा तत्त्व दर्शन" "श्रमण महावीर." तथा "उत्तराध्ययन" और "दशवैकानिक" सूत्रों के समीक्षात्मक अध्ययन में मुनिश्री का गहन विचारक, व्यापक अध्येता और मौलिक चिन्तक का रूप सामने आया है। मुनिश्री की व्याख्या और विवेचना में जो तेजस्विता और मौलिकता प्रतिबिम्बित होती है, वह उनके धर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, भाषाविज्ञान आदि विविध विषयों के समन्वित अध्ययन, मनन और मन्थन का परिणाम है। जैनधर्म क्रान्तिवादी और बौद्धिक चिन्तन का परिणामी धर्म रहा है । पर मध्ययुग में अन्य धर्मों की भांति जैनधर्म भी अन्ध परम्पराओं का शिकार बना और उसका तेज कुन्द हो गया। वह श्रद्धालुओं तक सीमित रह गया । आधुनिक युग में इस बात की बड़ी जरूरत थी कि जैनधर्म और दर्शन की विवेचना बौद्धिक संवेदना के धरातल से की जाए और उसे धर्म या सम्प्रदाय के रूप में नहीं वरन् जीवन-मूल्य के रूप में प्रतिपादित व प्रतिष्ठित किया जाए। मुनि श्री नथमलजी ने इस ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति करने में अपनी विलक्षण प्रतिभा और बौद्धिक जागरूकता का अच्छा परिचय दिया है । फलस्वरूप भारतीय विश्वविद्यालयों के अनेक आचार्य और भारतीय मनीषा के अग्रगण्य प्रतिनिधि मुनि श्री के वक्तव्यों और ग्रन्थों से जैन दर्शन को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सके । राजस्थान विश्वविद्यालय में जैन न्याय पर दिये गये मुनि श्री के विशेष व्याख्यान हमारे इस कथन के साक्षी हैं। ___ मुनि श्री कोरे शुष्क दार्शनिक नहीं हैं। उनके पास साधना और संयम का विशेष बल है। भारतीय योग-परम्परा के व्यापक संदर्भ में उन्होंने जैनयोग-साधना का, प्रेक्षाध्यान का सिद्धान्तपरक और अनुभूतिमूलक विवेचन, विश्लेषण और प्रयोग किया है। इस प्रकार मुनि श्री ने दर्शन के क्षेत्र में वैज्ञानिकता को प्रतिष्ठित किया है और विज्ञान के क्षेत्र में दार्शनिकता को प्रतिष्ठित करने के वे पक्षधर हैं । ऐसे मनीषी संत, साधक मन, वैज्ञानिक दार्शनिक और प्राज्ञकवि को आचार्य श्री तुलसी ने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर अभिनन्दनीय कार्य किया है। इस घोषणा से श्रद्धालु भक्तों में ही नहीं, बुद्धिजीवियों में भी प्रसन्नता की लहर व्याप्त हुई है । इस अवसर पर मैं युवाचार्य महाप्रज्ञ श्री के प्रति अपनी शुभ कामनाएं प्रकट करता हूं और आशा करता हूं कि उनके प्रज्ञाभाव से शील और समाधि का विशेष वातावरण बनेगा। ४०२ तुलसी-प्रज्ञा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रज्ञ से धर्म-अनुशास्ता : एक गौरवपूर्ण उपलब्धि -देवेन्द्र कुमार कर्णावट महाप्रज्ञ मनि श्री नथमलजी के युवाचार्य की घोषणा से "तेरापंथ धर्मसंघ" में होने वाली अनेक कल्पनात्मक चर्चाएं समाप्त हो गई हैं । बहुत सी भविष्यवाणियां केवल भविष्यवाणियां रह गई हैं। तेरापंथ में नव उन्मेषों के प्राण-प्रतिष्ठापक युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी ने, जो स्रोत, प्रतिस्रोत एवं संघर्षों में भी सदैव नवीनता के दिशा-प्रेरक रहे हैं, जीवन के इस उत्तरार्द्ध में भी युग के नित्य बदलते परिवेश में एक युगवीर की तरह कुछ दे जाने के लिए कृत-संकल्पशील हैं, दर्शन जगत के नम्र दार्शनिक एवं प्रयोगशील विचारक को अनुशास्ता के पद पर प्रतिष्ठापित कर सबको आश्चर्यान्वित कर दिया है। ० मनि श्री नथमलजी वस्तुतः साधुता में रमणशील एक ऐसे संत हैं, जिनके दर्शनमात्र से मन गौरवान्वित हो उठता है, सांस्कृतिकता एवं पौराणिकता जाग उठती है। लेकिन इच्छा और आकांक्षा से कोसों दूर, युग के बहते प्रवाह में कुछ ले गुजरने की महत्त्वाकांक्षा उनमें तिलमात्र भी नहीं है। धर्म नेता के रूप में नेतृत्व की तो बिल्कुल ही नहीं है। फिर भी वे नेतृत्व के शिखर पर पहुंच गये हैं, यह उनकी आत्म-तेजस्विता है। ० मुनि श्री नथमलजी लेखन की प्रक्रिया में खोज एवं शोध की दिशा से सतत् प्रेरित एक प्रकाशमान एवं श्रुत लेखक है, जिनकी लेखनी से न सिर्फ दर्शन की आभा प्रस्फुटित होती है वरन् भारतीय दर्शन की राहें भी विकसित होती हैं। प्रशस्ति एवं प्रसिद्धि की दृष्टि से सर्वथा पृथक् "स्वान्तः सुखाय" ही उनकी कलम की आत्मवृत्ति है, जो निरन्तर चलती रहती है । भारतीय एवं विश्व साहित्य में यह उनकी अद्वितीय देन है, जो विविध पुस्तकों के रूप में उपलब्ध है। ० मुनि श्री नथमलजी दर्शन की गहराई एवं विकास के लिए एक ऐसे चिन्तनशील विचा रक हैं, जिनसे नित्य नवीनता की दिशा मिलती है। सामायिक के प्रारम्भिक सूत्र से लेकर प्रेक्षा ध्यान की उच्चतम मंजिल तक सामान्य भाव से सामान्य जन को पहुंचा दिया, यह उनकी अपनी क्षमता है, जिसे प्राप्त कर आज आत्म-जगत गौरवान्वित है। कहीं भी रूढ़ता नहीं है वरन् कुठाओं से ग्रस्त ग्रन्थियों को खोलने की उनमें एक अजस्र शक्ति है। खण्ड ४, अंक ७-८ ४०३ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० मुनि श्री नथमलजी ज्ञान और विज्ञान की प्रवृत्ति से नित्य सृजनशील एक प्रयोगवेत्ता हैं, जिनकी प्रयोगशाला खाते-पीते, उठते-बैठते प्रतिपल प्रतिवृत्ति में चलती रहती हैं । कहीं कुछ आहट नहीं और व्यवहार में कहीं कुछ कमी नहीं । सदैव बोलती हुई मुस्कराहट, जिज्ञासु और दर्शक के लिए बस यही सब कुछ है । दृष्टिमात्र ही आगुन्तक के हृदय को जीत लेती है । महानता के इस अपार संग्रह में भी अहम् कहीं छू भी नहीं गया है । अहंकार का तो प्रश्न ही नहीं है । दर्शक को वहाँ दर्शन ही नहीं वरन् प्रयोगशाला की झांकी भी मिलती है, लेकिन जकड़न कहीं भी नहीं हैं। __ इसीलिए "महाप्रज्ञ' के रूप में आचार्य श्री तुलसी की यह खोज कहूं या देन, अद्वितीय है। न सिर्फ 'तेरापंथ' वरन् जैन जगत को आचार्य श्री ने अपने पीछे उन्हें 'धर्म-अनुशास्ता' के रूप में घोषित कर एक ऐसी देन दी है, जो सदैव चिर स्मरणीय रहेगी। प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलालजी के बाद जो एक कमी जैन जगत महसूस कर रहा था, महाप्रज्ञ के रूप में मुनि श्री नथमलजी को पाकर यह समाज आज अपनी धन्यता का अनुभव कर रहा है । वस्तुतः हम सब भाग्यशाली हैं और फिर 'तेरापंथ' के युवाचार्य के रूप में महाप्रज्ञ को पाकर हम और अधिक धन्य हो उठे हैं । युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी की यह एक ऐतिहासिक देन है। यह एक ऐसी देन है, जिससे युग-संदर्भ में जहाँ कई भविष्यवाणियां धराशायी हो उठी हैं तो कई पुनर्जीवित हो उठी हैं, जो जैन-दर्शन को नित्य नवीन उन्मेषों, प्रयोगों एवं विचारों से प्लावित करती रहेगी और न सिर्फ जैन वरन समूचे आध्यात्मिक नेतृत्व को नये आयाम प्रदान करेगी। ४०४ तुलसी-प्रज्ञा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ: पहले और बाद में - साध्वी कमलधी नवीनताओं से भरा इतिहास ही आने वाले युग के लिए एक अपना आकर्षण छोड़ जाता है, लेकिन वहीं वर्तमान में कोई आकर्षण और आश्चर्य शून्य भी नहीं होता । समान जीवनक्रम में तरतमता ऐतिहासिक आश्चर्य नहीं है, किन्तु पूर्वापर अकल्पित घटनाएं अगणित चेतनाओं का चित्तरंजन करती हैं । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ बाल्य काल के जीवन से लेकर अपने विद्यार्थी जीवन तक ही सीधे, सरल एवं निजीय सुविधाओं से अनभिज्ञ, अवश्य ही समतायोगी थे । किन्तु औरों की दृष्टि में तथा स्वयं के अनुभव में वे एक भोली प्रतिमा ही माने जायेंगे । पर आज उनके पाण्डित्य पूर्ण विचार, चिन्तन व साधना से सारे बाल, युवक और वृद्ध जो अनायास आकृष्ट हो रहे हैं या यों कहूं कि आचार्य पद के मांगल्य-सूचक युवाचार्यत्व की घोषणा से जो सभी लोग भाव-विभोर हो रहे हैं, वह जन-जन की संभावना में नवप्रभात का सूचक है । 1 टमकोर एक छोटा-सा रेतीला गांव है। वहां वृक्ष - पौधे बहुत कम हैं । कटीली झाड़ियाँ एवं कई जंगली तर ही खड़े दिखाई देते हैं, किन्तु आज वहाँ एक कल्पवृक्ष ऊगा है । जिसके विकास क्रम को प्रारम्भ से लेकर आज तक लोगों ने देखा है और विकास का यह क्रम अपनी पराकाष्ठा को अवश्य प्राप्त होगा । जिन्होंने आचार्य प्रवर द्वारा सिञ्चन, रक्षण एवं सजीव प्रेरणाओं को प्राप्त कर स्वयं की योगनिष्ठा तथा प्रतिष्ठा का आकलन किया है। ऐसे आचार्य को पाकर कौन नहीं संभावनाओं की नई चमक, नई ऊर्जा के लिए गौरवान्वित होगा । कौन नहीं जीवन दिशा की ऊर्ध्वगामी ज्योतिधारा पाकर उनके प्रति आभार पूर्ण बनेगा ? युवाचार्यश्री न केवल बौद्धिक चिन्तक वर्ग के लिए दार्शनिक और चिन्तक ही हैं, किन्तु व्यवहार मधुरता, विनय आचरण तो उन्हें और भी अधिक प्रिय हैं । मेरी संसार पक्षीय ज्येष्ठ मातुश्री साध्वी श्री बालुजी ( युवाचार्य श्री की संसार पक्षीय माताजी ) कहा करती थीं कि तुम्हारे बड़े पिता (श्री तोलामल जी चोरड़िया) के स्वर्गवास होने के पश्चात् वे अपने चाचा ( पन्नालालजी चोरड़िया) के पास ही अधिक रहते थे । इनके चाचा इनकी विनम्रता से इतने प्रभावित थे कि संसार की सम्पूर्ण विलासिता को लाँघकर स्वयं युवाचार्य श्री के साथ दीक्षित भी होना चाहते थे । उनका विश्वास था कि ऐसा पुत्र ही ताण कर सकता है । फिर न जाने मेरा इस दुनिया में कौन होगा ? पर नियति से विवश जी तोड़कर खण्ड ४, अंक ७-८ ४०५ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी वे दीक्षित न हो सके । परिवार के सात निकटतम व्यक्तियों की दीक्षाओं में युवाचार्य श्री ने ही प्रथम शुभारम्भ किया। श्री कालूगणी के लाडले और आचार्य श्री तुलसी के अत्यंत स्नेहिल विद्यार्थी के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में आज हमारे सामने प्रस्तुत हैं । शान्त स्वभाव और मृदुता से कोई भी गुरु का स्नेह भाजन हो सकता है, पर अध्यात्म योग-रमण की गहनता पाना विरलविरल और अतीव विरलता का सूचक है। ___ मैं १२ वर्ष की उम्र में प्रथम बार ही टमकोर गई, मेरा जी ऊब गया था। मात्र रेतीले टीले और उनके बीच बसा हुआ भव्य भवनों का एक छोटा-सा ग्राम । जहाँ न स्कूल की, न नल की, न बिजली की और न यातायात की, कोई सुविधा थी। काश ! वहाँ आचार्य प्रवर और युवाचार्यश्री का पदार्पण न होता तो घोर घुटन के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं आता । क्योंकि मनोरंजन व सापेक्ष-सुविधा सामग्री का भी बाजार वहाँ देखने को न मिलता था । युवाचार्यश्री वहाँ जन्मे और शिक्षा-साधना के अभाव में भी होन-हारिता उनके साथ जनमी, जिसकी परख दिव्य दृष्टि वाले सन्तों ने ही की। परिवार के सुकुमार लाड़ले, अपनी मां श्री बालुजी के एकमात्र आँखों के तारे, कैसे उन्हें सन्तों की प्रेरणा भाती। किन्तु विश्व का भी सौभाग्य वहाँ अडिग प्रहरी बनकर खड़ा था। परिवार वाले, ६ वर्ष की अवस्था में ही शादी-सम्बन्ध की धुन में लगे हुए थे, किन्तु सबके सौभाग्य को जगाने, उनकी आत्मा के देवता ने उन्हें प्रतिबोध दिया। मुनि श्री छबील जी स्वामी का अथक प्रयास सफल हुआ। तदनन्तर, अपनी मां श्री बालु जी के साथ पूज्य श्री कालूगणी के कर-कमलों में १० वर्ष की लघुवय में मुनि व्रज्या उन्होंने स्वीकार की। कुछ समय बाद उनकी बहिन श्री मालुजी ने भी सन्यास ले लिया। आज भी उनका जन्म-भवन, एक विशाल मकान, उसके सुन्दर चित्र, अनेक विध सामग्री उनके अपार वैभव की निशानी की सूचक है। लगता है उस समय पूरे टमकोर में उनका ही वैभव अद्वितीय था। घर में ऊँट, घोड़े, अनेक गो, महिष व्रज रहे होंगे, क्योंकि उनके गहने व अन्य संघात, इन बातों का परिचायक है। ४ भाइयों के परिवार में २ भाइयों के (साध्वी प्रमुखाश्री जी के नाना--श्री गोपीचन्द जी चोरडिया साध्वी श्री मोहना जी के पिता श्री बालचन्दजी चोरडिया) के मकान अलग थे। उनके सबसे छोटे चाचा पन्नालालजी तथा उनके पिता श्री तोलामल जी एक ही मकान में सम्मिलित रूप में रहते थे। अस्तु, निकट अतीत तक उनका अपना प्रिय नाम मुनि श्री नथमलजी था । आचार्य श्री तुलसी ने, उसके साथ महाप्रज्ञ एक निष्पन्न विशेषण दिया, किन्तु आज तो विशेषताओं से भरा, उनका अपना नाम ही महाप्रज्ञ घोषित हो गया।। यह सब आपकी योग-विद्या के करिश्मों का सूचक है। आत्मा को छूने वाली अनेक अभिव्यक्तियों का भेद मंत्र है । और पूर्वापर जीवन की अकल्पित विभिन्न निर्मितियों के एकीकरण का फलित है । आज अपना परिचय वे स्वयं दे रहे हैं। उनका साहित्य उनके शिविर संचालन, उनके गहन दर्शन पूर्ण वक्तव्य दे रहे हैं। भारत के विवेकानन्द के रूप में मनीषियों ने जिनको परखा है। श्री कृष्ण के अर्जुन की तरह जिनको आचार्य श्री ने अपने [शेष पृष्ठ ४१० पर] ४०६ तुलसी-प्रज्ञा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्यश्री का अभिनन्दन --उपाध्यायश्री अमरमुनि क्रान्तदर्शी महामनीषी मुनिश्री नथमलजी को जब “महाप्रज्ञ" पद से अलंकृत किया गया था, तो हर सहृदयों के हृदय सरोवर में प्रसन्नता की तरंग नाचने लगी थी। और अब जब कि उन्हें भावी आचार्य के रूप में युवाचार्य पद से अभिषिक्त किया गया, तो अन्तर्मन आनन्द की हजारों-हजार उच्छल लहरों से अभितो व्याप्त हो गया। मुनिश्री प्रज्ञा की ज्योतिर्मयी सजीव मूर्ति हैं। उनका सरल, स्वच्छ, सहज, सद्व्यवहार हर किसी सहृदय के हृदय को सहसा आप्यायित कर देता है । उनका व्यापक अध्ययन एवं सूक्ष्म दार्शनिक चिन्तन कठिन से कठिन, दुर्धर, गंभीर विषय को भी अन्तस्तल तक स्पर्श करता है। प्राचीन आगमों के सम्पादन में उन्हें अनेकत्र मुकामन से सत्य का अनुसरण करते पाया है, जो सम्प्रदाय विशेष से परिबद्ध व्यक्ति के लिए प्रायः असंभव ही होता है। आत्मप्रिय मुनिश्री से मेरा परिचय लगभग २१ वर्ष पुराना है। आगरा के प्रथम मिलन में ही मुझे उन्होंने स्नेहाकृष्ट किया था। तभी मैंने उनके चिन्तन में क्रान्ति के स्फुलिंग विकीर्ण होते देखे थे, जो अब बहुत कुछ ज्वाला ही नहीं, निधूम प्रज्वाला बन गए हैं । सत्य को बेलाग स्वीकार करने में अनेक बार वे सर्वथा बेदाग सिद्ध हुए हैं। प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं पर मुनिश्री की अव्याहत साधिकार गति है । तद्-तद् भाषाओं में उनकी अनेक रचनाएं जहाँ लोकप्रिय हुई हैं, वहाँ विद्वत्प्रिय भी हैं । वे संस्कृत के आशुकवि भी हैं । आगरा की एक सभा में सभा के तत्कालीन भव्य दृश्य को उन्होंने संस्कृत छन्दों में जब आशुरचना का रूप दिया, तो हम सब प्रतिभा के इस अद्भुत चमत्कार से मंत्रमुग्ध हो गये थे। यथाप्रसंग मुनिश्री ने अपनी अनेक साहित्यिक कृतियों पर मेरे अभिमत लिए हैं और मैंने प्रशंसामुखर शब्दावली में योग्य अभिमत दिये हैं। यह कोई लोकव्यवहार के नाते औपचारिक रूप में सतही तौर पर नहीं होता रहा है । मुनिश्री की बहुत कुछ बातें मुझे अच्छी लगी हैं, और मैंने खुले निर्व्याज मन से उनका अभिनन्दन किया है । यद्यपि मेरे कुछ कट्टर साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के साथियों को यह पसंद नहीं होता था, परन्तु सत्य को दूसरों की पसंदगी या नापसंदगी से कुछ लेना-देना नहीं है । सत्य का मूलाधार तो एक मात्र अपनी स्वानुभूति से प्रस्फुरित सहज अभिरोचना है । यही हेतु है, कि साम्प्रदायिक द्वन्द्वों के कटु वातावरण में भी मेरी और मुनिश्री की पारस्परिक आत्मीयता की निष्कलुष स्नेह धारा अबाध गति से निकास पथ पर अग्रसर होती जा रही है। आचार्यप्रवर श्री तुलसीजी ने युवाचार्य के रूप में योग्य पद पर योग्य मुनि का चयन किया है, एतदर्थ शत-शत साधुवाद । यह चयन केवल तेरापंथ सम्प्रदाय के हित में ही नहीं, समग्र जैन समाज के हित में फलप्रद होगा, ऐसा मुझे उनके निरंतर उज्जवल होते जाते भविष्य पर से प्रतिभाषित होता है । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं मुनिश्री जी के साथ हैं। खण्ड ४, अंक ७-८ ४०७ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द व भाव के अमर शिल्पी : संस्कार-निष्पन्न मनीषी एवं प्रबुद्ध साधक : युवाचार्य महाप्रज्ञ -~-डॉ. छगनलाल शास्त्री युवाचार्य महाप्रज्ञ (मुनि श्री नथमलजी) एक दिव्य संस्कारी मनीषी हैं, यह मेरे मन पर सबसे पहले तब प्रभाव पड़ा, जब मैं लगभग ३५ वर्ष पूर्व पहले पहल उनके सम्पर्क में आया । उनका वैदुष्य आज हम जिस निखार पर देख रहे हैं, उसके मूल बीज तब भी व्यक्त-अव्यक्त रूप में उनकी वाणी, विवेचन और विश्लेषण में समय-समय पर प्रस्फुटित होते दृष्टिगोचर होते थे। सहज सौम्यता, सहृदयता और सरलता उनके व्यक्तित्व का जन्मजात गुण है, तभी से मैं यह अनुभव करता रहा हूं। __ तेरापंथ में एक प्रबुद्ध लेखक के रूप में युवाचार्य महाप्रज्ञ का अपना गौरवपूर्ण स्थान है। जैन तत्त्व दर्शन को आज की भाषा व समीक्षात्मक शैली में प्रस्तुत करने का अभिप्रेत लिए उन्होंने अपनी लेखनी उठाई, फलतः 'जैन दर्शन के मौलि तत्त्व', 'अहिंसा तत्व दर्शन' जैसे अनेक ग्रन्थ विद्वज्जगत् के समक्ष आए, जिनका प्रकाशन आदर्श साहित्य संघ द्वारा हुआ। इस सन्दर्भ में मुझे इस महान् मनीषी द्वारा लिखे गए सहस्रों पृष्ठों की सामग्री का संकलन तथा प्रबन्ध संपादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । उनकी कृतियों को देखते ही यह स्पष्ट आभासित होता है कि वे केवल अधीत विद्या के धनी ही नहीं हैं, प्रत्यग्र क्षयोपशम की विराट् निधि उन्हें समुपलब्ध है। आचार्यश्री तुलसी की पूना-यात्रा का प्रसंग एक ऐसा ऐतिहासिक प्रसंग है, जब भांडारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट, तिलक विद्यापीठ, संस्कृत वाग्वधिनी सभा, डेक्कन कॉलेज आदि राष्ट्रविश्रुत विद्या-केन्द्रों में युवाचार्य महाप्रज्ञ के संस्कृत में भाषण तथा आशुकवित्व के जो प्रेरक प्रसंग बने, दक्षिण की काशी पूना नगरी के विद्वान् हर्ष विभोर हो उठे। पूना के अपने मित्र श्री ए० वी० आचार्य को मैं इस प्रसंग पर नहीं भूल सकता, जिनका हमारे कार्य में हार्दिक योगदान रहा। पूना की उस पहली यात्रा में आचार्यश्री तुलसी केवल नौ दिन ठहरे, लगभग सत्ताईस गोष्ठियों का आयोजन हुआ। विद्या-क्षेत्र पूना में समायोजित इन महत्त्वपूर्ण कार्यों को दृष्टि में रख आचार्यश्री ने कहा था-बंबई के नौ मास और पूना के केवल नौ दिन उनसे कम नहीं हैं। महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध दैनिक 'सकाल' के मुखपृष्ठ पर तुलसी-प्रज्ञा ४०८ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रज्ञ का आशु कविता करते हुए चित्र छपा। उस दुर्लभ चित्र को मैंने अपने पास आज भी सुरक्षित रख छोड़ा है। युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ की विद्यागरिमा पूना के माध्यम से सारे दक्षिण में परिव्याप्त हो गई। विश्वविख्यात विद्यानगरी काशी का वह प्रसंग भी मैं नहीं भूल सकता, जब आचार्यश्री तुलसी अपनी कलकत्ता-यात्रा के बीच वहां रुके थे। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ तथा स्याद्वाद् महाविद्यालय आदि विद्या-केन्द्रों में महत्त्वपूर्ण विद्वत्सभाओं के समायोजन हुए। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय और हिन्दू विश्वविद्यालय के समारोह तो सदा स्मरणीय रहेंगे। भारतीय दर्शन, जैन तत्त्वज्ञान आदि विषयों पर संस्कृत और हिन्दी में युवाचार्य महाप्रज्ञ के जो भाषण हुए, वे वैदुष्य और गहन अध्ययन की दृष्टि से एतिहासिक थे। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत में कार्यक्रम चल रहा था। सायंकाल हो गया। साधुओं के प्रतिक्रमण की वेला थी। विद्वान् इतने विमुग्ध थे कि कार्यक्रम का अवरोध नहीं चाहते थे, अतः आचार्यश्री ने तत्काल साधुओं के वहीं रात्रि-प्रवास का निर्णय लिया और प्रतिक्रमण के पश्चात् पुनः कार्यक्रम चालू करवाया। घंटों कार्यक्रम चलता रहा--सब संस्कृत में। संस्कृत में आशुकवित्व का कार्यक्रम पूना की तरह यहां भी बड़ा चामत्कारिक रहा । विद्वानों की बड़ी सुखद प्रतिक्रिया रही और अनुशंसा भी की आचार्यवर ने कितना ऊंचा मनीषी तैयार किया है। विद्याभूमि काशी में युवाचार्य महाप्रज्ञ और उनकी प्रतिभा की सर्वत्र ख्याति हुई। __ एक वरिष्ठ विद्वान् तथा चिन्तक के अतिरिक्त युवाचार्य महाप्रज्ञ का जो साधक का रूप है, वह अत्यन्त ही प्रेरक तथा उद्बोधक है । आज तो वे प्रेक्षाध्यान के माध्यम से साधना के क्षेत्र में एक अभिनव उद्योत दे ही रहे हैं, वर्षों पूर्व भी उनका जीवन इतना बहिनिरपेक्ष तथा अन्तः सापेक्ष रहा है कि उनको देखते ही यह अनुभूत होता था कि इस साधक के जीवन के कण-कण में अहिंसा और संयम की परिव्याप्ति है । युवाचार्य महाप्रज्ञ प्राय: अपने गुरुवर्य आचार्यश्री तुलसी के सान्निध्य में ही रहते आए हैं, पर चिकित्सा आदि की दृष्टि से कई ऐसे अवसर आए हैं, जब वे अपने साथी श्रमणों के साथ अलग भी रहे हैं। इन सभी प्रसंगों में मुझे उनके साथ रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। भिवानी, कांकरोली, राजसमंद तथा सोजत रोड़ आदि में उनकी चिकित्सा की दृष्टि से प्रवास हुआ। मैं और मेरे साथी वहीं थे। घंटों उनके सान्निध्य पाने के सुअवसर मिलते। उनकी उदात्त मनोवृत्ति और उच्च भावना से हम विमोहित हो जाते । एक सहज निश्छल मानव के रूप में युवाचार्य अपनी कोटि के असाधारण हैं। कांकरोली एवं राजसमंद में उनकी चिकित्सा मेरे मित्र वैद्य पं० मिश्रीलाल दवे आयुर्वेदाचार्य करते थे। श्री दवे एक सरलचेता भद्र व्यक्ति हैं। उस समय युवाचार्य के सान्निध्य में बैठने के विशेष प्रसंग बनते ही रहते थे। श्री दवे और हम आपस में कहतेतेरापंथ संघ के ये इतने मान्य और विद्वान् सन्त कैसी बाल सुलभ भद्रता लिए हुए हैं। खण्ड ४, अंक ७-८ ४०६ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये युवाचार्य महाप्रज्ञ के जीवन के पूर्वार्द्ध के थोड़े से प्रसंग हैं । जो कुछ वे आज हैं, उसके बीज उनके पूर्ववर्ती जीवन में अनुस्यूत थे, चाहे दीखते न हों । आचार्यश्री तुलसी तो एक द्रष्टा हैं । उन्हें तब भी यह सब दीखता था, जिसकी अभिव्यंजना उन्होंने महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी को अपना उत्तराधिकारी, तेरापंथ के भावी दशम आचार्य घोषित करके अब का है । एक महिमा महीयान् संघाधिनायक के वरीयान् अन्तेवासी के कन्धों पर धर्मशासन का गरीयान् दायित्व आया है । अध्यात्म जगत् को अनेक आशाएँ हैं । --:: [ पृष्ठ ४०६ का शेषांश ] ज्योतिपुंज की ऊर्जा प्रदान की है । उसका विस्तार जन-जन के मन में और अखिल विद्वानों के परिचय में है । आश्चर्य का विषय है, जब उनके व आचार्य प्रवर के मुंह से उनके सबसे कमजोर रहने वाले विद्यार्थी जीवन के संस्मरण सुनते हैं । आई स्टीन, और वाशिंगटन की तरह कभी विकास की एक रेखा भी प्रस्फुटित कर अपने अध्यापक मुनि तुलसी ( आचार्य श्री तुलसी) को शायद उस समय थोड़ा भी सन्तोष जन्य विश्वास नहीं दिया । पर विनय समर्पण और प्रेक्षा जन्य प्रतिभा से आज उन्होंने आचार्य श्री को भी इस नियुक्ति के लिए उद्यत कर दिया । इतिहास की यह आश्चर्य कारिता, विश्व युगों-युगों तक गाता रहेगा । ४१० तुलसी- प्रज्ञा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन ! अभिनन्दन! ___ आज हर्ष न समाय छाई रंगरेलीजी, खिली कली-कली-कली भारी खबर मिली जी आज हर्ष न समाय मौका देख के मनोहर, तुलसी प्रभु के पट्टोधर अपना कर दिया है जाहिर ॥आज०॥ महाप्रज्ञजी है नाम, जिनकी विद्वत्ता प्रकाम लोक जानते तमाम ॥आज०।। बड़ा भारी काम था, प्रश्न ग्रामो ग्राम था फिक्र आठों याम था ॥आज०॥ आज फिक्र मिट गया, सबका प्रश्न हट गया अच्छा सौदा पट गया ॥आज०॥ चिरंजीवो गणिराज, सेवा करो युवराज कहें मुनि धनराज ॥आज०॥ शासन फलो और फूलो, सारे खुशियों में झूलो दुःख-दर्द सब भूलो ॥आज०॥ नन्दन वन के समान, गण है सुख का निधान मजे लूटो जी महान् ॥आज०॥ (लयः पूरी गाई नहीं जाती महिमा गुरुदेव की) -मुनि धनराज महामहिम आचार्यदेव ! आप मेरी ओर से शत-शत बधाइयाँ स्वीकार करें। आपने उचित समय पर उचित काम किया है । अपने उत्तराधिकारी का नाम घोषित कर आप ऋण-मुक्त बने हो। युवाचार्य प्रवर श्री महाप्रज्ञ महोदय का भी मैं हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। यदि किञ्चित् भी आभास हमें मिला होता तो हम भी इस अदृष्ट पूर्व समारोह के अवश्य साक्षी बनते । आप श्री प्रतिपद ऋद्धि-वृद्धि-विजय-सिद्धि-प्रेम-आरोग्य को प्राप्त करते हुए जैन-शासन की श्री पर चार चाँद लगाएं। इसी शुभाशंसा के साथ । -मुनि चन्दनमल खण्ड ४, अंक ७-८ ४११ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त समाचारों से ज्ञात हुआ है कि मर्यादा महोत्सव के दिन परमाराध्य आचार्यप्रवर ने महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी को युवाचार्य पद प्रदान करवाया है। काश ! हम भी इस मंगल दृश्य को अपनी आँखों से देख पाते । प्रत्यक्षतः आचार्यप्रवर एवं युवाचार्यश्री के चरणों में अपनी भावाञ्जलि अर्पित करता । इस मंगल अवसर पर सबसे पहले मैं परमाराध्य परम पिता आचार्यश्री के चरणों में हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं। जिन्होंने भावी आचार्य की नियुक्ति करके संघ को निश्चिन्त बना दिया। स्वयं भी कृत्यकृत्य बन गए और संघ को भी कृत्यकृत्य बना दिया। इस पावन प्रसंग पर युवाचार्यश्री के प्रति यही मंगल कामना करता हूँ कि आपश्री का तेजस्वी जीवन धर्मसंघ को और अधिक तेजस्वी बनाए। आपकी प्रखर साधना धार्मिक जगत् को प्रभावित करने वाली सिद्ध हो। परमाराध्य, परम पिता आचार्य प्रवर और युवाचार्य प्रवर की यह समर्थ जोड़ी युगों-युगों तक संघ को नेतृत्व प्रदान करती रहे। मुनि सुमेरमल (लाडनू) गुरुदेव का यह निर्णय जनमत, संघमत और जैनेतरमत-तीनों के एकमत का निर्णय है । सबकी जयध्वनि निकल रही है । आचार्य प्रवर ने यह एक अद्भुत कार्य सम्पन्न किया है, जिसकी खुशी सबके दिल पर छाई है । सारी दृष्टियों से आचार्यश्री ने बड़ा सुन्दर कार्य किया है और संघ में चार चाँद लगाये हैं। युवाचार्य जी सदैव गुरुदेव के साथ रहे हैं। गुरुदेव ने ही उन्हें शिक्षा प्रदान की है। इस महावृक्ष को गुरुदेव ने ही लगाया है और उन्होंने ही अपने हाथों से सिञ्चित किया है । गुरुदेव ने संघनायक के रूप में आपको प्रस्तुत किया, इसके लिए हम सब कृतज्ञ हैं। माघ शुक्ल सप्तमी सखर, युव पद दोनों ईश। नक्र भूषण, नव निष वरो, दे संतदास आशीष ।। -मुनि जीवनमल, मुनि मुलतानमल आचार्यश्री तुलसी ने एक ऐसी स्वस्थ चेतना के हाथों में संघ की बागडोर सौंपी है, जो स्वबोध के आलोक से जगमगा उठी है। -- साध्वी राजीमती स्थानांग सूत्र में गण-धारण और उसके संचालन हेतु जिन छह विशिष्ट गुणों का उल्लेख मिलता है, युवाचार्यश्री के जीवन में उन सभी गुणों का समन्वय है। ये आचार्यश्री के अमूर्त भावों को मूर्तरूप देने में अत्यन्त कुशल हैं। आचार्य प्रवर के मंगल स्वप्न अब और भी शीघ्रता से ठोस रूप ग्रहण करेंगे । ___-- मुनि राकेश कुमार इस गरिमामय उत्तरदायित्व की प्राप्ति पर शत-शत शुभकामनाएँ। आपका मंगल नेतृत्व तेरापंथ धर्मसंघ का युग-युग तक योग-क्षम करता रहे, इसी शुभेच्छा के साथ । - मुनि डूंगरमल ४१२ तुलसी-प्रज्ञा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री नथमल जी हिन्दी, संस्कृत आदि भाषाओं के विद्वान हैं और इन्हें युवा आचार्यश्री महाप्रज्ञ के नाम से संबोधित किया जाएगा, यह इनकी विद्वता और पांडित्य के अनुरूप होगा। __ आशा है, श्री नथमलजी समाज में मानवता और समानता का प्रचार करने का प्रयास करते रहेंगे। जगजीवनराम उप प्रधानमंत्री भारत सरकार योग्य गुरु ने योग्य शिष्य की क्षमता को स्नेहपूर्ण सम्मान प्रदान किया है। इससे तेरापंथी धर्मसंघ और भी अधिक विकासोन्मुख बनेगा । सादर अभिवादन भेरूलाल शेखावत मुख्य मंत्री, राजस्थान मुनिश्री नथमलजी तेरापंथ धर्मसंघ के दसवें आचार्य हो गए हैं, यह जानकर प्रसन्नता हुई । ये आचार्यश्री तुलसी के अणुव्रत कार्यक्रम को और गतिशील बनाकर समाज में उनके सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने में अपना बहुमूल्य योगदान देंगे, इसी भावना के साथ मैं सम्पूर्ण श्रद्धा सहित अपना सद्भाव प्रेषित करता हूँ। ललित किशोर चतुर्वेदी सिंचाई एवं विद्युत् मंत्री (राज० सरकार) महाप्रज्ञ श्रद्धय मुनि नथमलजी. एक प्रसिद्ध दार्शनिक, चिन्तक, विचारक और लेखक हैं। इनकी रचनाओं ने जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति को नए आयाम दिए हैं। इनकी चिन्तना जितनी मौलिक हैं उतनी ही प्रामाणिक, गुढ़ और शास्त्र-सम्मत । ये सचमुच महाप्रज्ञ हैं। __कल्याणमल लोढ़ा अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय मुनि नथमलजी आचार्य तुलसी के उत्तराधिकारी बने, यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई । योग्य व्यक्ति का योग्य सम्मान हुआ है। मेरा विश्वास है कि मुनिश्री नथमलजी के नेतृत्व में जैन धर्म और समाज की उन्नति और प्रगति होगी। -चिमनलाल सो० शाह सोलिसिटर, बम्बई मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई है कि मुनिश्री नथमलजी को आचार्य महाराज श्री तुलसी ने अपने अन्तेवासी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है। मेरी हजारों वन्दना। --- कस्तूर भाई लालभाई, अहमदाबाद खण्ड ४, अंक ७-८ ४१३ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री नथमलजी की तपस्या, विद्वता और व्रत-धर्म निष्ठा अद्भुत गिनी जाएगी। साथ-साथ उनकी विवेक-विराग भावना भी इतनी गहरी है कि न केवल तेरापंथ को अपितु वे समग्र जैन जगत् को, इतना ही नहीं, समूचे भारतीय संस्कृति को मार्ग-दर्शन करने में हमेशा अग्रसर रहेंगे। हमारे तत्त्वज्ञान मंदिर संस्था की तरफ से तथा व्यक्तिगत रूप में आचार्यश्री नथमलजी को शत-शत प्रणाम के साथ बधाई देता हूँ। -शिवाजी न भावे युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी अगाध ज्ञानी हैं और साथ ही उनका ज्ञान उनके जीवन में घुल-मिल गया है । उनका मन सरल एवं निर्मल है । सबसे बड़ी बात है कि बुद्धि का उनके मन पर कोई भार नहीं है। मेरी शत-शत बधाई । जैनेन्द्र कुमार दिल्ली युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने मुनिश्री नथमल जी को युवाचार्य का दायित्व देने की घोषणा करके एक महान् निर्णय लिया है। यह जैन समाज का गौरव है कि मुनिश्री नथमल जी जैसा एक दार्शनिक सन्त आचार्यश्री के नेतृत्व में प्राप्त हुआ। जिस दायित्व एवं अलंकार से आचार्यश्री ने मुनिश्री को अलंकृत किया है, उससे सभी को प्रसन्नता हुई है। इस अवसर पर मैं आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री, दोनों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूं। -अक्षयकुमार जैन, दिल्ली युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ! श्रद्धय आचार्यश्री तुलसी ने इस बार मर्यादा महोत्सव के पावन अवसर पर जो दायित्व सौंपा है, उसका विवरण विज्ञप्तियों में पढ़कर मन विभोर हो उठा। उसके लिए आचार्यश्री को हार्दिक साधुवाद और आपको आन्तरिक बधाई। धर्मसंघ की मर्यादा को आचार्यश्री ने जिस प्रकार समृद्ध और समुज्ज्वल किया है, वह निस्संदेह सराहनीय है। मुझे पूरा विश्वास है कि वह परम्परा भविष्य में और भी अधिक उज्ज्वल बनेगी। यशपाल जैन सम्पादक, जीवन-साहित्य, दिल्ली आचार्यश्री ने अपने जीवन के एक सर्वोपरि उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को बड़ी निपुणता से सम्पन्न किया, यह शासन के बड़े सौभाग्य की बात है। 'महाप्रज्ञ' आचार्य भारीमाल जी की तरह 'परमभक्त' की श्रेणी के पुरुष हैं। जयाचार्य ने स्वामी जी की वाणी को मुखरित किया, महाप्रज्ञ' आचार्यश्री के इगित-आकार-विचार और वाणी के अद्वितीय आद्रता और व्याख्याकार रहे हैं । वे आचार्यश्री के 'महादेव' हैं । आचार्यश्री के चुनाव के लिए क्या बधाई दूं? अपने प्रतिबिम्ब को अपना उत्तराधिकारी बनाकर ४१४ तुलसी-प्रज्ञा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य - प्रवर ने एक बहुत ही दूरदर्शितापूर्ण कार्य ही नहीं किया है, पर भारत-भूमि और दार्शनिक जगत् को एक अनुपम उपहार दिया है । - श्रीचन्द रामपुरिया - कुलपति, जैन विश्व भारती, लाडनूं जैन विद्या के प्रचार-प्रसार की जो धारा आचार्य प्रवर की प्रेरणा और सान्निध्य में प्रवाहित हुई है, निश्चित ही अब वह निरन्तर गतिमान होती रहेगी । भारतीय धर्म और विद्या के क्ष ेत्र में तेरापंथ का यह बौद्धिक अनुदान हमेशा स्मरण रहेगा । - प्रेम सुमन जैन उदयपुर विश्वविद्यालय मुनिश्री नथमल जी आचार्यश्री के उत्तराधिकारी होंगे - यह मेरी अन्तरात्मा बहुत वर्षों पहले कह चुकी थी । वह आज प्रत्यक्ष हुआ । आशा ही नहीं, युवाचार्यश्री के सान्निध्य में संघ का काम बहुत बढ़ेगा । पूर्ण विश्वास है कि ---- नागरमल सहल रीडर, जोधपुर विश्वविद्यालय युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ की विद्वत्ता, शालीनता और सृजन क्षमता से सभी परिचित हैं । उनका साहित्य उनके उदात्त और सुलझे विचारों का प्रमाण है । विश्वास करना चाहिए कि उनके नेतृत्व में अणुव्रत आन्दोलन नये आयामों की खोज करता हुआ निरन्तर प्रगति के मार्ग पर बढ़ता जायेगा । - विष्णु प्रभाकर आचार्य प्रवर ने महाप्रज्ञश्री को सर्वथा उपयुक्त समय पर उपयुक्त पद पर मनोनीत कर संघ पर महान उपकार किया है। आचार्यश्री ने एक देदीप्यमान रत्न को शत गुणी आभा से मंडित कर समूचे संघ को आलोक प्रदान किया है और साथ-साथ विश्व के एक प्रख्यात दार्शनिक को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर जैन दर्शन को विश्वव्यापी बनाने के मार्ग को भी सहज प्रशस्त बना दिया है । - महेन्द्र जैन, जयपुर अभिनन्दनीय हैं हमारे परमाराध्य आचार्यप्रवर की यह दूरदर्शिता कि उन्होंने अपने पद की पवित्र गरिमा अनुरूप वैसे श्रमणवर्य का चयन कर संघ-संपदा का समग्र उत्तराधिकार, तदनुरूप क्षमता व योग्यता के धनी मुनि पुंगव को प्रदान कर, धर्म-शासन के भावी नेतृत्व के महत्त्वपूर्ण प्रश्न को समाहित कर सबके मन में आनन्द का अजस्र स्रोत प्रवाहित कर दिया । खण्ड ४, अंक ७-८ ४१५ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री की सुदीर्घ सयम एव श्रुत साधना, प्रकृति - शालीनता, बड़ों के प्रति विनम्रता का भाव, छोटों के प्रति वात्सल्य, उत्कृष्ट कोटि के तत्त्ववेत्ता एवं मर्मज्ञ विद्वान् के रूप में अनेकानेक विशेषताओं के धनी, जो कि अब तक हमें केवल एक मुनि के रूप में ही प्राप्त थे, अब हमें सम्मान्य युवाचार्य के रूप में प्राप्त हैं । पदाभिषेक के इस पुनीत क्षण में, उनका अत्यन्त समर्पित एवं विनम्र भाव से वन्दन करता हूँ । - मोतीलाल रांका, सुधरी, मारवाड़ उपाध्यक्ष, अ० भा० अणुव्रत समिति तेरापंथ की प्रगतिशील ऐतिहासिक घड़ियों में इतिहास पुरुष आचार्यश्री तुलसी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी का चयन कर इतिहास को और afar गौरवान्वित किया है । हमारा अपना सौभाग्य है कि मुनिश्री नथमल जी के रूप में महाप्रज्ञ एवं युवाचार्य दोनों एक साथ प्राप्त हुए हैं । युग की परिवर्तनशील परिस्थितियों में युग पुरुष का यह ऐतिहासिक निर्णय युग-युग तक संस्मरणीय रहेगा । - श्री देवेन्द्रकुमार कर्णावट, भू० पू० महामंत्री अखिल भारतीय अणुव्रत समिति आचार्यश्री एवं युवाचार्य के चरणों में कोटि-कोटि अभिवन्दन । गुरुदेव ने अति अनुग्रह कर युवाचार्य की घोषणा कर संघ की आशा पूर्ण की, अतः अति आभारी हैं। आचार्यश्री के निर्देशानुसार संघ के सर्वाङ्गीण उत्कर्ष के गौरवमय कार्य में युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ पूर्ण सफल हों, यही हार्दिक कामना है । ४१६ -श्री नेमचन्द जो गधइया, सरदारशहर, भू० पू० अध्यक्ष -- जैन श्वे० ते ० महासभा आचार्यश्री के इस निर्णय का कलकत्ता में करके आचार्यप्रवर एवं युवाचार्यश्री तक मेरी शत-शत बधाई पहुंचाए । सर्वत्र स्वागत किया गया है । आप कृपा तिलोकचन्द डागा, कलकत्ता गण जी का यह चयन अत्यन्त सुन्दर है और जैन परम्परा के सामने एक उत्कृष्ट उदाहरण उपस्थित करता है । मुनि नथमल जी जैसा चिन्तक विचारक और लेखक शास्त्रज्ञ विद्वान् किसी संघ को बड़े सौभाग्य से मिलता है । गणिजी ने तेरापंथ के लिये जो कुछ किया है, वह मेरे सामने है । मुनि नथमल जी से उसमें और भी वृद्धि होने की पूर्ण आशा है । ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में त्यागमार्ग के पथिकों की यह परम्परा सदा समाहत होगी । पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री सम्पादक जैन सन्देश, वाराणसी तुलसी- प्रज्ञा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के अधिशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने अपने लब्धप्रतिष्ठ अन्तेवासी महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी को ११५वें मर्यादा महोत्सव के अवसर पर अपने उत्तराधिकारी के रूप में युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया है ।... महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी गम्भीर चिन्तक, श्रेष्ठ दार्शनिक, ओजस्वी वक्ता, उच्चकोटि के लेखक, आशुकवि और आदर्श सन्त हैं। आप प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान् हैं । आपके द्वारा उच्चकोटि के विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है और आपके लगभग एक सौ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। .... ऐसे सर्वगुण सम्पन्न विद्वान् सन्त का युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किये जाने से समस्त समाज को अत्यधिक आनन्द की अनुभूति होना स्वाभाविक ही है। इस उल्लासमय अवसर पर मैं पूज्य युवाचार्यश्री नथमल जी का हार्दिक अभिनन्दन करता हूं। -प्रो० उदयचन्द्र जैन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी आचार्यश्री ने धर्मसंघ का महावटवृक्ष रोपित किया है तथा आपके मार्गदर्शन में यह संघ दिनों-दिन प्रगति पथ पर है । धर्मसंघ सदैव आपका ऋणी रहेगा। महाप्रज्ञ युवाचार्य मुनिश्री नथमल जी जैसे कर्मठ सन्त ही आपके द्वारा सौंपे गये उत्तराधिकार को संभालने में सक्षम हैं। विश्वास है उनके सान्निध्य में धर्मसंघ उत्तरोत्तर प्रगति करता रहेगा। सरदारसिंह चौरड़िया, बिरला नगर, ग्वालियर ...... मैंने पूज्य मुनिश्री को काफी नजदीक से देखा है और अनुभव किया है कि उनमें आखिल जैन समाज का ही नहीं वरन् अखिल मानवता का महामंगल स्पन्दित है । वे एक उच्चकोटि के चिन्तक हैं, उनके रूप में सुकरात ही जैसे जन्मा है; उनकी वाणी प्रश्निल होती है, इतने प्रश्न, इतने निशान और हर निशान का अपना अचूक निशाना, सच, यह कोई महाविभूति ही कर सकती है। मुझे राशि-राशि साधुवाद देने दीजिये पूज्य आचार्यश्री को जिन्होंने एक अतीव योग्य व्यक्तित्व को युग नेतृत्व सौंपा है । मुझे विश्वास है कि जिस युगाश्व की वल्गा मुनिश्री के हाथों में दी गई है, वह दिग्विजय करेगा और युगप्रवर्तक सिद्ध होगा। मैं इन क्षणों में भाव-विभोर हूँ और उन्हें प्रणाम कर रहा हूं। ... डा० नेमीचन्द जैन सम्पादक 'तीर्थंकर' इन्दौर आचार्यश्री तुलसी द्वारा सभी दृष्टियों से अपने योग्यतम शिष्य स्थिरयोगी, प्रख्यात दार्शनिक महाप्रज्ञ मुनि नथमल जी को उत्तराधिकारी मनोनित करने की जानकारी प्राप्त कर अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हुआ। आचार्यश्री की अनुपम सूझबूझ एवं दूरदशितापूर्ण इस सुखद समाचार से सारा समाज हर्ष, उल्लास और गौरव का अनुभव करता है। .-सोहनलाल कोठारी, न्यायाधीश खण्ड ४, अंक ७-८ ४१७ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वद्वर मुनिवर श्री नथमल जी की शासन-भक्ति, विलक्षण क्षमता एवं अतुलनीय विद्वत्ता जैन व जैनेतर जगत् में सदैव परिलक्षित हैं । इन्हीं सब विशेषताओं के अनुरूप ही उन्होंने इस महान् पद की प्राप्ति की है । आशा है शासन इससे शाश्वत गौरवान्वित रहेगा । विनीत बधाइयाँ | सादर अभिनन्दन । संपूर्ण समर्पण । शुभकामनाओं सहित श्रद्धानत । - शुभकरण दशानी मुनिश्री की विद्वता का मैं प्रारम्भ से ही प्रशंसक रहा हूँ। मेरा विश्वास है कि उनके आचार्यत्व में तेरापंथ धर्मसंघ निरन्तर बढ़ता जायेगा । शतशत बधाई । - श्रीकृष्ण, पराग प्रकाशन, दिल्ली —केवल चंद नाहटा पट्टशिष्य मुनिश्री प्रखर प्रतिभा के धनी हैं, अध्यात्म साहित्य के स्रष्टा हैं, अलौकिक आशुकवि हैं । संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के अधिकारी विद्वान् हैं । सर्वोपरि द्रष्टव्य है आपकी विद्वता के साथ विनय का तालमेल । सचमुच गण एवं गणी के प्रति आपका समर्पण भाव हम लोगों के लिए हृदयग्राही है और दूसरों के लिए स्पर्धा का विषय बना हुआ है। युगद्रष्टा आचार्यप्रवर द्वारा किए गए समयोचित एवं शासनानुकूल इस मनोनयन को हम साधर्मी बन्धु सहर्ष विनयपूर्वक शिरोधार्य करते हैं । — जैन श्वेताम्बर तेरापंथी श्रावक समाज जलपाईगुडी मुनिश्री की विद्वत्ता, त्याग, तपस्या एवं उदात्त मानवीय दृष्टि तेरापंथी समाज के लिए आरम्भ से ही प्रेरणा स्त्रोत रही है । आसामवासियों की हार्दिक बधाई । - जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा गोहाटी मुनिश्री का युवराज पद पर चयन कर किया है । धर्मसंघ हर क्षेत्र में और ऐसा विश्वास है । आपने संपूर्ण धर्मसंघ को गौरव प्रदान अधिक उपलब्धियों को प्राप्त कर आगे बढ़ता रहेगा, ४१८ तेरापंथ युवक परिषद कुर्ला, बम्बई यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि आचार्यश्री ने मुनि नथमल जी को युवराज घोषित किया है । यह मैं आचार्यप्रवर की महान् बुद्धिमत्ता एवं दूरदर्शिता मानता हूं । समाज में इसका बहुत स्वागत हुआ है । - शिवचन्दराय डाबड़ीवाला ――― तुलसी - प्रज्ञा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस महान् पद के लिए मुनि नथमल जी ही हर दृष्टि से उपयुक्त और सक्षम व्यक्ति हैं। इनके निर्मल व्यक्तित्व के कारण संघ का भविष्य निश्चित रूप से उज्ज्वल है। मांगीलाल वैद, सुजानगढ़ आचार्य प्रवर के इस महत्त्वपूर्ण निर्णय की जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी थोड़ी है। -पश्चिम बंग प्रादेशिक अणुव्रत समिति कलकत्ता मुनि नथमल को आचार्य तुलसी ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है । धर्मय ग परिवार की ओर से हार्दिक बधाई । -राममूर्ति उपसम्पादक, धर्मयुग मुनि नथमल जी को युवाचार्य बनाने पर मुझे इतनी प्रसन्नता हुई कि मैं उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ। तेरापंथ समाज ही नहीं, समुचा जैन समाज आचार्यश्री की दूरदृष्टि की भूरि-भूरि प्रशंसा करता है । मैं अनेक व्यक्तियों से मिलता रहा हूं। सबने इस चुनाव की बहुत प्रशंसा की है। मेरी हार्दिक बधाइयाँ । -एन० एम० दुगड़ जनरल मैनेजर, इण्डियन एक्सप्रेस, बम्बई एक आत्म-साधक व साहित्य-सर्जक के रूप में श्रमण धर्म की जो साधना व सिद्धि आपने कर दिखाई है, वह जैन धर्म व संघ को गौरवान्वित करने वाली है। आपके व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास को देखते हुए, इस सम्मान निमित्त आपको बधाई, धन्यवाद । रतिलाल दीपचन्द देसाई मुनिवर एक गहन चिंतक तथा विद्वान संत है और आचार्यवर द्वारा घोषित इस निर्णय से उनकी विद्वता व श्रेष्ठता का सम्मान हुआ है । हार्दिक अभिनन्दन । -राजेन्द्र नगावत, रतलाम युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ शासन के एक स्तम्भ के रूप में रहे हैं। इन्होंने अपनी दार्शनिक एवं साहित्यिक प्रतिभा से धर्मसंघ की श्रीवृद्धि की है। उन्हीं पर धर्मसंघ का यह महत्वपूर्ण दायित्व आ जाना एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। समस्त धर्मसंघ के लिए यह एक उपलब्धि है। -देवेन्द्र कुमार हिरण खण्ड ४, अंक ७-८ ४१६ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य मुनिश्री नथमल जी इस समय उन कुछ विरल और मूर्धन्य जैन श्रमणों में हैं, जिनकी कलम से महावीर का इस युग के सन्दर्भ में पुनरावतार हुआ है । उनका चिन्तन अनुभूत है, साक्षात्कृत है । वे योगी हैं। उनका ग्रन्थ 'सम्बोधि' इसका प्रमाण है । मैं इसे वर्तमान जिनवाणी का एक क्लासिक मानता हूँ । 'श्रमण महावीर' भी अद्भुत ग्रन्थ है । बार-बार उसे पढ़ने को जी करता है । सबसे बड़ी बात यह कि पू० मुनिश्री नथमल जी के साथ मैं गहरी चिन्तनात्मक तदाकारिता महसूस करता हूँ | मैं चकित चमत्कृत हुआ यह देखकर कि 'अनुत्तर योगी' में जो मैंने लिखा है, उसका समर्थन मुझे उनके चिन्तन में बराबर मिलता गया है । तो मुझे लगा कि यह महावीर ही समर्थन है । पू० मुनिश्री को प्रणाम भेजता हूँ और उनका आशीर्वाद चाहता हूँ । वीरेन्द्र कुमार जैन बम्बई ( 'अनुत्तर योगी ' के यशस्वी लेखक ) यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि आचार्य तुलसी जी ने मुनिश्री नथमलजी जैसे स्वतन्त्रचेत्ता तलस्पर्शी चिंतक को उत्तराधिकारी के रूप में घोषित किया है । इस शुभ अवसर पर मैं दोनों महापुरुषों को बधाइयाँ देना चाहूँगा । एक छरहरे वदन में अपने अस्तित्व को छिपाये महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमलजी का प्रशान्त व्यक्तित्व पिछली दशाब्दियों से चिंतन के क्षेत्र में दिनकरवत् चमक रहा है । वे समग्र भारतीय दर्शनों के गंभीर विद्वान हैं । संगोष्ठियों में तो हमने उन्हें विश्वकोष के रूप में पाया है । वे जिस अधिकारिक वाणी से अपनी आगमन और निगमन शैली में उद्धरणों और दृष्टान्तों के साथ विषय का प्रतिपादन करते हैं, वह अत्यन्त प्रभावक और हृदयग्राही बन जाता है । उन का लेखन, चिंतन और कथन एक सामञ्जस्यपूर्ण दृष्टिकोण से ओतप्रोत रहता है । जैन सिद्धान्तों की मर्मज्ञता उनकी भावप्रवणता साथ जुड़ जाती है | अनुभूति के स्वरों ने उनकी शैली में एक और आकर्षण डाल दिया है । छोटे-छोटे आप बीते उदाहरण कथन की सारवत्ता को अभिव्यक्त करते चले जाते हैं । शैक्षणिक और सामाजिक मूल्यों की आधार - शिला पर आसीन होकर वे प्रत्येक दर्शन का मूल्यांकन करते हैं । जैन आगमों का आधुनिक ढंग से संपादन - प्रकाशन भी उनकी सूझ-बूझ का निदर्शन है । युवकों के दायित्व को मुनिश्री ने भलीभाँति उभारा है, उनकी शक्ति, क्षमता और कर्त्तव्यपरायणता को जाग्रत करने का अथक प्रयत्न किया है । अणुव्रत आन्दोलन को युवकों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य आचार्य श्री एवं मुनिश्री के सबल कंधों का प्रतिफल है । इतना ही नहीं, अहिंसा दर्शन के प्रति आस्था पैदा करने का पुण्यकार्य भी उन महापुरुषद्वय के प्रयत्नों का परिणाम कहा जा सकता है । ४२० विगत वर्षों में संघ में यदा-कदा किन्हीं कारणवश विवादों का भूचाल आया । कतिपय तत्त्वों ने समाज में अशान्ति और संघ में अव्यवस्था फैलाने का भी उपक्रम किया, परन्तु तुलसी- प्रज्ञा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री की दूरदर्शिता और संयोजनशीलता ने उन सभी ज्वारभाटों को बड़ी सुघड़ता और तथ्यता के साथ शान्त किया । यह उनकी प्रशासन क्षमता का ही प्रतीक है । इन सब कार्यों में आचार्यश्री को मुनिश्री का पूरा-पूरा सहयोग मिला है । ध्यान-योग जैन समाज से लुप्त-सा होता जा रहा था । इतनी गंभीर जैन ध्यानपरंपरा होते हुए भी साधक उसकी ओर से उदासीन - से हो गये थे । मुनिश्री ने लाडनूं में ध्यान-केन्द्र प्रारंभ कर एक नया आन्दोलन आरंभ कर दिया है । ध्यान की इस गूढ शैली को उन्होंने स्वयं की साधना के माध्यम से सहज और सरल बना दिया है । ध्यान शिविरों के संयोजन से अब यह परंपरा लोकप्रिय होती जा रही है । मुनिश्री की प्रतिभा और चिंतन ने अभी तक शताधिक कृतियों और निबन्धों को जन्म दिया है । इन कृतियों में चिंतन के साथ उद्बोधन मुखर होकर सामने आया है । लोकेषणा से दूर मुनिश्री ने जन सामान्य के दृष्टिकोण को झकझोरने का जो सफल प्रयत्न किया है, वह अभिनन्दनीय है । उनके सतत प्रयास से एक ऐसा नया क्रान्तिकारी तत्त्व खड़ा हो गया है जो अंधविश्वासों और रूढ़ियों से निर्मुक्त समाज की स्थापना में विश्वास करता है । मैं मेरा मन : मेरी शान्ति, तट दो प्रवाह एक, गूंजते स्वर : बहरे कान आदि कृतियाँ इसी विचार-शृंङ्खला से जुड़ी हुई हैं । आचार्य श्री तुलसी जी ने संघ, समाज और साहित्य को जो योगदान दिया है उसे मुनिश्री नथमलजी निश्चित ही आगे बढ़ायेंगे और उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी सिद्ध होंगे । मुनिश्री जी निरामय और शतायु हों, यही हमारी कामना है । मेरा विनम्र प्रणाम । डा० भागचन्द्र जैन, 'भास्कर' खण्ड ४, अंक ७-८ ४२१ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००००००००००००००००००००००० अभिनन्दन का प्रत्युत्तर ००००००००००००००००००००००० __ आचार्यवर की अपने उत्तराधिकार की घोषणा का आपने जिस आन्तरिकता 0 और हार्दिकता से स्वागत किया है और मेरे दायित्व के प्रति जो उत्साहपूर्ण भावना 10 व्यक्त की है, उससे मैं अपने उत्तरदायित्व के प्रति अपने आपको और अधिक गंभीर : 0 अनुभव करता हूं और यह विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी आकांक्षाओं की पूर्ति में । " मेरा योगदान सदा आपको उपलब्ध रहेगा। आचार्यवर ने मुझे संघ का जो दायित्व सौंपा है उसकी श्रीवृद्धि करना मेरा 0 ० पवित्र कर्त्तव्य होगा । ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के द्वारा समूचे संघ को 3: अध्यात्मनिष्ठ बनाने और उसकी आत्मचेतना को युगचेतना के संदर्भ में समुन्नत . 6 करने के लिए मेरी सारी शक्ति संघ को समर्पित रहेगी। मेरा धर्मसंघ आचार्यवर ० ० द्वारा उपलब्ध दो मूल्यवान अवदानों-अणुव्रत और प्रेक्षाध्यान के द्वारा समूची: 0 मानवजाति की सेवा करता रहेगा। मैं फिर अपने आत्मविश्वास को दोहराता हूं। ० कि संघ सम्पदा कि समृद्धि के लिए आप सबका सहयोग और सद्भावना उप- 0 लब्ध कर आचार्यवर की कृतियों को नया आयाम दे अपने दायित्व के प्रति सदा । 0 जागरूक रहूंगा। ०००००००००००००००००००००००० ००००००००००००० . -- युवाचार्य महाप्रज्ञ . १७ फरवरी ७६, चूरू ००० ००००००००००००००००००००००००० ४२२ तुलसी-प्रज्ञ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापन्थ को आचार्यश्री तुलसी की देन साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा तेरापन्थ धर्मसंघ एक प्रगतिशील धर्मसंघ है । एक आचार्य के सक्षम नेतृत्व में संगठन, अनुशासन और मर्यादानिष्ठा की दृष्टि से यह एक बेजोड़ उदाहरण है। इसका इतिहास दो शताब्दियों की कालावधि को अतिक्रान्त कर तीसरी शताब्दी में पदन्यास कर चुका है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की समुज्ज्वल आराधना करने के लिए आचार्य भिक्षु ने चौंतीस वर्ष का अवस्था में एक धर्मक्रान्ति की। सत्य के प्रति उनके सम्पूर्ण समर्पण, निर्भीक चिन्तनधारा और प्रतिकूल परिस्थितियों से लोहा लेने की अद्भुत क्षमता ने उनको एक प्राणवान् धर्मसंघ का प्रणेता बना दिया। उनकी दीर्घकालीन सूझबूझ और गहरी आचार-निष्ठा ने धर्मसंघ को आचार का सुदृढ़ कवच दे दिया। कष्टों के बीहड़ मार्ग पर चलकर उन्होंने एक राजपथ का निर्माण किया, जिस पर चलने वाले हजारों-हजारों व्यक्ति अपनी मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे हैं । आचार्य भिक्षु के उत्तरवर्ती सातों आचार्यों ने हर मूल्य पर अपने धर्मसंघ के आदर्शों की सुरक्षा की। उन्होंने अठारह दशकों की लम्बी अवधि में समागत हर संघर्ष को निरस्त किया और उस पथ पर बिखरे काँटों तथा कंकरों को बुहार कर उसके पथिकों को अप्रतिम सुविधाएं दीं। वर्तमान में तेरापन्थ के नवम अधिशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी हैं । आपने अपने पूर्ववर्ती आठ आचार्यों द्वारा अर्जित सम्पदा को न केवल सुरक्षित ही रखा है, अपितु उसे वृद्धिंगत भी किया है । आपका शासनकाल अपने आप में अपूर्व और विलक्षण है । इस अपूर्वता का आभास उन सब लोगों को है, जो आचार्यश्री के व्यक्तित्व और कर्तृत्व से थोड़े भी परिचित हैं । परिचय के बिन्दु भी इतने सूक्ष्म और हल्के हैं कि उनके माध्यम से आपके समग्र व्यक्तित्व का दिग्दर्शन नहीं हो सकता। इसलिए प्रस्तुत सन्दर्भ की चर्चा एक बिन्दु की परिधि में परिक्रमा कर अपने पाठकों की जानकारी के धरातल को ठोस बनाना चाहती है। वि० सं० १९९३ [ईस्वी सन् १९३६] भाद्रव शुक्ला तृतीया को तेरापन्थ के अष्टम आचार्यश्री कालूगणी ने मुनि तुलसी के तरुण कन्धों पर धर्मसंघ की धुरी रख दी। यह दिन आचार्यश्री तुलसी के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से संघीय दायित्व को स्वीकार करने का दिन था। अपना दायित्व अपने शिष्य को सौंप तीन दिन बाद ही कालूगणी दिवंगत हो गए। तेरापंथ खण्ड ४, अंक ७-८ ४२३ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का शासन सूत्र अब सम्पूर्ण रूप से आचार्य तुलसी को संभालना था। इसके लिए विधिवत् कार्यवाही हुई भाद्रव शुक्ला नवमी को। तेरापन्थ के इतिहास की यह चौंका देने वाली घटना थी, जब एक बाईस वर्षीय युवक ने धर्मसंघ की समग्र जिम्मेवारी संभालकर उसका कुशलतापूर्वक संचालन करना शुरू कर दिया । सैकड़ों साधु-साध्वियों के अन्तरंग और बहिरंग विकास की योजनाओं के साथ उनकी समुचित क्रियान्विति, हजारों-हजारों अनुयायियों का नेतृत्व और सम्पर्क में आने वाले लाखों लोगों का पथदर्शन । साधारण व्यक्ति के लिए यह सब बड़ा जटिल हो जाता है, किन्तु आचार्यप्रवर ने इस दक्षता और दीर्घदर्शिता से काम किया कि एक उदीयमान धर्मसंघ भी अपनी तेजस्विता एवं लोक-चेतना को अभ्युदय देने वाली प्रवृत्तियों से जन-जन के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। प्रथम देन उस समय तेरापन्थ धर्मसंघ में शिक्षा का विकास नहीं था । तत्कालीन सामाजिक वातावरण में भी शिक्षा-सम्बन्धी आयामों का उद्घाटन नहीं हुआ। विचार-अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र राजस्थानी भाषा थी। कालूगणी के युग में संस्कृत भाषा में बोलने और लिखने का क्रम शुरू हो गया था। भिक्षु-शब्दानुशासनम् और कालू कौमुदी-ये संस्कृत व्याकरण कालूगणी के सान्निध्य में ही निर्मित हुए और उनके पठन-पाठन का क्रम प्रारम्भ हो गया। फिर भी किसी विषय के सर्वांगीण अध्ययन की दिशाएं नहीं खुली थीं। युगचेतना ने करवट ली और शिक्षा का सामाजिक मूल्य प्रतिष्ठित हो गया । आचार्यश्री तुलसी ने अनुभव किया- यदि हमारे साधु-साध्वियाँ प्रबुद्ध नहीं होंगे, तो वे समाज को क्या दे सकेंगे ? इस बढ़ती हुई बौद्धिकता में धार्मिक संस्कारों का पल्लवन भी अनुरूप साधन सामग्री के द्वारा ही हो सकता है। आचार्यश्री जो भी बात सोचते हैं, जो भी स्वप्न देखते हैं, वह निश्चित रूप से साकार हो जाता है। तेरापन्थ संघ में शिक्षा का अभ्युदय हुआ। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, इंग्लिश आदि विशिष्ट भाषाओं के साथ प्रान्तीय भाषाओं में लिखनेबोलने का अभ्यास क्रम चला। इतिहास, दर्शन, व्याकरण, आगम, गणित आदि शैक्षणिक विधाओं में साधु-साध्वियों ने प्रवेश पा लिया । विभिन्न दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन का द्वार खुला और दो दशकों में ही तेरापन्थ संघ का शैक्षणिक स्तर समुन्नत हो गया। इसके लिए समय-समय पर अध्यापन का कार्य स्वयं आचार्यश्री ने किया है । परीक्षा-पाठ्यक्रमों का प्रयोग, प्रोत्साहन, प्रेरणा आदि बिन्दुओं ने साधु-साध्वियों के मन में विद्या प्राप्त करने की एक अमिट प्यास जागृत कर दी जो कि आज भी उसी अतृप्त भाव से बढ़ती जा रही है। साध्वियों का विकास तेरापन्थ धर्मसंघ में साध्वियों की संख्या उत्तरोत्तर प्रवर्धमान रही है। संख्या-वृद्धि के साथ-साथ उनकी व्यवस्थाओं में भी सुधार होता रहा है, परन्तु विकास की सब संभावनाओं को व्यवस्था नहीं मिली। इस दृष्टि से उनके लिए विशेष अभ्युदय की अपेक्षा थी । अष्टमाचार्य श्री कालूगणी ने अपने उत्तराधिकारी आचार्यश्री तुलसी को संघ के भावी कार्यक्रम ४२४ तुलसी-प्रज्ञा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संकेत देते हुए एक निर्देश दिया कि--अपने संघ में साध्वियां बहुत हैं, किन्तु उनके विकास हेतु कोई अच्छी व्यवस्था नहीं है । तुम्हें इस ओर ध्यान देना है। कालूगणी के निर्देशानुसार आचार्यश्री ने दायित्व स्वीकार करने के कुछ समय बाद ही साध्वियों के अध्यापन का कार्य शुरू कर दिया । सौभाग्यशालिनी हैं वे साध्वियां, जिन्होंने निरन्तर वर्षों तक आचार्यश्री के कुशल अध्यापन में शिक्षा के बीज बोए और उन्हें अंकुरित किया । आज साध्वी-समाज का जो रूप बन पाया है, उसका पूरा श्रेय आचार्यश्री के कर्तृत्व को मिलता है । न केवल शिक्षा अपितु साधना, कला, साहित्य, वक्तृत्व, यात्रा आदि सभी क्षेत्रों में साध्वियाँ गतिशील हैं । आचार्यश्री के सक्षम नेतृत्व में उनकी प्रगति सम्बन्धी भावी संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। साहित्य सेवा तेरापन्थ धर्मसंघ की साहित्यिक चेतना को ऊर्ध्वारोहित करने में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है, आचार्यश्री तुलसी की सृजनशीलता ने । सृजन की आप में अद्भुत क्षमता है। एक ओर धर्मसंघ की सम्पूर्ण जिम्मेवारी, दूसरी ओर साहित्य-संरचना की सतत प्रवहमान स्रोतस्विनी । सृजन के लिए अपेक्षित एकान्त क्षण और एक विशेष मनोदशा के साथ प्रतिबद्ध न होकर आपने जब तब सृजन किया है। राजस्थानी, हिन्दी, संस्कृत आदि भाषाओं में गूथे हुए आपके साहित्य में जीवन के शाश्वत मूल्यों की अभिव्यक्ति है । सिद्धांत, दर्शन, योग, जीवनवृत्त, आख्यान और नैतिकता के सम्बन्ध में आपकी कृतियाँ अपने युग की प्रतिनिधि रचनाएं हैं। इन रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये एक साधारण पाठक और विद्वान् पाठक दोनों के लिए उपयोगी हैं । जैन सिद्धान्त दीपिका, भिक्षु न्यायकणिका, मनोनुशासनम्, अणुव्रत के आलोक में, अणुव्रत : गति प्रगति, अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, क्या धर्म बुद्धि गम्य है ? कालूयशोविलास, चन्दन की चुटकी भली, आदि पचासों ग्रन्थ आपकी साहित्य-चेतना के उत्कृष्ट नमूने हैं। साहित्य-निर्माण की क्षमता एक बात है और साहित्यकारों का निर्माण दूसरी बात है । आचार्यश्री ने मौलिक साहित्य सृजन के साथ-साथ ऐसे साहित्यकारों को भी तैयार किया है, जिनकी कृतियों ने बौद्धिक मानस को प्रभावित किया है। तेरापन्थ का आधुनिक साहित्य समीक्षकों की दृष्टि में युग-चेतना का प्रतिनिधि साहित्य है। गद्य और पद्य दोनों धाराओं में नवीन और प्राचीन प्रायः सभी विधाओं में साहित्य का सृजन आचार्यश्री की विलक्षण सृजन-शक्ति का प्रतीक है। आगम-सम्पादन तीर्थंकरों द्वारा अर्थ रूप में कहे हुए और गणधरों एवं स्थविरों द्वारा गूथे हुए शास्त्रों को आगम कहा जाता है । भगवान् महावीर के समय और उनके बाद कई शताब्दियों तक आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा मौखिक रूप से चलती थी। दुष्काल आदि कारणों से उस परम्परा की शृंखला कहीं-कहीं शिथिल हो गई। उसे पुनः सुसम्बद्ध बनाए रखने के लिए आगमों की मुख्य रूप से चार वाचनाएं हुई । अन्तिम वाचना महावीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के सान्निध्य में हुई। उसी समय आगमों को खण्ड ४, अंक ७-८ ४२५ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकारूढ़ किया गया। परम्परा-भेद, श्रुति-भेद और लिपि-भेद आदि कारणों से एक ही आगम की भिन्न-भिन्न प्रतियों में मूल पाठ के शब्दों, पदों और वाक्यों में भिन्नता प्राप्त होती है । कौन-सा पाठ सही है और कौन-सा आरोपित ? इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं मिलता । अतः आगम-अध्येताओं के सामने एक बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है। आचार्यश्री ने लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व आगमों के सुव्यस्थित और प्रामाणिक सम्पादन का संकल्प किया। संकल्प के अनुसार काम शुरू हुआ। पच्चीस-तीस साधु-साध्वियों की एक टीम जुट गई । प्रारम्भिक वर्षों में अनुभव और साधन सामग्री की कमी के कारण जो काम हुआ, वह सन्तोषजनक नहीं था, किन्तु ज्यों-ज्यों काम करने का अनुभव बढ़ा, सामग्री सुलभ हुई, सम्पादित कार्य पर विद्वानों की अनुकूल प्रतिक्रिया हुई तो सम्पादन-कार्य को और अधिक व्यापक और वैज्ञानिक पद्धति से करने का निर्णय ले लिया गया। आचार्यश्री तुलसी के सफल निर्देशन में युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ एक प्रमुख सम्पादक की भूमिका निभाते हुए आगम-कार्य को सतत आगे बढ़ा रहे हैं । प्रायः आगमों का मूल पाठ संशोधन का काम परिसम्पन्नता पर है । इसमें किसी प्रति-विशेष को प्रामाणिक न मानकर उपलब्ध सब प्रतियों का उपयोग किया गया है। चूणि, भाष्य, नियुक्ति, टीका आदि आगमों के व्याख्यात्मक साहित्य में उद्ध त पाठों को भी यथावश्यक काम में लिया गया है । अनेक पाठों की उपलब्धि में एक पाठ मूल में रखकर शेष पाठों को पाठान्तर में रख दिया गया है। आवश्यकता के अनुसार पाठ-टिप्पण भी दे दिए गए हैं। हिन्दी अनुवाद टिप्पण और समीक्षात्मक अध्ययन, लेखन का काम चल रहा है । आगम-सम्पादन का यह कार्य आचार्यश्री की अपूर्व देन है, जो युग-युग तक अविस्मरणीय रहेगी। महिला-जागरण कुछ दशक पूर्व तक राजस्थान की महिलाओं को अपने अस्तित्व का बोध नहीं था। वे अपने परिवार या समाज में अर्धांगिनी की भूमिका निभाते हुए भी उपेक्षित और प्रताड़ित रहती थी। उपेक्षा और प्रताड़ना का वह सिलसिला आज समाप्त हो गया हो, यह बात नहीं है । फिर भी नारी चेतना के संभूयमान जागरण से अतीत की स्थितियों में काफी बदलाव आ गया है । एक समय था जब स्त्रियाँ शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ी हुई थीं। सामाजिक, आथिक या राजनैतिक गतिविधियों में उनका प्रवेश नहीं था। उनमें स्वतन्त्र चिन्तन की क्षमता विकसित नहीं थी। समाज की रूढ़ और अर्थहीन परम्पराओं को वे अपने जीवन का शृंगार मानकर चलती थीं। किसी भी कुरूढ़ि को तोड़ने का साहस उनमें नहीं था । महिलाएँ स्वयं ही महिला समाज की प्रगति में बाधक बनकर अभिशापों का भार ढो रहीं थीं। समाज में विधवा स्त्रियों की स्थिति और अधिक दयनीय थी। वर्षों तक उन्हें मकान के एक कोने में बैठकर जावन-यापन करना पड़ता था। उनकी वेशभूषा लाँछित होती थी और किसी भी मांगलिक कार्य में उनकी उपस्थिति अशुभ मानी जाती थी। पग-पग पर अपमान, प्रताड़नाएँ, विषमव्यवहार तथा शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ। विकास की सारी संभावनाएँ वहाँ लुप्त थीं। आचार्यश्री ने महिला-समाज की चेतना को जागृत किया। उसे अपने अस्तित्व का ४२६ तुलसी-प्रज्ञा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध कराया और 'नया मोड़' कार्यक्रम के माध्यम से उन जीर्ण-शीर्ण तथा रूढ़ परम्पराओं को तोड़ने का आह्वान किया। एक तीव्र ऊहापोह के बाद समाज के वे अवांछित मूल्य एक झटके के साथ टूट गए । आज महिलाएँ अनेक कुरूढ़ियों से मुक्त हो चुकी हैं । महिला संगठनों के माध्यम से उनकी शक्ति का जागरण और उपयोग हो रहा है। इससे और कुछ हुआ या नहीं, पर महिलाओं का हौसला बढ़ा है। उनकी स्थिति मजबूत हुई है और वे कुछ क्षेत्रों में पुरुषों का पथ-दर्शन कर सकने की क्षमता अर्पित कर चुकी हैं। इस स्थिति के निर्माण में यद्यपि युगीन परिस्थितियों का भी प्रभाव रहा है, किन्तु सामाजिक मानदण्डों को बदलने में आचार्यश्री के प्रयत्न ही शीर्षस्थानीय बनकर ठहरते हैं। युवा-शक्ति का आयोजन युवक शक्ति का प्रतीक होता है। युवा-शक्ति का समुचित उपयोग हो तो देश और समाज का नक्शा ही बदल सकता है । शक्ति दो प्रकार की होती है-रचनात्मक और ध्वंसात्मक । ध्वंस की बात बहुत सरल है, जबकि रचनात्मक कार्य के लिए साधना की अपेक्षा रहती है । युवापीढ़ी को सही नियोजक मिल जाए तो वह समाज का काया-कल्प कर सकता है। आचार्यश्री तुलसी की नियोजन-क्षमता बेजोड़ है। आपने धार्मिक आस्था से भटके हुए युवकों को एक दिशा दी है, गति दी है और दिया है अनुकूल मोड़। वर्षों से उपेक्षित युवा-पीढी आचार्यश्री की प्रेरणा पाकर अपने दायित्व के प्रति सजग हो गई है। युवक सम्मेलनों में सैकड़ों-सैकड़ों प्रबुद्ध युवकों की उपस्थिति इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि धर्म के प्रति उनकी धारणाएँ बदली हैं। नैतिक मूल्यों के प्रति उनका दृष्टिकोण अधिक उदार बना है। अध्यात्म की चर्चा और उसके प्रयोग में उन्हें रसानुभूति होती है। वे भौतिकता के एकांगी विकास के दुष्परिणामों से संत्रस्त होकर चारित्रिक मूल्यों को समाज में प्रतिष्ठा देना चाहते हैं। उनके इस परिवर्तन का प्रमुख कारण है रूढ़ परम्परावादी धर्म की आधुनिक सन्दर्भो में प्रस्तुति । आचार्यश्री ने तेरापन्थ की मौलिक चिन्तनधारा को जिस रूप में विश्लेषित किया है, कोई भी चिन्तनशील व्यक्ति उससे आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता। आपने धर्म को धर्म-स्थानों और धर्मग्रन्थों की परिधि से मुक्त कर जीवन-व्यवहार में उसके प्रयोग पर बल दिया। स्वर्ग के प्रलोभन और नरक के भय से मुक्त होकर जो धर्माचरण किया जाता है, वही व्यक्ति का आलम्बन बन सकता है। इसके अतिरिक्त आचार्यश्री की हर प्रवृत्ति में तारुण्य की अमिट झलक है, उसने भी युवापीढ़ी को झकझोरा है। युवा साधु-साध्वियों की यह प्रवर्धमान संख्या इस तथ्य का स्वयंभू साक्ष्य है। नई और पुरानी विचारधाराओं में सामञ्जस्य वैचारिक संघर्ष की दृष्टि से पिछले कुछ दशकों का समय काफी विवादास्पद रहा । युवा और बुर्जुआ पीढ़ी के बीच विचार-भेद अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु जिस समय वह विवाद का विषय बन जाता है, संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। तेरापन्थ धर्मसंघ में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ है । परम्परावादी लोग प्राचीन धारणाओं के व्यामोह में फँसकर नए मूल्यों को सर्वथा नकार रहे थे और नई पीढ़ी के प्रतिनिधि रूढ़ धारणाओं में संशोधन खण्ड ४, अंक ७-८ ४२७ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बात पर अड़े हुए थे । भीतर ही भीतर प्रबल संघर्ष की स्थिति बनी और एक समय आया, जब उसका विस्फोट हो गया । उस समय दोनों वर्गों को एक साथ संभालना बड़ा कठिन काम था । क्योंकि दोनों पक्षों का अपना-अपना आग्रह इतना पुष्ट था कि उनकी सीधी टकराहट की संभावना स्पष्ट थी । आचार्यप्रवर ने उस तनावपूर्ण वातावरण में किसी भी पक्ष को उपेक्षित नहीं किया और किसी को अतिरिक्त प्रोत्साहन नहीं दिया । प्राचीन और नवीन धारणाओं में समुचित सामञ्जस्य स्थापित कर आपने ऐसा मार्ग प्रस्तुत किया, जिस पर चलने में किसी भी पक्ष को कठिनाई नहीं हुई । धर्मसंघ की मौलिक विचारधारा को सुरक्षित रखते हुए नए मूल्यों को अपनी सहमति देकर आचार्यश्री ने अभूतपूर्व काम किया है । तेरापंथ संघ की प्रगतिशीलता का सबसे बड़ा हेतु यह है कि इसकी जड़ें बहुत गहरे में हैं और शाखाओं-प्रशाखाओं को विस्तार पाने के लिए सामने असीम अवकाश है । यहाँ शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा और सामयिक मूल्यों में चिन्तनपूर्वक परिवर्तन का सिद्धान्त सहज रूप से स्वीकृत है । इस अभिक्रम से तेरापंथ ने युग चेतना को ही अभिभूत नहीं किया है, अपितु वह स्वयं भी अधिक उजागर हुआ है। इस दिशा में आचार्यश्री ने अनेकान्त को व्यवहार के धरातल पर उपस्थित कर हर विरोधी स्थिति को शान्तिपूर्ण पद्धति से निपटाने का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है । अणुव्रत आन्दोलन एक धार्मिक परम्परा का वाहक संघ अपनी चिरपोषित परम्पराओं से एक ओर हटकर व्यापक स्तर पर धर्म-क्रान्ति की चर्चा करे, यह एक नई बात होती है । सामान्यतः धर्म सम्प्रदायों का काम होता है-धर्म की रूढ़ धारणाओं से जनता को परिचित कराना । यद्यपि तेरापन्थ धर्मसंघ एक क्रान्ति की फलश्रुति है, फिर भी उसे एक सम्प्रदाय से अधिक कई मान्यता प्राप्त नहीं थी । कुछ व्यक्ति तो इसे अन्य जैन-सम्प्रदायों के समकक्ष मान्यता देने के पक्ष में भी नहीं । यही कारण है कि तेरापन्थ की मौलिक चिन्तनधारा को लगभग बीस दशकों तक विरोधी ज्वाला का ताप झेलना पड़ा । किन्तु जब से अणुव्रत दर्शन की बात सामने आई, तेरापन्थ का स्वरूप बदल रहा है और उसके सम्बन्ध में लोगों की धारणाएँ भी बदल गई हैं। 'अणुव्रत' राष्ट्रीय चरित्र को समुन्नत बनाने का अभिक्रम है । जिस समय राष्ट्र के नागरिकों की नैतिक मूल्यों में आस्था कम होने लगी, स्वार्थ चेतना विस्तार पाने लगी और जन-जीवन संत्रस्त हो गया, उस समय आपने व्यापक स्तर पर नैतिकता को प्रतिष्ठित करने का आह्वान किया । किसी सम्प्रदाय विशेष के आचार्य द्वारा एक असाम्प्रदायिक राष्ट्रीय अभियान चलाने का वह विरल अवसर तेरापन्थ धर्मसंघ को मिला । प्रबुद्ध व्यक्ति अणुव्रत से प्रभावित हुए । समाचार पत्त्रों में उसकी चर्चा हुई। लोगों ने समझा कि रूढ़ता, शोषण, हिंसा, युद्ध, घृणा आदि धर्म के दोष हैं । जिस धर्म में इनका प्रतिकार नहीं है, वह मानव धर्म नहीं हो सकता । धर्म के फलित हैं- रूपान्तरण, समता, अहिंसा, शान्ति और मानवीय एकता । आचार्यश्री ने अणुव्रत के मंच से धर्म-क्रान्ति के पाँच सूत्र दिए १. बौद्धिकता ४२८ तुलसी- प्रज्ञा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रायोगिकता ३. समाधान परकता ४. वर्तमान प्रधानता ५. धर्म सद्भावना जो धर्म बुद्धिगम्य नहीं होता, जीवन की प्रयोग शाला में जिसका कोई प्रयोग नहीं होता, जो जीवन की समस्याओं को समाधान नहीं दे सकता, जो वर्तमान के लिए उपयोगी न होकर केवल अतीत या भविष्य से अनुबन्धित है तथा जो सब धर्मों के प्रति समभाव का वातावरण नहीं बना सकता, वह धर्म अपने अस्तित्व के आगे एक प्रश्नचिह्न खड़ा कर देता है । आचार्यश्री के मन में सब धर्मों के प्रति आदर के भाव हैं । आपने साम्प्रदायिक सद्भावना के लिए पच्चीस वर्ष पूर्व एक पञ्चसूत्री कार्यक्रम दिया था, जिसने भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों की पारस्परिक निकटता में सेतु का काम किया है। वे पांच सूत्र हैं- १. मंडनात्मक नीति, २. वैचारिक सहिष्णुता, ३. पारस्परिक सौहार्द, ४. संतुलित व्यवहार और ५. धर्म के मौलिक तत्त्वों के प्रचार हेतु सामूहिक प्रयत्न । इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखकर आचार्यश्री ने अणुव्रत की दीप-शिखा हाथ में ली। अणुव्रत के आलोक से केवल लोक चेतना ही आलोकित नहीं हुई; तेरापन्थ धर्मसंघ भी प्रभासमान हो उठा। आज तेरापन्थ की जो छवि राष्ट्र की प्रबुद्ध जनता के सामने है, उसका बहुत कुछ श्रेय अणुव्रत आन्दोलन को है, जो आचार्यप्रवर के उर्वर मस्तिष्क की देन है। अणुव्रत को आज एक राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रतिष्ठा प्राप्त है । संसद भवन में 'अणुव्रत मंच' की स्थापना इसका पुष्ट प्रमाण है। अणुव्रत ने राष्ट्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सशक्त आवाज उठाई। जिस समय हर वर्ग के व्यक्ति का झुकाव अनैतिकता की ओर हो, उस समय नैतिक मूल्य उपेक्षित हो जाते हैं। यद्यपि नैतिकता और अनैतिकता समानान्तर रेखाओं में सदा चलती रही हैं, पर यह निश्चित है कि यदि नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए समय-समय पर विशेष अभियान न चले तो अनैतिकता सहज रूप से नैतिकता पर हावी हो सकती है । अणुव्रत सम्पूर्ण संसार को नैतिक बना देने का जिम्मा नहीं लेता, किन्तु अनैतिकता के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए वह सदा तत्पर है । तेरापन्थ को एक युगीन धर्मसंघ के रूप में प्रस्तुति देने में अणव्रत की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। प्रेक्षा-ध्यान साधना - आज का युग कुण्ठा, घुटन और तनाव का युग है । शरीर में तनाव, मांसपेशियों में तनाव, मस्तिष्क में तनाव और मन में तनाव । कोई उपचार भी तो नहीं है इस तनाव की बीमारी का । जो व्यक्ति इससे अधिक आक्रान्त हैं, वे मादक औषधियों का सेवन कर क्षणिक विश्राम पाते हैं, किन्तु औषधि का प्रभाव समाप्त होते ही वे और अधिक तनावग्रस्त हो जाते हैं । यह बीमारी सम्पन्न और विपन्न, सत्ताधीश और श्रमिक, व्यापारी और कर्मकर सब लोगों को है। भारतवर्ष में यह बीमारी जिस रूप में बढ़ रही है, भारतेतर देशों में उससे भी अधिक है । बढ़ती हुई इस बीमारी के प्रतिरोध में आचार्यश्री ने अध्यात्म की ऊर्जा जागृत करने का दिमा-दर्शन दिया । ऊर्जा-जागरण की अमोघ प्रक्रिया है ‘प्रेक्षा-ध्यान' । प्रेक्षा खण्ड ४, अंक ७.८ ४२६ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अर्थ है विशेष रूप से देखना । श्वास, शरीर, सूक्ष्म शरीर, चैतन्य-केन्द्र और स्पन्दनों की प्रेक्षा करने से मन एकाग्र हो जाता है। मानसिक एकाग्रता की स्थिति में तनाव कम होता है । प्रेक्षा ध्यान की साधना के लिए दस-दिवसीय शिविर में प्रशिक्षण प्राप्त किया जाता है । अब तक ऐसे कई शिविरों का समायोजन हो चुका है। शिविर-साधकों के अनुभव व संस्मरण चमत्कृत कर देने वाले हैं। अनेक साधकों ने प्रेक्षा का प्रयोग कर अपने जीवन को आमूल रूपान्तरित कर लिया है। कुछ साधक मादक पदार्थों के नशे से सर्वथा मुक्त हो गए। कुछ साधकों की अस्तव्यस्त चर्या व्यवस्थित हो गई। कुछ साधक अपनी उत्तेजना-मूलक वृत्ति में आकस्मिक परिवर्तन अनुभव कर रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रेक्षा का प्रयोग शरीर, मन और आत्मा सबकी स्वस्थता के लिए आवश्यक है। जैन विश्वभारती का 'तुलसी अध्यात्म नीडम्' अपने 'प्रज्ञा प्रदीप' [ध्यान कक्ष] में प्रति दिन प्रेक्षा ध्यान प्रशिक्षण की व्यवस्था कर रहा है। शिक्षा, साधना, शोध, संस्कृति और सेवा के क्षेत्र में युगपत् काम करने वाला संस्थान 'जैन विश्वभारती' अपने आप में एक नया प्रयोग है, यह तेरापन्थ धर्मसंघ को आचार्यश्री के शासनकाल की विशिष्ट उपलब्धि है। जैन विश्वभारती के तत्त्वावधान में ध्यान साधना की अग्रिम संभावनाओं को लेकर प्रबुद्ध लोगों को बहुत-बहुत आशाएं हैं। आचार्यश्री ने भी उन संभावनाओं को साकार रूप देने के लिए अपने महाप्रज्ञ शिष्य मुनिश्री नथमल जी को प्रेक्षा-प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया है तथा अन्य साधु-साध्वियों को भी विशेष प्रेरणा दे रहे हैं । आने वाला दशक प्रेक्षा ध्यान की उपलब्धियों का जीवन्त प्रतीक होगा, ऐसा प्रतीत होता है। आचार्यश्री तुलसी एक सुधारवादी आचार्य हैं। आप मानव सुधार की योजना क्रियान्वित करने के लिए जन-जन को जीने की कला सिखा रहे हैं। जीवन-कला से अनभिज्ञ व्यक्ति दूसरी-दूसरी कलाओं में निष्णात होकर भी कला-मर्मज्ञ नहीं बन सकता। इसीलिए आचार्यप्रवर ने सर्वोपरि मूल्य जीवन-कला को दिया है। उसके साथ अन्य कलाओं को भी आपने उपेक्षित नहीं किया, क्योंकि कला के प्रति आपका सहज झुकाव है । आपके जीवन की कोई भी गतिविधि कला-शून्य नहीं है । आप स्वयं कलात्मक जीवन जीते हैं और अपने धर्मसंघ में कला-साधना के अभ्युदय पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। यही कारण है कि साधु-साध्वियों में लिपिकला, चित्रकला, पात्र-निर्माण कला, सिलाई कला, संगीत कला, वक्तृत्व कला, लेखन कला, अध्ययन-अध्यापन की कला और रहन-सहन की कला आदि सभी क्षेत्रों में उत्तरोत्तर निखार आ रहा है। आचार्यश्री की यह कला-प्रियता व्यावहारिक सुघड़ता से शुरू होकर जीवन के बहु-आयामी व्यक्तित्व के निर्माण तक एकरूप से प्रवर्धमान रही है। इसके द्वारा आपने तेरापन्थ धर्मसंघ को भीतर और बाहर दोनों ओर से प्रगतिशील बनाया है। आचार्य भिक्षु ने दर्शन, ज्ञान और चरित्र की जिस निर्मल साधना के लिए एक धर्मसंघ की नींव डाली थी, वह आचार्यश्री तुलसी के प्रयासों से अधिक गहरी हुई है। समय के सागर में उठा हुआ कोई भी तूफान इसे प्रकम्पित करने में अक्षम है। आचार्यप्रवर का कुशल और सक्षम नेतृत्व युग-युग तक तेरापन्थ को नई देन देता रहेगा तथा संघ के ओज और तेज को बढ़ाता रहेगा, यह विश्वास है । ४३० तुलसी-प्रज्ञा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के स्वणिम पृष्ठों से ११४॥३-२७ मुनि श्री अनोपचन्द जी (नाथद्वारा) (संयम पर्याय सं० १८६२-१९२६) -मुनि नवरत्नमल (लय-पीर-पीर क्या.........) देखो रूप अनूप संत का कर सज्जन सब गौर । विकसित होगी तन की कलियां पुलकित मन का मोर ॥देखो" मेदपाट में नाथद्वारा, राज्य ‘गुसाईंजी' का सारा । थे तिलेसरा नंदलालजी के सुत कुसुम किशोर ॥ देखो ...|| परिजन जन का बहु मेल मिला, धन संपद् से गृह कमल खिला । तूठ गया है भाग्य देवता आई मंगल भोर ॥२॥ ' दोहा भगिनी लघ थी आपकी, चंपा जिसका नाम। दीक्षित पहले आपसे, हो पाई निष्काम' ।।३।। १. [स्वामी जी से लेकर अद्यावधि दीक्षित समस्त साधु-साध्वियों की सूची रहती है, उसी संख्याक्रम का सूचक ११४ अंक यहाँ दिया गया है। अतः सर्वत्र साधु-साध्वियों के नाम के आगे दी गई क्रम संख्या को उक्त प्रकार समझना चाहिए। साधु और साध्वियों की सूची पृथक्-पृथक् है। ३।२७ का तात्पर्य तीसरे आचार्य श्री रायचन्द जी के समय दीक्षित २७वें साधु से है ।] २. मुनि श्री नाथद्वारा (मेवाड़) के नंदलाल जी तलेसरा के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दोलांजी था। जनक नंदोजी नीको श्रावक, श्रीजीदुवारै रे । माता दोलां अंगज अनोपचंदजी वंश उद्धारै रे॥ (मुनि जीवोजी (८६) कृत गुण वर्णन ढाल १, गा०२) वासी श्रीजीद्वार ना हो मुनिजन, नंदराम नो नंद के । जाति तलेसरा जेहनी हो गुणिजन, अनोपचंद नाम गुण वृद के ॥ (मघवागणि रचित ढाल १, गा० १) ३. मुनि श्री की छोटी बहन साध्वी श्री चंपाजी (१४०) ने उनसे पहले सं० १८९१ में दीक्षा ली। (ख्यात) खण्ड ४, अंक ७-८ ४३१ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लय मूल फिर विरति अनप भावना में, रुचि निखरी आत्म-साधना में । मुनि स्वरूप से पाये संयम होकर हर्ष विभोर ।।४।। १. मुनि श्री के दिल में वैराग्य भावना उत्पन्न हुई तब वे दीक्षा की स्वीकृति पाने के लिए प्रयत्न करने लगे। एक दिन उन्होंने अपने चाचा कुशलचंद जी से कहा-आप मुझे माता-पिता के द्वारा दीक्षा लेने की अनुमति दिलवाएं तो मैं आपका बहुत उपकार मानूंगा। मुझे यह सारी सांसारिक माया स्वप्न की तरह लग रही है, मैं जल्दी से जल्दी संयम लेना चाहता हूं, मेरा एक-एक दिन वर्ष के बराबर जा रहा है। जब तक दीक्षा की आज्ञा न मिलेगी तब तक मेरे १. खुले मुंह बोलने का २. घर का काम करने का ३. व्यापार करने का ४. कच्चा जल पीने का त्याग है। चाचा ने कहा- तुम धैर्य रखो, मैं वचन देता हूं कि अगर तुम्हारा पक्का मन है तो कोशिश करके तुम्हें दीक्षा दिलाऊँगा । उन्होंने मुनि श्री (अनोपचंद जी) के पिता को शान्तिपूर्वक समझाया तब वे सहमत हो गये। मुनि श्री के माता-पिता एवं पारिवारिक लोगों ने बड़ी धूमधाम से दीक्षा का उत्सव मनाया। वे साधु वेप पहनकर मुनि श्री सरूपचन्द जी के चरणों में प्रस्तुत हुए और पिता नंदराम जी ने हर्ष सहित अपने पुत्र को दीक्षा प्रदान करने के लिए मुनिश्री से निवेदन किया। (मुनि जीवोजी कृत ढाल १ गा. ३ से १२ के आधार से) इस प्रकार सं० १८६२ चैत्र बदि ८ गुरुवार को नाथद्वारा में पत्नी वियोग के बाद उन्होंने भरापूरा परिवार एवं बहुत ऋद्धि को छोड़कर मुनि श्री सरूपचंदजी (६२) द्वारा दीक्षा ग्रहण की। चैत मास में चूंप सूं, श्रीजीद्वारै आय । अनोप नै चारित दीयो, बड तपसी मुनिराय ॥ (सरूप नवरसो ढाल ७ दो. ४) समत अठारै बाणुवै हो, चैत शुक्ल श्रीकार के । अष्टमी संयम आदर्यो हो, तजी ऋद्धि परिवार के। (मघवागणि विरचित ढाल १ गा. ४) सं० १८६२ चैत्र सुदि ८ को मुनि सरूपचंद जी द्वारा दीक्षा ली। संवत् अठारै बाणुवै, चैत वदि आठम ताय । रायऋषि रै आगल, संजम लियो सुखदाय ॥ (श्रावक द्वारा रचित ढाल १ दो. २) समत अठारै बरस बाणु, चेत मास विध रे ॥ तिथ आठम नैं गुरवार अनोपजी, चारित लै सुध रे ॥ (मुनि जीवोजी कृत ढाल १ गा. १) तुलसी-प्रज्ञा (ख्यात) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयी वैरागी दृढ त्यागो, नय नीति निपुण गुण के रागी । साधु क्रिया में जुड़े एक रस ली सब शक्ति बटोर ॥५॥ लेखन करते थे द्रुत गति से, लिख पाये प्रतियां बहु धृति से । कभी कभी ले लेते दिन में चार पत्र का छोर ||६|| उक्त संदर्भों के अन्तर्गत सरूप नवरसा में मुनि श्री की दीक्षा केवल चैत्र महीने में लिखी है । बाद में मघवागणी रचित तथा ख्यात में चैत्र शुक्ला ८ है । उसके पूर्व की किसी श्रावक द्वारा कृत ढाल में चैत्र बदि ८ है तथा मुनि जीवोजी (८६) द्वारा निर्मित ढाल में चैत्र बदि के साथ वार भी गुरुवार लिखा है । मुनि जीवोजी रचित ढाल सबसे प्राचीन और दीक्षा के दिन ही बनाई हुई है और उसमें दीक्षा से संबन्धित पूरा विवरण है, अतः उसे ही प्रमाणित मानना अधिक संगत होगा । ८ इससे यह सिद्ध हो जाता है कि मुनिश्री की दीक्षा तिथि चैत्र बदि क्ष्मीं थी । ख्यात तथा मघवागणि रचित ढाल में दीक्षा तिथि चैत्र शुक्ला भूल से लिखी गई मालूम देती है । और भी प्राप्त होता है कि उन्होंने मुनि जीवोजी कृत ढाल में एक विशेष विवरण भर यौवन के समय स्त्री की विद्यमानता में ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया था । चढ़ता जोवन में सुंदर जीवत, सील आदरीयो रे। एक चारित चित माहै वसीयो, वैरागी तप सूं तियो रे ॥ ( मुनि जीवोजी (१६) कृत ढाल १ गा. १७) इससे प्रमाणित होता है कि आप विवाहित थे । कहीं-कहीं ( सेठिया संग्रह आदि में ) जो ऐसा उल्लेख मिलता है कि आप विवाहित नहीं थे, वह उक्त आधार से सही नहीं है । मुनि जीवोजी की ढ़ाल तथा अन्य कृतियों में भी ऐसा उल्लेख नहीं पाया जाता कि आपने पत्नी के जीवित काल में दीक्षा ली। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आप पत्नीवियोग के बाद ही दीक्षित हुए । १. मुनिश्री ने लाखों पद्य लिखे । मघवागणि रचित ढा० गा० ३ में है " वलि लाखां ग्रंथ लिख्यो मुनि हो, वारु उद्यम अधिक उदार के । ” लेखनी बहुत द्रुत गति से चलती थी। दिन में ४, ५ पन्नों तक लिख लिया करते थे । उनके अक्षर 'चीड़ी खोजिए' (टेढे-मेढे ) थे, पर अशुद्धियां विशेष नहीं आती थी । उनकी लेखन गति के विषय में जयाचार्य एक पद्य फरमाया करते थे । "एक पानो रगड्यो, दोय पाना रगड्या तीजो पानो रगडे रे । चोथो पिण कर देवे अनोपचंद अणगार खण्ड ४, अंक ७-८ त्यार, पर्छ पांचवां सूं झगड़े रे ॥ उठ्‌यो कर्मा ने रगड़े रे ॥" ४३३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (लय-पीलो रंगा द्यो..) तरुण तपस्वी-तरुण तपस्वी, संत अनूप कहाये, साधक जन में । तरुण । परम-यशस्वी-परम यशस्वी, स्थान ऊवंतम पाये, साधक जन में । तरुण"ध्र वा कलयुग में सतयुग सी सचमुच, तप की धारा खोली । साध ""। साहस रस नस-नस में भरकर, बोली ऊंची बोलो । सा" "७।। वज्रऋषभनाराच संहनन, नहीं इस समय होता। किन्तु श्रमण ने कर दिखलाया, उससे भी समझौता ॥८॥ तप की श्रुति से अथवा स्मृति से सबका शिर डोलाता। अथ से लेकर इति तक सारी, संख्या सम्मुख लाता ॥६॥ १. मुनिश्री बड़े उग्र तपस्वी हुए हैं। उनकी तपश्चर्या का वर्णन रोमांचकारी है। पढ़ने से लगता कि वे तपस्या में एक रस हो गये थे। खाने-पीने आदि में रुचि नहीं रही थी। एक श्रावक द्वारा रचित गीतिका में वर्षों के क्रम से उनकी तपस्या का विवरण इस प्रकार मिलता है : सं० १८६२ में–२१ दिन, ६ दिन का आछ के आगार से तप किया । सं० १८९६ में-६३ , सं० १८९७ में- ८ , पानी , " " " " सं० १८९८ में--३७ ,, आछ" सं० १६०३ में- ८ ,, सं० १६०५ में--१०६ , सं० १९०६ में- ४ , पानी ,, , , " " सं० १९०७ में--७७ , आछ , " " " सं० १९०८ में-१३ , सं० १६०६ में-१८७ सं० १९१० में-१९३ सं० १९११ में-१८१,, सं० १९१२ में-२१८ सं० १६१३ में-५३ ,, पानी , " " " " सं० १९१४ में-४८ , सं० १९१५ में--१९३ ,, आछ , , , , " सं० १९१६ में—३०७,, पानी ,, , , , सं० १९१७ में-३८,४,५,७,१७ और ५ दिन पानी के आगार से किये । सं० १९१८ में--१० दिन चौविहार, ११,१२ पानी के आगार से किये । १२ में तीन दिन पानी पिया। सं० १९१६ में-२१ दिन में १० दिन चौविहार किये, ७ में दो दिन पानी पिया एवं ४ थोकड़े और किये। ४३४ तुलसी-प्रज्ञा ܙܙܙܙ ܙܙ ܙܙ ܙܙܙܙ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १९२० में --१६ दिन में ६ दिन चौविहार किये तथा १५,१४,१८,१६ पानी के आगार से किये। सं० १९२१ में-२०,२२,२३ पानी के आगार से किये । सं० १९२२ में–४१ दिन पानी के आगार से किये। सं० १९२३ में-३५ , , , , , , सं० १९२४ में---फुटकर तप किया। सं० १९२५ में-- , , , सं० १९२६ में- , , , सं० १९२७ में-५ दिन चौविहार किये। सं० १९२८ में-५७ दिन गर्म पानी के आगार से किये । सं० १९२६ में-१५ दिन चौविहार किये फिर सोलहवें दिन पानी पिया, १७वें दिन तपस्या में दिवंगत हुए। ख्यात तथा शासन प्रभाकर में आपकी चोले से ऊपर की तपस्या का विवरण इस प्रकार है २२ २ २ २ २३ ३ १ १ ३ ३ १ १८ १९ २० २१ २२ २३ ३० ३५ ३७ ३८ ४१ ४२ ४५ ४८ ५३ ५५ ५७ ६३ ७७ ६४ १५ १०६ १८१ १८७ १६३ २१८ ख्यात ६५ ____ उपवास से तेले तक की संख्या उपलब्ध नहीं है। ख्यात तथा ढाल में कुछ भिन्नता है-- ढाल ६४ नहीं नहीं ३८ के २ ३८ का १ ३० के २ ३० का १ २३ के २ २३ का १ २२ के २ २२ का १ १६ के ३ १६ का १ १५ के ३ १५ के २ ११ के ३ ११ का १ १० के ३ १० का १ ६ के २ ६ का १ ६ के २ ६ का १ is in no m m m m s ro Worx खण्ड ४, अंक ७-८ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथ भक्त से तीन बीस तक, लड़ी बद्ध कर पाये। चौदह दिन का अंक छोड़कर, क्रमशः ऊर्ध्व चढ़ाये ॥१०॥ चार साल तक लगातार तप, किया बड़ा मुनिश्री ने। तोन छहमासी, एक बार तो साधिक सात महीने ॥११॥ उनमें पहली एक साथ में, पचखी है छहमासी । नौ की संवत् कोशीथल में, पाई है स्याबासी ॥१२॥ ढाल में चार थोकड़े करने का उल्लेख है। नोट-ख्यात तथा ढाल में सं० १९०६ में आपकी तपस्या १८७ दिन की लिखी है, पर जय सुजश में १९१ दिन एक साथ पचखने का उल्लेख है। त्यां तपसी अनोप सु तंत, आय अरज करी । दिन एक सौ इकाणुं भदंत, पचखावो हित धरी॥ जल आछण आगार, रीति मुनिवर तणी, पचखायो तप सार, मनुहार कर गण धणी। (जय सुजश ढा. ३८ गा. ३) मघवागणी रचित ढाल में उनकी बड़ी तपस्या का वर्णन ख्यात के अनुसार है। १. चौथ भक्त थी लेई करी हो गुणी० तेवीस लग सुविचार के। एक चवदै बिना मुनि तप कियो हो, केई एक बार बहु वार कै ॥ (मघवागणी रचित ढा. १ गा. ५) २. मुनिश्री ने कुल चार छह मासियां एवं एक सवा सातमासी की। उनमें तीन छहमासियां और एक सवा सातमासी लगातार चार साल सं० १६०६ में (१८७ अथवा १९१ दिन), सं० १६१० में (१६३ दिन), सं० १९११ में (१८१ दिन) और सं० १६१२ में (२१८ दिन) की। ३. चार छह मासियों में पहली छहमासी (१८७ या १६१) सं० १९०६ में कोशीथल में जयाचार्य द्वारा एक साथ पचखी। इस संबंध में जय सुजश ढा. ३८ की गा. ३ ऊपर दे दी गई है। सं० १९१० में की गई दूसरी छहमासी का स्थान प्राप्त नहीं है। ४३६ तुलसी-प्रज्ञा Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा किया तीसरा छह मासी का, पुण्य 'पारणा' भारी। योग मिला श्री जयाचार्य का, मेला लगा प्रियकारी ॥१३॥ चौथी छहमासी चंदेरी में, एक साथ फिर पचखी। मालव में जा किया पारणा, आत्म शक्ति को परखी२ ।।१४।। १. सं० १९११ में मुनिश्री ने तीसरी बार छहमासी (१८१ दिन) की, उसका पारणा जयाचार्य ने झखणावद में पोष महीने में करवाया। पोष मास झखणावद में, तपसी अनोप नै ताम । आछ आगार षट् मास नो, पारणो करायो स्वाम ॥ (मघवा सुजश ढा. ५ दो. २) मुनिश्री की छहमासी के पारणे के असवर पर मुनिश्री शिवजी (७८) भी पेटलावद चातुर्मास कर झखणावद आ गये थे। वहां उन्होंने भी ८ दिन का तप किया था। इसका उनके गुण-वर्णन की ढाल में उल्लेख मिलता है मुनि थे तो चरम चौमासो अमद, कियो पटलावद रा । तपसीजी। मुनि थे तो विहार करी सुखदाया, जखणावदे आया रा। , मुनि तिहां अनोपचंद सुविमासी, करी खट मासी रा। , मुनि तिहां थे पिण करी अठाई, पारणो संग लाई रा। , मुनि तिहां अनोप नै पारणो करायो, जीत ऋषि आयो रा। , मुनि तिहां संत सत्यां रा थाट, अति गहघाट रा। , (शिव मुनि गु. ब. ढा. १ गा. ४६ से ५४ तक) सं० १९१२ में मुनिश्री का चातुर्मास राजनगर था। फिर वे नाथद्वारा आये। वहां जयाचार्य ने उनको सवा सातमासी (२१८ दिन) का पारणा करवाया। श्रीजीद्वार पधारिया रे, तिहां तपसी काकडाभूत ।। अनोपचंद बे सो अठारा आछ नां रे, पारणो करायो अदभूत ॥ (मघवा सुजश ढा. ५ गा. ६) जय सुजश ढा. २३ गा. २७,२८ में भी इसका उल्लेख है । २. मुनिश्री की सं० १६१५ की चौथी-अन्तिम छहमासी का (१६३ दिन) बड़ा रोचक संस्मरण है । सं० १९१४ के शेषकाल में जयाचार्य लाडनूं विराज रहे थे। तपस्वी मुनि ने गुरुदेव से प्रार्थना की-कल से मैं एक महीने की तपस्या करना चाहता हूं। आचार्य श्री ने प्रबल भावना देखकर उनको स्वीकृति दे दी। उन्होंने सायंकाल का भोजन (धारणा) भी कर लिया। वे पंचमी समिति के लिए जाने लगे तब साध्वी प्रमुखा सरदारांजी ने उनसे कहा-आज कुछ घी अधिक आ गया है, उसे आपको उठाना (खाना) है । वे बोले मैंने आहार कर लिया है, अब मुझे भूख नहीं है। महासती ने कहा-"आप जैसे तपस्वी संतों के क्या पता लगता है, किसी कोने में पड़ा रहेगा।" अच्छा ! आपकी जैसी इच्छा हो। साध्वी प्रमुखा ने एक सेर लगभग घी उनको दिया खण्ड ४, अंक ७-८ ४३७ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र चार सौ संग लिये फिर, लेखन स्याही काली। प्रतिदिन लिखते पथ में केवल, गया एक दिन खाली' ॥१५॥ उष्ण छाछ का नितरा पानी, 'आछ' नाम से नामी। सेर पच्चीस के लगभग दिन में, पी सकते गुणधामी' ॥१६।। और वे उसे कढी आदि में मिलाकर पी गये । समय की बात थी कि रात में अपच हो गया, जिससे उनको काफी दस्त लगे। शरीर बहुत अस्वस्थ और कमजोर हो गया। प्रातःकाल जब उन्होंने जयाचार्य के दर्शन किये तब आचार्यप्रवर ने फरमाया-तपस्वी ! अब वह मासखमण करने का विचार मत रखना, क्योंकि रात में तुम्हारे बहुत अस्वस्थता रही।" तपस्वी ने कहा-गुरुदेव ! मैंने वह विचार छोड़ दिया है । अब तो आप कृपा कर मुझे छहमासी पचखा दीजिए। तपस्वी के ये पुरुषार्थ भरे वचन सुनकर सब देखने वाले तथा स्वयं जयाचार्य विस्मित हो गये। आखिर तपस्वी ने बहुत आग्रह भरे शब्दों में निवेदन किया तो जयाचार्य ने उनको आछ के आगार से एक साथ छहमासी पचखा दी। वे बड़े प्रसन्न हुए। जयाचार्य ने उनसे पूछा--तुम्हें किसी प्रकार की चाह हो तो कहो। उन्होंने कहा-मुझे दो, तीन सौ कोश का विहार के लिए आदेश दें। तपस्वी की इस मांग को सुनकर सभी आश्चर्य चकित हो गये। सोचा तो यह गया था तपस्वी मनोनुकूल क्षेत्र और अपनी सेवा में रखने के लिए विशेष साधुओं के लिए निवेदन करेंगे, पर तपस्वी की मांग तो निराली ही रही । आचार्यवर ने फरमाया--तपस्या में इतना लम्बा विहार कैसे होगा ? मुनिश्री बोले- मुझे आहार तो करना नहीं हैं, चलता रहूंगा। तब आचार्यश्री ने उनको मालव प्रान्त में आने का आदेश दिया। गुरुदेव ने उनको दूसरी मांग के लिए फिर कहा तो उन्होंने कहा-मुझे ४०० पन्ने लिखने के लिए दे दीजिए । आचार्यश्री बोले-इतने लम्बे विहार में इतना लिखना कैसे संभव होगा ? तपस्वी ने कहा-भगवन् ! मेरे काम क्या हैं ? खाना तो है नहीं, यथासमय सुबहशाम चलता जाऊंगा और दिन में आलस्य न आये इसलिए लिखता रहूंगा।" तपस्वी की दूसरी मांग भी पूरी की। उन्होंने वहां से विहार किया। रास्ते में निरन्तर लिखना चालू रहा। कभी-कभी ४-५ पन्नों तक लिख लेते थे। इस प्रकार ४०० पन्ने लगभग लिखे एवं मालव प्रदेश में जाकर १६३ दिन का पारणा किया । कहा जाता है कि पारणे के दिन उन्होंने १६६ घरों की गोचरी की। (अनुश्रुति के आधार से) १. मुनिश्री रास्ते में प्रतिदिन लिखते थे । केवल एक दिन खाली गया। २. मुनिश्री आछ के आगार से की गई तपस्या के एक दिन में अधिक से अधिक २५ सेर लगभग आछ का पानी पी लेते थे। तुलसी-प्रज्ञा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःषह परिषह शीतादिक के, सहन किये हैं भारी। कर्म निर्जरा कर कर भरली, सुकृत सुधा रस क्यारी॥१७॥ चौविहार पन्द्रह दिन करके, पिया एक दिन पानी। तन में कृशता आई कुछ पर, चढ़ती भाव जवानी ॥१८॥ सप्त दशम दिन देवरिया में, देवलोक पहुंचाये। संयम तप के शिखरों चढ़कर, नाम अमर कर पाये ॥१९॥ लय-मूल धन्य-धन्य वे महामना है, खोल दिया तप का झरणा है। श्रद्धानत संसार झांकता क्षण-क्षण उनकी ओर ॥२०॥ जय-जयकारी भैक्षव शासन जय-जयकारी तरुण तपोधन। जन-जन मुख से जय-जय ध्वनियां उठती चारों ओर ।। दोहा दीक्षा उनके हाथ से, हुई संत की एक' । चातुर्मासिक क्षेत्र का, मिलता कुछ उल्लेख' ॥२२॥ १. सं० १९२६ में देवरिया (ख्यात में नवैशहर देवरिया लिखा है) ग्राम में उन्होंने १५ दिन चौविहार किये, १६वें दिन पानी पिया और १७वें दिन अचानक स्वर्ग प्रयाण कर दिया । शहर देवरियो दीपतो हो, पंडित मरण उछाह । अनोप तपसी हद लियो हो, पद आराधक लाह ॥ (मघवागणि रचित ढा. १ गा. १५) २. ख्यात में उल्लेख है कि मुनिश्री अनोपचंदजी ने सं० १६०५ में मुनिश्री ज्ञानजी (१५२) को दीक्षा दी। ३. मुनिश्री के अग्रणी होने का संवत् नहीं मिलता पर कुछ चातुर्मास इस प्रकार मिलते हैं । ___ सं० १९११ में उनका चातुर्मास झकनावद था । जय सुजश ढा. ४१ गा. २ में चातुर्मास के आदेश का उल्लेख है। वहां उन्होंने छहमासी तप किया था। उसका झकनावद में पोष महीने में जयाचार्य ने पारणा कराया था, ऐसा मघवा सुजश ढा. ५ दो. २ में उल्लेख है। श्रावकों द्वारा लिखित प्राचीन चातुर्मासिक तालिका के अनुसार सं० १६१२ में मुनिश्री का ५ ठाणों से चातुर्मास राजनगर था। ____सं० १६१६ में ३ ठाणों से जोधपुर चातुर्मास था। साथ में मुनि कपूरजी (१०६) और घणजी (१३१) थे। ऐसा पंचपदरा के श्रावकों के प्राचीन पत्रों में उल्लेख मिलता है। ___सं० १९२३ में मुनिश्री जयाचार्य के साथ बीदासर चातुर्मास में थे। वहां उन्होंने ३५ दिन का तप किया। खण्ड ४, अंक ७-८ ४३९ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गण कीत्तंन की ढाल दो, ख्यात आदि में बात । मिलती मुनि संबंध में, करलो पढ़कर ज्ञात ।।२३।। अनोपचंद तपसी अमल, थोकड़ो तप पणतीस । उदक आगार चउविहार के, वर तप विश्वावीस ॥ (जय सुजश ढा. ५१ दो. ३) सं० १९२२ के शेषकाल में भी वे जयाचार्य के साथ थे, इसका जय सुजश में उल्लेख मिलता है कि जयाचार्य रामपुरा पधारे तब उन्होंने मुनिश्री को सम्बोधित कर एक शिक्षात्मक सोरठा फरमाया था। दिन-दिन विनय दिनेश, अंतर उजुवालो अधिक । वाधे सुयश विशेष, ताजक सीख तिलेसरा ॥ (जय सुजश ढा. ५० सो. ३) शेष चातुर्मास प्राप्त नहीं हैं। १. मुनिश्री के गुण वर्णन की ढाल १ मघवागणी द्वारा सं० १९४५ के सरदारशहर चातु र्मास में रचित है। दूसरी ढाल किसी श्रावक द्वारा सं० १६३५ कात्तिक बदि १३ को चूरू में रची हुई है। उक्त दोनों ढालें प्राचीन गीतिका संग्रह में संकलित हैं। ख्यात तथा शासन प्रभाकर, ऋषिराय संत वर्णन गा. १२० से १३२ में भी उनके संबंध का विवरण है। तुलसी-प्रज्ञा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ४, अंक ७-८ पाँच मुक्तक मुनि मोहनलाल "शा ल" (१) तोली जाये तो हर बात तुल जाए, खोली जाये तो हर गाँठ खुल जाए । यह सब आदमी पर ही निर्भर है, वह धोए तो हर चद्दर धुल जाए ॥ (२) हार को जीत में बदलने की कला सीखो, रुदन को गीन में बदलने की कला सीखो । अगर जिंदगी की असलियत को पाना है तो बैर को प्रीत में बदलने की कला सीखो || (३) कर्म नहीं है तो नारों से क्या होगा, आदर्श नहीं है तो आकारों से क्या होगा । दान की घड़ी में तो भाग खड़े होते हो, वीर काव्यों में लिखी हुंकारों से क्या होगा ।। (४) काम धोखे का है, बात ईमान की है, पूजा शैतान की है, चर्चा भगवान् की है । दुनियाँ की दुःख दुविधा, मिटे तो कैसे मिटे, सीरत हैवान की है, सूरत इन्सान की है ॥ (५) समझ कम है लेकिन समझ का भार ज्यादा है, प्यार कम है पर प्यार का इज़हार ज्यादा है । दिखावे के इस जमाने में जन्नत में भी देखो, काम कम है पर काम का प्रचार ज्यादा है ॥ 1:0:1 ४४१ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमज्जयाचार्य रचित 'झीणी चर्चा' (मूल एवं हिन्दी अनुवाद) सम्पा० एवं अनु-मुनि नवरत्नमल (गताङ्ग से आगे) ढाल-३ दोहा १. उदै निपन उपशम निपन, खायक निपन पिछांण । बले खयोपशम निपन तणो, निरणय तीजी ढ़ाले जांण ।। उदय-निष्पन्न, उपशम-निष्पन्न, क्षायक-(क्षय) निष्पन्न तथा क्षयोपशम-निष्पन्न का विवेचनात्मक निर्णय तीसरी ढ़ाल में किया जा रहा है । [लय-प्रभवो मन में चितव.... ..] १. उदै निपन कर्म आठ नो, उपशम निपन एक सार । खायक निपन आठां तणो, खयोपशम निपन च्यार ।। उदय-निष्पन्न आठ कर्मों का, उपशम-निष्पन्न एक कर्म (मोह) का, क्षय-निष्पन्न आठ कर्मों का और क्षयोपशम-निष्पन्न चार कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शणावरणीय, मोहनीय, अंतराय) का होता है। २. छ कर्म उदे निपन सुणो, छ द्रव्य में जीव ताहि । नव तत्त्व में पिण जीव इक, सावद्य निरवद्य नांहि ।। छह कर्मों (मोह और नाम को छोड़कर) का उदय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में भी एक जीव है । पर वह सावध (पाप सहित) और निरवद्य (पाप रहित) नहीं है। ३. मोह कर्म उदै निपन ते, छ द्रव्य मांहि जीव । नव में जीव आश्रव अशुभ छ, सावद्य कयो सदीव ॥ मोह कर्म का उदय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और आश्रव हैं । आश्रव में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग आश्रव है। उसे सदैव सावध ही कहा है। ४४२ तुलसी-प्रज्ञा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. नाम कर्म उदै निपन ते, छ द्रव्य मांहि जीव । नव में जीव आश्रव कहयो, शुभ जोग आश्रव कहीव ।। नाम कर्म का उदय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और आश्रव हैं । आश्रव में उसे शुभ योग आश्रव कहा गया है। ५. मोह कर्म उपशम निपन ते, छ द्रव्य मांहि जीव । नव में जीव संवर कयो, उत्तम गुण है अतीव ।। मोह कर्म का उपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और संवर हैं । जो आत्मा के श्रेष्ठतम गुण हैं। ६. उदै निपन उपशम निपन, दाख्यो है दिल पाक । खायक निपन कह हिवै (ते) निसूणो तज छाक ।। उदय-निष्पन्न तथा उपशम-निष्पन्न का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन कर दिया गया है। अब क्षय-(क्षायक) निष्पन्न का उल्लेख कर रहा हूं, उसे सभी आलस्य और प्रमाद को छोड़कर सुनें। ७. ज्ञानावरणी खायक निपन ते, छव में जीव पिछांण। नव में जीव ने निर्जरा, केवलज्ञान सुजाण ॥ ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दोजीव और निर्जरा हैं । ज्ञानावरणीय के क्षय से केवलज्ञान की उपलब्धि होती है। ८. दर्शणावरणी खायक निपन ते छव में जीव पिछांण। नव में दोय जीव निर्जरा, केवल दर्शण जांण ।। दर्शणावरणीय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और निर्जरा हैं। अर्थात् दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से केवलदर्शन की प्राप्ति होती है। ६. वेदनी खायक निपन ते, छव में जीव पिछांण। नव में दोय जीव मोख छ, ते खय सहु खय जाण ॥ वेदनीय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और मोक्ष हैं । वेदनीय कर्म के क्षय होने के साथ-साथ अवशेष सब कर्मों (आयुष्य, नाम, गोत्र) का क्षय हो जाता है। १०. मोह कर्म खायक निपन ते, छ में जोव सजोय । नव में जीव संवर निर्जरा, दर्शण चारित्र दोय ।। मोहनीय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में तीन-जीव, संवर और निर्जरा हैं। मोह कर्म के दो भेद हैं-दर्शणमोह और चारित्रमोह। ११. दर्शण मोह खायक निपन ते, छ में जीव तांम । नव में जीव संवर निर्जरा, खायक सम्यक्त्व पाम ।। दर्शनमोह का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में तीनजीव, संवर और निर्जरा हैं। दर्शनमोह के क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। खण्ड ४, अंक ७-८ ४४३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. खायक सम्यक्त्व चौथा गुणठाणा तणी, छ में जीव विख्यात । नव में दोय जोव निर्जरा, संवर नहीं तिलमात ।। चौथे गुणस्थान वाले प्राणी का क्षायिक-सम्यक्त्व छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव ओर निर्जरा हैं, पर संवर किंचित् मात्र भी नहीं है। १३. खायक सम्यक्त्व विरत वंतरी, छ में जीव सुजाण । नव में जीव संवर कहयो, पांचमा सू पिछाण ।। देशव्रती और सर्वव्रती का क्षायिक-सम्यक्त्व छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और संवर' हैं, जो पाँचवें गुणस्थान से चौहदवें गुणस्थान तक होते हैं। १४. चारित्र मोह खायक निपन, छ में जोव सजांण । नव में जीव संवर विरत ते, खायक, चारित्र पिछांण ।। चारित्र मोह का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दोजीव और संवर हैं। उन्हें विरत और क्षायिक-चारित्र (यथाख्यात चारित्र) कहा जाता है। १५. आउखो कर्म खायक निपन ते, छ में जीव सजोय । ____नव में दोय जीव मोख छ, ते संसारी में न होय ।। आयुष्य कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और मोक्ष हैं। वे सांसारिक जीवों में नहीं होते। (आयुष्य कर्म के क्षय से अटल-अवगाहना (आत्म प्रदेशों का स्थिर होना) गुण प्रकट होता है, जो सिद्धों में ही पाया जाता है।) १६, नाम कर्म खायक निपन ते, छ में जीव पिछांण । नव में दोय जीव मोख छे, ते पिण सिद्धां में जांण ।। नाम कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और मोक्ष हैं । वे सिद्धों में ही होते हैं । (नाम कर्म के क्षय से अमूर्तित्व (अशरीरीपन) गुण उपलब्ध होता है, वह सांसारिक प्राणियों में नहीं मिलता।) १७, गोत कर्म खायक निपन ते, छ में जीव है सोय । नव में दोय जीव मोख छै, अगुरुलघु अवलोय ॥ गोत्र कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो--जीव और मोक्ष हैं । गौत्र कर्म के क्षय से अगुरुलघुत्व (न छोटापन न बड़ापन) गुण की प्राप्ति होती है (वह सिद्धों में ही होता है)। १८. अतराय खायक निपन ते, छ में जीव पिछांण । ___ नव में दोय जीव निर्जरा, पाच खायक लब्ध जांण ॥ अंतराय कर्म का क्षय-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो---जीव और निर्जरा हैं। अंतराय कर्म के क्षय से पाँच क्षायिक लब्धियाँ (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य) मिलती हैं। १. यहाँ संवर सम्यक्त्व संवर की अपेक्षा से है। m तुलसी-प्रज्ञा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. कर्म अघाति चिहुं खायक निपन, ते इक इक आश्री पूछिद । छ में जीव नव में जीव छै, केइ गणी एम कर्थिद ॥ २०. अघाति चिहं खायक निपन ते, केइ कहे एक जीव ताय । केइ जीव ने मोख कहे, बेहूं नय वचन जणाय ।। चार अघाती कर्मों (वेदनीय, नाम, गोत्र, आयु) के क्षय-निष्पन्न के संबंध में पृथक्पृथक रूप से एक-एक कर्म की पृच्छा की जाये तो वह छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में भी एक जीव है । ऐसी कुछ आचार्यों की मान्यता है। ___ कई आचार्य चार अघाती कर्मों के क्षय-निष्पन्न को छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और मोक्ष कहते हैं। उक्त आचार्यों का कथन पृथक्-पृथक् नय की अपेक्षा से है, ऐसा प्रतीत होता है। सोरठा २१. खायक निपन गुणखाण रे, आख्यो अधिक उमंग सू। खयोपशम निपन जाण रे, अभिलाषा कहिवा तणी ।। गुणोत्पादक क्षय-निष्पन्न का परम उमंग से उल्लेख कर दिया गया। अब क्षयोपशमनिष्पन्न को अभिव्यक्त करने की इच्छा हो रही है। ढाल २२. ज्ञानावरणी खयोपशम निपन ते, छव में जीव नव में दोय॥ चउनाण अनाण भणवो कहयो जीव निर्जरा जोय ।। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और निर्जरा हैं । इससे आठ बोल-चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव), तीन अज्ञान (मति, श्रुत, विभंग) और भणन-गुणन की प्राप्ति होती है। २३. दर्शणावरणो क्षयोपशम निपन ते, छ में जीव सुचीन । नव में दोय जीव निर्जरा, इन्द्रिय दर्शण तीन ॥ दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में दो-जीव और निर्जरा हैं। इससे आठ बोल–पाँच इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष , श्रोत्र) और तीन दर्शन (चक्ष , अचक्ष , अवधि) उपलब्ध होते हैं। . २४. मोहणी क्षयोपशम निपन ते, छ में जीव सू इष्ट । नव में जीव संवर निर्जरा, चिहुं चरण देशव्रत दृष्ट ॥ मोहनीय कर्म का क्षयोपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में तीन-जीव, संवर और निर्जरा हैं। इससे आठ बोल-चार चारित्र (सामायिक, छेदोपस्थाप्य, परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसंपराय) एक देशवत (श्रावक व्रत) और तीन दृष्टि (सम्यग् दृष्टि, मिथ्याष्टि, सम्यमिथ्या दृष्टि) प्राप्त होते हैं। २५. अंतराय क्षयोपशम निपन ते, छ में जीव सुचीन । नव में दोय जीव निर्जरा, पांच लब्ध वीरज तीन । अंतराय कर्म का क्षयोपशम-निष्पन्न छह द्रव्यों में एक जीव और नव तत्त्वों में [शेष पृष्ठ ४४६ पर] लण्ड ४, अंक ७-८ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक युवा श्रमणी : महाश्रमणी' साध्वी यशोधरा तेरापंथ साध्वी-संघ एक प्राणवान् साध्वी-संघ है। सुनियोजित, सुव्यवस्थित, सुसंगठित, अनुशासित, सर्वात्मना समर्पित और श्रद्धानिष्ठ साध्वी-संघ को देखकर स्वयं आचार्यप्रवर कई बार फरमाते हैं- "साध्वियाँ हमारे संघ का गौरव हैं, अमूल्य निधि हैं और हैं महान् शक्ति।" षष्टि-पूर्ति के अवसर पर विशाल श्रमणी परिवार की अभ्यर्थना झेलते हुए उसके प्रत्युत्तर में आचार्यप्रवर ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा "तुम्हारा विकास ही मेरा सच्चा अभिनंदन है।" जिस साध्वी-संघ के अभ्युदय के लिए स्वयं आचार्य अहर्निश प्रयत्नशील हो । जो अपनी एक-एक साँस और एक-एक पल, जिसके निर्माण में होमते हों, जिसके लिए अनन्त करुणा और अपरिमेय वात्सल्य का निर्झर सतत प्रवहमान हो वह साध्वी-संघ भला प्रबुद्ध, प्रभास्वर और उदितोदित कैसे नहीं होगा। उसी साध्वी-संघ की वर्तमान में एक अप्रतिम उपलब्धि है महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा जी । तेरापंथ धर्मसंघ के क्षितिज पर उभरकर आने वाली अनेक गरिमामयी संभावनाओं में आप एक समुज्ज्वल संभावना हैं। आचार्यप्रवर की हीरकनी मेधा ने ऐसे हीरे को तराशा, जिसमें एक साथ अनेक प्रतिभाओं की ज्योति-किरणे उद्भाषित हो रही हैं। आप एक भास्वर गौर ग्रहणशील चेतना की प्रतीक हैं । नारीजगत ऐसी अपूर्व उपलब्धि से उपकृत, अनुग्रहीत हुआ है। चमकती आँखें, भव्य ललाट, गेहुंआ रंग, मुस्कान बिखेरता हुआ सौम्य चेहरा, लंबा कद, फुर्तीली चाल, इन सब में झलकता उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक है, उससे भी कहीं अधिक समृद्ध है उनका अन्तर व्यक्तित्व । कितना अलंकृत है, उनका जीवन-काव्य । जिसकी एक-एक पंक्ति में अंकित हैसहज समर्पण, श्रमनिष्ठा, कला की कमनीयता, भावों का गाम्भीर्य, वाणी का माधुर्य, हृदय का औदार्य, भाषा की प्राञ्जलता, बुद्धि की कुशाग्रता, तत्त्वज्ञान की तलस्पशिता और कर्मयोग की गरिमा । आपके गतिशील जीवन के प्रतीक हैं *साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभा जी को आचार्यश्री द्वारा प्रदत्त 'महाश्रमणी' अलंकरण के उपलक्ष्य में विशेष लेख । तुलसी-प्रज्ञा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (i) ज्ञान की गहरी पिपासा (ii) लक्ष्य के प्रति निष्ठा (ii) चरित्र की निर्मलता ठीक समय पर ठीक काम करने की पक्षधर हैं आप । संकल्प की अद्वितीय अविचा लता, नियमित कार्य पद्धति, योजनाबद्ध प्रवृत्तियाँ, अप्रमत्तता, सतत जागरूकता प्रभृति विरल विशेषताओं ने आपके व्यक्तित्व और कर्तृत्व को सजाया-संवारा है। आचार्यप्रवर के हर चिन्तन, इगित, दृष्टि, आज्ञा और निर्देश के प्रति आप सर्वात्मना समर्पित हैं। कौन क्या कह रहा है, इस पर बिना ध्यान दिए आप अविलम्ब उसकी पूर्ति के लिए पूरी ताकत से जुट जाती हैं। ___ इन्हीं सब विशेषताओं का आकलन कर वि० सम्वत् २०२८ में गंगाशहर मर्यादोत्सव के अवसर पर महामहिम आचार्यप्रवर ने आपको 'साध्वीप्रमुखा' के महिमा मंडित पद पर प्रतिष्ठित किया है । इस गरिमामय पद से आप विभूषित हुई और आप से यह महनीयपद गौरवान्वित हुआ। युग-युग अत्यन्त आभारी रहेगा साध्वी-समाज, युगप्रधान आचार्यप्रवर का । जिन्होंने एक युवा साध्वी को विशाल श्रमणी परिवार का नेतृत्व सौंप कर युगीन अपेक्षा की सम्पूर्ति की है। राजस्थान में एक गाँव है लाडनू, वहाँ के वैद (बम्बूवाला) परिवार में आपका जन्म हुआ। प्राथमिक शिक्षा सम्पन्न की। आचार्यवर की जन्मभुमि, तीर्थभूमि लाडनू में शताधिक वर्षों से स्थविर साध्वियों का सतत स्थिरवास । सादगी और निश्छलता का निर्मल वातावरण, सर्वत्र चाँदनी से हिम धवल संस्कार और साध्वियों से मिलने वाली त्याग और तितिक्षा की जीवन्त प्रेरणाओं ने आपके मानस में विरक्ति का बीज-वपन कर दिया। किन्तु बचपन से ही संकोचशील वृत्ति, कम बोलने की प्रवृत्ति और अपने आपको अनभिव्यक्त रखने की मनोवृत्ति ने आपके भीतर में विरक्ति के बावजूद भी शादी की आयोजना करवा दी । आपकी ही शादी पर आ रहे चाचा जी की ट्रेन में ही मृत्यु हो गई। सहसा लगा जैसे मनुष्य की उम्र अंजली का जल है, जो हर साँस के साथ रीत रहा है। यहाँ जो उगा है, अस्त होगा; जला है, वह बुझेगा; खिला है, वह बिखरेगा। जन्म जिसका हुआ है उसका मरण अनिवार्य नियति है। इस अप्रत्याशित दुर्घटना ने संसार के प्रति सार्थक विकर्षण को और अधिक पुष्ट कर दिया । रचे हुए ब्याह को ठुकरा पन्द्रह वर्ष की वय में ही आपने प्रवेश पाया श्री पारमार्थिक शिक्षण संस्था में, जो संस्था साध्वी-जीवन की पूर्वभूमिका का निर्माण करती है। आध्यात्मिक संस्कारों का पल्लवन करती हई ज्ञान-गंगा में अभिष्णात होती हैं, जहाँ मुमुक्षु छात्राएँ। आपने उस संस्था में चार वसन्त बिताए । ज्ञान के क्षेत्र में अपनी बहुमुखी प्रतिभा प्रस्फुरणा से उदीयमान छात्रा के रूप में सम्मान पाया। उन्नीस वर्ष की वय में सम्वत् २०१७, तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के ऐतिहासिक अवसर पर तेरापंथ की उद्भव स्थली केलवा' में आचार्य तुलसी के कर कमलों द्वारा आपका दीक्षा-संस्कार सम्पन्न हुआ। खण्ड ४, अंक ७-८ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर के पावन सान्निध्य में ज्ञान, दर्शन और चरित्र की त्रिपथगा में आपने अवगाहन किया। चारित्रिक उज्ज्वलना के साथ-साथ स्वल्प समय में ही व्याकरण, शब्दकोश, काव्य, साहित्य, आगम आदि का तलस्पर्शी—अध्ययन किया। अपने यहाँ प्रचलित पाठ्यक्रम की स्नातकोत्तर परीक्षाओं में विशिष्ट योग्यता प्राप्त कर नए कीर्तिमान स्थापित किए। हिन्दी, संस्कृत एवं प्राकृत आदि भाषाओं की आप अधिकृत विदुषी हैं तथा कुशल लेखिका और कवयित्री भी हैं। "सरगम" नामक काव्य संकलन प्रकाशित हो चुका है, जिसमें आपकी काव्यप्रतिभा मुखर हुई है। आगमवाचनाप्रमुख आचार्यप्रवर के नेतृत्व में चल रहे आगम अनुसंधान कार्य में आप वर्षों से संलग्न हैं। अनयोगद्वार और राजप्रश्नीयसूत्र हिन्दी में अनूदित कर चुकी हैं और भगवती जैसे विशालकाय आगम का हिन्दी अनुवाद कर रही हैं । युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी द्वारा प्रणीत कालूयशोविलास, डालम चरित्र, माणकमहिमा, चन्दन की चुटकी मली नन्दन निकुंज जैसे काव्य ग्रन्थों का और उद्योधन, अनतिकता की धूप और अणबत की छत्तरी, अणब्रत के आलोक में, अणब्रतः गति प्रगति, मुक्तिपथ, वचनवीथी आदि पुस्तकों का कुशलता से सम्पादन किया है। भगवती सूत्र की जोड़ का निर्माण करते समय तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य बोलते और साध्वीप्रमुखा गुलाबसती लिखतीं। उनकी स्मरण-शक्ति और ग्रहणशक्ति इतनी तीव्र थी कि उन्हें लिखने के लिए दूसरी बार पूछना नहीं पड़ता। ठीक उसी इतिहास की पुनरावृत्ति कर रही हैं वर्तमान साध्वी प्रमुखाश्री जी। ___ आचार्यश्री तुलसी की दक्षिण यात्रा को एक हजार पृष्ठों में आलेखन कर आपने यात्रा-साहित्य में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है । सृजनर्मिता आपकी प्रशस्य मनोवृत्ति है । सृजन के क्षण को ही आप जीवन का सर्वोत्कृष्ट क्षण मानती हैं । अपने विनम्र व्यवहार, मिलन सारिता, कार्य पटुता, व्यवस्था सुघड़ता और अनुशासन कौशल से आपने न केवल साध्वीसंघ की प्रत्युत्तर हजारों-हजारों लोगों की अगाध श्रद्धा और हार्दिक सम्मान प्राप्त किया है। . संघ में अग्रगणी साध्वियों में सबसे अल्पवयस्क साध्वी को साध्वी-संघ का बृहत्तर उत्तरदायित्व सौंपकर महामना आचार्यप्रवर ने आपके प्रति अनन्त विश्वास की अभिव्यक्ति दी है । दीक्षा पर्याय में मात्र ग्यारह वर्षीया साध्वी का आचार्य के दिल में इतना विश्वास पाना एक विरल विशेषता है। बीसवीं सदी की सबसे बड़ी त्रासदी है—आस्था का अभाव। ऐसे बौद्धिक युग में छोटी-बड़ी पाँच सौ से अधिक सभी साध्वियों के दिल को जीतना और उनसे प्रगाढ़ श्रद्धा और सम्मान का पाना अपने आप में अपूर्व उपलब्धि है। इसी से प्रसन्न हो महाप्राण आचार्यप्रवर ने इस वर्ष के मर्यादोत्सव के पुण्य अवसर पर आपको 'महाश्रमनी' के अलंकरण ४४८ तुलसी-प्रज्ञा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से अलंकृत किया है । मर्यादा महोत्सव के अवसर पर विशाल जनमेदिनी को सम्बोधित करते हुए आचार्य प्रवर ने कहा - " साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ने सात वर्ष के स्वल्प समय में समूचे समाज के हृदय को जीत लिया, यह प्रत्यक्ष है । इसकी सहज विनम्रता, आचार कौशल और सेवा - भावना से प्रसन्न हूं । अतएव इसे आज महाश्रमणी विशेषण से समलंकृत करता हूं।" आचार्यप्रवर के एक-एक शब्द में आपका कर्तृत्व और व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित हो रहा है। परमश्रद्धेय आचार्यप्रवर और महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा श्री जी के कुशल नेतृत्व और मार्गदर्शन में साध्वी समाज तीव्रगति से विकास के नए-नए आयाम उद्घाटित करता रहे इसी शुभाशंसा के साथ । शतशः अभिनन्दन - वन्दन । [ पृष्ठ ४४५ का शेषांश ] दो - जीव और निर्जरा हैं । इससे आठ बोल - पाँच लब्धि ( दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य) और तीन वीर्य (बाल वीर्य', पंडित वीर्य, बाल- पंडित वीर्य 3 ) पाये जाते हैं । २६. वेदनी आउ नांम गोत नो, क्षयोपशम नहि होय । तिण कारण ए च्यारु ना कहया, जाणे विरला कोय | वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र का क्षयोपशम - निष्पन्न नहीं होता इसलिए इन चारों का कथन नहीं किया गया । इस मर्म को विरले व्यक्ति ही समझ सकते हैं । १. पहले से चतुर्थ गुणस्थान वाले प्राणियों की शक्ति । २. छठे से चौदहवें गुणस्थान वाले प्राणियों की शक्ति । ३. पाँचवें गुणस्थान वाले प्राणियों की शक्ति । २७. ढ़ाल भली ए तीसरी, कहया निपन तज धंद | भीक्खू भारीमाल ऋषराय थी, जयजश अधिक आनंद ॥ तीसरी ढ़ाल में निर्विघ्न रूप से कर्मों के उदय - निष्पन्न आदि की चर्चा की गई है । आचार्य भिक्ष, भारीपाल ऋषिराय के प्रभाव से जयजश ( जयाचार्य) के आनंद ही (क्रमशः ) आनंद है । खंड ४, अंक ७-८ ४४६ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श श्रावक : महावीर की कल्पना -मुनि किशनलाल भगवान महावीर किसी एक वर्ग के आदर्श की परिकल्पना के पक्ष में कभी नहीं थे। उन्होंने आदर्श श्रावक की क्या आदर्श भगवान् की भी कभी कल्पना नहीं की। उनका विलक्षण व्यक्तित्व इस प्रकार निर्मित था कि वे सर्वत्र समता के ही दर्शन करते थे। साम्यभाव उनके रोम-रोम से प्रस्फुटित होता था। वे प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार में समत्व का दर्शन करना चाहते थे । उनकी साधना की उत्क्रान्ति का एक ही सूत्र था—समता "समया धम्ममुदाहरे मणी"। समता की इस सृष्टि के लिए सम्यक्-दर्शन अत्यन्त अपेक्षित है । भगवान् महावीर के धर्म और दर्शन का मूल आधार सम्यग्-दर्शन है। साधना की दृष्टि से सम्यग्-दर्शन विकास की प्रथम भूमिका है । श्रावक का कोई पहला आदर्श अथवा पहिचान का कारण हो सकता है, तो वह है सम्यग्-दर्शन । यह जैन परम्परा का ऐसा महत्त्वपूर्ण आदर्श है, जिसे प्राप्त किए बिना व्यक्ति विमुक्त हो ही नहीं सकता है। चंचल महिष के नुकीले शृंग पर टिके हुए मूंग के दाने के बराबर स्वल्प समय तक प्राप्त सम्यक्त्व भी व्यक्ति को मुक्तावस्था तक पहुंचाने में सहायक बन जाता है। विश्व में पीड़ा, अशान्ति, क्लेश का यदि कोई एक कारण हो सकता है, तो वह है मिथ्या-दृष्टि । व्यक्ति इससे यथार्थ को अयथार्थ देखता है । वस्तु के प्रति प्रिय-अप्रिय, रागद्वेष के भावों से कर्मों का अनुबन्ध करता है । कर्मों के अनुबन्ध से कषायों में तीव्रता आती है । तीव्र कषायों के कारण प्राणी पुनः पुनः जन्म-मरण को धारण करता है । सम्यग्-दर्शन की उपलब्धि की भूमिका देह और आत्मा का भिन्न साक्षात्कार है। कोई प्राणी जब एक बार भेद-विज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, तब उसकी मुक्ति निश्चित होती है । वह क्रमशः मोक्ष की ओर गति करने लगता है । भेद-विज्ञान उन्हें ही उपलब्ध होता है, जिनकी कषाय मन्द होती है । कषाय की तीव्रता में सम्यक्-दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता। मिथ्या-दर्शन का परिणाम मूर्छा एवं सम्यक्-दर्शन का परिणाम जागरण है । मूर्छा से चैतन्य विमूढ़ बनकर क्लेश के आवर्त में गिरता है । जागरण से मूर्छा टूटती है, व्यक्ति ४५० तुलसी-प्रज्ञा Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य को उपलब्ध होता है । सम्यक्-दर्शन के साथ जो व्यक्ति व्रत की ओर गति करता है, अथवा अपने जीवन की आकांक्षाओं को व्रत से सीमित करता है—वह श्रावक है । आकांक्षा व्यक्ति को आसक्ति में नियोजित करती है, जिससे आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि संज्ञाओं में प्रवृत्ति होता है । यह प्रवृत्ति संसार में परिभ्रमण का कारण बनती है। अर्हत् कैवल्य की उपलब्धि होते ही तीर्थ की स्थापना करते हैं । तीर्थ में दो वर्ग हैं—अणगार और उपासक । साधु-साध्वियां महाव्रत का अनुपालन करते हैं । उपासक एवं उपासिकाएं अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत का अनुपालन करते हैं । भगवान् महावीर की परिकल्पना में धर्म अर्थात् मोक्ष का मार्ग सम्यग्-दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्-चारित्र है । सम्यग्-दर्शन को उपलब्ध होने वाले व्यक्ति को सम्यक्त्वी कहा है । श्रमण अथवा श्रावक होने के लिए सम्यक्त्व की उपलब्धि अनिवार्य है । सम्यक्त्व के पांच लक्षण हैं--१. शम २. संवेग ३. निर्वेद ४. अनुकम्पा और ५. आस्तिक्य । __सम्यक्त्वी का चित्त तीव्र कषाय से उपशान्त एवं विमुक्त रहता है। उसका चित्त आसक्ति से विरत और करुणा से पूर्ण रहता है । वह आत्मा के अस्तित्व, कर्तृत्व तथा कर्म के विमोक्ष को मानता है। कषाय की उपशान्ति, चित्त की अनासक्ति एवं आत्मा के अस्तित्व की अनुभूति से जो ज्ञान उपलब्ध होता है, वह सम्यक्-ज्ञान कहलाता है । सम्यग-दर्शन और ज्ञान के पश्चात् अगला चरण सम्यक् चारित्र का है। भगवान महावीर ने सम्यक्त्व को श्रावक की प्रथम भूमिका के रूप में स्वीकार किया है । सम्यक्त्वी ही अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत को स्वीकार कर सकता है । व्रतधारी श्रावक अथवा आदर्श श्रावक बन सकता है। साधना की दृष्टि से श्रावक की तीसरी भूमिका प्रतिमाधारी श्रावक के रूप में हो सकती है। श्रावक प्रतिमाओं को क्रमशः स्वीकार कर अन्त में श्रमणभूत ग्यारहवीं प्रतिमा स्वीकार कर साधना की विशिष्ट भूमिका का अनुसरण करता है । श्रमण भूत प्रतिमा में समस्त चर्या साधु के अनुरूप ही होती है । केवल भिक्षा अपने पारिवारिक सदस्यों से स्वीकार करता है। साधना के प्रयोगों में एक महत्वपूर्ण प्रयोग श्रावक के लिए संलेखना है, जिसे समाधिमरण कहते हैं । श्रावक अन्तिम समय को सन्निकट जान जीवन पर्यन्त भोजन पानी आदि का परित्याग कर क्रमशः रागद्वेष रहित समता की अवस्था में स्थिर होकर करता है, जिसे संलेखना अथवा संथारा भी कहते हैं। भगवान् महावीर ने आदर्श श्रावक की परिकल्पना के बदले श्रावक के आदर्श को जरूर प्रस्तुत किया था। उनकी दृष्टि में श्रावक का पहला आदर्श समता, दूसरा संयम और तीसरा विवेकपूर्ण व्यवहार है। इन तीन आदर्श बिन्दुओं पर महावीर के श्रावक स्वयं के लिए ही नहीं, अपितु समाज, राष्ट्र एवं विश्व के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकते हैं। खंड ४, अंक ७-८ ४५१ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नटकन्या और श्रेष्ठिपुत्र --- सोहनराज कोठारी अभी तक आपने पढ़ा : नगर श्रेष्ठि कुबेरपाल के जमाता अरुण का रूप-लावण्य देख कर महाराज रूपीराय मन्त्र मुग्ध हो गए । उन्होंने एकान्त में अरुण को अपने जीवन का भेद बताया, जिसे सुनकर अरुण चकित हो गया। अगले दिन दोनों चुपचाप भ्रमण को निकल पड़े । राज्य की सीमा आते ही अरुण ने राजसी वैभव से विदाई ली और ध्यान-मग्न होकर बैठ गया । आँख खोलने पर उसे एक तेजस्वी सन्त दिखे, जिन्होंने उसे जीवन का शाश्वत सत्य बताया। अब आगे पढिए। (गताङ्क से आगे) महाराज रूपीराय ने श्रेष्ठिपुत्र के पुनरागमन की सूचना देने के लिए भृत्यों को नियुक्त कर दिया था। समय बीतता गया, दिन चढ़ता गया, किन्तु निराशाजन्य सूचना ही उन्हें प्राप्त होती रही। उधर श्रेष्ठि के घर में सन्नाटा छाया हुआ था। राजमहल में भी इसकी सूचना भेजी गई । महाराज ने अश्वारोहियों को खोजने के लिए भेजा। संध्या समय वे अरुण का घोड़ा लेकर आगये, पर उससे तो चिन्ता का कोई पार ही न रहा । क्या वह कोई हिंसक पशु का शिकार हो गया ? या उसने कहीं आत्म-हत्या कर ली ? किसी को पता नहीं लग सका कि कौनसी ऐसी घटना हुई कि अरुण इस प्रकार से अंतर्धान हो गया। श्रेष्ठिपुन करुण के लोप होने से उसके परिजनों को जो शोक हुआ, वह तो स्वाभाविक था, किन्तु जो संताप महाराज को हुआ, उसे कोई नहीं जान सका । वे अपने को इस दुर्घटना के लिये उत्तरदायी मानते थे। खोज क्रम चलता रहा, किन्तु अरुण भी कम सावधान नहीं था । वह जहाँ तक बन पड़ता, बहुत कम बाहर जाता, दृष्टि बचाकर चलता, किन्तु एक दिन महाराज के एक दूत ने उसे देख ही लिया। फिर क्या था, महाराज को विद्युत् वेग से सूचना हो गई और वे अपने विश्वस्त दल सहित वहां पहुंच गये । व्याख्यान का आयोजन हो रहा था। जन-समूह की भीड़ थी। महाराज रूपीराय को प्रमुख पंक्ति में स्थान दिया गया था। महाश्रमण ने पदार्पण किया। उनके पीछे संतों की टोली थी, जिसमें श्रमण अरुण को महाराज ने पहचान लिया, दोनों की आँखें एक क्षण को मिल गई। अरुण एक बार तो मानो आकाश से गिरा । उसे कितनी आशा से महाराज ने सम्मान दिया था, मित्रता स्थापित की और एक मित्र के नाते जीवन का महान् गोपनीय रहस्य प्रकट किया व उसकी सहायता चाही। किन्तु वह विश्वासघात करके धोखा देकर, कायर की भाँति भाग खड़ा हुआ । एक चोट उसके तन-मन को झकझोर गई। महाश्रमण एक काष्ठ-पट्ट पर विराजमान हो गये । उनके दाहिनी ओर अन्य साधुओं के साथ श्रमण अरुण भी आसीन हो गया। ४५२ तुलसी-प्रज्ञा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन प्रारंभ हुआ, प्रार्थना के साथ । "जीवन द्वंद्वात्मक है । सुख-दुख, शीत-उष्ण, ऊँच-नीच, मैत्री-वैर, मोह-वैराग्य, रागद्वेष, इन्हीं द्वंद्वों में संसार की समस्त रचना है। मनुष्य सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना है । मनुष्य अपनी साधना व तप से भगवान् बन सकता है । कहने में जितना सहज यह तथ्य है, कार्य रूप में परिवर्तन करने में उतना ही कठिन । बहुत संकीर्ण व दीर्घ मार्ग है । जन्मजन्मान्तर इसमें लग सकते हैं, किन्तु एक साधारण सत्य यह भी है कि जो प्रथम चरण नहीं उठाता, वह कहीं नहीं पहुंच पाता, वह स्थिर होकर रह जाता है । गतिहीन बनकर कोई लक्ष्य तक नहीं पहुंचा । इसलिये कितना ही नगण्य होते हुए भी प्रथम चरण बहुत महत्त्व रखता है, इसलिये दृढ़ संकल्प होकर पूरी शक्ति के साथ प्रथम चरण उठालें तो लक्ष्य एक चरण समीप आ जायेगा। लक्ष्य प्राप्ति का कार्य प्रारम्भ हो जायेगा । परिणाम कहीं दूर नहीं-कर्म का फल कहीं भविष्य में नहीं, कर्म के साथ ही उपलब्ध है।" महाश्रमण ने महाराज की ओर देख कर कहा- "प्रश्न यह है कि यह प्रथम चरण कौनसा है व किस ओर उठाना है । द्वंद्वात्मकता से बाहर होना ही वह चरण है। रागद्वेष से ऊपर उठना ही वह चरण है। इसलिए भगवत्सत्ता की साधना वीतरागता का मार्ग ही है। केवल द्वेष से मुक्ति नहीं, अपितु राग से भी मुक्ति आवश्यक है। दोनों ही समान रूप से बन्धन हैं । इसलिये दोनों से विमुक्त होना है।" व्याख्यान चल रहा था। उधर अरुण और रूपीराय अपने विचारों में खो रहे थे। वे महाश्रमण के भाषण को अपने जीवन पर घटित करके देख रहे थे कि उनमें क्या कमी थी, उनका प्रथम चरण उठा या नहीं । . व्याख्यान समाप्त हुआ । महाश्रमण ने महाराज को विशेष रूप से एकान्त में समय दिया। अरुण द्वारा, वे सारी स्थिति से अवगत हो चुके थे। महाराज के साथ उन्हें हार्दिक सहानुभूति हो गई थी। "महाराज ! अरुण के जीवन में एक अभिन्न मोड़ आया। इसका श्रेय आपको है। मैं इसे पूर्वजन्म का महान् साधक मानता हूँ, अन्यथा इस उम्र में सांसारिक सुख व वैभव से मुंह मोड़ना सहज बात नहीं है।" "मैं श्रेष्ठिपुत्र को साधु वेष में देख कर विस्मित ही नहीं, स्तम्भित हूँ । साथ ही उसका इस प्रकार त्याग करना एक अद्भुत व अप्रत्याक्षित घटना है । मैं उसके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हूं, मैं उसका जीवन आदर्श एवं अनुकरणीय मानता हूं और महाश्रमण के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण करता हूं।" महाश्रमण ने इस महान् त्याग की बहुत प्रशंसा की एवं अपनी साक्षी से उन्हें संकल्प करवा दिया। "पूर्व जन्म के संस्कारों ने अरुण को एक साथ इतनी शक्ति दे दी कि उसने एकदम सांसारिक बन्धन त्याग दिये, पर इतना बल मुझमें नहीं है। मेरा उत्तरदायित्व सारे राज्य के प्रति है, इसलिये मैं इतनी शीघ्र परिवर्तन नहीं ला सकता।' खंड ४, अंक ७-८ ४५३ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आपका कर्त्तव्य अभी राज्य शासन को सँभालना है। जब तक उसका किसी प्रकार उत्तराधिकारी आप न बना सकें, तब तक आपको अपनी भूमिका निभानी ही चाहिये ।' "मैं फिर दर्शन करूँगा। आज्ञा दीजिये।" महाश्रमण ने महाराज को विदा किया व अरुण को आदेश दिया कि वह महाराज को द्वार तक छोड़ आये। "श्रमण प्रवर को सादर वंदना ।" महाराज ने संयत स्वर में कहा । "धर्म लाभ ! काल की गति को कोई न तो जानता है, न रोक सकता है। अनोखी बात लगती है। आपकी समस्या मुझे साधु बना गई । वैसे वह एक झटका था, प्रवृत्ति मेरी वैराग्य की ओर पहले से थी, ऐसा अब स्पष्ट प्रतीत होता है। फिर भी व्यवहारिक दृष्टि से आपको धन्यवाद देना मैं अनुचित नहीं समझता।" श्रमण अरुण ने कहा।। "धन्यवाद देकर मुक्त हो जाना चाहते हो। क्या यह आवश्यक नहीं कि पूर्व जन्म के मित्र का भी कल्याण करो । साधु तो निःस्वार्थभाव से सेवा करते हैं । जन-कल्याण ही उनका जीवन का लक्ष्य होता है ।" महाराज ने उत्तर में कहा । "आत्म-कल्याण के पश्चात्" अरुण ने महाराज को बीच में ही रोक दिया । "बिना ज्ञान को प्राप्त किये दूसरों को ज्ञान के मार्ग-दर्शन का कोई अधिकार नहीं होता। जब तक कोई स्वयं लक्ष्य की प्राप्ति न कर ले, तब तक उसे किसी को राह दिखाने का अधिकार नहीं होता । मैंने अभी प्रथम चरण उठाया है, गंतव्य स्थान दूर है।" “मैं गुरुदेव व आपके दर्शन यथाशीघ्र करता रहूंगा" महाराज बिदा हुये । अरुण एक टक दृष्टि से उसे आँखों से ओझल होने तक देखता रहा। "अरुण ! समय बीत रहा है, समय-मात्र प्रमाद मत करो" अरुण ने घूम कर देखा कि महाश्रमण पीछे खड़े थे , अरुण ने पांव छू कर वंदना की। "मनुष्य अपनी गति रोककर स्थिर हो सकता है, किन्तु समय गतिमान् रहता है।" "पूर्व जन्म के संस्कारों से इस आयु में इस मार्ग पर आ गये हो । इस जन्म की उपलब्धि ही आगे बढ़ायेगी। इसलिये ध्यान रहे कि प्रगति में गतिरोध उत्पन्न नहीं हो जाय । मुझे विश्वास है, तुम्हारा उत्थान होगा, पर देखना यह है कि कितना । मुझे यह भी विश्वास है कि तुम मेरा पद ग्रहण कर सकोगे । इसलिये दृढ़ संकल्प से साधनारत हो जाओ।" सूचना मिलते ही अरुण के सभी परिजन महाश्रमण की सेवा में उपस्थित हो गये । अरुण उस स्थान पर पहुंच चुका था, जहां से लौटने का प्रश्न नहीं था। विधि का विधान मान कर सबने अरुण को श्रमण वेश में स्वीकार किया। महाश्रमण मणिभद्र का देहावसान हो चुका था। वे अपना उत्तराधिकारी श्रमण अरुण को मनोनीत कर गये थे । श्रमण अरुण ने भी उस पद के उपयुक्त साधना करके अपना स्थान बना लिया था। तपस्या के कई नवीन कीर्तिमान् उन्होंने स्थापित किये थे। कई दिनों के उपवास, घंटों ध्यान व अपूर्व स्वाध्याय से उसका शरीर कृश हो चला था, पर उनके मुख ४५४ तुलसी प्रज्ञा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडल पर आभा खिल उठी थी। प्रवचनों में सहस्रों की भीड़ होने लगी थी। उनके व्यक्तित्व का आकर्षण कई राजाओं और श्रेष्ठि-पुत्रों को खींच लाता था, उनकी यशोगाथा दूर-दूर तक फैल चुकी थी। इस प्रसिद्धि से महाराज रूपीराय को कितनी प्रसन्नता हुई, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। वे समय-समय पर श्रमण अरुण के दर्शनार्थ आते थे । उनको श्रमण के सान्निध्य में एक अप्रकट आनन्द का अनुभव होता था । वे जानते थे कि इस जीवन में श्रमण त्याग के पथ पर अग्रसर हो रहे थे और उन्होंने भी आजीवन शीलव्रत का संकल्प लिया था, इसलिये कोई भी शारीरिक सम्बन्ध इस जीवन में संभव नहीं था। फिर भी उनका अनुराग अरुण के प्रति दिन-दिन बढ़ता जा रहा था, उसमें न्यूनता कभी नहीं आई। श्रमण अपनी तपस्या के बल पर विश्वस्त थे कि रूपीराय का उनसे मिलना उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता। किन्तु उनके मन में भी कहीं गहराई में एक अतृप्त वासना दब कर रह गई थी, जो उन्हें बरबस महाराज रूपीराय की ओर देखने को विवश करती और वे अपने एकान्त चिन्तन के समय इसे अनुभव करते । महाराज ने कितना विश्वासपात्र समझ कर व अपना मित्र मानकर उसके समक्ष अपने जीवन का भेद खोला था, किन्तु वह उनकी कोई सहायता नहीं कर सका। चोरों की तरह चुपचाप भाग आया। यह विचार श्रमण को आंतरिक पीड़ा पहुंचाता था। नारी का समर्पण पुरुष अस्वीकार कर दे, यह कितना अपमानजनक होता है । श्रमण यह जानकर कि रूपीराय एक स्त्री है, उसे एकान्त में समय नहीं दे सकते थे, अतः उन्हें अपनी यह विवशता बहुत खलती थी, कचोटती थी। साधु जीवन के नियमों का पालन उसके लिये अनिवार्य था, इसलिए रूपीराय को अंतरंग भाव प्रकट करने का सुअवसर भी वे नहीं दे पाते थे, अच्छा होता, वे इस पथ पर बढ़ने से पूर्व एक बार महाराज रूपीराय से मिल लेते, तो मन का एक बोझ हल्का हो जाता। श्रमण के मन में यह सतत भाव एक अशान्ति उत्पन्न कर देता और वे सोचते कि कर्मों का यही चक्कर कहीं उसकी साधना की निष्पत्ति में बाधक न बन जाय । वासना का श्रोत केवल रोक देने से सूखता नहीं । अंगारे पर राख डालने से वह बुझता नहीं, बल्कि अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होते ही प्रज्वलित हो जाता है। महाराज तो यह भेद प्रकट करते ही अश्वारूढ़ होकर प्रस्थान कर गये कि वे एक नारी हैं । शायद, इस रहस्योद्घाटन की प्रतिक्रिया को वे स्वयं उपस्थित रह कर सहन नहीं कर सकते थे, पर अरुण को भी प्रतिक्रिया प्रकट करने का अवसर नहीं मिला और इस प्रकार भावनाओं को उद्गार का अवसर न मिलने से एक नई समस्या खड़ी हो गई। ध्यान की मुद्रा में स्थित होकर बैठने पर उन्हें स्पष्ट बोध होता कि वे रूपीराय के आकर्षण से मुक्त नहीं हैं। वे प्रभु से प्रार्थना करते कि उनकी तपस्या में यह बाधा मिट जाय, अन्यथा उनका कल्याण संभव नहीं । रूपीराय ने उनकी साधना में बाधक न बनने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का कठोर व्रत ग्रहण करके उन पर कितना बड़ा आभार डाल दिया था, जिसका धन्यवाद भी वे नहीं दे सकते थे । सत्ता, संपदा के फलस्वरूप सहज प्राप्य जीवन के मन आमोदप्रमोद को इस प्रकार त्यागना, कोई सहज कार्य नहीं था । अन्य किसी से प्रणय-बन्धन में बन्धने की अपेक्षा उन्होंने भीष्म प्रतिज्ञा कर ली। कितना निःस्वार्थ निश्छल उनका प्रेम था, जिसका प्रत्युत्तर देना उनके लिये संभव नहीं था। [शेष पृष्ठ ४६० पर] खंड ४, अंक ७-८ ४५५ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध लेख गृहस्थ-धर्म का अध्यात्मिक महत्त्व (उत्तराध्ययनसूत्र पर आधारित एक अध्ययन) प्रो० कैलाशचन्द जैन कुछ विचारक और दार्शनिक जैनधर्म एवं दर्शन को साधुओं-तपस्वियों का धर्म बताकर गृहस्थ जीवन को निरर्थक कह देते हैं। परन्तु जैन-दर्शन में गृहस्थ जीवन का महत्त्व किसी भी रूप में कम अभिव्यक्त नहीं हुआ है। जैन आगमों में निर्देशित गृहस्थ धर्म का पालनकर मानव मनुष्य-योनि में जन्म पाने के सभी दार्शनिक , आध्यात्मिक एवं लौकिक उद्देश्यों की पूर्ति कर सकता है । लगभग सभी हिन्दू दर्शनों में गृहस्थ धर्म के महत्त्व को आवश्यक स्वीकार करते हुए उसे मानवीय, नैतिक, सन्तोषी, गृहस्थ-जीवन यापन का मार्ग निर्देशित किया गया है । गृहस्थ-धर्म के महत्त्व को स्वीकार करने वाले धर्म-शास्त्र वेत्ताओं के विचारों को स्पष्ट करते हुए पी० वी० काणे लिखते हैं कि- "इस पक्ष वाले विवाह एवं सम्भोग को अपवित्र एवं तप के लिये बुरा नहीं मानते, प्रत्युत विवाह एवं सम्भोग को तप जीवन से उच्च मानते हैं । गृहस्थ-आश्रम वास्तव में जीवन यात्रा का मुख्य दूसरा व्यवस्थित पड़ाव है। ब्रह्मचर्य एवं शिक्षा की नींव पर रचित गृहस्थ आश्रम एक सुदृढ़ मानवीय जीवन की यथार्थता, कृतार्थता का प्रमुख पीठ है। शिक्षाविदुषी शकुन्तला तिवारी लिखती हैं—'भारतीय शास्त्रों में गृहस्थ आश्रम को अत्यन्त श्रेष्ठ तथा अन्य सभी आश्रमों का उपजीव्य माना गया है। दान, आतिथ्य, भिक्षा आदि के द्वारा वह तीनों आश्रमों का पोषण करता है । तीनों आश्रमों को धारण करने के कारण गृहस्थाश्रम ज्येष्ठ अथवा सबसे बड़ा है।" जैन आगमों में गृहस्थ को भिक्षु के समकक्ष ही रखते हुए कहा गया है कि जो उपशान्त होते हैं, वे संयम और तप का अभ्यास कर उन देव-आवासों में जाते हैं, भले ही फिर वे भिक्षु हों या गृहस्थ ।' गृहस्थ जीवन का परिपालन कर स्वर्ग पाने का निर्देश आपस्तम्ब धर्मसूत्र में देते हुए उपदेशित किया गया है कि-जो धर्म-निर्दिष्ट कर्मों का सम्पादन १. पी० वी० काणे, 'धर्मशास्त्र का इतिहास', प्रथम संस्करण लखनऊ, पृष्ठ २६७ । २. शकुन्तला तिवारी, "महाभारत में धर्म", प्रथम संस्करण १९७०, आगरा, पृष्ठ ३३६। ३. उत्तरज्झयणाणि (उत्तराध्ययन सूत्र) स०-मुनि नथमल, संस्करण १६६७, कलकत्ता, ५/२८। ४. आपस्तम्ब धर्मसूत्र–सम्पादक उमेश चन्द पाण्डेय, संस्करण १६६६ । चौखम्बा संस्कृत सीरीज वाराणसी, २/९/४/३-४-५ । ४५६ तुलसी-प्रज्ञा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए, जीवन व्यतीत करते हैं, वे अपने दिवंगत पूर्वजों के यश तथा स्वर्गिक सुखों की अभिवृद्धि करते हैं । अगली पीढ़ी अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के पुरुषों के सुख और यश को बढ़ाती है । पुत्र वाले दिवंगत पुरुष महाप्रलय तक स्वर्ग में निवास करते हैं और स्वर्ग के जेता होते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में भी उल्लेख है कि शिक्षा से समापन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर देवलोक में जाता है । पुनः सुव्रती धर्मपालक गृहस्थ को भिक्षु के समान स्वीकार करते हुए उपदेशित किया गया है कि भिक्षु हो या गृहस्थ, यदि वह सुव्रती है तो स्वर्ग में जाता है। ___गृहस्थ को मानव-धर्म का पालन करना चाहिए । मानवधर्म से स्वजीवन में ही नहीं, अपितु सर्वत्र शान्ति और सन्तोष की धारा बहती है तथा परिवार एवं राष्ट्र की समृद्धि भी होती जाती है । आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी मानव कर्मों का क्षय करके मुक्ति मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है । मनुष्यत्व को प्राप्त कर, जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है, वही तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर, संवृत हो, कर्मरजों को धुन डालता है। अमानीय प्रवृत्तियों का अन्त सदैव दुखदायी ही होता है। जो मनुष्य कुमति को स्वीकारं कर पापकारी प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, उन्हें देखें, वे धन को छोड़कर मौत के मुह में जाने को तैयार हैं। वे वैर (कर्म) से बंधे हए नरक में जाते हैं। गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए मनुष्य को परम सिद्धि प्राप्ति का निर्देश भारत के दार्शनिक साहित्य में किया गया है। महाभारत में गृहस्थ आश्रमों को सब धर्मों का मूल बताते हुए, भीष्म जी ने युधिष्ठर से कहा -'गृहस्थाश्रम सभी धर्मों का मूल कहा गया है, इसमें रह कर अन्तःकरण के रागादि दोष पक जाने पर जितेन्द्रिय पुरुष को सर्वत्र सिद्धि प्राप्त होती है । बौद्ध-दर्शन में तो यह भी स्वीकार किया गया है कि-गृहस्थ व्यक्ति निर्वाण की प्राप्ति कर मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि "एक ही नहीं पाँच सौ से अधिक ही मेरे गृहस्थ उस लोक से न लौटकर आने वाले हैं।" इस तरह बौद्ध-दर्शन में गृहस्थ अवस्था में मोक्ष प्राप्ति को स्वीकार किया गया है । परन्तु मिलिन्द प्रश्न" ग्रंथ में स्पष्ट किया गया है कि गृहस्थ रहना अर्हत् के अनुकूल नहीं ५. एवं सिक्खा-समावन्ने गिह-वासे वि सुव्वए। मुच्चई छवि-पव्वाओ, गच्छे जक्ख-सलोगयं । उत्तरज्झयणाणि, ५/२४ । ६. भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुव्वए कम्मई दिवं । वही ५/२२ । ७. वही-३/११ । ८. वही-४/२ । ६. गृहस्थस्त्वेष धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते, यत्र पक्व कषायो हि दान्तः सर्वत्र सिद्धयति । महाभारत, शान्तिपर्व-२३४/६ । १०. मज्झिमनिकाय (हिन्दी अनुवाद-महापंडित राहुल सांकृत्यायन), महावच्छगोत सुत्त, २/३/३ पृ० २८८ । .. ११. मिलिन्द प्रश्न-४/७/६३ पृ० ३२५ । खंड ४, अंक ७-७ ४५७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । अर्ह होते ही या तो प्रव्रजित हो जाता है, या महा परिनिर्वाण को प्राप्त करता है । गृहस्थ आश्रम का महत्त्व किसी भी दर्शन में किसी भी रूप में कम नहीं है । गृहस्थों को मुनियों-साधुओं के समकक्ष रखकर भारतीय दर्शन में गृहस्थ धर्म के आध्यात्मिक महत्त्व को स्वीकार किया गया है । परन्तु एक गृहस्थ तभी एक अच्छा जीवन गुजार सकता है, जब वह धर्म - निर्दिष्ट जीवन का पालन करे । वैसे यह व्यवहार में भी सत्य है । भौतिक वस्तुओं का संग्रह, कामभोगों की आकांक्षाएँ और पापमयी प्रवृत्तियाँ मानव-जीवन में अशान्ति उत्पन्न कर उसके जीवन को कष्टों से भर देती हैं । निरर्थक कामभोगों के परित्याग का निर्देश उत्तराध्ययन सूत्र में बार-बार किया गया है। कामभोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं, कामभोग की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं ।" जैसे कोई मनुष्य काकिणी ( प्राचीन मुद्रा का सबसे छोटा सिक्का) के लिए हजार कार्षापण गंवा देता है, जैसे कोई राजा अपथ्य आम को खाकर राज्य से हाथ धो बैठता है, वैसे ही जो व्यक्ति मानवीय भोगों में आसक्त होता है, वह दैवी भोगों को हार जाता है ।13 व्यवहार रूप से भी देखने में आया है कि मानव भौतिक वस्तुओं की कामनायें करते हुए, काम भोगों में आसक्ति रखते हुए, निरर्थक राग-द्वेष से ग्रसित होकर दीवानों की भाँति पापमयी क्रियाओं में लगे रहते हैं । अपने कर्तव्यों से विमुख होकर भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं । भौतिकता मनुष्य को कभी शान्ति न देकर, नारकी की भूख-प्यास बढ़ाने की भाँति सदैव ही भटकाने वाले मार्ग में प्रवृत्त करती जाती है । कामभोगों से मूच्छित होकर मूढ लोग यह नहीं समझ पाते कि यह समूचा संसार राग-द्वेष की अग्नि से जल रहा है ।" कितनी भी धन सम्पत्ति प्राप्त हो जाये, मानव शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता है । जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया कि यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाये अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाये तो भी यह तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा । १५ इस तरह काम-भोगों, वासनाओं से मुक्त होकर नैतिक आदर्शों से युक्त जीवन ही सफल जीवन है । वासनाओं से शून्य व्यक्ति मुक्ति मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है ।" मानव को राग-द्वेष का परित्याग कर सभी में समान भाव से प्रवृत्त होकर उत्तम गुणों को धारण करना चाहिए । राग-द्वेष मनुष्य को निरर्थक हानि पहुंचाते हैं । राग-द्वेष से मनुष्य चिंता में घुलता हुआ व्यर्थ ही अपने शरीर और स्वास्थ्य का विनाश करता है । पाप कर्मों का बन्ध करता है । राग और द्वेष—ये दो पाप कर्मों के प्रवर्तक हैं ।" राग और द्वेष ४५८ १२. उत्तरज्झयणाणि --- ६ / ५३ । १३. वही - ७ /११ । १४. वही --- १४/४३ । १५. वही - १४ / ३६ । १६. सग्गं सुगतिनो यन्ति परिनिब्बन्ति अनासवा । धम्मपद, सम्पादक सत्यप्रकाश शर्मा, संस्करण १६७२ मेरठ, ६ / १२६ पृ० ५६ । १७. रागद्दोसे य दो पावे पावकम्मपवत्तणे । उत्त रज्झयणाणि - ३१ / ३ । तुलसी - प्रज्ञा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के बीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है।" जहाँ राग-द्वेष से कर्मों का बन्ध होता है, वहाँ व्यवहार में यह भी स्पष्ट है कि राग-द्वेष से मनुष्य व्यर्थ ही चिन्तित रहता है । मानव को पापमयी प्रवृत्तियों का परित्याग कर अपने जीवन को नैतिक पुष्पों की सुगन्धि से आच्छादित कर आध्यात्मिकता की विमल गंगा के समान पवित्र बनाना चाहिए, जहाँ पाँच महाव्रतों के सुमन खिल सकें। प्राकृतिक मानसिक बुराइयाँ क्रोध, मान, माया, लोभ, व्याभिचार मानव के लिए बहुत घातक हैं । जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि जिस मानव में क्रोध है, मान है, हिंसा है झूठ है, चोरी है और परिग्रह है, वह जाति-विहीन, विद्या-विहीन और धर्म-विहीन है। इन विभिन्न पापों के दुष्परिणामों को भी स्पष्ट किया गया है । असत्यवादी के लिए कहा गया है कि असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय होता है । इस प्रकार वह रस में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। क्रोध के दुष्परिणाम को स्पष्ट करते हुए कहा है कि---जो क्रोध को सतत बढ़ावा देता रहता है और निमित्त कहता है, वह अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण आसुरी भावना का आचरण करता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है, मान से अधम गति होती है, माया से सुगति का विनाश होता है, लोभ से इस लोक और परलोक दोनों का ही विनाश होता है ।२२ परिग्रही पुरुष के लोभ-लालच को स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि कदाचित् सोने और चाँदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जाएँ तो भी लोभी पुरुष को उनसे सन्तोष नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। 3 इस तरह ये पापमयी प्रवृत्तियाँ मनुष्य के जीवन में अशान्ति उत्पन्न कर उसे मृगमरीचिका के समान संसार के भौतिक साधनों की प्राप्ति के लिए भटकाती हैं। मानव स्वार्थ में लीन होकर दूसरों का अहित करते हुए सदैव निरर्थक और पापमयी क्रियाओं में लगा रहता है । फलस्वरूप नरक में जाकर अपार कष्ट भोगता है । तात्पर्य यह है कि क्रोध, मान, माया, हिंसा, लोभ, अनैतिकता और परिग्रह आदि प्रत्येक अवस्था में कष्टकारी हैं । अतः इनका परित्याग करके ही मनुष्य परम आनन्द की प्राप्ति गृहस्थ आश्रम में कर सकता है। ___मानव को दुःख-सुख में समान रहने का विवेचन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि-~-मानव को ममत्वरहित, अहंकार रहित, निर्लेप, गौरव को त्यागने वाला, त्रस १८. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति । _वही-३२/७। १६. वही–१२/१४ । २०. वही-३२/७० । २१. वही--३६/२६६ । २२. वही-६/५४ । २३. वही-९/४८ । खंड ४, अंक ७-८ ४५६ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और स्थावर सभी जीवों में समभाव रखने वाला होना चाहिए ।" लाभ, अलाभ, सुख दुःख, जीवन-मरण, निन्दा - प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहने वाला होना चाहिए ।" गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त निदान और बन्धन से रहित होना चाहिए। २७ इस तरह गृहस्थ व्यक्ति को सुख-दुःख में समभाव रखते हुए आशावान् होकर निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हुए जीवन यापन करना चाहिए। वही सुख का देने वाला है । आशावान् होकर मन में दृढ़ता लाकर, पराक्रमी गुणों को धारण कर पुरुषार्थी होना चाहिए, यही सफलता के दायक हैं । 'चुलकलग जातक" की गाथा में मनुष्य को सफलता प्राप्त करने के लिए उपदेशित किया गया है - "संयम, समाधि, मन की एकाग्रता, अव्यग्रता, समय पर निष्कर्मण, दृढ़ वीर्य तथा पुरुष पराक्रम गुणों का होना आवश्यक है । इस तरह गृहस्थ संयम, शान्ति के जीवन को धारण कर बुराइयों का परित्याग कर परमानन्द की निःसन्देह प्राप्ति कर सकता है । सुख-दुःख में समभाव रखते हुए मुस्कराते रहना चाहिए, जैसे कृष्ण नाग शैया पर लेटे हुए भी खुश रहने के भाव को द्योतित करते हैं । गृहस्थ आश्रम इस प्रकार हर दृष्टिकोण से अपना आध्यात्मिक महत्त्व रखता है । गृहस्थ आश्रम में मनुष्य शान्ति पूर्वक जीवन-यापन कर परिवार, समाज, राष्ट्र, सभी के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर सकता है । २४. उत्त रज्झयणाणि १६ / ८६ | २५. वही १६ / ६० । २६. वही १६ / ६१ । २७. जातक - सम्पादक वी० फासबल, संस्करण १६६० लन्दन, गा० ४, पृ० ७ । [ पृष्ठ ४५५ का शेषांश ] महाराज के दर्शनार्थ आये कभी-कभी अधिक समय व्यतीत होने पर श्रमण को उनकी कमी खटकने लगती, सर्वत्र सूना सा लगता, जीवन निरर्थक लगता । अब महाश्रमण तो रहे नहीं कि वे उनके चरणों में शीश रखकर अपनी राह का पता पूछते । अब तो उनको ही अपना मार्ग निर्देशक बनना था और इसके लिये वे अपने को अयोग्य पा रहे थे । समय अपनी निर्बाध गति से आगे बढ़ता गया । श्रमण की ख्याति बढ़ती गई व साथ ही आयु भी । शरीर यौवन से प्रौढ़ व प्रौढ़ से वृद्धावस्था की क्षीणता की ओर चलने लगा और एक दिन यात्रा का अन्त आ गया- - एक नई यात्रा का प्रारंभ, अपनी गोद में छुपाये । (क्रमश:) ४६० - --:: तुलसी- प्रज्ञा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाय-युग -डा० जेठमल भंसाली जैन-दर्शन का मौलिक सिद्धान्त है-स्याद्वाद अर्थात् किसी भी विषय के दो अन्तों (Extremes) के बीच का मध्यम मार्ग । आधुनिक युग का सर्व प्रिय पेय चाय-पान को भी हमें इसी दृष्टि में देखना चाहिए। सर्वथा उपयोगी और सर्वथा निरुपयोगी तो संसार की कोई भी वस्तु होती नहीं । आज के सभ्य युग में चाय पीना अधिकांश मानवों के जीवन की एक साधारण सी आदत बन गई है । क्या गृहस्थ, क्या संन्यासी, सभी चाय पीना एक निर्दोष पेय मानते हैं । एक बार चाय की आदत बन जाने पर यह चिर-संगिनी बन जाती है। सभ्य सुशिक्षित समाज के समारोह का रस-आनन्द या अपने घर पधारे मेहमानों का स्वागत सत्कार चाय-पान के अभाव में सूना-सा लगता है। जहां भी हम जरूरी कार्य-वश मिलने-जुलने जाते हैं, वहां गरमा-गरम चाय तो बिना मांगे मिल जाती है, पर पानी तो मांग कर ही पीना पड़ता है। कवि "काका हाथरसी" ने ठीक ही कहा है प्लेट फार्म पर यात्री पानी को चिल्लाय । पानी वाला है नहीं-चाय पिओ जी चाय ।। वास्तव में आज का युग चाय युग है । शहरों में तो हर गली, हर सड़क पर आर्डर देते ही गरमा-गरम चाय का प्याला आपकी सेवा में तैयार । आज' के युवक को तो सुबहसुबह बिछौने पर ही गरम चाय मिलनी जरूरी है-Bed Tea, इसे पिये बिना तो वह बिछौने से उठ ही नहीं पाता। सुबह चाय, दोपहर में चाय, सन्ध्या-समय चाय और शायद रात में सोते समय भी चाय-यह तो आज साधारण सा कार्यक्रम बन गया है । फिर जरूरी कार्यवश दिन में कहीं भी मिलने जायें, तो चाय की मनुहार तैयार। चाय पीना इन्कार करें, तो हम ग्रामीण, असभ्य, अशिक्षित समझे जायें। गृहस्थों की देखा-देखी साधु समाज में भी चाय का प्रचलन बढ़ा है। कई साधुसाध्वियों को तो चाय पीने की आदत भी बन गई है। सुना है, आचार्य श्री तुलसी ने चायपान की आदत को रोकने हेतु साधु-समाज पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाये हैं । पर आज तो खंड ४, अंक ७-८ ४६१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाय-पान पानी की तरह गृहस्थ समाज में सर्वत्र सुलभ है और इसे एक निर्दोष पेय माना जा रहा है। ___ अनुभव के आधार पर चाय के रसिकों का कहना है, मानना है कि चाय की एकएक पत्ती में चुस्ती है, फुरती है। यह चेतना लाती है, तरो-ताजा बनाती है, स्फूर्ति लाती है। यह भयंकर सर्दी में शरीर को गरम और असह्य गर्मी में शरीर को ठंडा रखती है। भयंकर से भयंकर गरमी में भी चाय तुरन्त पसीना निकाल कर शरीर को सुखद शीतलता का अनुभव कराती है। दिमाग रूपी कार (Car) के लिए चाय पेट्रोल का काम करती है। यह दिमाग को तरो-ताजा बनाकर थकावट-सुस्ती दूर करती है। चिन्तन करने की क्षमता में वृद्धि करती है। आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में चाय का परीक्षण करने पर उसमें निम्न रसायनिक द्रव्य पाये गये : केफीन- (Caffeine) __ केफीन एक प्रकार का विष है । शुद्ध केफीन का एक छोटा-सा बिन्दु इजेक्शन द्वारा शरीर में प्रविष्ट कराया गया तो चन्द मिनटों में प्राणान्त हो गया । मष्तिस्क में केफीन सीधा प्रविष्ट कराया गया तो शरीर में तीव्र झटके आने लगे । तीव्र विष प्रमाणित होने पर भी चाय में केफीन की मात्रा २ से ४ प्रतिशत ही होती है, अतः चाय-पान से शरीर को विशेष हानि नहीं पहुंचती । हम जो चाय पीते हैं उनका केफीन शरीर में अपना कार्य-सम्पादन कर गुर्दो (Kidneys) में आकर मूत्र-मार्ग द्वारा पेशाब के रूप में बाहर निकल जाता है तो केफीन जन्य जहर के विषैले प्रभाव की यह प्रक्रिया एक प्रकार से शरीर का प्राकृतिक संरक्षण है। यदि केफीन पेशाब के साथ मिलकर मूत्र-मार्ग द्वारा शरीर से बाहर न निकले और शरीर में इकट्ठी होने लगे तो हालत सोचनीय बन जाये । सामान्य स्थिति में चाय में अति अल्प मात्रा में मौजूद केफीन शरीर में ताजगी एवं स्फति लाती है। रात्रि-जागरणजन्य आलस्य व सुस्ती को दूर करती है। दिमाग में ताजगी लाकर उसमें नये विचार, नये चिन्तन को उत्पन्न करती है। यह जलवायु परिवर्तनजन्य विकृतियों से शरीर की रक्षा करती है। केफीन पेट की गैस सम्बन्धी शिकायतों को भी मिटाती है। शरीर में सन्धिस्थलों-जोड़ों के दर्द-गठिया (Rheumatism) में भी केफीन लाभप्रद सिद्ध हुई है। चाय की पत्ती में Theine नामक रासायनिक भी पाया गया है, जो सिरदर्द, शरीर के दर्द और स्नायुजन्य पीड़ा में भी उपयोगी सिद्ध हुआ है। चाय में टैनीन (Tannin) नामक एक कषैला (Astringent) द्रव्य भी पाया जाता है। जब चाय लम्बे समय तक पानी में उबाली जाती है, अथवा ठंडी होने पर चाय को पुनःउबाला जाता है, तो ऐसे चाय के पानी में टैनीन की मात्रा अत्यधिक घुल जाती है। ऐसी टॅनीन युक्त चाय शरीर में विष का सा काम करती है । अतः चाय को लम्बे समय तक पानी में उबाल कर पीना हानिप्रद है। इससे भूख बंद सी हो जाती है । हाजमा बिगड़ जाता है। ४६२ तुलसी-प्रज्ञा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी में अधिक देर तक चाय को उबालने से टैनीन का काढ़ा सा बन जाता है। ऐसा काढ़ा टॉन्सील (Tonsils) के बढ़ जाने या गले में बढ़े हुए दानों के लिए कुल्ले (Gargle) के रूप में उपयोगी माना गया है। इसके कसैले प्रभाव से टॉन्सील या गले के सूजनमय दाने सिकुड़ने लगते हैं। टॉन्सील व दानेजन्य खांसी शान्त होने लगती है। चाय में कई प्रकार के विटामिन भी पाये जाते हैं। इनसे चर्म का रंग निखरता है। वह लचीला एवं सुन्दर बनता है। चाय पसीना लाकर चर्म के रोम-छिद्रों की सफाई कर डालती है। चाय बनाने का तरीका पानी के अच्छी तरह से उबल जाने के पश्चात् उसमें चाय की पत्तियां डाल कर उस बर्तन के मुह को अच्छी तरह ढक दें और उसे तुरन्त चूल्हे से नीचे उतार लें। उबले हुए इस पानी की भाप से चाय पत्तियों का सार-अंश पानी में घुल जाता है। पांच-सात मिनट बाद इसे छान लें और इसमें गरम दूध एवं चीनी मिला दें। चाय तैयार है। ऐसी हुई चाय स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, इसमें हानि की संभावना बहुत ही कम रहती है। चाय के पानी में अधिक रंग या लाली लाने की दृष्टि से चूल्हे पर चाय को पानी में उबालते रहना उचित नहीं। इससे उसमें टैनीन की मात्रा बढ़ जाती है, जो शरीर के लिए हानिप्रद है। चाय को सुगन्धित एवं स्वादिष्ट बनाने हेतु उबलते पानी में इलायची, सौंठ, काली मिर्च, तेज पत्ती आदि का महीन पाउडर या चूर्ण अति अल्प मात्रा में मिलाया जा सकता है। यह मिश्रण चाय को स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक लाभप्रद बना देता है। . चाय के गरम पानी में दूध और चीनी के स्थान पर कागजी नींबू (Lemon) का रस मिलाकर पीना मधु-मेह (Diabetes) के रोगी के लिए लाभकर है। चाय-पान के संबंध में अति-मात्रा सर्वथा त्याज्य है । चाय दिन भर में सिर्फ दो दफे (सुबह एवं दोपहर में) पीना उचित है और वह भी एक बार में एक कप से अधिक नहीं। काम करते समय अधिक शारीरिक व मानसिक थकावट का अनुभव होने पर एक कप अतिरिक्त चाय ली जा सकती है । चाय पीने के पहले कुछ अल्पाहार अवश्य करें। खाली पेट चाय पीना खतरनाक है। रात में सोते समय चाय पीना उचित नहीं। इससे रात में बार-बार पेशाब करने के लिए उठना पड़ता है और गहरी नींद नहीं आ पाती। शरीर की निम्न स्थितियों में चाय पीना उपयोगी है :० सिर-दर्द एवं शरीर संबंधी साधारण पीड़ा-दर्द में । ० सर्दी-जुकाम जन्य बेचैनी में । ० काम करते समय मानसिक व शारीरिक थकावट का अनुभव होने पर स्फूर्ति एवं ___ताजगी लाने की दृष्टि से । ० गठिया रोग (Rheumatism) में । अधिक बार या अधिक मात्रा में चाय पीना निम्न रोगों को निमन्त्रण देना है : खंड ४, अंक ७-८ ४६३ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • हृदय स्पन्दन में वृद्धि ( Palpitation of the Heart) हृदय रोग वाले सज्जन यथासम्भव चाय पीने से बचें। ૪૪ • अग्निमन्दता – अधिक चाय पीने से भूख मर-सी जाती है। खाने की इच्छा ही नहीं रहती । अपच की शिकायत रहती है । • अनिद्रा ( Sleeplessness) अधिक मात्रा में चाय पीने वालों को गहरी नींद नहीं आती । नींद के अभाव में सुबह उठने पर ताजगी का अनुभव नहीं होता । उठते ही बेड टी (Bed Tea) मिले तो बिछौना छोड़े । ० कब्ज —- मलावरोध (Constipation ) । अधिक चाय पीने वालों का मल सूखने लगता है । मल की गोलियां सी बंध जाती हैं । पेट पूरी तरह कभी साफ नहीं हो पाता । जुलाब ले-लेकर पेट की सफाई करनी पड़ती है । I कहा जाता है कि भारत के ऋषि मुनियों ने सोम रस (एक प्रकार का मधुर मद्य ) पान कर-कर के सुन्दर ग्रन्थों ( सुन्दर साहित्य ) की रचना की थी । आज के चाय- युग में चाय पी-पीकर, कवि, साहित्यकार उत्कृष्ट साहित्य की रचना करते हैं । राजनैतिक एवं सामाजिक नेता गण प्रभावशाली उत्तेजक भाषण देकर जनता को आकर्षित कर रहे हैं । टीचर, प्रोफेसर क्लास रूम में छात्रों को अपनी विद्वता का परिचय दे रहे हैं । चित्रकार एवं कलाकार कलात्मक सामग्री का निर्माण कर रहे हैं । व्यापारी वर्ग अपने ग्राहकों को चाय पिला - पिला कर ऊंचे दामों में अपना माल विक्रय कर रहे हैं । वास्तव में आज के इस चाय - युग में चाय का सर्वत्र बोलबाला है । अतः अब चाय-पान को एक निर्दोष पेय मान लिया गया है । हमारे प्रिय प्रधान मंत्री मोरारजी भाई ने मद्य-पान पर तो रुकावट जरूर लगाई है, परन्तु चाय-पान पर रुकावट लगाने की हिम्मत शायद वे न कर सकें । I 10:1 तुलसी- प्रशा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सन्देश : युवापीढी के नाम कु० मुकेश जैन संसार में यदि कोई कठिन साधना है, तो वह यह है कि मनुष्य जीवन पाकर वास्तविक इन्सान बनना । मानव यदि मनुष्यत्व को जीवन में धारण करे, तो मानव जन्म धारण करने के उद्देश्य को स्वतः पा जाता है। जैन आगम उत्तराध्ययन-सूत्र में मनुष्यत्व के लौकिक, आध्यात्मिक महत्त्व को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया है कि मनुष्यत्व मूलधन है। मनुष्य के द्वारा मानवता, नैतिकता और सन्तोष को अपना लेने से परिवार और समाज का स्वतः विकास हो जाता है । यदि एक झोंपड़ी में रहने वाले व्यक्ति का रहन-सहन, आचार-विचार, कुप्रवृत्तियों से मुक्त पर-कल्याण की भावना पर आधारित है, तो उसका जीवन, परिवार सभी निरन्तर लौकिक सुख-शान्ति के पथ पर अग्रसर होता जाता है। यदि भौतिक वस्तुओं एवं धन सम्पत्ति से युक्त एक परिवार में रहने वाले व्यक्तियों के चरित्र में भ्रष्टता, अनैतिकता, अमानवता व्याप्त होती है, वह परिवार अच्छा तो हो ही नहीं सकता है, निसंदेह वह अल्प काल में ही पतन के गर्त में चला जाता है। परिवार में प्रेम-प्रीति का वातावरण भी आवश्यक है । जिस परिवार में प्रेम-प्रीति न हो, ऐसे परिवार में जैन मुनि को भिक्षा लेने हेतु न जाने का निर्देश किया गया है । परिवार, समाज और राष्ट्र के निरन्तर विकास के लिए नयी पीढ़ी के जीवन को देखना होगा। नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में विचारों का एक संघर्ष चलता रहता है। आज की आधुनिक पीढ़ी को सही दिग्दर्शन की आवश्यकता है। नयी पीढ़ी में व्याप्त बुराइयों को देखते हैं तो दृष्टिगोचर होता है कि आज की नयी पीढ़ी श्रम-साधना से दूर हटती जा रही है । आज का नवयुवक दूध तो पीना चाहता है, परन्तु गोबर उठाने में उसे अपने हाथों के गन्दे हो जाने का भय बना रहता है । वह स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों के सेवन के लिए लालायित रहता है, परन्तु गेहूँ पिसवाने में अपमान समझता है। आज के युवक-युवतियाँ हाथों से काम करना एक ओछी बात समझने लगे हैं। वस्तुतः किसी भी अच्छे फल देने वाले श्रमसाध्य कार्य को छोटा समझना घटियापन है, क्योंकि कोई भी कार्य मनुष्य को निम्न नहीं बनाता, कोई श्रम करने से छोटा नहीं हो जाता है, ऐसी धारणा ही मनुष्य का विकास कर सकती है। पाश्चात्य प्रभाव से युक्त तरुण-तरुणियां होटलों, क्लबों, सिनेमाओं में जाकर नयी खण्ड ४, अंक ७-८ ४६५ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति और सभ्यता के पालन का ढिंढोरा पीटते हुए, भौतिक वस्तुओं के उपभोग के क्षणिक सुखों में लीन हो जाते हैं। ये क्षणिक सुख मानव को शान्ति और संतोष प्रदान न कर जीवन में एक विचित्र अशान्ति भर देते हैं। आज देखते हैं कि बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त डाक्टरों, प्रोफेसरों, इन्जीनियरों आदि में भी अशान्ति और निराशा व्याप्त है। भौतिकता और काम-भोगों की कामना वाले इस चमक-दमक के युग में मनुष्य खोखली, अस्थायी, गर्वमद से भरी झूठी इज्जत के चक्र में लगे रहते हैं। इसका कारण आज के मानव का आध्यात्मिक एवं आत्मिक ज्ञान से विहीन होना है । आत्मा को आध्यात्मिकता से ही निरोगी बनाया जा सकता है। अपने प्राचीन धर्मशास्त्रों, आचार-विचार के साहित्यों में निर्दिष्ट आध्यात्मिकता और नैतिकता को जीवन का अंग बनाकर परम शान्ति प्राप्त की जा सकती है। मनुष्य को जीवन में आध्यात्मिकता और नैतिकता के साथ-साथ निष्काम भाव से युक्त पुरुषार्थ की भी अत्याधिक आवश्यकता है। उत्साह से युक्त पुरुषार्थी बनकर परिवार, राष्ट्र और समाज का कल्याण किया जा सकता है। बौद्धग्रन्थ धम्मपद' में भी उपदेशित किया गया है-"उत्साह अमृतत्व का मार्ग है, आलस्य मृत्यु का मार्ग है। आलस्य रहित व्यक्ति मृत्यु-दण्ड को प्राप्त नहीं होते, किन्तु जो आलसी हैं, वे तो पहले से ही मरे हुए के समान हैं।" भूत-भविष्य की चिन्ता किये बिना उत्साह से पुरुषार्थ करना ही मानव धर्म है। बौद्ध "मुगपक्ख जातक"४ की गाथा में कहा गया है कि भविष्य सम्बन्धी संकल्प-विकल्प उठाने वाला, भूत की चिन्ता करने वाला मूर्ख व्यक्ति कटे हुए बांसके समान सूखता रहता है। ___ भौतिक युग का यह मानव अपने स्वार्थों में इतना अन्धा हो गया है कि उसे अपने अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है तथा अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु कभी धर्म, कभी जाति, कभी भाषा के नाम पर लड़ता रहता है। क्या लड़ने के लिए ही मनुष्य का जन्म हुआ है ? मनुष्य यदि किसी के लिए फूलों को जुटाने में अक्षम है तो दूसरों के मार्ग में उसे कांटे बिछाने का अधिकार कहां से मिला है। यदि किसी को अमृत नहीं पिला सकते हैं, तो जहर भी उसके लिए नहीं जुटाना चाहिए । किसी के जीवन को चन्दन से सुगन्धित नहीं कर सकते हैं, तो उसके जीवन में गन्दगी भी नहीं भरनी चाहिये। दूसरों का अहित सोचने वाला एक दिन स्वयं ही कष्टों से घिर जाता है । मानव अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु सभी सामाजिक परम्पराओं को तोड़ने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं रखता है। नवयुवक तो स्वतन्त्र विकास का बहाना बनाकर सामाजिक व्यवस्थाओं को तोड़ने में अपना परम कर्तव्य ही समझने लगे हैं। परन्तु सामाजिक परम्पराओं का निर्वाह करते हुए, परकल्याण को जीवन का उद्देश्य बनाकर, धर्मयुक्त, उत्साहपूर्ण, स्व-इच्छाओं पर नियंत्रण करते हुए, परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान देने वाले जीवन का निर्वाह करना चाहिये । यौवन में उन्मुक्त न होकर, विवेक और बुद्धि से सामान्य कठिनाइयों का निवारण कर, कुप्रवृत्तियों का परित्याग कर एक आदर्श स्थापित करना चाहिए। - क्रोध, मान, मद, राग-द्वेष, हिंसा, सुरासेवन आदि विनाशक बुराइयों का परित्याग अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह महाव्रतों को जीवन में धारण कर मधुर-भाषी, ४६६ तुलसी-प्रज्ञा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनम्र, उदार, संयमी, पराक्रमी होकर उत्साहपूर्वक जीवन-निर्वाह परम सुख की ओर ले जाने वाला मार्ग है । बाहरी सजावट, खोखले आडम्बर, निरर्थक कर्मकाण्ड सदैव ही पतन की ओर ले जाते हैं । शुद्ध आचरण से सर्वस्व प्राप्त किया जा सकता है, इससे संस्कृति तथा सभ्यता की सुरक्षा की जा सकती है। विशुद्ध भावनायें ही यशस्वी बना सकती हैं। प्रत्येक अच्छा कार्य यथा--परोपकार, त्याग और दान ही भव-भवान्तर तक साथ जाने वाले हैं। सुगन्धि बांटने से ही सुगन्धि मिलती है, धर्म, उत्साह, शुद्ध-आचरण, पराक्रम, संयम, सन्तोष, स्वात्मा का अवलोकन, परकल्याण की भावना हो तो भौतिकता के स्थान पर आध्यात्मिकता का स्थायी सूर्य नवपीढ़ी के जीवन में स्थायी शान्ति का प्रकाश भर सकता है। बुर्जुआ पीढ़ी को भी सभी दोषों के लिए नवयुवकों को दोषी न ठहरा कर सही दिग्दर्शन, प्रेम के द्वारा नैतिक आदर्शों से युक्त समाज की स्थापना करनी चाहिए। न जाने कितने तरुण कल के गौतम, गाँधी, महावीर, चन्दनबाला, ईसामसीह, सीता, नानक और पन्नाधाय बनेंगे। यौवन को सही दिग्दर्शन की आवश्यकता होती है। महर्षि बाल्मीकि ने यौवन अवस्था को महान् संकट माना है। अतः तरुण वर्ग में छिपी अपार शक्ति को सही मार्ग पर ले जाकर इसी धरा पर ही स्वर्ग स्थापित किया जा सकता है। आपस में समन्वय स्थापित कर हर परिस्थिति में साम्य-भाव से सुखी रहने की जीवन-साधना ही हमारा परम लक्ष्य हो, तभी परिवार, समाज और राष्ट्र का कल्याण हो सकेगा। १. माणुसत्तं भवे मूलं, उत्तरज्झयणाणि (उत्तराध्ययन सूत्र) सं०-मुनि नथमल, संस्करण १९६७, कलकत्ता, ७/१६ । २. अचियत्त कुलं न पविसे, चियत्तं पविसे कुलं । दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि स०-मुनि नथमल, कलकत्ता, ५/१७ । ३. अप्पमादो अमतपदं, पमादो मच्चुनो पदं । अप्पमत्ता न मीयन्ति, ये पमत्ता यथा मता ॥ धम्मपद, सम्पादक एवं अनुवादक-सत्य प्रकाश शर्मा, संस्करण १९७२, मेरठ, २/१ । ४. जातक षष्ठम्, सम्पादक वी० फॉसबल, संस्करण १६६० लन्दन, गा० ६० पृ०२५। खण्ड ४, अंक ७-८ ४६७ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार-दर्शन राजलदेसर मर्यादा-महोत्सव मैं महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमल तेरापन्थ के दसवें आचार्य घोषित राजलदेसर में आयोजित ११५वें मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्य श्री तुलसो अपने विद्वान् शिष्य मनि श्री नथमल जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। मुनिश्री की प्रखर मेधा, सूक्ष्मतम गहराइयों में पैठने की शक्ति, गुरु के प्रति एकलव्य जैसा समर्पण भाव और आचार निष्ठा ने आपको ज्ञान, दर्शन और चारित्र के शिखर पर प्रतिष्ठित किया है । आप हिन्दी, संस्कृत एवं प्राकृत के मनीषी विद्वान हैं। अब तक आपके लगभग एक सौ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । आप संस्कृत के आशुकवि हैं। टमकौर (राज.) में सन् १९२० में जन्मे; मुनिश्री सन् १९३० में दीक्षित हुए; सन् १९६३ में निकाय-सचिव बने; सन् १९७८ में महाप्रज्ञ' उपाधि से विभूषित हुए और अब दिनांक ३ फरवरी, १९७६ को युवाचार्य घोषित किए गए हैं। साध्वी प्रमुखा कमकप्रभा जी "महाश्रमणी" विशेषण से अलंकृत राजलदेसर में आयोजित ११५वें मर्यादा महोत्सव पर आचार्यश्री तुलसी ने साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा जी की सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए कहा--साध्वी प्रमुखा कोई आचार्य न होने पर भी आचार्य-प्रवृति का पूरा दायित्व कुशलतापूर्वक निभा रही हैं। सात साल के स्वल्प समय में ही इन्होंने समूचे समाज के हृदय को जीत लिया, यह प्रत्यक्ष है। इनकी सहज विनम्रता, आचार-कौशल और सेवा-भावना से मैं प्रसन्न हूँ। अतः मैं इनको आज महाश्रमणी विशेषण से अलंकृत करता हूं। - कमलेश चतुर्वेदी युवाचार्यश्री का अभिनन्दन मुनिश्री महेन्द्र कुमार जी ___संयोजकीय वक्तव्य में मुनिश्री महेन्द्र कुमार जी ने कहा-युवाचार्य के रूप में श्री महाप्रज्ञ जी के प्रतिष्ठापन से समस्त अध्यात्म-जगत् को एक नई चेतना प्राप्त हुई है। भौतिकता की बाढ़ को रोकने के लिए आचार्यप्रवर ने एक सुदृढ बांध बना कर सारे युग ४६८ तुलसी-प्रज्ञा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को बचाया है । लगता है, युवाचार्य के निर्वाचन के समय स्वयं आचार्य भिक्षु आचार्यश्री तुलसी के रूप में प्रकट थे । ४ फरवरी ७६ को राजलदेसर में युवाचार्यश्री के अभिनन्दन समारोह में व्यक्त विभिन्न वक्ताओं के वक्तव्यों से कुछ चुने हुए उद्गार यहां प्रस्तुत हैं— युवाचार्य श्री के सहपाठी मुनिश्री बुद्धमल जी मुनिश्री ने संतों की ओर से अभिनन्दन पत्र भेंट करते हुए कहा कि - आज प्रातःकाल की घटना है । जब मैं अपने कमरे में था तो युवाचार्य सीधे मेरे कमरे में आ गये और मुझे कहा- तुम तो मेरे साथी हो । मेरा हाथ पकड़कर आचार्यश्री के पास ले गये | आचार्यश्री ने जो शब्द फरमाये, उनको सुनकर मैं गद्गद् हो गया। बोलने की इच्छा होते हुए भी नहीं बोल पाया । सुदामा श्रीकृष्ण के पास चावल लेकर गये थे । अब मैं क्या दूं, जब द्वारकाधीश स्वयं घर आ गये हैं । मेरे पास चावल नहीं हैं, यह अभिनन्दन पत्र है, उसे आपको समर्पित करता हूँ । साध्वीप्रमुखा महाश्रमणी श्री कनकप्रभा जी श्रमणी संघ की ओर से साध्वी प्रमुखा जी ने युवाचार्यश्री को अभिनन्दन पत्र भेंट करते हुए कहा कि -- विशिष्ट व्यक्ति का दिन होता है तो उसके विषय में समाचार-पत्रों में चर्चा की जाती है । युवाचार्य की नियुक्ति अप्रत्याशित हुई है, फिर भी मासिक कादम्बनी के फरवरी अंक में भाई कमलेश चतुर्वेदी द्वारा लिखित एक लेख है, जिसमें युवाचार्य के जीवन की झलक आपको पढ़ने को मिलेगी । साध्वीश्री संघप्रभा जी आज मैं अपनी जन्मभूमि में इस प्रकार का महोत्सव देखकर प्रमुदित हो रही हूँ । जिन्होंने यह महोत्सव नहीं देखा, संभवतः वे आगे भी ऐसा महोत्सव नहीं देख पायेंगे । सारा वातावरण उत्साह से प्रफुल्लित हो रहा है । साध्वीश्री कमलश्री कोर गाँव को लोग नहीं पहचानते थे । उसकी पहचान मुनिश्री नथमल जी के नाम से होती थी । मुनिश्री श्रीचन्द्र जी कल का दृश्य देखकर मेरा मन प्रसन्नता से भर गया। दूसरी ओर मुझे रिक्तता की अनुभूति हो रही है । मेरा एक मात्र जो आधार था, आज वह आधार व्यापक बन गया । मुनिश्री सागरमल जी 'श्रमण' मुझे कल मौका मिलना चाहिए था, नहीं मिला । उस अभाव के लिए मैं गद्गद् हूँ और इस आनन्द के लिए मूक अभिनन्दन करता हूँ । खण्ड ४, अंक ७-८ ४६६ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री गुलाबचन्द्र जी "निर्मोही' आज मुझे प्रसन्नता है । युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी अपनी महाप्रज्ञता का प्रसाद युगोंयुगों तक जनता को बाँटते रहें, यही इस अवसर पर मंगल कामना है। मुनिश्री जंवरीमल जी कशीश अमल में गर हो तो जहान झुकता है। गरजता है अभ्र जब, खुद ही नाच उठता है मोर ॥१॥ अभ्र के गरजने पर गर नहीं नाचता है मोर तो समझ लो वो मोर नहीं है, है कोई और ॥२॥ जिनको शासन का ताज बनाया गया वो दरसल वेमिस्ल है । जिनको इतना ऊंचा उठाया गया, वो सबकी निगाह में काबिल है ॥३॥ गुलिस्ताने जहाँ में फूल तो हैं जा बजा लेकिन । जो अपनी बू से करदे मस्त वह हर गुल नहीं होता ॥४॥ मेरा दिल तो है सयदा, इस चमन के ऐसे फूलों पर। (कि) जिनमें रंग भी हो, हुस्न भी हो और बू भी ॥५॥ ओ राही राहे हक पर दिन रात चलता जा तूं । सरसब्ज गुल की मानिंद हर वक्त फलता जा तूं ॥६॥ श्री खेमचन्द सेठिया आचार्य प्रवर ने जो निर्णय लिया है, उससे हम सबको अपार प्रसन्नता है। सारा समाज प्रसन्नता से झूम उठा है। पण्डाल भी खुशी के कारण ऊपर उछल गया। आचार्यप्रवर को युवराज पद गंगापुर की हिरणों की हवेली में मिला था, जिससे आपकी गति हिरणों की तरह तेज रही है । आज युवाचार्य का चुनाव नाहरों की हवेली में हुआ है। इसलिये ये भी नाहरों की तरह गूंजते रहेंगे। श्री मोहनलाल कठोतिया, अध्यक्ष-आवर्भ साहित्य संघ एवं संयोजक-अध्यात्म साधना केन्द्र दिल्ली ___ आचार्यश्री महान् दूरद्रष्टा हैं । आपने युवाचार्य पद पर महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल को आसीन करके हमारे धर्मसंघ की नींव पाताल तक पहुंचा दी है।...... समाज के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री हनुमानमल जी बैंगानी हम बड़े ही भाग्यशाली हैं, जिन्हें इतना सुन्दर अवसर देखने को मिला। मैं बार-बार आपका अभिनन्दन करता हुआ यही प्रार्थना करता हूँ कि हमारे परिवार पर आपकी कृपादृष्टि बनी रहे। श्री श्रीचन्द जी बैंगानी, मन्त्री-जन विश्व भारती, लाडनू .."मैं जैन विश्व भारती परिवार की ओर से आचार्यश्री का अभिनन्दन करता हूँ।... ४७० तुलसी-प्रज्ञा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कन्हैयालाल छाजेड़, अध्यक्ष-अखिल भारतीय ते० .० परिषद तन से, अवस्था से और चिन्तन से युवाचार्य युवक हैं। इसलिए युवकों की ओर से एक युवक का अभिनन्दन करते हुए गौरव की अनुभूति कर रहा हूँ। सुप्रसिद्ध पत्रकार श्री जयदेव गोयल बीकानेर से राजलदेसर की रेल यात्रा में कादम्बिनी फरवरी अंक देखने को मिला। पन्ने उलटते हुए नजर भाई कमलेश चतुर्वेदी के लेख "वह एक पदयात्री" पर अटक गई। पढ़कर मन में न जाने क्यों एक अतुलित आनन्द की अनुभूति हो रही थी। राजलदेसर में वह आनन्द शतगुणित हो उठा जब आचार्यप्रवर ने महाप्रज्ञ मुनिश्री नथमल जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। यदि इस ऐतिहासिक एवं अभूतपूर्व अवसर को न देखता तो जिन्दगी भर अपने को माफ न कर पाता। समाज के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री शुभकरण दसाणी यह सुन्दर दृश्य देखकर मैं भाव-विभोर हो रहा हूँ। क्या कहूं ? मुझे गोस्वामी तुलसीदास की वह पंक्ति याद आ रही है-गिरा अनयन नयन बिनु बानी : जिह्वा के नयन नहीं हैं और नयनों के जीभ नहीं है। इस पुनीत अवसर पर सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं। पद को पाकर व्यक्ति गौरवान्वित होता है, परन्तु कभी-कभी व्यक्ति को पाकर पद शोभित होता है । आज यह युवाचार्य का पद भी महाप्रज्ञ को पाकर धन्य हो रहा है । ... युवक कार्यकत्ता श्री गुलाबचन्द जी चण्डालिया, राजलदेसर हम राजलदेसर वासियों की प्रसन्नता का आज कोई ठिकाना नहीं है। आचार्यवर ने महती कृपा करके हमें एक साथ दो-दो अवसर प्रदान किये। बृहद् मर्यादा महोत्सव के साथ ही युवाचार्य का गरिमापूर्ण पद भी राजलदेसर की धरती पर प्रदान किया गया। मैं अपनी ओर से तथा समस्त राजलदेसर वासियों की ओर से श्रद्धास्पद आचार्यप्रवर तथा युवाचार्य महाप्रज्ञ जी का शत-शत अभिनन्दन करता हूं। महाप्रज्ञ की कहानी जनता की जुबानी श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, उदयपुर की ओर से युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ अभिनन्दन समारोह का समायोजन मुनिश्री सागरमल जी 'श्रमण' के सान्निध्य में तेरापंथी सभा भवन में किया गया। जिसमें शहर के गणमान्य नागरिकों के अलावा बौद्धिक, साहित्यकार, पत्रकार बड़ी संख्या में उपस्थित थे। शहर के विभिन्न वर्गों के लोगों ने श्रद्धा-सुमन प्रस्तुत किए। इस कार्यक्रम में बम्बई सूरत आदि महानगरों के लोग भी उपस्थित थे। श्री कमलचन्द सोगानी उदयपुर विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर श्री कमलचन्द सोगानी ने युवाचार्यश्री का अभिनन्दन करते हुए कहा-जब मैंने मुनिश्री नथमल जी को युवाचार्य खण्ड ४, अंक ७-८ ४७१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद प्रदान करने की घोषणा सुनी तब मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि मेरी तो अपनी दृढ़ धारणा बनी हुई थी। आचार्यश्री तुलसी स्वयं महान हैं उनकी दृष्टि महान है और उनका यह निर्णय अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण है। आचार्यश्री तुलसी ने जैन धर्म और जैन दर्शन के कल्याण का भगीरथ कार्य किया है। आचार्यश्री केवल तेरापंथ के आचार्य के रूप में ही नहीं जाने जाते हैं बल्कि जैन धर्म के आचार्य के रूप में जाने जाते हैं । मैं आचार्यश्री को जीवन्त व्यक्तित्व वाला मानता हूं। मैं क्या सारा मानव समाज ही उन्हें उस रूप में मानता है। आपने आगे कहा--मुनिश्री नथमल जी से मेरा सम्बन्ध सन् ६० से है। मैंने उन्हें विविध रूपों में देखा है। राजस्थान तथा अन्य प्रांतों में बैठ कर उनसे चर्चा, विचार मन्थन का अवसर उपलब्ध होता रहा है। मैंने उनके जीवन में एक अनोखी बात पाई। सन् ६० से पहले मैं जैन दर्शन के विश्रुत न्यायविद् पंडित चैनसुखदास जी से जैन दर्शन एवं जैन न्याय का अध्ययन किया करता था। पंडित जी ने ही पहले-पहल मुझे मुनि नथमल जी के बारे में बाताया। पंडित जी भी मुनिश्री के व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित थे । मुनिश्री नथमल जी हमेशा विकास की सीढ़ियों को पार करते रहे हैं । यों कहना चाहिए वे विकासवान व्यक्तित्व के धनी रहे हैं । उनका जीवन कभी ठहरा नहीं । जो ठहर जाता है, वह समाप्त हो जाता है। डा० सोगानी ने आगे कहा-आचार्यश्री तुलसी का संघ गतिमान धर्म संघ है। उस संघ के एक सितारे मुनि नथमल जी है । मैंने उन्हें हरदम नए रूप में देखा है जब-जब भी मेरा मिलन हुआ तब-तब मैंने निखरे व्यक्तित्व के रूप में पाया। कई बार तो मैं सोच भी नहीं पाता था क्या सचमुच पिछली बार जिन मुनि नथमल को देखा था क्या मैं उन्हें ही देख रहा हूं या कोई दूसरे को। आपने मुनिश्री नथमल जी के मुख्य तीन रूपों का वर्णन करते हुए बताया-पहलेपहल मैंने उन्हें दार्शनिक के रूप में देखा । उनको दर्शन की गहरी गुत्थियों को सुलझाते हुए कितनी ही बार मैंने निकट से परखा है। उनका अणुव्रत दर्शन मैंने पढ़ा मुझे प्रतीत हुआ यह अणुव्रत दर्शन है या विश्व दर्शन । वे किसी विश्वविद्यालय में नहीं पढ़े हैं, न कहीं वे प्रोफेसर रहे हैं, फिर कैसे वे इतनी गहराई में पहुंच जाते हैं। मैं समझ नहीं पाया सचमुच में वे जन्मजात प्रतिभावान् हैं। आचार्यश्री तुलसी से मुनि नथमल को मैं अलग नहीं देख सकता । यदि मैं अलग देखने की धृष्टता करू तो मैं नहीं जानता उनमें क्या बचेगा। उनका दूसरा रूप है-आगमज्ञ का । आगम हर जैन मुनि को पढ़ना होता है पर आगम में आगमन करना अलग बात है। जो आगम में आगमन करता है उसे महावीर के युग में जाना होता है, यह मेरी दृढ़ मान्यता है। युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा संपादित आचारांग का अनुवाद मैंने पढ़ा । मैंने अनेक बार अनेक संतों द्वारा संपादित आचारांग पढ़े हैं पर मैं कभी गहराई से समझ नहीं सका। इस बार मैंने आप द्वारा संपादित आचारांग पढ़ा, मेरा मन तरोताजा हो उठा । उन्होंने आचारांग को सूत्रात्मक शैली में प्रस्तुत किया है । जब तक हमारी दृष्टि सूत्रात्मक रूप में नहीं जा पाएगी, तब तक हम आचारांग को नहीं समझ सकते। ४७२ तुलसी-प्रज्ञा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग में एक सूत्र है-"उम्र बीत रही है यौवन बीत रहा है" यदि हमारी दृष्टि परिमार्जित एवं दूरगामी नहीं है हम इस सूत्र के रहस्य को नहीं जान सकते । मैं तो यह मानता हूं मुनि नथमल ही एक ऐसे हैं जो इस आगम का संपादन कर सकते हों, दूसरे के बल बूते का काम नहीं है । उनका तीसरा रूप है—ध्यान योगी। ____ डा० सोगानी ने गंगाशहर चातुर्मास की चर्चा करते हुए कहा-हम अनेक विद्वान गंगाशहर में आचार्यश्री तुलसी के सान्निध्य में समुपस्थित हुए। जैन विश्व-कोश की चर्चा हुई, बैठकें हुई। उन बैठकों में मुनि नथमल हमें नजर नहीं आए। जब-जब भी हम आचार्य श्री के पास उपस्थित होते थे तब-तब हमें मुनि नथमल आगे मिलते पर इस बार इसके विपरीत हो रहा था। मेरे मन में संदेह उत्पन्न हुआ। मैंने सोचा शायद इस बार मुनि नथमल जी कहीं अलग चातुर्मास कर रहे हैं। मैंने अपने साथियों से चर्चा की। किसी ने आचार्यश्री तुलसी से पूछा-मुनिश्री नथमल जी कहाँ हैं ? आचार्यप्रवर ने कहा- आजकल वे ध्यान की अतल गहराइयों में पहुंच रहे हैं। मन में जिज्ञासा हुई मुनिश्री से मिलना चाहिए। दलसुख भाई मालवाणिया, टांटिया जी तथा मैं तीनों समय निर्धारित कर मुनि नथमल जी के पास पहुंचे। मैंने देखते ही मुनिश्री से निवेदन किया--मुझे तो कुछ गड़बड़ नजर आती है । मुनिश्री चौंके और बोले-कैसे? मैंने कहा-अब आगमों को कौन पढ़ेगा? कौन दर्शन की नई देन देगा ? मुनिश्री ने तत्काल कहा-ध्यान योग का कार्य करता हुआ मैं उस कार्य को और बारीकी से कर सकूगा । मैं सुनकर अवाक् था। डा० सोगानी ने आगे कहा-युवाचार्य महाप्रज्ञ जी ने दर्शन से चल कर ध्यान तक की यात्रा सम्पन्न की है। महावीर ध्यान से चलकर दर्शन तक पहुंचे थे। महाप्रज्ञ जी ने महावीर से उल्टा क्रम अपनाया । वे समाज दृष्टि में भी पूर्ण सफल होंगे क्योंकि वे बुद्धि के स्तर से उठे और अनुभव तक पहुंचे हैं। अनेकों के मस्तिष्क में एक विचार फिर पैदा होता है-ध्यानयोगी संघ का नेतृत्व कैसे कर सकेगा ? हम फिर महावीर के युग में चलें, महावीर भी तो आत्म-समाधि से संघ में प्रविष्ट हुए थे। यदि महावीर का पुनरावर्तन मुनि नथमल करते हैं तो क्या नई बात है। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ध्यान के माध्यम से संघ का नेतृत्व भली प्रकार से कर सकेंगे इसमें कोई संदेह नहीं है । मैं हृदय की समस्त शुभकामनाक्षों के साथ उनका अभिनन्दन करता हूं। मुनिश्री सागरमल जी 'श्रमण' मुनिश्री सागरमल जी ने इस अवसर पर अपने उद्बोधन सन्देश में कहा किसी भी सुघड़ कृति को देखकर उसके कुशल कलाकार की सहज स्मृति हो आती है । सेवाभावी मुनिश्री चम्पालाल जी की याद हम सबको गद्गद् कर देती है। वे एक प्राणवान् पुरुष थे। उनका जीवन-व्यवहार जितना मृदु था, अनुशासन उतना ही कठोर था। स्वर्गीय भाई जी महाराज के संरक्षण में रहने वाले मुनियों में आचार्यश्री तुलसी के बाद युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ (मुनि नथमल जी) एवं मुनिश्री बुद्धमल जी आदि हैं। तेरापंथ धर्म-संघ के जाने-माने नक्षत्र जिन्हें आज गौरव से देखते हैं, वे सभी भाई जी महाराज की संरक्षण की जंती में से निकले हैं। उनके अनुशासन की खरसाण से उतरने वाला एक हीरा आज खण्ड ४, अंक ७-८ ४७३ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोहिनूर बन कर जौहरियों के हाथों में है । श्री भाई जी महाराज की कला आज मुखरित हो उठी है। काश ! आज वे होते । आचार्यश्री तुलसी के बाद यह दूसरा व्यक्तित्व है, जो तेरापंथ धर्म-संघ का नेतृत्व संभाल रहा है। आपने आगे कहा-मुनिश्री नथमल जी का जीवन सर्वथा निर्विवाद रहा है आचार्यश्री तुलसी ने युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ का निर्वाचन कर सही अर्थ में सरस्वती का समादर किया है। आगम का समादर किया है । दर्शन को मूर्तरूप में अवतरित किया है। हम हृदय की अनन्यतम भावनाओं से उनके प्रति कृतज्ञ है । आपने आगे कहा--मुझे मुनिश्री नथमल जी को बहुत निकटता से देखने का अवसर मिला है। अनेकों आयामों में वे मुड़े हैं, और निखरे हैं। उनके अनेकों रूप हमारे सामने आये हैं । हर स्थान पर हमने उन्हें चिन्तनशील पाया है। वे रहस्यवादी हैं। चैतन्य के निकट पहुंचने वाली विभूतियों में है । हम उनका अभिनन्दन किन शब्दों में करें यहाँ आकर शब्द निशब्द हो जाते हैं। भाव-विभोर मानस उन्हें अंतर की आँखों से झाँकने लगता है। वे पारदर्शी हैं । उनके नेतृत्व को पा तेरापंथ धर्म-संघ निहाल हो उठा है। मुनिश्री विनयकुमार जी आलोक' मुनिश्री नथमल जी को हम अनेक रूपों में देख रहे हैं। उनका पहला रूप है दार्शनिक का, चिन्तक एवं विचारक का । दूसरा रूप विशुद्ध साहित्य सेवी का और भी अनेक रूपों में हम उन्हें बाँट सकते हैं पर मुझे उनका सबसे प्रभावित करने वाला जो रूप लगा वह है उनका आचार्यश्री के प्रति समर्पित भाव। आचार्यप्रवर ने भी मनोनयन के अवसर पर अपने प्रवचन में कहा था---'मुनि नथमल हमेशा से समर्पित रहा है।' सचमुच वे उतने ही समर्पित थे, जितना हर व्यक्ति अपने आपको कर नहीं सकता। फिर एक बौद्धिक और चिन्तक व्यक्ति का समर्पित होना अपने आप में विशेषता रखता है। ___ आगे आपने कहा- मुनिश्री नथमल जी की मिलन-सारिता अभूतपूर्व है। जब-जब भी मिलना हुआ है, उन्होंने ऐसा आत्मीयता का भाव दर्शाया जिससे सहज ही व्यक्ति अभिभूत हो जाता है। श्री देवीलाल जी सामर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय लोक कला मण्डल के संस्थापक एवं निदेशक श्री देवीलाल सामर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा—मुनिश्री नथमल जी से मेरा संबंध बहुत गहरा रहा है । अतीत में झाँकते हुए श्री सामर जी ने कहा-बीस वर्ष पूर्व मैं आचार्यश्री तुलसी से प्रभावित नहीं था तथा मन में कुछ संदेह भी थे। मेरे मन की बात आचार्यश्री के पास पहुंची। उन्होंने मुझे याद किया। मैं आपके चरणों में उपस्थित हुआ, पर प्रभावित नहीं हो सका । कई बार आने-जाने का क्रम बना। विक्रम सं० २०१६ में आचार्यप्रवर का चातुर्मास उदयपुर में हुआ। आचार्यप्रवर ने मुझे पुनः याद किया । मैं उपस्थित होता रहा मैंने एक रोज आचार्यश्री से निवेदन किया-रोज-रोज नहीं आऊंगा। आचार्यप्रवर ने कहारोज न सही रविवार-रविवार व्याख्यान सुनना। मैं व्याख्यान सुनने के लिए एक-दो-तीन रविवार आया और मैं प्रभावित होता गया। अब तो मैं नियमित आने लगा। आचार्यप्रवर ने मुझे मुनिश्री नथमल जी को सौंपा । एक दिन वार्तालाप के बीच आचार्यप्रवर ने मुनिश्री ४७४ तुलसी-प्रज्ञा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नथमल जी को कला का अध्ययन करने को कहा । जैन दर्शन में कला की क्या उपयोगिता है आचार्यश्री ने आदेश दिया-तुम लोक कला मण्डल में नियमित अध्ययन करने जाया करो। मुनिश्री ने आचार्यप्रवर के आदेश को शिरोधार्य किया और वे आने लगे। मुनिश्री अपनी जिज्ञासाए प्रस्तुत करते । मैं उनका समाधान करने की कोशिश करता । मुनिश्री के उर्वर चिन्तन के सामने मैं नत था। मैंने एक दिन मुनिश्री से कहा-आप प्रश्न मुझे दे दें, कल समाधान करूंगा। क्योंकि मेरा अहं बोल रहा था। जैसे-तैसे दस दिन तो मैंने पार किये और ग्यारहवें दिन मेरी पोल खुल गई। मैं आचार्य प्रवर के पास पहुंचा और निवेदन किया---आपने मेरी यह परीक्षा क्यों ली ? आज से मैं उनका शिष्य हूं, वे मेरे गुरु हैं। आपने आगे कहा- महासंत, क्रांतिकारी विचारक, साधक और विवेकशील मनीषी हैं । अभी पिछले दिनों मैं रूस के प्रधानमंत्री माननीय श्री कोसीगिन के सम्मान में कठपुतली नृत्य प्रस्तुत करने दिल्ली पहुंचा । मुझे नहीं पता था आचार्यप्रवर दिल्ली में हैं । मैंने समाचार पत्रों में आचार्यप्रवर के स्वागत के समाचार पढ़े और मैं दौड़ा हुआ अणुव्रत विहार पहुंचा। मैं कुछ समय तक आचार्यप्रवर की सेवा में बैठा रहा। आचार्यप्रवर ने कहामहाप्रज्ञ जी के दर्शन करो। मैं गद्गद् था। एक आचार्य अपने शिष्य के प्रति इतना उदार हो सकता है ? महाप्रज्ञ जी से विचार विमर्श चल रहा था। उन्होंने कहा-अब तक मैंने जितना अणुव्रत के बारे में लिखा है अपर्याप्त है। अब मुझे नये सिरे से लिखना होगा। आपने आगे कहा--आप अनेक प्रकार की कठपुतलियों का निर्माण कर रहे हैं पर ध्यान योग की दृष्टि से भी कठपुतलियों का निर्माण होना चाहिए । जब तक हम ध्यान अतल गहराईयों में नहीं पहुंचेंगे तब तक हम यथार्थ से अनभिज्ञ रहेंगे। मुनिश्री की दूरगामी दृष्टि को देखकर मैं अवाक् था । मैं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का शब्दों से नहीं यथार्थ के धरातल पर अभिनन्दन करता हूं। श्री तेजसिंह जी मेहता सुप्रसिद्ध एडवोकेट तथा जाने माने चिन्तक श्री तेजसिंह मेहता ने कहा--मेरा मुनि श्री नथमल जी से प्रत्यक्ष सम्पर्क तो नहीं रहा, पर मैं उनकी कृतियों का पाठक रहा हूं। मैंने मुनि श्री के साहित्य में पाया है उनके हर शब्द का अपना अलग अस्तित्व होता है। उनकी कुछ कृतियाँ तो श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर से भी बढ़ी-चढ़ी कहूं तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। आपने आगे कहा--जो व्यक्ति ध्यानी हो जाता है उसके सारे कार्य होश पूर्वक होते हैं। मुनि नथमल जी ध्यान-योगी हैं। उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति योग-संचालित होगी। सचमुच में ध्यानी ही व्यावहारिक जगत में जी सकता है। ध्यानी जब आत्मस्थ होता है तभी सही दिशा में वह आगे बढ़ता है। आपने आगे कहा--भारत की धार्मिक जनता के लिए युवाचार्य श्री का चयन लाभकर होगा मुनिश्री के कृतित्व से न केवल तेरापंथ समाज ही लाभान्वित होगा बल्कि सारा धार्मिक जगत उनके कर्तृत्व से प्रभावित होगा । प्रेक्षा ध्यान के बारे में मैंने इन दिनों अनेकों विद्वानों से सुना है मेरी भी जिज्ञासा बढ़ी है मैं इसका गहराई से अनुशीलन करना चाहता हं। ध्यान में शास्त्रों की बात जीवन्त हो जाती है। मैं युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के उज्ज्वल भविष्य की मंगल कामना करता हूं। खण्ड ४, अंक ७-८ ४७५ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जसवन्त सिंह की मेहता जैन समाज के जाने माने नेता एडवोकेट श्री जसवन्तसिंह जी मेहता ने इतिहास की अविच्छिन्न कड़ियों को जोड़ते हुए कहा - भगवान महावीर के पश्चात् आचार्य परम्परा में पहले पट्टधर आर्य सुधर्मा स्वामी थे तथा दूसरे जम्बू स्वामी । जम्बू स्वामी के उत्तराधिकारी प्रभव स्वामी थे । प्रभव स्वामी सबल नेतृत्व के धनी थे, जब उन्होंने अपने पीछे नजर दौड़ाई तो हजारों साधु साध्वियों के परिवार में तथा लाखों अनुयायियों में अपने उत्तराधिकारी के योग्य कोई नजर नहीं आया । उन्होंने इतर समाजों में दृष्टि दौड़ाई । ज्ञान बल से जाना और पाया -- मेरे उत्तराधिकारी के रूप में स्वयंभव भट्ट उपयुक्त होंगे । उन्होंने अपने दो शिष्यों को समझाने के लिए भेजा। शिष्यों ने स्वयंभव को देखते ही दूर से कहा - "अहो कष्टमहो कष्टं, तत्वं न ज्ञायते परम् " स्वयंभव भट्ट ने जब यह वाक्य सुना वे चिंतन करने लगे । गहराई से समझने का प्रयत्न किया पर उसका सूत्र हाथ न लग सका । आखिर वे आचार्य प्रभव के पास पहुंचे । आचार्य प्रभव ने उन्हें प्रतिबोध दिया, शिष्य बनाया, आगमज्ञ किया और उत्तराधिकारी नियुक्त किया। यह ऐसी घटना है, यदि हम इस घटना के परिप्रेक्ष्य में देखें तो आचार्यश्री कितने शौभाग्यशाली हैं । शायद उन्हें कहीं नजर दौड़ाने की भी अपेक्षा नहीं हुई होगी। उन्होंने एक कोहिनूर निकाल कर समाज के सामने प्रस्तुत कर दिया । तेरापंथ समाज का संगठन अद्भुत है, अलबेला है । इस प्रकार का संगठन हमें कहीं भी देखने को नजर नहीं आता, चाहे वे धार्मिक संगठन हैं या सामाजिक अथवा राजनैतिक । खरतरगच्छ का एक आचार्य हो, यह चिन्तन वर्षों से चल रहा है, पर यथार्थता तक नहीं पहुंच पा रहे हैं । मुनिश्री नथमल जी के निर्वाचन से तेरापंथ समाज को ही नहीं समग्र जैन समाज को गौरव है । श्री रोशनलाल चौधरी विद्या निकेतन माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक श्री रोशनलाल चौधरी ने कहा – आज के ये दोनों सुयोग अद्भुत है । मुनिश्री सागरमल जी का शुभागमन तथा युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी का अभिनन्दन । सब लोगों को इस बात का आश्चर्य होता है कि आचार्यश्री तुलसी ने किसी को बिना पूछे बिना जताये अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर डाली, पर वे भूल जाते हैं यह तेरापंथ धर्मसंघ है । इस धर्मसंघ में आचार्य का निर्णय सर्वोपरि होता है । कुछ व्यक्तियों ने मुझे पूछा- क्या आचार्यश्री तुलसी का निर्णय जनतंत्र युग में उपयुक्त माना जा सकता है ? वे भूल जाते हैं जनतंत्र का क्या मतलब होता है । जनतंत्र का तात्पर्य है सब व्यक्तियों का जिससे हित होता है, वही तो जनतंत्र है । के आपने आगे कहा- मुझे लगता है तेरापंथ की यह प्रणाली राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी स्वीकार की है । वहाँ पर भी मनोनीत करने का अधिकार है । माननीय गोलवलकर साहब (गुरुजी) के निर्णय को सबने एक स्वर से स्वीकार किया । आपने आगे कहा- - जब जब भी मैं आचार्यप्रवर की सेवा में समुपस्थित हुआ हूं, मुझे मुनिश्री नथमल जी के पास घंटों बैठने का अवसर मिलता रहा है । उन्होंने जिस प्रकार से अपनत्व दिया, उसे मैं शब्दों व्यक्त नहीं कर सकता । घर-परिवार से लेकर राजनीति और अध्यात्म तक की चर्चाएँ तुलसी- प्रज्ञा ४७६ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती रही हैं । मुनिश्री नथमल जी का महत्त्व प्रारंभ से ही था । सचमुच हम सबकी इच्छा को आचार्यप्रवर ने पूर्ण किया है। मैं आचार्यप्रवर को साधुवाद देता हूं तथा युवाचार्य जी का अभिनन्दन करता हूं । प्रो० महावीरसिंह मुडिया उदयपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर महावीर सिंह मुडिया ने कहा- -आज का यह समारोह आनन्ददायक है । हम किन शब्दों में मुनिश्री की प्रशस्ति करें, हमारे पास शब्द नहीं है । आचार्यश्री तुलसी का यह निर्णय सर्वश्रेष्ठ निर्णय है । इससे आचार्यप्रवर की दूरदर्शिता उजागर हुई है । आचार्यश्री ने महाप्रज्ञ जी को अपना उत्तराधिकार सौंप कर संघ का ही गौरव नहीं बढ़ाया है, स्वयं आचार्यप्रवर भी गौरवान्वित हुए है । आपने आगे कहा- मुनिश्री नथमल जी हर दृष्टि से सक्षम हैं । हर व्यक्ति में हर विशेषता नहीं पाई जाती, पर मुनिश्री में एक से एक बढ़कर विशेषताएँ मौजूद हैं। मुझे अनेक बार जैन विश्व भारती द्वारा समायोजित जैन विद्या परिषद् में भाग लेने के अवसर उपलब्ध हुए हैं । उस समय मैंने देखा है मुनिश्री की विद्वता को । वे किस प्रकार से हर विषय की व्याख्या प्रस्तुत करते थे । जब-जब भी समस्या का समाधान नहीं होता, तब सब विद्वानों का ध्यान मुनिश्री नथमल जी की ओर चला जाता । मुनिश्री हर प्रश्न को समाहित कर विद्वानों को प्रभावित करते । सन् ७५ में राजस्थान - विश्वविद्यालय में मुनिश्री के जैन न्याय पर आठ प्रवचन हुए । मुनिश्री के उन प्रवचनों से बौद्धिक जनता बहुत प्रभावित हुई और सभी ने मुक्त कण्ठ से मुनिश्री के वक्तव्य एवं विद्वता की भूरी-भूरी प्रशंसा की । आपके निर्वाचन से धर्मसंघ की ही प्रतिष्ठा नहीं बढ़ी है, बल्कि यों कहना चाहिए विद्वानों की प्रतिष्ठा बढ़ी है । मुनिश्री अहंकार से दूर रह कर साधना की ज्योति को प्रज्वलित करते रहे हैं । मैं इस अवसर पर मुनिश्री का हार्दिक अभिनन्दन करता हूं । प्रो० भेरूलाल धाकड़ तुलसी निकेतन के प्राण एवं अनेक संस्थाओं के पदाधिकारी प्रोफेसर भेरूलाल धाकड़ ने कहा - प्रशस्ति और पूजा में मेरा विश्वास नहीं है । यह दिन न प्रशस्ति का है न पूजा का । आज का दिन यथार्थ का दिन है और हम यथार्थ का अभिनन्दन कर रहे हैं । मैं इस अवसर को धर्मसंघ और मानव समाज के कल्याण का दिन मानता हूं । आचार्यप्रवर ने दायित्वपूर्ण एवं बोझिल गठरी को सक्षम कंधों पर डाला है यह अभिनन्दनीय है । सत्ता का मिलना कठिन नहीं है, पर सरस्वती का मिलना कठिन है । मुनिश्री सचमुच सरस्वती के वरद् पुत्र हैं । मुनिश्री ने अपने आपको संघ के हित में खपाया है, वे अहंकार रहित व्यक्तित्व धनी हैं । श्री मानसिंह व अणुव्रत समिति, बम्बई के अध्यक्ष तथा तेरापंथ समाज के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता श्री मानसिंह वैद ने अभिनन्दन करते हुए कहा – मुनिश्री नथमल जी अनेक विशेषताओं के धनी हैं पर मेरी दृष्टि में सबसे बड़ी विशेषता है मुनिश्री की सरलता, ऋजुता तथा आचार तुलसी प्रज्ञा ४७७ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपन्नता । इन्हीं विशेषताओं से प्रभावित हो आचार्यश्री ने आपका मनोनयन किया है। अभी पिछले महिने आचार्यप्रवर अपने उत्तराधिकारी युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी को साथ लेकर चुरू पधारे । मैं उस अजीब छटा को देखकर हैरान था। राम और लक्ष्मण की वह साक्षात् जोड़ी मुझे देखने को मिली। हम सब सौभाग्य शाली हैं कि हमें महाप्रज्ञ जी जैसे आचार्य का सानिध्य उपलब्ध हुआ है। श्री बसंतीलाल तलेसरा उदयपुर तेरापंथ समाज के वरिष्ठ एवं चिन्तनशील कार्यकर्ता श्री बसंतीलाल तलेसरा ने इतिहास की कड़ियों को जोड़ते हुए उदयपुरी भाषा में बोलते हुए कहा-हमें यह सब कुछ नजारे तो तेरापंथ धर्म संघ में ही देखने को मिलते हैं। मुनिश्री नथमल जी बहुश्रुत होने के साथ-साथ ध्यान की सूक्ष्म गहराईयों में पहुंचे हुए हैं। आचार्यश्री ने महाप्रज्ञ जी को अपना उत्तराधिकार देकर धर्म संघ को निश्चित बना दिया है। आपने आगे कहा-इस निर्णय की धर्मसंघ का एक बच्चा भी आलोचना करने की हिम्मत नहीं कर सकता। श्रीमती लाड़ कंठालिया तेरापंथ महिला मण्डल, उदयपुर की अध्यक्षा श्रीमती लाड़ जी कंठालिया ने अपने श्रद्धा सुमन गीत के माध्यम से प्रस्तुत किए उसकी कुछ कड़ियाँ इस प्रकार हैं विकसित हम श्रद्धा सुमन लिए तुमसे पा स्नेहदान कितने जल उठे दिए। पा नेतृत्व तुम्हारा संघ सजीव बन गया जग में प्रगति शिखर की ओर बढ़ा दिन रात रुका कब मग में नव चेतनता रग-रग में, बन कर दिव्य शक्तिधर आज जिये ॥१।। डा० कुन्दनलाल कोठारी उदयपुर विश्वविद्यालय के पैथोलॉजी विभाग के अध्यक्ष एवं उदयपुर तेरापंथी सभा के अध्यक्ष डॉ० कुन्दनलाल कोठारी ने अपने संयोजकीय वक्तव्य में कहा—सचमुच हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें महाप्रज्ञ जैसे युवाचार्य के रूप में उपलब्ध हुए हैं । मुनिश्री नथमल जी अगाध पांडित्य के धनी हैं, सहज योगी हैं। उपसंहार उदयपुर के इतिहास में यह अभूतपूर्व कार्यक्रम था। सभी के चेहरों पर पुलकन थी नया जोश और नया उल्लास छाया हुआ था। हर चेहरे पर नई आभा खिल रही थी सोंकि आज युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के अभिनन्दन का कार्यक्रम था। तेरापंथी सभा भवन का विशाल प्रांगण खचाखच भरा हुआ था । कार्यक्रम की सर्वत्र सुन्दर प्रतिक्रियाए रही । अनेक दैनिक पत्रों के संवाददाता उपस्थित थे। ४७८ तुलसी प्रज्ञा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री अभयकुमार जी के मंगलाचरण से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ तथा श्री विजयसिंह तलेसरा ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम को सफल बनाने में जवेर जी डागल्या का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। -शा० वी० टी० एण्ड सन्स घण्टाघर, उदयपुर विवेकानन्द जयन्ती समारोह, दिल्ली दि० १४ जनवरी, १९७६ को शिक्षण साधना ओडिटोरियम में विवेकानन्द परिषद् के तत्वावधान में आयोजित समारोह में मुनिश्री रूपचन्द जी ने कहा कि महापुरुष किसी दायरे में आबद्ध नहीं होते। उनका जीवन और उपदेश सर्वजनहिताय होता है। भगवान् महावीर से पूछा गया--मुक्त कौन हो सकता है ? महावीर ने कहा-जो व्यक्ति सत्संकल्प के साथ विवेकपूर्वक साधना के पथ पर चल पड़ता है, वह मुक्त हो जाता है। विवेकानन्द नाम में जो दो शब्द "विवेक" और "आनन्द' हैं वे हमें प्रेरित करते हैं कि आनन्द की प्राप्ति तभी सम्भव है जब विवेक का जागरण हो।। इसी सभा में भारत के प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी देसाई ने बोलते हुए बतलाया कि विवेकानन्द ने आध्यात्मिक क्रांति अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के अनुग्रह से की थी। गुरु के प्रति उनमें अगाध श्रद्धा और समर्पण का भाव था। गुरु शिष्य का सम्बन्ध ऐसा ही होना चाहिए। -प्रोमप्रकाश कौशिक दिल्ली प्रदेश अणुव्रत समिति जैन अध्ययन मण्डल, नई दिल्ली दि० २८ जनवरी, १९७६ को अणुव्रत विहार में “जैन दर्शन में कर्म तथा पुनर्जन्म की समस्याएं' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में केलीफोर्निया विश्वविद्यालय में बौद्ध दर्शन के प्राध्यापक श्री पद्मनाभ एस० जैनी ने विभिन्न दर्शनों का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए कहा-जैन दर्शन में निगोद जीवों का जो वर्णन है, उससे लगता है कि विकासवाद का बहुत सुन्दर विश्लेषण जैन दर्शन में है। निगोद जीव की चेतना प्राक् संसार में क्रमशः विकसित होती हुई तिर्यञ्च, मनुष्य आदि योनियाँ पार करती हुई सिद्ध शिला तक जा सकती हैं। म.निश्री रूपनन्द जी ने अपने विद्वत्तापूर्ण भाषण में कहा--आत्मा, कर्म, निर्वाण आदि प्रश्न शाश्वत हैं। प्रत्येक दर्शन में इन विषयों पर विस्तृत वर्णन मिलता है, परन्तु इसके बावजूद कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं। विद्वद्गण निष्पक्ष दृष्टि से इस पर अनुसन्धान करें। संगोष्ठी में दिल्ली विश्वविद्यालय एवं अन्य शोध संस्थानों के करीब २५ विद्वानों ने भाग लिया। --स्वरूपचन्द्र जैन, कार्यक्रम निदेशक, जैन विश्व भारती खण्ड ४, अंक ७-८ ४७६ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दमोह में वर्शन, ज्ञान एवं आचरण की त्रिवेणी ___जैन प्रगतिशील परिषद् तथा श्री भागचन्द्र इटोरया सार्वजनिक न्यास द्वारा आयोजित "डा० शीतलप्रस द जी जन्म शताब्दी तथा पं० परमेठीवास न्यायतीर्थ एवं श्री भागचन्द्र इटोरया स्मृति दिवस" समारोह में भाषण करते हुए इन्दौर विश्वविद्यालय के डा० नेमीचन्द्र जैन ने कहा कि उक्त तीनों महानुभाव श्रेष्ठ संगीतज्ञ थे। वे जानते थे कि जीवन के तार कहाँ शिथिल हो रहे हैं । वे स्वस्थ समाज रचना में क्रमशः हृदय, शिर और हाथ थे अर्थात् दर्शन, ज्ञान एवं आचरण की त्रिवेणी थे। उन्होंने प्रेरणा दी कि दीपक की लौ पर आने वाली कालिमा को दूर करें। ___ सहकारी बैंक के प्रबन्धक संचालक एवं जैन पंचायत, अध्यक्ष श्री ताराचन्द्र सिंधवी की अध्यक्षता में आयोजित इस समारोह में पं० सुभाषचन्द्र पंकज (मथुरा), डॉ० कस्तूरचंद्र सुमन (बांसा), पं० मोतीलाल विजय (कटनी), पं० फूलचन्द्र पुष्पेन्दु (खुरई), सेठ सुमेरचंद्र जी (जबलपुर) और डॉ० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' ने प्रेरक उद्गार व्यक्त किए। मुख्य अतिथि द्वारा "श्री भागचन्द्र इटोरिया : एक प्रेरक व्यक्तित्व" नामक एक पुस्तक का विमोचन किया गया। रात्रि में संगीताचार्य पं० सुभाषचन्द्र पंकज तथा आकाशवाणी कलाकार पं० श्यामसुन्दर शुक्ल द्वारा साधनामयी स्वर सरिता प्रवाहित की गई। –लक्ष्मीचन्द सेठ, मन्त्री प्रगतिशील परिषद्, दमोह बम्बई में आचार्यश्री कालूगणी का चरमतिथि समारोह दि० ४-१-७६ को साध्वी श्री सरोजकुमारी जी (ठाणा ५) त्रिमूर्ति (बोरीवली) पधारी। उनके सान्निध्य में बम्बई महानगर तेरापंथ युवक परिषद का अधिवेशन श्री निराला जी की अध्यक्षता में हुआ, जिसमें विषय रखा गया-"आचार्यश्री का संकेत और हमारी परिषद् ।” साध्वी श्री सोमप्रभा जी, साध्वी श्री संयम श्री जी आदि चारित्रात्माओं ने बिषय पर सांगोपांग प्रकाश डाला। श्री मानसिक जी वैद्य, श्री चांदमल जी बोहरा, श्री गौटुलाल जी, श्री राजमल जी जैन आदि वक्ताओं ने भी अपने विचार व्यक्त किए। रात्रि में “आचार्यश्री तुलसी की दैनिकचर्या" नामक फिल्म प्रदर्शन का कार्यक्रम श्री अर्जुनलाल जी बाफना के संयोजकत्व में रक्खा गया। थाना में प्रेक्षा ध्यान शिविर __ दि० १०-१-७६ को साध्वी श्री सरोनकमारी के सान्निध्य में स्थानीय परिषद् के मन्त्री श्री कपूर जी आदि उत्साही कार्यकर्ताओं के प्रयास से एकदिवसीय प्रेक्षाध्यान शिविर लगाया गया। श्री अरुणभाई जवेरी ने श्वासपद्धति, ध्यान, चेतना केन्द्र आदि की जानकारी दी। रात्रि में स्वयं जेठाभाई जवेरी ने, जो इस विषय के विशेषज्ञ हैं, ध्यान की भूमिका, प्रेक्षाध्यान पद्धति की वैज्ञानिकता व जीवनोपयोगी पक्ष को विस्तार से समझाया। महाप्रज्ञ जी के टेप-प्रवचनों से कार्यक्रम समाप्त हुआ । -लक्ष्मीलाल कोठारी ४० तुलसी प्रज्ञा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्यादा के अभाव में देश व समाज का उत्थान असम्भव गुलाब बाग (पूर्णिया) "मर्यादित जीवन जीना ही मर्यादामहोत्सव मनाने की सफलता है। मर्यादा जीवन है । प्राण है। संजीवनी है । अमूल्य ऐश्वर्य है । सम्पदा है । मर्यादा के अभाव में कोई भी देश, कोई भी समाज उत्थान नहीं कर सकता है । मर्यादा मानव के विकास को बांधती नहीं है, उसे वास्तविक गति देती है । मर्यादाओं के कारण ही तेरापंथ संघ में ऐक्य, अनुशासन एवं संगठन पल्लवित हो रहा है।" ये शब्द मुनिश्री कन्हैयालाल जी ने जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा द्वारा आयोजित ११५ वें मर्यादा महोत्सव के शुभावसर पर सैकड़ों भाई-बहिनों के बीच अभिव्यक्ति किये। ___इस अवसर पर मुनिश्री महेशकुमार जी एवं मेतार्य मुनि के अतिरिक्त अन्य भाईबहिनों ने भी अपने विचार व्यक्त किये । लगभग ३६ नगरों से पधारे भाई-बहिनों ने उपस्थित होकर इस आयोजन को सफल बनाया । सभी का संचालन श्री कमलकुमार पुगलिया ने किया । सभा के मंत्री श्री रायचन्द जैन ने आचार्यप्रवर का सन्देश पढ़कर सुनाया। मर्यादा महोत्सव का अवशिष्ट कार्यक्रम मुनिश्री के सान्निध्य में रात्रि में द्वितीय चरण के रूप में सम्पन्न हुआ। -सुमेरमल चौपड़ा सरदार शहर में · यवाचार्य अभिनन्दन हर्षोत्सव" समारोह दि० १८ फरवरी, १६७६ को आयोजित उपर्युक्त समारोह में मुनि श्री विनयकुमार जी, आलोक, ने कहा कि आचार्य श्री ने योग्य व्यक्ति का मनोनयन करके धर्म संघ को सुदृढ़ बनाया है । साध्वी श्री भीखाजी एवं साध्वी श्री लाघवश्री जी ने गीतिका के द्वारा युवाचार्य जी के दीर्घायुष्य की कामना की। तेरापन्थ सभा के अध्यक्ष श्री भंवरलाल बैद, अणुव्रत समिति के मंत्री श्री चन्दनमल पींचा, श्री सोहनलाल बैद, डॉ. किरणकुमार नाहटा, श्री रामस्वरूप शर्मा, श्री नगराज नाहटा, प्रो० जोरावरमल घीया, श्री भीकमचन्द बैद, श्री मोतीलाल बरड़िया आदि विद्वानों ने भी प्रसंगानुकूल विचार व्यक्त किए, जिनका सार यही था कि आचार्य श्री की सूझ-बूझ तथा समयज्ञता सराहनीय है । युवाचार्य जी के चयन से संघ गौरवान्वित होगा, यह निर्विवाद है। समारोह के अन्त में मुनि श्री सागरमल जी 'श्रमण' में इतिहास की कड़ियों को जोड़ते हुए कहा कि युवाचार्य श्री का व्यक्तित्व निर्विवाद है । इनके मनोनयन से चारों ओर . प्रसन्नता का समुद्र लहरा रहा है । ये सदैव आचार्य प्रवर के प्रति समर्पित रहे हैं । इसीलिए इन्होंने जीवन में इतनी महानता अर्जित की है। सभा का संजोयन श्री सोहनलाल डागा, उपमन्त्री, द्वारा किया गया । -पूनमचन्द सेठिया राजविराज में चारित्रात्माओं का विहार : दि० २४-२-७६ को साध्वी श्री सोहना जी तथा शजीमती जी का मिलन समारोह सर्वोच्य न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री भगवती प्रसाद सिंह जी की अध्यक्षता में हुआ। खण्ड ४, अंक ७-८ ४८१ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगरमाथा अंचलाधीश महेशकुमार जी उपाध्याय मुख्य अतिथि थे । साध्वी श्री सोहना जी का होली चातुमासिक पक्खी सिलीगुड़ी में होगी। साध्वी श्री राजीमती जी का विहार मार्च में धरान की तरफ होगा, जहां मुनि श्री कन्हैयालाल जी विराजते हैं। होली के पश्चात् मुनि श्री विराटनगर से विहार करेंगे। -चैन रूप दूगड़ दिल्ली में युवाचार्य अभिनन्दन समारोह : दि० ११ फरवरी, १९७६ को आयोजित समारोह में म न श्री रूपचन्द्र जी ने कहा कि यवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सम्प्रदायातीत एवं परिवेशातीत है । उनकी रचना-मिता, मेधा एवं चिन्तन-ज्योति राष्ट्रव्यापी है। समारोह में लाला हंसराज गुप्ता, श्री जैनेन्द्र कुमार, श्री दत्तात्रोय तिवारी, श्री रत्नसिंह शाण्डिल्य, श्री सरदारमल बेंगानी, श्री फरजनकुमार जैन, श्रीमती पुष्पा पारिख आदि वक्ताओं ने भी प्रसंगानुकूल विचार व्यक्त किए। श्री नरेश जैन ने आयोजन का संयोजन किया। — ओमप्रकाश कौशिक पारमाधिक शिक्षण संस्था, लाडनूं का वार्षिकोत्सव :-- दि० २८-२-७६ को रात्रि में साध्वी श्री कमल श्री जी साध्वी श्री कनक श्री जी, साध्वी श्री यशोधरा जी आदि १३ साध्वियों तथा ब्राह्मी विद्यापीठ के सभी अध्यापकों के सान्निध्य में वार्षिकोत्सव का आयोजन किया गया। कु० सविता, कु० मंजु, कु० महिमा, एवं कु० मुदिता ने इतिहास के परिप्रेक्ष्य में संस्था का परिचय प्रस्तुत किया । श्री कल्याणमल जी, पं० रामकुमार शास्त्री, श्री लूणकरण विद्यार्थी, तथा चारित्रात्माओं ने बड़े सारगर्भित विचार व्यक्त किए । व्यवहार, चिन्तन, दायित्वनिर्वहन, शैक्षणिक स्तर आदि के परिप्रेक्ष्य में १३ बहिनों को नवीन उपाधियों से पुरस्कृत किया गया। अध्यक्ष श्री राणमल जी जीरावला ने बहिनों को उचित मार्गदर्शन दिया । -कु० शान्ता जैन, संयोजिका श्री जैन श्वे० तेरापन्थ सभा, वाराणसी के आयोजन : ३ फरवरी, १९७६, । मर्यादा महोत्सव मुनि श्र पूनमचन्द जी के सान्निध्य में श्री प्रेमराज सिंधी की अध्यक्षता में मनाया गया। मुनि श्री रवीन्द्रकुमार जी तथा मनि श्री देवेन्द्र कुमार जी ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में सुन्दर विचार व्यक्त किए। बौद्ध विभागाध्यक्ष श्री जगन्नाथ उपाध्याय, अन्तर्राष्ट्रीय मानव कल्याण संस्थान के अध्यक्ष डॉ० एस०एन० राय, विश्व धर्म शान्ति सम्मेलन के उपाध्यक्ष फादर राक, जिला सम्पर्क अधिकारी श्री अरुण गुप्त, श्रीमती वीणा डोसी ने कई रचनात्मक सुझाव दिए । मंगलाचरण श्रीमती गुलाब देवी ने तथा संयोजन श्री शरद कुमार साधक ने किया। ७ फरवरी, १९७६ । स्थानीय समाज की परिचयात्मक गोष्ठी मुनि श्री पूनमचन्द जी के सान्निध्य में हुई । समाज का एक भवन, विद्यालय का संचालन तथा संघीय संस्कारों का निर्वाह आदि पर विचार विमर्श किया गया। ४८२ तुलसी प्रज्ञा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ फरवरी, १९७६ । युवाचार्य अभिनन्दन समारोह मुनि श्री पूनमचन्द जी के सान्निध्य में मनाया गया । सभा की अध्यक्षता श्री मधुपकुमार जैन तथा संयोजन श्री पुष्पराज डुंगरवाल ने किया । मुनि श्री देवेन्द्र कुमार तथा मुनि श्री रवीन्द्र जी ने सुन्दर विचार प्रस्तुत किए। १० फरवरी, १९७६ । महिला मण्डल द्वारा युवाचार्य अभिनन्दन समारोह मनाया गया, जिसमें श्रीमती गुलाव देवी, श्रीमती सम्पत देवी सुराणा, श्रीमती सम्पत देवी बोथरा, श्रीमती सम्पत देवी नाहटा, मोहनी देवी सुराणा, गौरी देवी नाहटा, झमकू देवी सींघी, प्रकाश देवी सेठिया, अनूप देवी शेखानी, इचूदेवी बैद, श्रीमती श्री देवी आदि ने भाषण, कविता पाठ, गीतिका, सहगांन आदि के द्वारा बड़ा अच्छा कार्यक्रम प्रस्तुत किया । -पवन कुमार जैन सादुलपुर (राजगढ़) में ३२ वर्षों पश्चात् भागवती दीक्षा समारोह :---- चूरू से लखाऊ, दूधवाखारा, हडियाल, डोकवा आदि को स्पर्श करते हए आचार्य श्री तुलसी दि० २३-२-७६ को राजगढ़ में पधारे । सार्वजनिक निर्माण मन्त्री श्री जयनारायण पूनिया, एस० डी० एम० श्री आशुतोष गुप्त आदि महानुभावों ने आचार्य श्री का स्वागत किया तथा महती सभा में अभिनन्दन पत्र भेंट किया । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ भी अपनी जन्म स्थली टमकोर से राजगढ पधार गए थे। दि० २४-२-७६ को आचार्य श्री ने राजगढ के निर्मल गधैया पुत्र श्री रायचन्द गधया, तथा गंगाशहर के सम्पत लूणावत पुत्र श्री मंगलचन्द लूणावत को भागवती दीक्षा प्रदान की। नव दीक्षित मुनियों के नाम 'मुनि श्री निर्मलकुमार जी' तथा 'मुनि श्री संभवकुमार जी' रखे गए। युवाचार्य जी ने तनाव मुक्ति हेतु त्रिगुप्ति (कायोत्सर्ग, मौन व ध्यान) का महत्त्व समझाया। साध्वी श्री प्रतिभा श्री ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए। आचार्य श्री ने महती कृपा करके श्री सुबोध कुमार गधैया, राजगढ़ (सुपुत्र श्री जीवनमल जी) को प्रतिक्रमण का आदेश फरमाया । तपस्वी मुनि श्री सम्पतलाल जी ने ३२ वर्षों के बाद राजगढ में आचार्य श्री के पधारने के उपलक्ष में ३२ दिनों के उपवास चालू कर रखे हैं। -शुभकरण श्यामसुखा, पवन मुसरफ ब्राह्मी विद्यापीठ (महिला कॉलेज) लाइन में प्रेरक उद्बोधन : ___ स्वामी सत्यपति जी, आचार्य गुरुकुल, सिंहपुरा (रोहतक) [हरियाणा] ने दि० ६ मार्च, १९७६ को महिला कॉलेज की छात्राओं एवं अध्यापकों के बीच भाषण करते हुए संस्था की प्रगति की बड़ी सराहना की। बहिनों में योग-साधना के शिक्षण-प्रशिक्षण से वे विशेष प्रभावित हुए । अजमेर के आर्य संगीताचार्य श्री पन्नालाल “पीय ष' सिद्धान्त शास्त्री ने अपनी शिक्षाप्रद गीतिका से छात्राओं का ज्ञान संवर्द्धन किया। खण्ड ४, अंक ७-८ ४८३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत अनुशास्ता दिल्ली की ओर (दिनांक ६ फरवरी '७६ से ६ मार्च '७६) - गौतम जय हो ! जय हो ! मैत्री हो ! समता धर्म-समताधर्म । अपार जनसमूह के घोष दूरी पर सुनाई पड़ रहे थे तथा सभी लोग घोषों से आकृष्ट हुवे तथा कई कदम उस ओर दौड़ पड़े। जयघोष नजदीक आये तो पूर्ण घोष इस प्रकार थे..... राष्ट्र के महान संत आचार्यश्री तुलसी की जय हो! जन जन में..." "मैत्री हो। महावीर ने क्या सिखलाया-समताधर्म-समताधर्म ! युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ की 'जय हो ! कैसे बदले जीवन धारा-प्रेक्षाध्यान साधना द्वारा । अणुव्रतों का यह संदेश–व्यसनमुक्त हो सारा देश । अनुशासित जुलूस चला आ रहा है । महिलायें, बालक-बालिकायें युवक स्वयं अपनीअपनी पंक्ति में चल रहे हैं तथा जय घोष कर रहे हैं। श्वेत साड़ी हरी किनार की, नंगे पाँव वाली युवतियाँ लय बद्धता से गाती हुई बढ़ रही हैं तो पूर्ण श्वेत वस्त्रों से सुशोभित अपने विशेष वेष में एक दल और आगे बढ़ रहा है। सभी की गर्दन झुक गई है। कोई बैठकर तो कोई खड़े-खड़े ही नमन कर रहा है। सबसे आगे वाली साध्वी का हाथ ऊपर उठा है। करुणामय दृष्टि, हल्की मुस्कान, तेजोमय प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी यह महिला धीरेधीरे आगे बढ़ती हुई सभी को आशीर्वाद दे रही है और इनके पीछे एक लम्बी सी कतार ऐसी ही साध्वियों की चली गई है, पता लगा आशीर्वाद देने वाली साध्वी प्रमुखा महाश्रमणी कनक प्रभा है, जिनकी प्रभा आज नारी उत्थान के कार्यक्रम में चारों ओर फैल रही है। पंच रंगों का ध्वज लहराता हुआ गुजर रहा है । ध्वज के ठीक पीछे बाल मुनि वृन्द पंक्ति से गुजर रहे हैं, छोटे-बड़े और बड़े क्रमशः । टीक इनसे १०-१५ कदम की दूरी पर हैं साक्षात् ज्योति पुज, ऊँचा ललाट, दैदिप्यमान चेहरा, मध्यम काठी का मध्यम कद का एक देवतुल्य व्यक्ति । शांत चित्त, प्रफुल्लित मन और उल्लास लिये एक हाथ से आशीर्वाद तथा चित्ताकर्षण करने वाली दृष्टि से सभी को प्रसन्नता में हर्षोल्लासित ४८४ तुलसी प्रज्ञा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता अनोखे व्यक्तित्व का धनी धीरे-धीरे कदम बढ़ाता हुआ आगे बढ़ रहा है । जिसके चारों ओर से मानवता के पोषक, महामानव, अणुव्रत अनुशास्ता आचार्यश्री तुलसी की जय की गगनभेदी आवाजें आ रही हैं । यही है वह महामूर्ति जिसके चरणों को छूने की होड़ लग रही है, जिसकी वाणी सुनने को लोग दौड़ पड़ रहे हैं । पाण्डाल छोटे पड़ रहे हैं । आज यह व्यक्ति जिधर से भी गुजर जाता है उस ओर का जीवन इस पर केन्द्रित हो जाता है । सभी अपने दैनिक कार्यक्रम से एक ओर हट इस महाबसंत के दर्शन की ओर दौड़ पड़ रहे हैं । सुना है इस महामानव को नए-नए कार्य करने की आदत सी पड़ी हुई है अभी-अभी अनायास ही मर्यादा महोत्सव (राजलदेसर ) में की गई युवाचार्य की घोषणा महान् हर्ष कारण बन हुई है। ठीक इस महामानव के दाहिनी ओर दो कदम पीछे की ओर पूर्ण लम्बाई धारण किये, गम्भीर चेहरे एवं तेजोमय दृष्टि के साथ अपने में खोया रहने वाला एक महान् दार्शनिक संत चल रहा है, जिसे सारे विश्व में महान् चिन्तक, उच्चतम दार्शनिक, विचारक, मानवता पोषी मुनि नथमल से जाना जाता था । आज युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के रूप में अपने गुरु के श्री चरणों का अनुसरण कर रहा है । और पीछे संतों की एक लम्बी सी कतार चल रही है । संतों के पीछे दृष्टिगत है स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों की कतारें । सभी लोग केवल जयघोष के समय ही आवाज करते हैं । अन्यथा शांतचित्त चल रहे हैं । पंक्तिबद्ध अनुशासित । इस महामानव के चरण चुरू से लाखाऊ, दूधवाखारा, हड़ियाल, डोकवा, सादुलपुर, ( युवाचार्यश्री के टमकोर, मीठड़ी) राजगढ़, थानमठई, भाकरा, बहल, ओबरा, दुराला, लेघा, भिवानी, बामला, खरक, कलानोर, लाली, रोहतक, कलाहवड़, रोहद, बहादुरगढ़, नांगलोई, (दिल्ली) सदर, लालकिला, दरियागंज, अणुव्रत विहार, ग्रीनपार्क होते हुए मेहरौली छतरपुर में अध्यात्मसाधना केन्द्र में प्रेक्षाध्यान शिविर में पहुंचे । उपर्युक्त सभी स्थानों पर अपार जनसमूह ने आपका हार्दिक अभिनन्दन किया और अमृतोपम प्रवचनों का लाभ उठाया। आचार्यप्रवर ने प्रत्येक स्थान पर जिज्ञासुओं की जिज्ञासापूर्ति की है । दर्शनार्थियों को दर्शन दिये हैं । आईये आपको कई मुख्य स्थानों, उन दृष्यों का अवलोकन कराऊँ, जो निश्चय ही अपने आप में अनोखे रहे हैं चुरू – (१६-२-७९ से १६-२-७६ तक ) स्थान श्री फतहचन्द, बजरंगलाल कोठारी की हवेली | विशाल हवेली जिसके ओरछोर का पता ही नहीं चलता । तम्बुओं से आच्छादित पाण्डाल में श्वेत वस्त्र धारण किये मध्यम कद का चौड़े भाल व मोटी-मोटी आँखों वाला, शान्त परन्तु दृढ़प्रतिज्ञ, तेजोमय भावों को बिखेरता सा कभी स्नेह पाश में जकड़ता और कभी वरद हस्त से अभिवादन और वन्दन स्वीकार करता हुआ मानवता का सजग प्रहरी विराजमान है | एक ओर बाल संतों से लेकर वयोवृद्ध श्वेत वस्त्र धारण किए अपने-अपने स्थान पर सजग गुरुदेव की एकटक दृष्टि लगाये आज्ञापालन हेतु तत्पर हैं, तो दूसरी ओर माँ सरस्वती खण्ड ४, अंक ७-८ ४८५ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रिय श्वेत वस्त्रावलि में शांत चित्त स्नेहमयी ज्योति वाली साध्वियाँ विराजित हैं; मानो शांति के देवता की सभा में साक्षात् शक्तिपुंज देवी-देवता अपने परम अराध्य ज्योतिपुंज की अराधना में संलग्न हो। सभी की दृष्टि अपने आराध्यदेव पर टिकी हुई है। आज्ञा के इन्तजार में । सन्तों के आगे युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी एवं साध्वियों के आगे महश्रमणी है, मानो दल नायक विराजे हों। दर्शनार्थियों का तांता लगा हुआ है, विविध वेष-भूषा में बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष पंक्तिबद्धता से आ रहे हैं, तथा वन्दना कर जहाँ भी स्थान मिल रहा है बैठ रहे हैं । एक ओर कुछ पुरुष सामायिक में सलग्न हैं तो दूसरी ओर स्त्रियाँ; हाँ पूरे पाण्डाल में इन्हीं दो दलों को अलग से स्थान मिल रहा है । अन्य सभी स्त्री-पुरुष अपने-अपने खेमे में रिक्त स्थान पर अपने आप बैठ रहे हैं। जहाँ आचार्यप्रवर वन्दना स्वीकार कर मंगल भावव्यक्त कर रहे हैं, वहाँ प्रकृति अपनी शीतल बयार से सभी को कम्पायमान कर रही है। अजीबगरीब है प्रकृति-खेल । कभी ठण्डी बयार के साथ नन्हीं-नन्हीं बोछार, तो कभी भयंकर दिलदहलाने वाली गर्जन मानो गुरुदेव पर एकाधिकार जमा रही है दर्शनार्थियों को दर्शनों से रोकने में संलग्न है। वर्षा हुई, दर्शनार्थी रुके । वर्षा रुकी दर्शनार्थी चले, यह आँख मिचौनी चलती ही रही। श्रावक-श्राविकायें भी दृढ़प्रतिज्ञ हैं, सभी चारित्र-आत्माओं के दर्शन छोड़ना नहीं चाहते हैं। हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुषों ने आचार्यप्रवर के दर्शन कर प्रवचन का लाभ उठाया। सायंकालीन कार्यक्रम में युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी का “आज के युग में धर्म का स्थान" प्रवचन हुआ, एवं आचार्यश्री का १७-२-७६ प्रातःकालीन प्रवचन--क्या धर्म से सब कुछ काम चल सकेगा ? विशेष आकर्षण के केन्द्र रहा है। चुरू नगर के सभी उच्चतम राज्याधिकारियों व नागरिकों द्वारा आचार्यप्रवर का स्वागत किया गया। इस अवसर पर जैन विश्वभारती के प्रतिनिधि के द्वारा विस्तार से प्रेक्षा, तुलसी प्रज्ञा एवं युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचन कैसट सैटों की जानकारी कराई गई। अनेक श्रावकों द्वारा मासिक पत्रिकाओं की सदस्यता ग्रहण की गई, तो अनेकों ने जैन विश्व भारती के बारे में जानकारी प्राप्त की। इन अवसरों पर महाप्रज्ञ जी के दिसम्बर ७८ शिविर के कैसट्स हर समय सुनवाये गये। २०-२-७६ दूधवाखारा . रेलवेस्टेशन छोटा परंतु महत्वपूर्ण स्थान था। सायंकाल शिविर मार्च ७८ के प्रश्नोतर एवं आचार्यश्री के प्रवचन की टेप सुनाकर कार्यक्रम का प्रारम्भ हुआ । आचार्यप्रवर ने कहा--विज्ञान का चमत्कार है । ऐसा लगता है महाप्रज्ञ की वह सारी बातचीत जो मार्च में की थी, वह साक्षात् अभी कर रहे हैं।" दर्शनार्थियों को उपदेश दिया गया। दूधवाखारा में संस्कार निर्माण समिति द्वारा प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। आचार्यप्रवर द्वारा व्यसन-मुक्ति की प्रेरणा स्थानीय श्रोताओं को दी गई। तीन सौ के करीब श्रोता उपस्थित थे। ४८६ तुलसी प्रज्ञा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेलवे कर्मचारियों के द्वारा व्यवस्था में पूर्ण सहयोग प्रदान किया गया। प्रातःकाल महाप्रज्ञजी के द्वारा अपने जन्म स्थान 'टमकोर' की ओर तथा आचार्यप्रवर द्वारा हड़ियाल की ओर प्रस्थान किया गया । २१-२-७६ टमकोर स्थानीय जनता द्वारा महाप्रज्ञ जी का हार्दिक अभिनन्दन । साध्वियों द्वारा मंगलाचरण, मुनिश्री महेन्द्र कुमार जी एवं मुनि श्री श्रीचन्द जी द्वारा अभिनन्दन-वक्तव्य, तेरापंथ सभा व तेरापंथ युवक सभा द्वारा भाव प्रकट । युवाचार्य महाप्रज्ञ जी ने अपने उद्बोधन भाषण में बताया कि सब कुछ ज्योति पुज गुरुदेव की ही कृपा है कि मैं आज इस स्थिति में हूं। इस छोटे से गाँव का ग्रामीण बालक मुनि नथमल बना और मुनि नथमल से महाप्रज्ञ । सब कुछ गुरु-कृपा से ही हुआ है । अब इस गाँव का भी उत्तरदायित्व बढ़ गया है। आप लोगों का उत्तरदायित्व भी बढ़ गया है। अतः अब आप सभी को इसके लिए तैयार रहना है । आचार्य प्रवर की वाणी का प्रसार करना है । न केवल प्रसार अपितु उसका अनुसरण करना है। २२-२-७६ सादुलपुर __ आचार्यप्रवर का भव्य स्वागत हुआ। दर्शनीय था। राजस्थान के सार्वजनिक निर्माणमंत्री, स्थानीय राज्य उच्च अधिकारी एवं गणमान्य नागरिकों के द्वारा आचार्यप्रवर का भावभीना अनोखा अभिनन्दन किया गया। आचार्यप्रवर ने उमड़ते जनमानस को सम्बोधित करते हुए बताया कि "धर्म आपके साथ होगा तो प्रत्येक कार्य अच्छा होगा। धर्म के स्थान ही धर्म के केन्द्र हो यह मानेंगे तब तक आप धर्म के मर्म को नहीं समझेंगे । देखिये---हमारा शरीर है । इसमें कुछ केन्द्र हैं, किन्तु चेतना कहाँ नहीं है, समुचे शरीर में चेतना व्याप्त है । इसी प्रकार आपके जितने कार्य-स्थान हैं, वे ही आपके धर्म स्थान हैं । नीडम् के कार्यकर्ता द्वारा जैन विश्व भारती की प्रवृत्तियों को विस्तार से बताया गया। आचार्यश्री ने प्रातःकाल यहाँ से विशाल लम्बे जुलूस के साथ प्रस्थान किया। २३-२-७६ राजगढ़ आचार्यप्रवर के स्वागत-जुलूस ने नगर में प्रवेश किया । दर्शनीय जुलूस देखने सम्पूर्ण राजगढ़, सभी वर्ण व समाज के लोग उमड़ पड़े। जुलूस की वही व्यवस्था, अनुशासित जुलूस, निर्धारित नारे लगाते हुए लोग, पाँडाल में अपना-अपना स्थान ग्रहण किया। आचार्यप्रवर ने बताया हमारे युवाचार्य आने वाले हैं, अतः अभिनन्दन उसी समय रखा जाए। जनमेदिनी पुनः युवाचार्य की अगवानी के लिए दौड़ पड़ी, स्त्री-पुरुष बालक-बालिकायें, युवा-वृद्ध एक दूसरे से आगे जाने की होड़ में कि सबसे पहले मैं वन्दना करूँ। अपने युवाचार्य को शहर से ३ किलोमीटर पूर्व जाकर लोगों ने वन्दना की, वन्दना करने वाले थे तेरापंथ युवक परिषद के कार्यकर्ता, 'नीडम्' के प्रतिनिधि, महिलामण्डल की सदस्यायें और पुनः जुलूस अपने आप बढ़ता चला गया। खण्ड ४, अक ७-८ ४८७ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के जयघोष से सम्पूर्ण वातावरण गूंजित हो उठा, लगभग २ कि. मी. तक लम्बा स्वागत जुलूस युवाचार्य के आगे-पीछे चलता रहा । आचार्यश्री का एवं युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का सभी चारित्र-आत्माओं का हार्दिक अभिनन्दन किया गया। हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया । २४-२-७६ राजगढ़ भागवती दीक्षा समारोह लगभग दस हजार स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया । दीक्षार्थी बन्धु थे१. मुनिश्री निर्मल कुमार २६ वर्ष के राजगढ़ । २. मुनिश्री सम्भवकुमार २१ वर्ष के गंगाशहर । तथा प्रतिक्रमण का आदेश प्राप्त हुआ श्री सुबोधकुमार गधेया राजगढ़ निवासी को । भागवती दीक्षा कार्य जैन शास्त्रों की विधि से आचार्यप्रवर द्वारा सम्पन्न हुआ । दीक्षा देने से पूर्व उपस्थित दीक्षार्थी बन्धुओं के परिजनों, समाज व दर्शक बन्धुओं की पूर्व स्वीकृति प्राप्त कर दीक्षा कार्य का शुभारम्भ मंगलाचरण से हुआ । दीक्षार्थी युगल बन्धुओं का वर्तमान तक का परिचय दिया गया । तत्पश्चात् तपस्वी मुनिश्री सम्पतमल जी ने अपनी भावना आचार्यश्री के चरणों में इस प्रकार से प्रकट की- मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तौर । तेरा तुझको सौंपता क्या लागत है मौर ॥ युवाचार्य महाप्रज्ञ जी ने वर्तमान समाज व देश को तनाव मुक्त करने हेतु त्रिगुप्ती गुप्त ( कायोत्सर्ग, मौन व ध्यान ) साधना का परिचय कराया तथा मानसिक शांति का एक मात्र साधन प्रेक्षाध्यान को बताया । 'नीडम्' के प्रतिनिधि द्वारा इस अवसर पर जैन विश्व भारती की प्रवृत्तियों की पूर्ण जानकारी विस्तार से कराई गई एवं प्रेक्षाध्यान केन्द्रों की स्थापना हेतु योजना प्रस्तुत की गई । आचार्यप्रवर द्वारा अपने मङ्गल संदेश में मानव उत्थान हेतु सभी को प्रयत्न करने का आह्वान किया गया। हमें प्रयत्न मनसा, वाचा और कर्मणा तीनों प्रकार से सचेत होकर करना है | प्रेक्षाध्यान द्वारा अपने आपको जानो, स्वयं जगो, औरों को जगाओ, स्वयं उठो और औरों को भी उठाओ, स्वयं आगे बढ़ो औरों को भी आगे बढ़ाओ, उनके आगे बढ़ने में सहयोगी बनो । २४-२-७६ थान मठई रात्रिकालीन गोष्ठी में कैसट सुनवाये गये तथा आचार्यश्री का मङ्गल आशीर्वचन लोगों द्वारा प्राप्त किया गया । २५-२७६ भाकरा इस छोटे से गाँव में भी करीब तीन सौ स्त्री-पुरुष अपनी ग्रामीण वेश-भूषा में रुगुदेव के दर्शन को आये तथा उन्हें मुनिश्री चौथमल जी ने अपने भजनों एवं गीतों से भावविभोर किया । तत्पश्चात् ग्रामीणों की जिज्ञासा पूर्ति हेतु स्वयं गुरुदेव ने अपने मानवता वादी विचार सहज सरल भाषा में रक्खे, जिसका प्रभाव यह रहा कि तत्काल ५० व्यक्तियों तुलसी प्रज्ञा ४८८ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने शराब का त्याग किया तथा व्यसनों से दूर रहने का निश्चय किया । सायंकाल एवं मध्याह्नकाल में टेप सुनाने का कार्यक्रम चला । २५-२-७६ बहल रात्रि में ८-३० बजे श्री तुलसीराम जी सरपंच की अध्यक्षता में एक विशाल जनसभा का आयोजन हुआ जिसमें लगभग ५ सौ स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया । सभा-संयोजन मुनिश्री किसनलाल जी के द्वारा किया गया । पारमार्थिक शिक्षण संस्था की बहिनों द्वारा मंगलाचरण, कवितापाठ, गीतिकायें एवं शराफत का नुश्खा तथा भारतीय संस्कार निर्माण समिति की ओर से बालकलाकारों द्वारा गीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे गये । मुनिश्री चौथमल जी के भजनों ने सभी को मन्त्रमुग्ध कर लिया । श्री मोहनलाल जी दशानी संस्कार निर्माण समिति ने शराबबन्दी पर अपने विचार व्यक्त किये। इस अवसर पर सरपंच महोदय ने आचार्यप्रवर का भावभीना स्वागत किया - इस गाँव में आचार्यप्रवर पहले पधार चुके हैं। यह हमारे सौभाग्य की बात है । आचार्यश्री ने अणुव्रतों का वह सन्देश दिया है जिससे सारी मानवता लाभान्वित हो रही है । आप कई मानें में इन्सानियत का पाठ पढ़ा रहे हैं । संस्कार निर्माण समिति के द्वारा आचार्यश्री के सान्निध्य में गाँव-गाँव में बुराइयों व व्यसनों को दूर कराने का प्रयास कराया जा रहा है जो बहुत बड़ा काम है । आप जो लोग सब यहाँ उपस्थित हैं वे यह निश्चय करें कि हम शराब नहीं पीयेंगे, इस बुराई से दूर रहेंगे। तभी गुरुदेव का सच्चा अभिनन्दन होगा | आचार्य प्रवर ने इस अवसर पर -- 'दो दिन की जिन्दगी में क्यों तू बन रहा दिवाना भारी शरमिंदगी में क्यों है तू मद मस्ताना ।' - यह गीत सभी को सामूहिक रूप से उच्चारित कराकर अपने मङ्गल विचार में बताया कि आपके गाँव में काफी वर्षों के बाद आज सारे संघ के साथ आये हैं । हम वर्षों से घूम रहे हैं । पच्चास हजार मील हम घूम चुके हैं। सारे देश की पदयात्रा कर चुके हैं । तथा यह अनुभव किया कि आज देश में इन्सानों की जरूरत है, अतः भाईयो ! सही माने में इन्सान बनना हो तो खान-पान, रहन-सहन, बात-चीत, व्यवहार में संयम को स्वीकार करो। शराब, तम्बाकू, गाँजा, सुल्फा, अमल, बीड़ी आदि से दूर रहो। हम दिल्ली व पंजाब की ओर जा रहे हैं । हमारा लक्ष्य आप लोगों को बुराइयों से होने वाली हानियाँ बताना है । आप लोगों को इनसे बचना है । आप लोग चिन्तन करें, अ र हम सही बात कर रहे हैं तो निश्चय करो कि - हम इन्सान बनेंगे, शराब कभी नहीं पीयेंगे । दारुखोरों का संग नहीं करेंगे । बहनें निश्चय करो हम अपने घरों में दारु नहीं पीने देंगी । हमारी इच्छा यही है आप मनुष्य बनें | इस अवसर पर 'नीडम्' के प्रतिनिधि के द्वारा जैन विश्व भारती, की प्रवृत्तियों का खण्ड ४, अंक ७-८ ४८६ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय कराया गया। सभा का आयोजन नीडम् एवं भारतीय संस्कार निर्माण समिति ने मिलकर किया। २६-२-७६, २७-२-७६ दुराला, लेघा, लुहानी लुहानी में रात्रि में सभा का आयोजन नीडम् के कार्यकर्ता द्वारा आयोजित कराया गया। आचार्यप्रवर द्वारा विशेष शांति के लिए हमें किस प्रकार से प्रयत्न करने चाहिए' पर विचार व्यक्त किए गये। भारतीय संस्कार निर्माण समिति के द्वारा प्रदर्शनी एवं चित्रपट्ट प्रदर्शन का आयोजन रखा गया। २८-२-७६ अनाजमण्डी (भिवानी) आज प्रातःकाल अनाजमण्डी में सम्भ्रान्त व्यापारिक मण्डल अनाजमण्डी भिवानी एवं अनेक नागरिक बन्धुओं द्वारा आचार्यप्रवर का भावभीना स्वागत किया गया । सायंकाल एक सभा को सम्बोधित करते हुये आचार्य प्रवर ने प्रेक्षाध्यान शिविर के आयोजन के बारे में जानकारी कराते हुये मानव समाज में फैल रही बुराइयों, व्यसनों, रागद्वेष, भुट फरेब, चोरी, बेईमानी, मिलावट, कमतौल, कम माप से बचने के लिए कहा "आप लोगों को मैं तो तभी सच्चा व्यापारी मानूगा।' आचार्यप्रवर व युवाचार्यप्रवर का इस अवसर पर अनाज मण्डी के व्यापार मण्डल द्वारा अभिनन्दन किया गया तथा स्थानीय कवियों द्वारा कविता पाठ करके उपस्थित जनसमुदाय का साहित्यिक मनोरंजन किया गया । भारतीय संस्कार निर्माण समिति द्वारा प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। १-३-७६ से ३-३-७६ भिधानी ___ भिवानी अनाज मण्डी से जुलूस का स्वरूप बना। शाँत, मौन एवं अनुशासित, आचार्यप्रवर का जुलूम ठीक ८ बजे प्रारम्भ होकर १०-३० बजे भिवानी शहर में पहुंचा। रास्ते में वही जयघोष थे, चारों ओर हर्षोल्लास था । दर्शनार्थी उमड़ पड़ रहे थे । आचार्गप्रवर, युवाचार्य महाप्रज्ञ जी व महाश्रमणी कनकप्रभा जी का हार्दिक नागरिक अभिनन्दन तेरापंथ सभा, युवकसभा, महिलामण्डल भिवानी, के द्वारा किया गया। कार्यक्रम में जहाँ राज्य के सर्वोच अधिकारियों ने भाग लिया वहाँ दूसरी ओर प्रबुद्ध साहित्यकार एवं लगभग सभी गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। पाण्डाल छोटा पड़ गया। साईड की कनातें हटानी पड़ी । भिवानी में एक संत का इतना विशाल कार्यक्रम इससे पूर्व नहीं हुआ। लगभग १ हजार स्त्री-पुरुषों ने महाश्रमणी, युवाचार्य जी व आचार्यप्रवर जी की अमृतमयवाणी का पान किया। यहाँ तीन दिन तक आचार्यप्रवर विराजे तथा कार्यक्रम प्रातः, मध्याह्न व सायंकाल तीनों ही दिन लगातार चलते रहे, जिनमें मुख्य आकर्षण रहा–युवक परिषद -अभिनन्दनकार्यक्रम, अणुव्रत सम्मेलन, बौद्धिक गोष्ठी, पत्रकार गोष्ठी, श्रावक सम्मेलन आदि । यहाँ के ४६० तुलसी प्रज्ञा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक कार्यक्रम में नीडम् के प्रतिनिधि द्वारा जैन विश्व भारती का पूर्ण परिचय - प्रत्येक प्रवृत्ति सेवा, शिक्षा, शोध, साधना जैन, विद्या पत्राचार पाठ्यक्रम, ब्राह्मी विद्यापीठ, ग्रन्थागार, पारमार्थिक शिक्षा संस्थान, प्रेक्षा, तुलसी प्रज्ञा, महाप्रज्ञ जी के प्रवचन कैसट, जैन विश्व भारती का वर्तमान और भावी रूप आदि पर विस्तार से जानकारी कराई गई, साहित्य - वितरण किया गया । युवाचार्य महाप्रज्ञ जी एवं आचार्यप्रवर के द्वारा अपने प्रत्येक प्रवचनों में किसी न किसी रूप में प्रेक्षाध्यान, अणुव्रत एवं जैन विश्व भारती का उल्लेख किया गया, तथा नीडम् के प्रतिनिधि द्वारा रखी गई प्रेक्षा-केन्द्र प्रायोजना पर चिन्तन करने हेतु कहा गया । प्रेक्षा- ध्यान शिविर दिल्ली के लिए भी नीडम् के प्रतिनिधि द्वारा पूर्व जानकारी दी गई । आचार्यश्री के इस प्रवासकाल में लगभग तीन हजार स्त्री-पुरुषों ने दर्शन का लाभ उठाया । ३- ३-७६ बामला - खरक रात्रि में टैप सुनाकर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें स्थानीय एवं दर्शनार्थियों की लगभग ५०० की संख्या रही। दिल्ली यात्रा में व्यसन मुक्ति, चरित्र-निर्माण आदि की जानकारी कराई गई । ४- ३-७६ कलानोर- लाली - एक विशाल ग्रामीण सभा को सम्बोधित करते हुए युवाचार्यश्री ने बढ़ती हिंसा फैलती, अनुशासनहीनता एवं अनाचार, अत्याचार व अनैतिकता तथा अप्रमाणिकता पर अपने सुस्पट विचार रखे। आचार्यप्रवर के मंगल प्रवचन के पूर्व कैसट सुनाया गया तथा उसी पर अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए उन्होंने लोगों को आगाह किया कि अभी भी समय है जब आप लोग वर्तमान के लिये कुछ कर सकते हो । ५-३-७६ रोहतक ---- एस० के० जैन मोटर कम्पनी, रामलीला मैदान बस स्टेण्ड पर प्रातः १० बजे आचार्यश्री का स्वागत किया गया। दिन भर वहाँ पर विराजे । स्वागत कार्यक्रम २ घण्टे चला तथा इसमें प्रबुद्ध लोगों ने विचार व्यक्त किये। वहीं पर महाश्रमणी जी ने भी अपने विचार नारी उत्थान हेतु रखे । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने देश में नैतिक जागरण व तनावमुक्ति पर अपने सतर्क विचार रक्खे तथा प्रज्ञाप्रदीप साधना विभाग जैन विश्व भारती द्वारा इस ओर किये जा रहे प्रयासों का संकेत किया । नीडम् के प्रतिनिधि ने तब प्रेक्षाध्यान शिविर, की जानकारी कराई आचार्यप्रवर ने मंगल सन्देश दिया तथा सायं ५ बजे पधार कर रोहतक शहर जैन धर्मशाला रात्रि प्रवास किया। जहाँ पर सायंकालीन प्रवचन कार्यक्रम चला । मुनिश्री किसनलाल जी ने प्रेक्षा क्या है ? तनावमुक्ति हेतु इसका प्रयोग कैसे या कब किया जा सकता है ? सीखने हेतु मार्गदर्शन कहाँ से प्राप्त करें ? आदि की विस्तृत जानकारी खण्ड ४, अंक ७-८ ४६१ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दी। मुनिश्री चौथमल जी के द्वारा गीत प्रस्तुत किये गये। नीडम् प्रतिनिधि ने जैन विश्व भारती की प्रवृत्तियों की जानकारी देते हुये प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लेने, हेतु जैन विश्व भारती लाडनू से सम्पर्क करने का निवेदन किया, तथाजैन विश्व भारती आने का निमंत्रण दिया। रोहतक में लगभग १ हजार स्त्री-पुरुषों द्वारा गुरुदेव के दर्शन प्रवचन का लाभ उठाया गया। ६.३-७६ कल्हावड़ सायंकालीन संगोष्ठी में सर्वप्रथम कैसट सैट सुनाया गया। तत्पश्चात् मुनिश्री किसनलाल जी ने अपने विचार व्यक्त किये । तत्पश्चात् आचार्यप्रवर ने मंगल प्रवचन किया । लगभग २०० स्त्री-पुरुषों ने प्रवचनामृत पान किया। ७-३-७६ रोहद स्थानीय ग्रामीण जनता की एक विशाल सभा का आयोजन नीडम् द्वारा किया गया । जिसमें व्यसन-मुक्ति, संयम जीवन, चारित्रिक उत्थान पर संतों द्वारा एवं आचार्यप्रवर द्वारा विचार व्यक्त किये गये । करीब १०० स्त्री-पुरुष उपस्थित थे। ८.३-७६ बहादुरगढ़ सायंकालीन कार्यक्रम में आचार्यप्रवर ने अपने आशीर्वचन में बताया कि इस व्यावसायिक व इण्डस्ट्रियल नगरी में आप सभी लोगों के द्वारा जो भी वस्तु निर्मित की जाती है, उसकी प्रामाणिकता की छाप होनी चाहिए। आप लोगों के हाथ में देश में प्रामाणिकता के प्रसार का एक बहुत बड़ा साधन है । युवाचार्यश्री ने हिन्दुस्तान सेनेटरी क्लब में प्रवचन किया। ६-३-७९ नांगलोई- आचार्यप्रवर का दिल्ली की ओर से दिल्ली सीमा पर हार्दिक स्वागत मुनिश्री रूपचन्द जी द्वारा, नांगलोई नगर निगम विद्यालय में हार्दिक अभिनन्दनः पत्रकार, राजनीतिज्ञ, नगरनिगम के सदस्य गणमान्य नागरिकों के द्वारा स्वागत कार्य सम्पन्न हुआ। आचार्यप्रवर द्वारा दिल्ली आगमन का उद्देश्य स्पष्ट किया गया। लोगों की भावनाओं का और अभिनन्दन पत्र का प्रत्युत्तर देते हुए उन्होंने बताया कि जीवन के प्रत्येक कार्य को आप संयमपूर्वक करें। आप अपने आपको सुधारें। आपका दैनिक व्यवहार सुधारें तो समाज व देश का बहुत बड़ा कार्य होगा । इस अवसर पर लगभग सैकड़ों स्त्री-पुरुषों ने गुरु दर्शन किए। जिंदल स्कूल (पंजाबी बाग) में रात्रि विश्राम किया । तथा प्रातः सदरथाना हेतु प्रस्थान किया। १०.३-७६ सदरथाना प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकाल कार्यक्रम चला, अनेकानेक संभ्रान्त नागरिक, विद्वान , विदुषियों, राजनीतिज्ञों ने भाग लिया। रात्रि कालीन कार्यक्रम में सदरथाना के नागरिकों, ४६२ तुलसी प्रज्ञा Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरनिगम के सदस्यों द्वारा स्वागत व अभिनन्दन किया गया। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने, वर्तमान जीवन में तनाव से मुक्ति पर अपने दार्शनिक विचार रखे। जैन विश्व भारती की गतिविधियों, प्रवृत्तियों व कार्य प्रणालियों की विस्तृत जानकारी नीडम् के प्रतिनिधि द्वारा कराई गई। समारोह की उपस्थिति पांच सौ करीब थी। ११.३.७६ लाल किला . ___आचार्यप्रवर का सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रतिनिधियों द्वारा हार्दिक नागरिक अभिनन्दन समारोह का आयोजन हुआ। सदरथाने से विशाल जुलूस शुरू हुआ । जुलूस का वही रूप, वही नारे, वही मौन, वही अनुशासन तीन किलोमीटर तक जुलूस, जिसमें सैकड़ों विद्यार्थी, सैकड़ों बालिकायें, सैंकड़ों रंग-बिरंगे परिधान में महिलायें व पुरुष थे, तो दूसरी ओर गुलाबी वस्त्रों में दिल्ली कन्या मण्डल, पीत साड़ी में महिला मंडल, श्वेत साड़ी में पारमार्थिक संस्था की बहन अपनी अनुपम छटा बिखेर रही थीं। दूसरी ओर बालमण्डल बिगुलनाद कर रहा था, तो युवकमण्डल जयघोष से आकाश को हिला रहा था। एक ओर श्रावक निर्धारित नारे लगा रहे थे तो दूसरी ओर श्राविकायें गितिकाओं से मानव चेतना एवं सेवाभाव की सीख दे रही थीं, बीच-बीच में शांत परन्तु एकाग्र चित्त लोग पूर्ण मौन का पालन करते हुए पंक्तिबद्ध स्व-अनुशासन से चल रहे थे। यह आत्मानुशासन का जुलूस राजधानी के नागरिकों द्वारा प्रथम बार देखा गया, इतना लम्बा, पर कहीं कोई शोर-शराबा नहीं। नियमितता, व संयम के साथ आगे बढ़ते जुलूस ने ठीक १० बजे फहराते हुए तिरंगे के धनी लालकिले में प्रवेश किया । जहाँ पर ५ हजार नागरिकों द्वारा आचार्यप्रवर, युवाचार्यप्रवर, महाश्रमणी एवं संघ का नागरिक अभिनन्दन हुआ । अभिनन्दनकर्ताओं के प्रतिनिधि थे-लोकसभा अध्यक्ष श्री हेगड़े, उपमहापोर, बाला साहब देवरस सरसंघ संचालक, भू०पू० वित्तमंत्री श्री सी० सुब्रह्मण्यम्, उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री ऊंटवालिया, केन्द्रीय वाणिज्य राज्यमंत्री श्री आरिफ बेग, नगर परिषद के सदस्य, राजधानी के उच्चतम राज्याधिकारी, पत्रकार, साहित्यकार, वैज्ञानिक, एवं भारत के गणमान्य उद्योगपत्ति, मजदूर, विद्यार्थी, डाक्टर, लेखक सभी तबके के लोग व उनके प्रतिनिधि उपस्थित थे । अभिनन्दन कार्यक्रम ३ घण्टे तक चला। प्रारम्भ मंगलाचरण से हुआ, जिसे पारमार्थिक शिक्षण संस्था की बहनों ने किया। __ वक्ताओं के पश्चात् मुनिश्री रूपचन्द जी, महाश्रमणी व मुख्य प्रवचनकर्ता युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी थे। महाश्रमणी ने जीवन को सरल व सादगीमय तथा विनम्र बनाने हेतु, बहनों को आह्वान किया । युवाचार्यश्री ने वर्तमान संसार में बढ़ रहे तनाव और तनाव पूर्ण वातावरण तथा अशाँत एवं निराशामय जीवन से छुटकारा पाने हेतु अणुव्रत एवं मानसिक शांति के साधन प्रेक्षाध्यान की जानकारी बड़े ही सटीक तर्क बिन्दुओं से रखी । इनके वैज्ञानिक आधार को स्पष्ट करते हुए दर्शन से जीवन को जोड़ा तथा 'जीवन विज्ञान' की शिक्षा व जानकारी के अभाव को स्पष्ट किया। युवाचार्यश्री के प्रवचन ने सभी में एक खलबली मचा दी । सभी को सोचने को मजबूर कर दिया। आचार्यप्रवर ने देश में फैल रही, हिंसा, अत्याचार, चौरबाजारी, मिलावट, गन्दी राजनीति, शराब, रूढिवादितायें, धर्मान्धता, झूठ, फरेब, बेईमानी अशांत वातावरण खण्ड ४, अंक ७-८ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि पर प्रहार किया। आगे उन्होंने कहा- चारों ओर हिंसा का साम्राज्य फैल रहा है, मानव-मानव को त्रास दे रहा है। ऐसे अशांत वातावरण का कारण क्या है ? हमें उसके कारणों को नष्ट करना है। तभी संसार इन्सानियत का, मानवता का, सच्चा प्रसार हो सकेगा। हमने देखा है कि अगर हम हमारे जीवन के प्रत्येक कार्य को संयम से जोड़ ले तो कुछ राहत मिल सकती है। छोटे-छोटे नियम इस कार्य के लिये हमने बनाये जिन्हें अणुव्रत कहते हैं। जिसमें विद्यार्थी, सेवक, व्यापारी, राज्य कर्मचारी, श्रमिक, कृषक, नागरिक, महिला, कार्यकर्ता, साहित्यकार, कलाकार, मतदाता, उम्मीदवार, विधायक आदि सभी के लिए कुछ छोटे-छोटे नियम हैं । हमारा विश्वास है कि अगर इनका पालन हो तो, प्रत्येक व्यक्ति को लाभ हो सकता है। "सामान्य अणुव्रत देखिये.-संकल्पपूर्वक वध नहीं करूगा, किसी पर आक्रमण नहीं करूंगा और आक्रमक नीति का समर्थन नहीं करूंगा, हिंसात्मक उपद्रवों एवं तोड़-फोड़ मूलक प्रवृत्तियों में भाग न लूगा। जाति, वर्ण, ऊँच-नीच को लेकर अस्पृश्यता नहीं रखूगा। सब धर्मों व सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णुता का भाव रखूगा । व्यवसाय और व्यवहार में सत्य की साधना करूँगा। मादक और नसीले पदार्थों का सेवन नहीं करूँगा आदिआदि । ___ “ऐसे जीवनोपयोगी छोटे-छोटे नियम हैं। दूसरी ओर तनाव मुक्ति के लिए तीस वर्षों की अथक तपःसाधना से प्राप्त हमारे महाप्रज्ञ जी ने मानव जीवन उत्थान हेतु एक विधि दी है और मैं निश्चयपूर्वक कह रहा हूँ सभी लोग, बुद्धिजीवी, राजनेता, डाक्टर, वैज्ञानिक, वकील, व्यापारी, मजदूर, मध्यम वर्ग कोई भी तबके का हो और जो मानसिक शांति चाहता हो, तनावमुक्ति चाहता हो, इस विधि का प्रयोग करें, उसे निश्चय ही लाभ होगा। आपके दिल्ली में इस समय आने का हमारा एक यह भी लक्ष्य रहा है और अध्यात्म साधाा केन्द्र छतरपुर महरौली में १८ मार्च से २७ मार्च तक प्रेक्षाध्यान शिविर का आयोजन किया जा रहा है । जो मैं यहाँ कह रहा हूं उसे आप वहाँ पर सत्यरूप में पा सकते हैं। जो भी चाहे वहाँ प्रयोग करके देखें । हम इस निश्चय से आगे बढ़ रहे हैं कि निश्चित ही हम हमारे उद्देश्य मानवता के प्रसार में आगे बढ़ेंगे । आचार्यप्रवर यहीं से दरियागंज विराजकर सायंकाल अणुव्रत विहार में पदार्पण किया । ११.३.७६ से १७-३-७६ अणुवत विहार . आचार्यप्रवर, युवाचार्यश्री साध्वीप्रमुखा जी तथा सभी संतसतियाँ यहाँ विराजित रहे। प्रातः, सायं, रात्रि में यहाँ पर सैकड़ों व्यक्तियों ने प्रवचन एवं दर्शन, आदि का लाभ प्राप्त किया। इन दिनों में आचार्यप्रवर के दर्शन लाभ लेने वालों में भारत के बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, साहित्यकार, लेखक, वैज्ञानिक, राज्याधिकारी एवं अनेक बुद्धि जीवी लोग ही नहीं, विदेशी राजदूतावासों के अधिकारियों को भी गुरुदेव का सान्निध्य मिला। सायंकालीन संगोष्ठियों में नियमित कैसेट सैटों का सुनाया जाना, प्रवचन के समय जैन विश्व भारती की प्रवृत्तियों शिक्षा, शोध, सेवा व साधना की जानकारी कराना, तुलसी प्रज्ञा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिविरों की जानकारी कराना आदि कार्य नीडम् के प्रतिनिधि ने किए। विस्तार से प्रत्येक गतिविधि का परिचय कराते हुए तुलसी प्रज्ञा एवं प्रेक्षा पत्रिका की जानकारी कराई गई । सात दिन के प्रवासकाल में लगभग हजारों दर्शनार्थियों के द्वारा गुरुदेव से जिन वाणी का लाभ उठाया गया। १७-३-७६ ग्रीनपार्क सायंकालीन दर्शन के समय आचार्यप्रवर के दर्शन ग्रीन पार्क में श्रावक-श्राविकाओं के द्वारा किये गये तथा प्रवचन लाभ उठाया गया । सैंकड़ों दर्शनार्थियों ने इसका लाभ लिया। १८.३-७६ अध्यात्म साधना केन्द्र दिल्ली छतरपुर शिविर उद्घाटन हेतु पूज्यवाद गुरुदेव ६ बजे पधारे तथा कार्यक्रम ठीक निर्धारित समयानुसार ६-३० बजे प्रारम्भ हुआ। करीब तीन सौ दर्शकों के मध्य गुरुदेव के द्वारा प्रेक्षाध्यान शिविर का उदघाटन मंगलाचरण के पश्चात् किया गया, संयोजक श्री कठौतिया जी के द्वारा स्वागत भाषण हुआ। मुनिश्री किसनलाल जी के द्वारा जहाँ संयोजन किया गया वहीं इसके महत्त्व पर भी प्रकाश डाला गया । शिविर निदेशक युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के द्वारा प्रेक्षा क्या है ? क्यों आवश्यक है ? तथा किस सरल विधि से इसे अपनाया जा सकता है इस पर विस्तृत प्रकाश डाला गया। पधारे हुए भारत के विख्यात आयुर्वेदाचार्य पं. शिव शर्मा, यू. जी. सी. के चेयरमैन, प्रो. सतीशचंद्र एवं साहित्यकारों ने अपने विचार व्यक्त किये तथा बताया कि निश्चय ही प्रेक्षाध्यान की यह पद्धति अपने में अनूठी एवं सारभित दृष्टिगत होती है, निश्चय ही इसे अपनाया जा सकता है । आचार्यप्रवर ने अपने उद्बोधन भाषण में शिविरार्थियों से कहा--वास्तव में आपने जिस मार्ग को चुना है उसके बारे में आपके मन में अनेक जिज्ञासायें होंगी और उन सभी का समाधान आपको शिविर में प्राप्त होगा। शिविर कैसा होगा या कैसा रहेगा इसका स्वाद गूगे के गुड़सा है, जो बताने नहीं खाने से मालूम होता है। मैं केवल इतना कह सकता हूं कि एक बार आप इसमें आ गये तो बार-बार आयेंगे। यह अनुभव की बात है । बम्बई के भाई आपके साथ बैठे हैं । इनके अतिरिक्त आपके साथ कई अन्य साथी होंगे, जो दूसरे व तीसरे शिविर में भाग ले रहे हैं। मैं तो यही शुभकामना करता हूँ कि आप अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हों। शिविर में २०० शिविरार्थियों ने भाग लिया। जिनमें सारे हिन्दुस्तान में से दूर-दूर से लोग थे। अनेक नाम आये पर स्थान की कमी के कारण कुछ भाई बहनों को अगले शिविर हेतु छोड़ना पड़ा। आचार्यप्रवर दिनांक १८ मार्च ७६ से' २७ मार्च ७६ तक मेहरौली छतरपुर में ही विराजे। खण्ड ४, अंक ७-८ ४६५ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्राकाल के बोलते आँकड़े ४९६ पत्राचार पाठ्यकम जैन विश्व भारती का परिचय देना । प्रेक्षा पत्रिका, तुलसी प्रज्ञा पत्रिका की जानकारी कराना । कैसट सैट की जानकारी कराना । अस्पृश्यता व रूढ़ियाँ तोड़ने हेतु वातावरण निर्माण करना । विश्व बन्धुत्व एवं विश्वशांति हेतु वातावरण बनाना । प्रेक्षा केन्द्रों की स्थापना कराना । सम्पर्क सूत्र बना - १५ हजार से २० हजार स्त्री-पुरुषों से । राजनीतिज्ञों, साहित्यकारों, उद्योगपतियों, कृषकों, मजदूरों, तथा विद्यार्थियों से । विशेष आयोजन स्थल - राजगढ़ दीक्षा समारोह भिवानी अभिनन्दन समारोह दिल्ली नागरिक अभिनन्दन सभा प्रेक्षाध्यान उद्घाटन समारोह तुलसी प्रज्ञा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती : प्रवृत्ति एवं प्रगति जैन विश्व भारती के सभी विभाग निरन्तर प्रगतिशील हैं । गताङ्क से आगे संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार हैशोध विभाग शोध विभाग द्वारा विभिन्न योजनाओं को मूर्त रूप देने का उपक्रम चालू है । १. जैन विश्वकोश---प्रस्तावित जैन विश्वकोश का कार्य प्रारम्भ हो चुका है। सम्प्रति कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा निकलने वाली शोध-पत्रिका (Research Journal) 'प्राचीन ज्योति' से जैन धर्म-दर्शन, साहित्य, इतिहास, संस्कृति आदि से सम्बन्धित लगभग पाँच सौ शोध-लेखों का सूचीकरण किया जा चुका है। __ शोध-निदेशक डॉ० नथमल टाटिया ने 'अनेकान्त' पर एक खोजपूर्ण लेख लिखा है, जो जैन विश्वकोश में लिखे जाने वाले शोध-लेखों में सर्वप्रथम है । यह लेख पत्रिका के इसी अंक के आंग्ल खण्ड में प्रकाशित किया जा रहा है । २. जैन आगमकोश-युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के निर्देशन में जैन आगमकोश का कार्य चल रहा है। ३. अनुवाद--(i) अणुव्रत अनुशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी द्वारा संस्कृत में लिखित "शिक्षा षण्णवति" एवं “कर्तव्यषट्त्रिंशिका" नामक कृतियों का अंग्रेजी अनुवाद श्री रामस्वरूप सोनी द्वारा सम्पन्न किया जा चुका है और अब उसका वाचन एवं संशोधन ब्राह्मी विद्यापीठ के नव नियुक्त प्राचार्य श्री डी० सी० शर्मा कर रहे हैं। (ii) अर्हत वन्दना का अंग्रेजी अनुवाद शोध निदेशक डॉ० नथमल टाटिया द्वारा सम्पन्न हो चुका है। शिक्षा विभाग ब्राह्मी विद्यापीठ के प्राचार्य के रूप में अनुभवी वयोवृद्ध विद्वान् श्री डी० सी० शर्मा की नियुक्ति की गई है । श्री शर्मा इससे पूर्व पंजाब के ग० मे० कालेज में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष एवं पंजाब के सरकारी-गैरसरकारी कालेजों के प्रिन्सिपल रहे हैं। विद्यापीठ इनके मार्ग-दर्शन एवं व्यवस्था क्रम से उत्तरोत्तर विकसित होगा, ऐसा विश्वास है। २६ जनवरी १९७६ को गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में ब्राह्मी विद्यापीठ की ओर से एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें झण्डाभिवादन एवं राष्ट्रगान के पश्चात एक खण्ड ४, अंक ७-८ ४६७ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोचक एवं आकर्षक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया । संगीत, कविता, भाषण, कव्वाली और एकाभिनय आदि इसके प्रमुख अंग थे, जो दर्शकों की दृष्टि में काफी सफल रहे । इस अवसर पर डॉ० नथमल टाटिया, श्री गोपीचन्द चोपड़ा, श्री डी० सी० शर्मा एवं वैद्य सोहनलाल शर्मा के सारगर्भित भाषण भी हुये । कार्यक्रम का सफल संयोजन सुश्री शान्ता जैन ने किया । वैशाली से आये हुये विद्वान् प्रो० देवसहाय त्रिवेद का जैन एवं बौद्ध धर्म विषयक ऐतिहासिक खोजपूर्ण भाषण हुआ । श्री त्रिवेद ने चन्द्रगुप्त मौर्य एवं अशोक के जीवन, धर्म एवं शासन को विशेष रूप से स्पर्श किया भाषण के पश्चात् संगोष्ठी में प्रश्नोत्तर द्वारा विषय का विवेचन किया गया । वसन्त पञ्चमी के दिन ब्राह्मी विद्यापीठ (डिग्री कक्षाओं) अध्यापकों के संरक्षण में अनतिदूरस्थ पर्वतीय शिखर अभियान का शिखर पर पहुंचा । प्रकृति की गोद में ऐसी शैक्षणिक यात्राओं का इसी भाँति पारमार्थिक शिक्षण संस्था की कुछ बहनों ने आचार्यश्री के निरन्तर दर्शन एवं सेवा हेतु विहार में भाग लिया । अधुना परीक्षा काल सन्निकट होने से छात्र एवं शिक्षक अध्ययन-अध्यापन में रत हैं । वर्द्धमान ग्रन्थागार की छात्राओं का दल आनन्द उठाता हुआ विशिष्ट महत्त्व है । ग्रन्थालयाध्यक्ष श्री सुबोध कुमार मुखर्जी (कलकत्ता) की देखरेख में ग्रन्थों के वर्गीफरवरी - मार्च ७६ में प्राच्य विद्या करण एवं सूचीकरण का कार्य द्रुतगति से चल रहा है। संबंध करीब सौ उत्तमोत्तम ग्रन्थों की अभिवृद्धि हुई । आलोच्य अवधि में संत-साध्वियों, शोधार्थियों एवं अन्य पाठकों द्वारा विविध विषयों पर ३०० पुस्तकों का अध्ययन किया गया, जिससे ग्रन्थागार की उपादेयता सिद्ध होती है । करके एक अलग "सेल" की स्थापना की ग्रन्थागार हॉल में समस्त खिड़कियों पर व्यवस्था कर दी गई है । युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ द्वारा रचित १०० से अधिक पुस्तकों का पूरा सेट संकलित जा रही है । शोधार्थी पाठकों की सुविधा हेतु पर्दे लगा दिये गये हैं एवं रोशनी की समुचित ग्रन्थागार में पुस्तक आगत-निर्गत व्यवस्था के अन्तर्गत "कार्ड पद्धति" (पुस्तक पत्रिका व्यवस्था ) लागू की जा चुकी है । जो सफल सिद्ध हो रही है । ग्रन्थागार से संबद्ध वाचनालय कक्ष में ज्ञानोपयोगी मासिक, साप्ताहिक, दैनिक आदि पत्र-पत्रिकाओं की संख्या ५० से अधिक है । ४६८ साधना विभाग तुलसी अध्यात्म नीडम्, लाडनूं तथा अध्यात्म साधना केन्द्र दिल्ली के संयुक्त तत्त्वावधान में दस दिवसीय "नवम प्रेक्षा ध्यान शिविर" दि० १८ मार्च से २७ मार्च, १६७६ तक आचार्यश्री के सान्निध्य एवं युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के निर्देशन में "अध्यात्म साधना केन्द्र, तुलसी प्रज्ञा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुतुब मीनार के निकट, छतरपुर रोड़, मेहरोली, दिल्ली-३०" नामक स्थान पर सम्पन्न हुआ। जिसमें विभिन्न प्रान्तों के लगभग २०० साधक-साधिकाओं ने भाग लिया । आगामी ब्रीष्मावकाश में साधना विभाग, लाडनूं में "चतुर्थ अध्यापक योग, नैतिक शिक्षा प्रशिक्षण शिविर" का आयोजन होने की सम्भावना है, जिस हेतु राजस्थान शिक्षा विभाग से पत्र-व्यवहार चल रहा है। प्रेक्षाध्यान शिविरों में युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा प्रदत्त प्रवचनों के केसेट्स साधना विभाग ने विक्रयार्थ तैयार कराए हैं, जो अभिनन्दनीय हैं । स्वास्थ्य विभाग सेवाभावी कल्याण केन्द्र द्वारा की जा रही अभूतपूर्व सेवा के फलस्वरूप वात-व्याधि, अपस्मार, हृदयरोग, उदररोग, क्षय, प्रतिश्याय तथा ज्वर के रोगी स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर रहे हैं। रोगी संख्या इस भाँति है :-- नवीन रोगी पुराने रोगी पुरुष स्त्री बालक कुल योग ३३० ६ ६१६१० ५५६ १२५ = १२६१ रसायन शाला में संजीवनी वटी, प्रभाकर वटी, अग्नितुण्डी वटी, अमर सुन्दरी वटी, नवायस लोह, लोह पर्पटी आदि के साथ-साथ कई आवश्यक चूर्णों के योग तैयार किए गए हैं तथा विषों का शोधन एवं धातुओं का मारण किया जा रहा है। वनस्पति वाटिका में अनेक वनस्पतियों का रोपण किया जा चुका है। एतदर्थ कल्याण केन्द्र के निदेशक श्री माणकचन्द जी सेठिया तथा जैन विश्व भारती के मन्त्री श्री श्रीचन्द जी बेंगानी के प्रयत्न सराहनीय हैं। - ०: खण्ड ४, अंक ७-८ ४६६ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य समीक्षा तीर्थकर (मासिक), वर्ष ८, अङ्क ७-८, नवम्बर-दिसम्बर १९७८ श्री नैनागिरि तीर्थ एवं आचार्य विद्यासागर विशेषाङ्क सम्पादक-डॉ० नेमीचन्द जैन प्रकाशक-हीरा भैया प्रकाशन, ६५, पत्रकार कॉलोनी, कनाड़िया रोड़, इन्दौर ४५२००१ वार्षिक शुल्क-दस रुपये प्रस्तुत अङ्क-पाँच रुपये; पृष्ठ १२८ । तीर्थकर ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किया है, वह प्रशंसनीय है । तीर्थकर के अद्यावधि जितने विशेषाङ्क निकले हैं, उनकी एक स्वस्थ परम्परा है। प्रस्तुत श्री नैनागिरि तीर्थ एवं आचार्य विद्यासागर विशेषांक भी उसी परम्परा का संवाहक है । विशेषाङ्क के माध्यम से किसी व्यक्ति/तीर्थ विशेष के अन्तर-बाह्य स्वरूप का आकलन करना साधारण बात नहीं है, किन्तु प्रस्तुत विशेषाङ्क में जिन नपे-तुले शब्दों में आचार्य विद्यासागर जी और नैनागिरि तीर्थ क्षेत्र का शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया है, वह अभिनन्दनीय है। प्रस्तुत विशेषाङ्क में जितने भी लेख दिये गये हैं, वे सभी महत्त्वपूर्ण हैं, इनमें पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री का 'णमो लोए सव्व साहूणं', डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री का 'जैन साधु की चर्या', नीरज जैन का 'एक और विद्यानन्दि', आचार्य विद्यासागर का 'मोक्ष आज भी सम्भव है', डॉ० नेमीचन्द जैन का 'भेट, एक भेद विज्ञानी से' और सुरेश जैन का 'नैनागिरि : जहाँ खुलते हैं अन्तर्नयन' नामक लेख अन्तस् को छूने झकझोरने वाले हैं। पण्डित कैलाशचन्द शास्त्री का यह कथन कि-"आज की विडम्बनाएँ देखकर मेरा यह मत बन गया था कि इस काल में सच्चा दिगम्बर जैन साधु होना सम्भव नहीं है, किन्तु जब से आचार्य विद्यासागर के दर्शन किए हैं, मेरे उक्त मत में परिवर्तन हुआ है" यथार्थ है। मैं समझता हूं कि आचार्य विद्यासागर जी के दर्शन करके केवल' पण्डित जी की ही नहीं, अपितु उनके अन्य समानधर्मा व्यक्तियों की भी यही स्थिति होगी। __इस अङ्क की अन्य जो विशेषता है, वह है सम्पादकीय–'साधुओं को नमस्कार' । ऐसा स्वस्थ चिन्तन कभी-कभार ही पढ़ने को मिलता है। सम्प्रदायगत बू से रहित निम्न पंक्तियां द्रष्टव्य हैं ५०० तुलसी प्रज्ञा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु एक खुली किताब है, या कहें कि वह एक जीवन्त शास्त्र हैं, एक ऐसा शास्त्र, जिसमें चारित्र लिपि का उपयोग हुआ है, जिसके अक्षर-अक्षर, वर्ण-वर्ण से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य प्रकट हो रहे हैं। कुल मिलाकर प्रस्तुत अङ्क बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है, जो सम्पादक के कलाचातुर्य का निदर्शन है । आचार्य विद्यासागर जी के विभिन्न मुद्राओं में दिये गये चित्रों का संयोजन भी उत्तम है। इस अनुपम प्रस्तुति के लिये सम्पादक एवं प्रकाशक दोनों बधाई के पात्र हैं। डॉ० कमलेशकुमार जैन शिक्षा के सन्दर्भ में लेखक-मुनिश्री गणेशमल सम्पादक-मुनिश्री कन्हैयालाल प्रकाशक-श्री जैन श्वे० तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास पृष्ठ संख्या-५२; मूल्य-अनुल्लिखित मुनिजी गणेशमल जी संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती आदि विभिन्न भाषाओं के अधिकारी विद्वान् हैं । आपके द्वारा लिखी गई कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। समीक्ष्य कृति दोहों में निबद्ध एक लघु पुस्तिका है, जो भावों से भरपूर है। इसकी शैली अति मनोरम एवं शिक्षाप्रद है, इसके एक-एक दोहे में जीवनोपयोगी रत्नों का खजाना भरा है। समझदार नर है वही, करे सोचकर काम। करके पीछे सोचता, मूर्ख उसी का नाम । पुस्तिका में कुल ४ शीर्षक हैं-दो, तीन, चार और सात । इनमें शीर्षक के नामानुरूप अर्थात् दो-दो, तीन-तीन, चार-चार और सात-सात संख्या वाली प्रसिद्ध बातों का उल्लेख किया गया है। पुस्तिका बच्चों को कण्ठस्थ कराने योग्य है। -डॉ० कमलेशकुमार जैन श्री जिनदत्तसूरि मण्डल, दादावाड़ी अजमेर के प्रकाशन (उक्त प्रकाशन से निम्न पाँच पुस्तकें भेंट स्वरूप प्राप्त हुई हैं) १. धर्म और संसार का स्वरूप; पृ० २४+१५८, सन् १९७०, मूल्य रु० २.०० । २. जीवन दर्शन (अहिंसा); पृ० १६+६८, चतुर्थ आवृत्ति, मूल्य रु० २.५० । ३. Rational Religion; पृ० २४+ ६२, द्वितीयावृत्ति, मूल्य रु० २.५० । खण्ड ४, अंक ७-८ ५०१ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. चैत्यवंदन व्याख्या; पृ० १८+४८, सन् १९७७, मूल्य रु० १.२५ । ५. आनन्दघन जी के पदों पर एक दृष्टि; पृ० ३८, सन् १९७८, मूल्य रु० १.२५ इन पाँच पुस्तकों के लेखक श्री गोपीचन्द धाड़ीवाल हैं। श्री धाड़ीवाल जैन समाज के जाने-माने प्रसिद्ध विद्वान् हैं, उनके चिन्तन की झलक उक्त पुस्तकों में मिलती है। विद्यार्थी बोध लेखक-वैद्य कपूरचन्द विद्यार्थी प्रकाशक-श्री भागचन्द इटोरया सार्वजनिक न्यास, दमोह (म० प्र०) पृष्ठ-२० + ४४, मूल्य-भेंट, प्रथमावृत्ति, सन् १९७८ समीक्ष्य पुस्तिका के लेखक धार्मिक एवं सेवाभावी स्वभाव के एक सुधारवादी श्रावक हैं। प्रस्तुत पुस्तिका में राष्ट्रबोध, स्वास्थ्यबोध और अध्यात्मबोध नामक तीन अध्याय हैं, जिनका विषय शीर्षकानुरूप है । इनमें सरल एवं सुबोध शैली में लिखे गये नीति विषयक ३३३ पद्य हैं । कुछ पद्य तो रहीम, कबीर एवं पं० गोविन्ददास जी द्वारा अनुवादित हिन्दी कुरल काव्य के नीतिप्रद दोहों की याद दिलाते हैं। उदाहरणार्थ राष्ट्रप्रेम अध्याय में दिये गये निम्न पद्य द्रष्टव्य हैं। कर न सके सद्भाव से जो अनोति प्रतिकार । उसे नहीं जनतंत्र में जीने का अधिकार ।। १/२!! श्रम जीवन है राष्ट्र का नैतिक बल है प्राण । अनुशासन प्रति सजगता स्व-पर सृजन कल्याण ।।१/१३।। वस्तुतः राष्ट्रप्रेम, स्वस्थ जीवन और आध्यात्मिक साधना--..ये तीन मानव मात्र के मौलिक लक्ष्य हैं, जिनके द्वारा मानव जीवन सार्थक बनाया जा सकता है। इस पुस्तिका में इसी लक्ष्य की संपूर्ति की गई है। इसके चुने हुए पद्य सार्वजनिक स्थानों पर लिखे जाने तथा स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में सम्मिलित किये जाने योग्य हैं। पुस्तिका लघु होते हुए भी "गागर में सागर" की तरह जीवनोपयोगी नीतियों को प्रस्तुत करने में लेखक पूर्ण सफल हैं । रात्रिभोजन त्याग विषयक कुछ स्वतंत्र एवं प्रभावशाली पद्यों का समावेश इसमें किया जाना जरूरी था। इसके कुछ पद्य रेडियो सीलोन (श्री लंका) से प्रसारित किये जा चुके हैं इससे भी इस पुस्तिका की महत्ता स्वयंसिद्ध है। प्रस्तुत पुस्तिका का प्रकाशन स्व० श्री भागचन्द जी इटोरया की स्मृति में स्थापित न्यास की ओर से हुआ है। स्व० श्री इटोरया जी क्रान्तिकारी एवं सुधारवादी विचारधारा के व्यक्ति थे। आशा है, इस पुस्तिका का सर्वत्र स्वागत होगा। डा० फूलचन्द जैन प्राध्यापक जैन विश्व भारती, लाडनूं ५०२ तुलसी प्रज्ञा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली / १ दिसम्बर / १९७४ / " जिणधम्म संगीति" के बाद की सुखद सुबह / शान्त, उजला आकाश / काका साहब कालेलकर का निवास / उनका ६० वाँ जन्मदिन / मुनिश्री नथमल जी की अपलक प्रतीक्षा / कई लोग हैं / अच्छा लग रहा है, तथापि प्रतीक्षा है किसी ऐसे व्यक्ति की जिसे देखा दो-एक बार है किन्तु जिसने जगह बना ली है भीतर ब्रह्माण्ड से कहीं अधिक । प्रणाम महाप्रज्ञ डा० नेमीचन्द जैन डॉ० माचवे ने काका साहब का एक रेखांकन किया है और वे उस पर उनके हस्ताक्षर ले रहे हैं । सभा हुई है । मुनिश्री नथमल जी उसमें बोले हैं। मैं निर्निमेष देख रहा हूं; चौड़ा ललाट, अचंचल नेत्र, अभीत चित्त कोई शार्दूल खड़ा है और " स्याद्वाद" पर से भ्रम की परम्परित चादर हटा रहा है । कह रहा है - " काका साहब ने जैनधर्म की जैसी सेवा की है, वैसी किसी जैन ने भी नहीं की; वे अनेकान्त मूर्ति हैं ।" चित्त पर जो तस्वीर बनी वह इस तरह कुछ थी - " एक आदमी है । कसा हुआ मन, कसा हुआ तन, कसे हुए शब्द, कसे हुए वाक्य, सब अचूक, अमोघ ।" क्योंकि इस अभागे की और निश्चय के मुट्ठी इस संक्षिप्त - सादे - सुखद समारोह से लौटते एक लाभ हुआ । भारतीय ज्ञानपीठ ने जैन सिद्धान्त कोशकार ब्र० जिनेन्द्र वर्णी के अभिनन्दन समारोह का आयोजन किया । एक कोशकार का अभिनन्दन स्वयं में चकित कर देने वाली घटना थी; खोज पल-भर के लिए केवल संकट या अनिश्चय के समय होती है, में आते ही लोग उसे बिसार देते हैं । मुनिश्री भी इस समारोह में आमन्त्रित थे । पं० दलसुख भाई मालवणिया और आद० अगरचन्द जी नाहटा भी साथ लौट रहे थे । मुनिश्री भी लौटे । कोई ऑटो से भागा कोई शॉर्टकट से । मुनिश्री अचंचल किन्तु सवेग, स्वयं में, किन्तु जागरूक | उनके पग ही मग बने । उन्होंने चलना शुरू किया और "मैंने" उनके साथ दौड़ना । दूर कुछ था नहीं । बातें करते चले तो लगा दूरी गणितीय नहीं मानसिक होती है । उस दिन सापेक्षता का एक और स्पष्ट बोध हुआ । उस दिन का वह सचल तथापि अचल सान्निध्य आज भी चित्त पर उसी जीवन्त मुद्रा में उपस्थित है और निबिड़ अन्धकार में - कभी किरण बन जाता है। सच, उस दिन ठीक ही लगा था कि मैं एक वट-बीज के साथ यात्रायित हूं । खण्ड ४, अंक ७-८ ५०३ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** १ दिसम्बर १९७४ / ८-१० अक्टूबर १९७७ के बीच उन्हें उन्हीं की कृतियों में तलाशता रहा। अक्टूबर १९७७ में मुझे लाडनूं जाना पड़ा। वहाँ एक संगोष्ठी आयोजित थी । यद्यपि मैं मैसूर विश्वविद्यालय की एक संगोष्ठी में था दो दिन पूर्व और यह असंभव ही था मुझ - जैसे निष्कांचन के लिए कि लाडनू पहुंच और संगोष्ठी में अपना शोधपत्र प्रस्तुत करू ँ, किन्तु जैन विश्व भारती के विद्वान् कुलपति श्री श्रीचंद जी रामपुरिया तथा "तुलसी प्रज्ञा" के संपादक डॉ० नथमल टाटिया की कृपा ने मुझे न्यौता और मैं वहाँ आकाशमार्ग से IT सका । आचार्यश्री अस्वस्थ थे, सारे कार्य चल रहे थे । कौन चला रहा था इन्हें ? मुनि श्री नथमल जी का कुशल, दिशादर्शी नेतृत्व । कहीं, कोई विशृंखलता नहीं थी। मुझे "जैन पत्र-पत्रिकाओं के उद्भव और विकास" पर अपना शोधपत्र पढ़ना था । पता नहीं क्यों ऐसा हुआ है कि जब भी मैं मुनिश्री नथमल जी से मिला हूं, एक विशेषांक की तैयारी के तेवर में ही उनसे मिलना पड़ा है। दिल्ली से लौटकर मैंने “श्रीमद्राजेन्द्र सूरीश्वर" विशेषांक संपन्न किया और लाडनू से लौटकर "जैन पत्र-पत्रिकाएँ" विशेषांक । इसे संयोग कहिये, अथवा नियतियोजित किन्तु हुआ यही, और होगा यही । पता नहीं मुनिश्री के व्यक्तित्व में ऐसा क्या है जो मेरी प्रज्ञा को माँजता है और उदारता को मेरे नजदीक ता है । संभवतः ८ अक्टूबर का वह दिन था । मैं अपने शोधपत्र का वाचन कर रहा था पढ़ चुका था शायद । कुछ भान नहीं है, किन्तु उसी दिन मुनिश्री ने कहा था - "पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि डॉ० नेमीचन्द जैन और हमारा साथ जन्मजन्मान्तर का है।" कह नहीं सकता चित्त की किस एकाग्रता में से यह क्वणित हुआ था, किन्तु उस रात वहीं लाडनू में मैं बहुत भीतर गया था और मेरी चेतना ने इस तथ्य पर अनायास हस्ताक्षर किये थे । यद्यपि आज वह क्षण गुजर गया है, किन्तु अभी भी मैं उस रोमांचक पल की तलाश में बना हुआ हूं; और जब पढ़ रहा हूं कि उन्होंने "नामातीत" और "संबन्धातीत" होने की ही है तो बहुत चिन्तित हूं । तो फिर क्या उस घटना पर स्याही का धब्बा डाल दूँ, किन्तु शायद वैसा इसलिए नहीं कर पाऊंगा क्योंकि बहुत गहरे में मैं उन्हें अपने आमनेसामने पा रहा हूं, ठीक वैसे ही जैसे कोई किसी गहन अंधियारे में मेरे हाथ में एक दीपक जलाकर रख जाता है और फिर नहीं दिखायी देता; या किसी माँ की वह मंगल कामना जो यात्रा पर निकल रहे अपने बेटे के लिए पाथेय तैयार करती है । सच तो यह है कि अपनी जीवन-यात्रा में मैंने उन्हें सदैव अपने परिपार्श्व में जीवन्त उपस्थित महसूस किया है । *** मैं जब भी उनके ग्रन्थों की स्वाध्याय-यात्रा में से गुजरा हूं तब भी मुझे ऐसा ही अहसास हुआ है । " सत्य की खोज / १९७४ / प्रथम वाक्य - " उपाय की खोज किये बिना उपेय की खोज नहीं की जा सकती । सत्य उपेय है । ज्ञान उसका उपाय है ।" इसे हजम करते लगा कि जैसे कोई सूत्रकार सामने है और अष्टाध्यायी सूत्रों की भाँति घटनाओं में से जीवन की तुलसी प्रज्ञा ५०४ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञाएं, क्रियाएँ -विशेष नहीं-बोता जा रहा है । एक जीवन्त सूत्रकार से परिचय हुआ मेरा इस लघुपुस्तिका में। वही १६७४ और फिर एक अद्भुत कृति मेरी मेज पर--"श्रमण महावीर ।" एक जीवनी, एक काव्य, एक उपन्यास, दर्शन, साहित्य, संस्कृति । प्रथम वाक्यों यों- "जीवन जीना निसर्ग है ।" अच्छा लगा। अनुभव हुआ जैसे कोई परम कलाकार अपनी तर्क-टाँकी से किसी प्रस्तर-खण्ड को प्रतिमा में बदल रहा है । यह आयी वीरेन दा के "अनुत्तर योगी" से पहले किन्तु काफी उस-जैसी। मेज पर फिर एक अनन्य कृति है, जिसमें एक श्रमण, संस्कृत आशुकवि ने कई ब्राह्मण काव्य-चुनौतियों को झेला है और अपनी कालजयी प्रतिभा को स्थापित किया है। यह है-"तुला अतुला"/वर्ष है १९७६ । इसका प्रथम वाक्य पढ़कर ऐसा लगता है जैसे कोई महामनीषी अपनी सुकुमार अंगुलियों से जीवन के रहस्य उद्घाटित कर रहा है। लगता है जैसे कोई यातुक हौले-हौले जिन्दगी के राज उजागर कर रहा है--किसी झटके अथवा धक्के से नहीं वरन् बड़ी कोमलता से वैसे ही जैसे बिना किसी शॉक के चन्द्रतल पर एक अन्तरिक्ष यान उतरता है। इसका पहला वाक्य है--"शरीर में निवास करने वाला भगवान् है संयम और मस्तिष्क में निवास करनेवाला सद्विचार है परमात्मा।' इसे कहते हैं एक पटु नीतिकार--एक ऐसा भर्तृहरि जो जीवन को भूसी से नहीं तत्व से तोलता है। और यदि भूसी से तौलता है तो भूसी को भू-सी कर देता है। मुनिश्री की प्रतिभा अनन्य है, विदग्ध है, और है अपराजिता। फिर एक दिन यों हुआ कि भाई कमलेशजी ने दो और बहुमूल्य कृतियाँ समीक्षार्थ भेज दीं- "मन के जीते जीत"/१९७७; “मैं, मेरा मन, मेरी शान्ति"/१९७७ । पहली में "आब्जर्वेशन्स" है-सटीक, अमोघ, अचूक । इसका पहला वाक्य है-"मन का प्रश्न बहुत उलझा हुआ है ।'' इसे कहा सबने है, किन्तु विचार कहाँ, किसने और कब इतने गहरे पैठ कर किया है ? दूसरी का दूसरा वाक्य है-"क्या मन को छोड़कर "मैं" (अहम्) की व्याख्या की जा सकती है ?" सवाल गम्भीर है और इसका उत्तर कोई मनीषी ही सफलता से दे सकता है। समूची किताब अद्भुत है और कई समस्याओं का समाधान करती है। ___ जब लाडनू से लौट रहा था तो सोचा चलो मुनिश्री नथमलजी के दर्शन किये जाए' और यात्रा को सुखद-निरापद बनाया जाए/गया। कार में सामान रखा जा चुका था। वे काफी व्यस्त थे । मुनिश्री दुलहराज जी से भी भेंट हुई। मैंने उनसे एक किताब मांगी"जैन न्याय का विकास।" तुरन्त मिली। ट्रेन में उसे आद्यन्त देख गया। यह १९७७ में राजस्थान विश्वविद्यालय के जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र द्वारा प्रकाशित हुई है । इसका प्रथम वाक्य है---"जैन दर्शन आध्यात्मिक परम्परा का दर्शन है।" मैं सोचता रहा क्या कोई ऐसा सुधी लेखक है, जो पहले वाक्य को संपूर्ण किताब की आरसी बना दे; तब मेरा ध्यान अनायास ही मुनिश्री की उन किताबों पर गया जो मेरे संग्रह में उपलब्ध हैं और मैं प्रायः सबकी प्रस्तुतियों और प्राक्कथनों के प्रथम वाक्यों को पढ़ गया। मेरा मन नाच उठा अपार उल्लास खण्ड ४, अंक ७-८ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में और लगा कि इस मनीषी को शब्दशः, न अक्षरशः, पढ़ डाला जाए। पढ़ा भी, सुख भी मिला, स्फूर्त भी हुआ। आज सवेरे (२० मार्च १९७६) दो और किताबें रिव्ह्यू के लिए मिली हैं—“चेतना का ऊर्ध्वारोहण” तथा “जैन योग।" पहली का प्रथम वाक्य है- "हम मनुष्य हैं और चेतना हमारी विशेषता है।" बात सौ टका दुरुस्त है और सीधे-सादे शब्दों में कही गई है तथापि अभी कइयों को मनुष्यता-बोध नहीं है, चेतना-बोध तो काफी फासले की बात है। पूरी किताब अनुपम है, तथ्य-समीक्षण चमत्कृत करने वाला है ।" प्रेक्षा" में जो किश्तों में मिलता है, वह यहाँ अखण्ड रूप में संयोजित है । दूसरी का पहला वाक्य है-"आध्यात्मिक व्यक्ति सत्य का अन्वेषी होता है।" बात सशक्त है; किन्तु प्रस्तुति के बाद जहाँ प्रथम अध्याय का मुखड़ा है वहाँ का प्रथम वाक्य है-"तुम भिखारी नहीं हो.... भिखारी स्तब्ध रह गया....।" इस अंश को पढ़कर लगा कि रूपकों में से अर्थ को निचोड़ना और अपने पाठक या श्रोता को सुगम शब्दों में परोसना किसी महाप्रज्ञ का ही काम हो सकता है किसी सामान्य आदमी के बूते की बात वह नहीं है। * * * इस तरह जो मनीषी बार-बार आमने-सामने रहा है|रहता है, मेरी चेतना से टकराता है, वह अक्षर-पुरुष है मुनिश्री नथमल, जिनका यदि कोई अक्षर-चित्र मुझसे बनवाया जाए तो मैं “कॉलाजिंग” की नव्यतम विधा का उपयोग करूँगा और उनकी तमाम कतियों के प्रथम वाक्यों को गड्डमड्ड कर दूंगा और देखू गा कि एक परम पुरुष मेरे सामने उपस्थित है। मेरे लिए यही महाप्रज्ञ, जो सचमुच नामातीत और संबन्धातीत है, प्रणम्य है; प्रणाम उन्हें !!!! तुलसी प्रज्ञा Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रकाशन स्थान २. प्रकाशन अवधि ३. मुद्रक का नाम ४. प्रकाशक का नाम ५. सम्पादक का नाम फार्म ४ ( नियम = देखिए ) ६. उन व्यक्तियों के नाम व पते जो समाचार पत्र के स्वामी हों तथा जो समस्त पूंजी के एक प्रतिशत से अधिक के हिस्सेदार हों । दिनांक २८ फरवरी १६७६ खण्ड ४, अंक ७-८ -लाडनूं (नागौर राजस्थान ) - मासिक - श्याम प्रेस, सदर बाजार, लाडनूं (राजस्थान) - भारतीय - श्री रामस्वरूप गर्ग, पत्रकार - भारतीय -- कार्यालय सचिव तथा संयोजक : प्रेस -पत्र, प्रचार-प्रकाशन जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राज० ) ३४१३०६ - डा० नथमल टांटिया डा० कमलेश कुमार जैन ( सह ) गोपीचंद चौपड़ा (प्रबन्ध ) मैं रामस्वरूप गर्ग एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार ऊपर दिए गए विवरण सत्य हैं । - सभी भारतीय - पता : शिक्षा व शोध विभाग जैन विश्व भारती, लाडनूं जैन विश्व भारती [ पंजीकृत संस्था ] लाडनूं ( राजस्थान ) ३४१३०६ ह० ० रामस्वरूप गर्ग, पत्रकार प्रकाशक के हस्ताक्षर ५०७ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचना वशम प्रेक्षा ध्यान शिविर (१५ मई से २१ मई, १९७६) प्रेक्षा-ध्यान एक विशुद्ध आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक प्रक्रिया है। स्वयं के द्वारा स्वयं का निरीक्षण, राग-द्वेष से मुक्त, विशुद्ध प्रज्ञा द्वारा चैतन्य की अनुभूति, क्षण-क्षण मंगलभावना से भावित आत्म परिणाम इसके आधारभूत अंग हैं । प्रेक्षाध्यान-शिविर में आप सादर आमंत्रित हैं। साधनाक्रम :-प्रेक्षा एवं अनुप्रेक्षा ध्यान, योगासन, प्राणायाम, कायोत्सर्ग तथा भावना प्रयोग। सान्निध्य एवं निदेशन : युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी विशेष प्रवचन : अनुप्रेक्षा (समय मध्यान्ह ३ से ४ बजे तक) शिविर स्थान : अणुव्रत विहार, २१० दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-११०००२ सानुरोध निवेदन (१) शिविर में भाग लेने के इच्छुक साधक के प्रार्थनापत्र ५ मई, ७६ तक पहुंच जाने चाहिए । स्वीकृति पत्र प्राप्त होने पर ही शिविर में भाग ले सकते हैं । दिनांक १४ मई, ७६ को सायं काल तक शिविर स्थल पर पहुंच जायें, अन्यथा स्थान निरस्त समझा जायेगा। (२) ग्रीष्म ऋतु अनुकूल उपयोगार्थ सामान्य सामग्री साथ लावें, श्वेत वस्त्रों को प्रमुखता दें। (३) भोजन एवं व्यवस्था शुल्क ७०/-रुपये । निवेदक मोहनलाल कठोतिया जेठाभाई जवेरी संयोजक अध्यक्ष अध्यात्म साधना केन्द्र, नई दिल्ली तुलसी अध्यात्म नीडम् जैन विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान) सम्पर्क सूत्र तुलसी अध्यात्म नीडम् (शिविर कार्यालय) द्वारा-अणुव्रत विहार, २१० दीनदयाल उपाध्याय मार्ग नयी दिल्ली-११०००२., दूरभाष : २७७७५८. ५०८ तुलसी प्रज्ञा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASI PRAJŇA Journal of the Jain Vishva Bharati February-March 1979 Vol. IV Nos. 7-8 Editor Dr. Nathmal Tatia Assistant Editor Dr. Kamalesh Kumar Jain Managing Editor Gopi Chand Chopra Jain Vishva Bharati, Ladnun, Rajasthan Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULASĪ-PRAJNĀ February-March 1979 Volume IV No. 7-8 CONTENTS Page Prof. S.K. Ramachandra Rao 103 1. Yuvāchārya Śrī Nathmalji Saint and Scientist 2. Rare Combination of Jñāna and Dhyāna - Āchārya-designate Shri Mahāprajña 3. Hero as Saint 4. Anekānt 5. The Sāmkhya Theory of Perceptual Error and its Presentation by Prabhāchandra Ram Swaroop Soni Miss Veena Jain Dr. Nathmal Tatia 106 111 113 Dr. Shiv Kumar 129 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yuvacharya Shri Nathmalji Saint and Scientist Vidyalankara Prof. S.K. Ramachandra Rao Director, Study of Consciousness Project SAVSS Research Academy, Bangalore. Yuvāchārya Muni-Śri Nathmalji represents an ideal that our culture has, for thousands of years, projected. The ideal involves strict asceticism combined with wide learning, yearning uncompromising austerity combined with fervent intellectual. Religious life is invariably concerned with effecting a compromise between the twin issues of Faith and Reason. The ordinary intellects hold fast to faith at the cost of reason, while the more sophisticated folk give up faith to pursue reason. The two issues appear irreconcilable. But Yuvāchārya-Sri has shown that the two can indeed be integrated, and has taught that such integration is the need of the day, He is an ascetic, perfectly in accord with the strictest religious discipline in India. Commitment to a particular exposition of the eternal truth has not been for him a mere formal adherence, nor a sort of emotional isolation. Faith in his case is an activity, a movement towards valid knowledge; and it provides enough scope for reason to operate towards the production of such knowledge. His approach to the philosophical and religious problems of Jainism is by no means coloured by the cult to which he owes allegiance. The cult has no doubt been the guiding star of his entire career, but his faith in it has not stiffled reason. On the contrary, faith in his case has fanned the fire of reason to blaze forth. He is deeply religious at heart, and is a conservative in his chosen style of life. His heart is saturated with sentiments peculiar to Jainism. But his mind is alert and open It restlessly explores the many facets, frontiers and dimensions of intellectual certitude. It is of an inquiring turn. Muni-Śrī Nath malji's temperament is truly scientific. He reveals an eagerness to be acquainted with the latest developments in several scientific disciplines, especially psychology and medicine. However, his Vol. IV, Nos. 7-8 103 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ approach is not that of an untutored layman, intent on picking up tid bits of interesting information. He approaches modern scientific knowledge as the proverbial wise man of the East, convinced about the correctness of his own essential position while being ready to assimilate useful details from whatever quarter they come. This temperament has rendered him keen on organizing his own body of knowledge, and in this he employs reason generously. He is inclined to take the general truths of modern science as premises for his arguments which seek to justify and project the validity of traditional wisdom in the context of modern knowledge. His reliance on reason is considerable, as his talks amply demonstrate. And his intellectual powers are truly marvellous. But a discerning person may readily recognize that his reason is neither unaided nor arrogant. It is judiciously restrained by his belief concerning the superior value of intuition. The ancient sages did not obtain their wisdom in the impersonal and publicly accessible way that ordinary scientific workers obtain theirs. The method of the sages was deeply personal, experiential and direct. They did not lose sight of the essential in the bewildering forest of technical details and modalities of expression. It is intuition that helped them obtain wisdom as revelations and reason played here a minor role. Nathmalji-muni is convinced about the value of such intuition. Indeed, he has a share of it himself. Nathmalji-Muni can view human knowledge as a whole system and examine its relevance to human destiny. His understanding of human nature has a genuine ring of humanism, and it is an outgrowth of authentic traditional wisdom of India. His mission consists in seeking to provide a 'scientific status' to the 'acknowledged truth', and it is here that his most significant contribution must be seen. His talks and writings are intellectual exercises designed to focus attention on rational arguments and evidences. But, more importantly, his Yoga camps (śibira) are meant to provide practical demonstrations of 'the acknowledged truth'. He is not interested in establishing or proving any particular truth or doctrine. He is not even interested in working out the correspondances that obtain between traditional Indian wisdom and modern scientific knowledge. His chief concern is to create a group of individuals who have a total perspective, a perspective in which faith and reason can be complementary to each other and in which religion and science are not mutually exclusive. 104 Tulasi Prajñā Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ man. It is not the scientia mundana that inspires his mission, but philosophia perennis. But he recognizes the value of science in evolving the mode of philosophy that will be valid and relevant for the modern The significance of his work reaches beyond the confines of the Terapanth sect to which he immediately addresses himself and over which he has a great impact. It is relevant to all inquiring and earnest minds in the world. It pleads for integrative vision and wisdom, which prajna really means. As one who has come under his influence, I pray that the world will benefit by his inspiring presence. Vol. IV, Nos. 7-8 105 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Rare Combination of Jnana & Dhyana -Acharya Designate Shri Mahaprajna -Ram Swaroop Soni Some persons are born great ; some achieve greatness; and there are some who have greatness imposed upon them. Terapanth religious order is above these criteria. Everybody that is consecrated in this Order, be it a monk or a nun, is born great by dint of the auspicious planets dominating the zodiac at the time of his or her birth. Everyone achieves greatness by dint of the life of discipline that one leads. Greatness is imposed upon one when the Pontiff assigns him the duty to lead the whole Order when the occasion so demands. Erstwhile Muni Nathmalji, who is now designated as Yuvacharya Shri Mahāprajña by Acharya Shri, is a great personality from every consideration. He has been tested on every touchstone and found to be 100% ‘gold'. He has voluminous literature to his credit. On the directions of Acharya Shri, he edited all the Agamas with missionary zeal, and the holy texts with commentaries are now available to the general reader. His works, comprising of about more than a hundred books, cover a wide range of topics and are replete with ample of lifelong experience gained through dedication and devotion to the ideals of Holy Order. They may be categorised under the following heads :- (1) Āgamas (2) Adhyātma and Darsana (3) Aņuvrata (4) Nīti and Sadācāra (5) Vihāra (6) Poetry and Poetic Prose (7) Yoga and Sādhanā (8) Essays (9) Miscellaneous. Besides this published literature, there are innumerable articles tered throughout various magazines and top-ranking journals on Jainology & Indology. His forte lies in the universal appeal, discarding the narrowness or rather blind adherence to the ideology of any particular sect. Needless to say, he is an original thinker par excellence, and anything from his pen is reverently applauded by the classes as well as the masses, for he is acknowledgedly a great thinker, erudite philosopher and prolific, clear writer who has the gift of cashing in his experience. His epoch-making works “Jaina Darśana : Manana aura Mimāṁsā”, “Jaina Nyāya kā Vikāsa,” “Ahimsā Tattva Darśana',, and a 106 Tulasi Prajñā Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dozen more are the representative works on Jaina Philosophy and Religion. They are the glaring examples of his erudition and deep insight into Metaphysics, Logic and Psychology. He deals the subject with an analytical mind, embarking upon the full tide of Jaina Tattva and Pramāņa-Mīmāṁsā. His book "Nayavāda : Šanti aura Samanvaya kā Patha" is true to its name and may serve as a royal road to world-peace and international understanding, only if the billigerent nations just care to listen to the wise talk of the great seer-our Yuvāchāryaji Mahārāja. An inseparable relationship exists between literature and culture. The development and decay of culture depends solely upon those of literature. The modern trend of literature is, as it were, flowing into uneven stream and nobody knows into which abyss would it lead culture. Old values are fast deteriorating and new ones do not seem to be taking shape. New construction is at a snail's pace; decay is taking place by leaps and bounds. In this transitional period of our culture, Yuvachāryaji has produced a vast literature and dovetailed concrete suggestions for the multiple evils prevalent in our social stucture. His “Anuvrata Darśana”, “Naitiktā kā Gurutvākarşaņa", “ Samasyā kā Patthara, adhyātma ki cheinī” and a dozen more of such type present a code of conduct of universal religion in the true sense of the term. Aņuyrata is not confined to any particular sect or mode of worship. Yuvāchāryaji has shown new dimensions to this movement started by Acharya Shri. who in turn got it from Lord Mahavira, “Religion transcends sect and creed, time and place, manner of food & clothing." His poetical works "Asru Vīnā", "Atulā Tulā”, and “Sambodhi" testify his scholastic aptitude. Whatever saints mumble becomes a hymn; whatever they write turns into reflections of the soul. They utter and act for self-realisation. They worship for perennial bliss. In the light of this autobiographical element in "Atulā Tulā”, it can be deduced that Yuvāchāryaji is an "āśu kavi” (instant poet) who excels in "Samasyāpūrti' which he has rendered in chaste and flawless Sanskrit, Prakrit and Hindi on different occasions. He does not want to be tested through others' measuring stick; he has his own measurement which others fail to comprehend. Parassa tolāmi aham tulāye Māņeņa annassa niyam miņāmi Pāsāmi dițțhi parassa ce ham To atthibhāvo pi ņa appaņotthi. -Appanivedaņam Vol. IV, Nos. 7-8 107 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “Sambodhi” is his masterpiece, composed after the style of Gīta. Arjun in Gītā proves to be a coward on the battle-field at Kurukṣetra, whereas Meghkumar, (son of Shreņika), in Sambodhi proves to be a coward on the battle-field of Sādhanā. Lord Krishna's teachings dispelled the doubts lurking in Arjun's heart, in the same way Lord Mahavira's teachings enlightened the soul of Meghkumar as depicted in “Sambodhi'. A lamp makes another lamp burn. The light of the one enkindles the other. “Sambodhi" comprises of right knowledge, right perception and right conduct as well. Without right perception knowledge turns into ignorance, and without right conduct knowledge and perception are meaningless. Thus Yuvāchāryaji has done a yeoman's service by leading us to the Kingdom of Heaven (self-emancipation), as Lord Rşabha told his ninetyeight sons who had come to him to complain against Bharat : Sambujjhaha kis na bujjaha, sambohi khalu pecca dullahā. No hu vaṇamanti rāiyo, ņo sulabham pusarāvi jīviyam. [Attain sambodhi. Why are you not striving for sambodhi ? The night once past never returns. This human existence is not easy to be attained again and again. ] Under poetic prose, half a dozen works "Bandi sabda mukta bhāva”, “Vijaya Yātrā” “Gūnjate svara bahare kāna”, “Anubhava, cintana, manana" etc. are ripe with nature experience of an enlightened soul. This particular series is almost the Bible to many and at any moment of dejection, tension, suspense, or anxiety they may turn almost instinctively to its pages of wisdom and draw therefrom life's breath to drive away despair's hiccough and bless the guide for the new life vouchsafed to them. His language is pregrant, but simple, terse and even aphoristic. His “Ocean in drops” is packed full of such wisdom : Handle the cord thus that no knot forms. Make thy moves thus that no quarrel ensues. Comb thy hair thus that it does not get entangled. Form thy thoughts thus that they do not clash; otherwise, knots tighten, wars afflict, hair gets tangled and sparks scientillate. [ Page 31 ] Tagore got the Nobel Prize for the Gītānjali. Anybody would say that Yuvāchāryaji's work is in no way inferior to that of the Nobel Laureate. The philosophical treatment of the lives of the Preceptors :“Gramaņa Mahāvīra”, Bhikṣu vicāra darśana”, “Ācārya Śrī Tulsī” is unsurpassed in various ways. No other writer has given a more authentic and systematic exposition of the singular contribution of these great 108 Tulasĩ Prajĩa Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ teachers of humanity. These volumes undoubtedly prove that Yuvāchārya like Acharya Shri Tulasi is realist who has given new dimensions to the tenets of Jainism as revealed by Lord Mabāvīra and Achārya Bhiksu and Acharya Sri Tulsi. Last but not the least is the sphere of 'Yoga & Sadhanā' to which the Yuvāchāryaji has applied himself wholeheartedly to arrive at reality through personal participation in it and benefit the entire humanity in the light of his attainment-"Sampikkhae-appagamappaeņań." He has evolved the technique of Prekşā-Dhyāna and produced a vast literature on this lost undeveloped field of Jainology. His works "Mana ke jīte jīta”, “Jaina Yoga”, “Cetanā kā Urdhvārohaņa”, “Main; merā mana ; merī śānti” bear the eternal truth-"appaņāsaccamesejjā mettim bhūesu kappaye”, whose single drop is the coordination of spiritualism and life-philosophy. That drop, though tiny, is as deep and expansive as the sea. He has gained vision which is not ‘viyoga' of the past and the present; it is 'Yoga'. His consciousness is not bound to 'you' and 'l' distinction; it is free from it. His sādhanā does not worship truth; it anatomises it. He has laid down sixteen points to achieve mental peace; of them eight points are for personal sādhanā and eight are for collective sādhanā. Thus his book "Main merã ; mana ; meri śānti" is a boon for those who are upset due to mental tensions. It is gratifying to note that a dozen of his works have been rendered into English. Looking to the magnitude of his literature, this number is very small. It is hoped that most of his major works shall be rendered into English very shortly To conclude, let me quote from his "Vicāroń kā anubandha” the views of this intellectual personality on how man can reach the highest rung of the ladder of success in his life : “A person is ever in quest of emancipation. He does not like strings. So it is essential for him to seek emancipation. But is it really easy to get emancipation ? The medium through which it is sought, is itself a bondage. Intellect is a bondage. Idea is a bondage. If man does not use his intellect, he is no better than an animal. If he does not entertain any idea, he is static. He can neither do without intellect nor without ideas. From advanced level we find that intellect and ideas are the sole factors. From existence level we find that intellect and ideas are of no use. Genius is not drained when one goes from ignorance to wisdom and from wisdom to the state transcending wisdom. It is not Vol. IV, Nos. 7-8 109 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the fallacy of thoughts to move from indiscretion to discretion and from discretion to absence of discretion It is an expedition towards existence. Man has reached the highest rung of the ladder of success through this expedition." We hope, under Yuvāchāryaji's stewardship Terapanth Realigious Order shall reach the highest rung of the ladder of success. '110 Tulsai Prajñá Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hero as Saint -Miss Veena Jain A person is admired either by dint of the material things at his command or the strong moral character which constitutes the backbone of his internal advancement and which has heroic qualities. Heroes are of many kinds. A hero can be a poet, a writer, a politician, a king or a man of letters, but the real hero of heroes is a saint. The combination of the qualities of hero and a Saint in one person is very rare but we see this rare Combination in Yuvācharya Shri Mahāprajña of the Terāpantha religious order. The qualities of a hero are manifold. The first is that his mind is an open book. He has nothing to hide under. This cannot be achieved unless he has a deep insight into reality. We see this quality in Yuvāchārya Shri. Being a saint and a hero he is really endowed with superior insight. He has searched as well as experienced the truths of life. He is an aspirant of spiritual nobilities. Whatever he has experienced is known to everybody The second quality of a hero is that he is deeply earnest. A deep, great and genuine sincerity is the characteristic of a hero. Yuvāchārya Shri Maháprajña is deeply sincere to himself and to the eternal truths of life. He is very much devoted to Terāpantha Sect and to Acharya Shri Tulsi. With his quality of dedication and devotion he has able to go deep into the rate of meditation through Prekshā-Dhyāna. He reveals to us what we should to do in order to lead a perfect life. His sincerity, faithfulness and perseverance to attain the cherished goal is a source of inspiration for everybody. Time is gone when people bowed before other human beings, taking them as personification of God. To-day if someone bows before Achārya Shri Tulsī or Yuvāchārya Shri and pays obeisance, it is not because they are treated as personification of God but because they possess these qualities of a hero. And hero is always worshipped. Another quality is that a hero has true valour and courage in his soul. Lincoln, Napoleon, King Ashoka and others were true heroes because they were conquerors, victorious and mighty. These qualities Vol. IV, Nos. 7-8 111 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ are found in Yuvāchārya Shrī also not in the sense that he has conquered any land or people but that he is the conqueror of himself. He has conquered the inner enemies like anger, avarice and ego. In this sense he is a great warrior, the hero of horses. This heroic quality can be found in a saint alone. Most of the great heroes of the world divert their energies towards the attainment of material things or worldly reputation but this saint-hero has applied all his energies in the Study of Āgamas, in research work and in meditation to lead his soul to noble heights. Through his energies he has enlightened not only himself but the whole religious world as well. Yuvāchārya Shri has taught that in order to extricate humanity out of the slough of despondency and scepticism into which it has fallen, what is needed is real and sincere faith in a higher spiritual power. Thus he is an upholder of the spiritual view of the world in an age of increasing materialism and uncertainty. Besides these qualities a hero is not narrow and partisan. The same is the case with Yuvāchārya Shri. He is above sectarianism. He hasn't developed a narrow and partisan mind. Whatever truth he came across was seen and felt intensely. His views of non-sectarianism and open-mindedness are manifest both in his writings and speeches. He deals with each subject not by narrowing himself in any particular religion, area or time. When he delivers his lectures whether in public or Preksha Dhyāna Seminars, he fascinates everybody by his magnetic personality. In the present Scientific age, which Mathew Arnold calls as an age of sick, hurry and divided aims, there is need of such a hero imbibed with spiritual qualities. Who else than a saint can guide the people in a right way. Really Acharya Shri Tulsi is far-sighted in nominating Mahāprajña as Yuvācbārya. Not only Terāpantha and Jain Community but the whole of humanity also will be benefited by his saintly heroic qualities of head and heart. May our wishes bear rich fruit ! 112 Tulasi Prajñā Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Encyclopaedia of Jainism Anekanta Dr. Nathmal Tatia 1. Introductory. The concept of anekānta occupies a central position in Jaina philosophy. Although it is not possible exactly to determine the date of its origin, there is no doubt that the ontology of early Jainism was deeply influenced by this principle. Originally an ethical mode of speech, being concerned with what one ought or ought not to speak, it assumed an ontological role in the Ardhamāgadhi Āgamas, through three stages of development, viz. vibhajyavāda (the method of answering a question by dividing the issues), nayavāda (the method of defining the framework of reference), and syādvāda (the prefixing of the particle syāt, meaning 'in a certain reference', to a preposition, indicative of its conditional character). The anuyogadvāras (doors of disquisition) also played a vital role in this matter. This ontogical orientation was further strengthened by Umāsvāti, Siddhasena Divākara and Mallavādin, and the concept was converted into a full-grown dialectic by Samantabhadra with whom the classical period of the doctrine begins. The ontological concept now acquires a logic-epistemological character, and Jain philosophy is now indentified with anekāntavāda (the doctrine of non-absolutism) or syādvāda (the doctrine of conditional statement) or saptabhangi (the dialectic of sevenfold predication). Anekānta as the negation of an absolutistic position or the rejection of a biased or truncated view of things is found in the Buddhist, Yoga and Nyāya schools as well in various contexts. A dispassionate assessment of the worth of a philosophy from various viewpoints was the objective that the propounders of anekānta set before themselves. And their efforts in that respect were laudable in that they succeeded in preserving some of the most valueable non-Jaina doctrines as well as texts, selected by them for critical comments, which were otherwise ravished from the world by the cruel hands of destiny. 2. The Origin : Jainism primarily is an ethical discipline, and as such all its tenets had a beginning in someone or other of the moral principles upheld by it. Thus the assertion or denial, afirmation or negation of a philosophical belief was to be carefully made in consonance with the rules prescribed for the right way of speaking in order to avoid Vol. IV, Nos. 7-8 113 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ false statements or unwarranted speculations having no bearing on the spiritual path of salvation. The metaphysical speculations about the beginning and end of the cosmos, or its eternality and non-eternality, or the existence and non-existence of the soul before and after death, and such other issues that exercised the minds of the thinkers of those days were not considered worth while equally by Mahāvīra and Buddha. The latter's repugnance to such problems is attested by the ten avyākṛtas (indetermininables) mentioned in the Majjhima Nikaya (II pp. 107 ft, 176 ft) and the former's in the Acaranga (1.8. 1.5) and Sutrakṛtānga (II.5. 1-5) where such speculations are considered as impractical and leading to laxity in moral conduct. While this basic attitude of the Buddha remained unmodified throughout his teachings, Mahāvīra appears to have allowed a relaxation in coformity with his realistic outlook in the interest of a dispassionate estimation of the worth of those speculations and the discovery of the cause of their origin. Consequently whereas the followers of the Buddha were interested more in the repudiation of the current antipodal doctrines than in their proper appreciation, the followers of Mahāvīra devoted their energies to a proper evaluation of these concepts with a view to finding out a solution of those contradictory views. This led to the origin of the madhyama pratipat (the middle path which eschewed both the antithetical alternatives) of the Buddhists on the one hand, and the philosophy of anekanta (non-absolutism which attempted at synthesizing those alternatives into a comprehensive notion) of the Jainas on the other. 3. The Three Stages: Three distinct stages of development of the doctrine of anekanta are discernible in the early Jaina Agamas. 3 (a) Vibhajyavāda which is perhaps the earliest phase of the doctrine is found mentioned in the Sutrakṛtānga (1.14. 22) where a monk is asked to explain things through the principle of division of issues (vibhajjavāyam ca viyāgarejjā). The Bhagavati Sūtra provides many an illustration where a question is dealt with in this way. On being asked by Gautama whether a person who says that he has taken the vow of desisting from committing injury to all sentient beings is a bonafide observer of the vow or a malafide imposter, Mahāvīra replied that if such person was incapable of distinguishing between the sentient and the insentient, or between the mobile and immobile living beings, he is the latter, but otherwise he is a true observer of the vow (op. cit., VII. 2.27). Similarly, on being asked by Jayanti which of the two, viz. slumber and wakefulness, was preferable, he replied that for the sinful, it was the Tulasi Prajñā 114 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ former, while for the virtuous the latter (XII.2./53-55). These and similar instances which are in galore in our text are obviously case of answer by division. It should be noted here that the alternative answers to the divided issues are sometimes introduced in the Agama by the particle siya (Skt, syād) meaning in a certain reference'. The expression siyāvāya in the Sūtrakstānga (I 14.19) : na yāsiyāvāya viyāgrejjā ‘one should not explain anything without taking resort to siyavāya (Skt. syādvāda, that is, the principle of conditional predication)' also deserves mention. It is obviously synonymous with the expression vibhajjavāya noted above and is the forerunner of the syādvāda of later times. This also confirms our view of vibhajyavāda as the earliest phase of anekāntavāda. 3. (b). The Nayas : The nayas (standpoints) constitute the second stage of the evolution of the concept of anekānta. The earliest and most important way of judging the nature of things was to consider them under four heads viz. dravya (substance), kșetra (space), kāla (time) and bhāva (mode). Thus in the Bhagavatī Sūtra (II. 1.45), the loka inhabited cosmos) is considered as finite in substance and space, but infinite in time and modes. There were also other beads such as guņa (op. cit., II. 10. 126), bhāva (XIX. 9.102) and samsthāna (XIV. 7.80) which were analogous to bhāva. But all these heads were not called nayas. The expressions used in connection with the nayas were however dravya and paryāya (equivalent of bhāva). The material atoms are thus stated to be eternal qua dravya (davvaļļhayāe) and non-enternal qua paryāya (pajjavehim, XIV. 4-49-50) and the souls are characterized as eternal qua dravya (davvatthayāe) and non-eternal qua bhāva (bhāvatthayāe, VII. 2.5859). Another pair of nayas, viz. avvocchitti naya (Skt avyucchitti-naya, the standpoint of non-interception) and vocchitti-naya (Skt. vyuc chitti-naya, the standpoint of interception) are also mentioned in the Bhagavati Sūtra (VII. 3.93-94). Thus the infernal beings are eternal from the standpoint of non-interception (of their existence as souls), but they are non-eternal from the standpoint of interception (of their present state of being infernal after the expiry o^ that form of existence). A third pair of nayas is also mentioned in the same text, viz. vāvahāriya-naya (Skt vyāvahārika-naya, the popular standpoint), and neccha a-naya (naiscayika-naya, the factual or scientific standpoint). Thus from the popular standpoint the drone is black in colour, but factually or scientifically speaking, it is possessed of all the five colours, viz. black, blue, red, yellow and white (op. cit., XVIII. 6.108). 3. (c). Saptabhangi : As the third stage of development of the concept of anekānta, we find a primitive saptabhangi and syādvāda in Vol. IV, Nos. 7-8 115 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the Bhagavati Sūtra XII. 10.211-226. Here the things are judged under the categories of 'self' (āyā Skt. ātman) and 'not-self' (no-āyā Skt. noātman). An object is characterized as 'self' in some respect (siya āyā), ‘not-self' in some respect (siya no-āyā), and 'indescribable, that is, both self and not-self' in some respect (siya avattavvam āyā'ti ya no-āyā' tiya). These three attributes are predicated of an object, noncomposite or composite, respectively from the standpoints of existent characters, nonexistent characters, and existent-cum-nonexistent characters. In the case he obiects that are noncomposite (for instance, a monad), the attributes are only three in number, viz. self, not-self and indescribable. Here 'indescribable' means the impossibility of the object being spoken of or described exclusively as 'self' or ‘not-self', besause of the same object being both (self and not-self) at the same time. These three attributes however, become six in the case of a dyad (a composite body of two space-points) as follows: (1) self, (2) not-self, (3) indescribable, (4) self and not-self (one attribute for each space-point), (5) self and indescribable (one attribute for each space-point), (6) not-self and indescribable (one attribute for each space-point). These six ways again become seven in the case of a triad (a composite body of three space points) in the following way: (1) to (6) as above, and (7) self, not self and indescribable (one attribute for each of the three space points). Here the fourth, fifth and sixth ways have each two more subdivision. Thus the fourth, viz. self and not-self, has the following two additional subdivisions-(1) self (for two space-yoints) and not-self (for the remaining one space point). The fifth and sixth ways also have similar subdivisions. The text referred to above gives the divisions and subdivisions of the tetrad, pentad and hexad also. The basic ways however do never exceed the number seven as in the case of the triad, though the number of subdivisions gradually go up on account of the various possible combinations of the space-points. The basic seven ways enumarated above are the prototypes of later seven bhangas of what is called saptabhangi (the doctrine of sevenfold predication). What is to be carefully noticed in this connection is the fact that according to the Bhagavati Sūtra, the joint predication of the attributes 'self' and 'not-self' to a monad is not possible because the monad has only one space-point. Such predication is only possible of a dyad which has two space-points. Similarly, the simultaneous predication of three attributes is only possible in the case of triad which has three space-point. The implication is that the joint predication of two contradictory attributes to the same space-points is purely a case of 'indescribability' and not an illustration of a dual predication of self and notself. The dual predication is meaningful only if the object has two parts 116 Tulasĩ Prajñã Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in order that each individual attribute may find its own accommodation. The later Jaina philosophers, however, did not find any difficulty in such predication, and they made the dual predication ('is' and 'is not used by them in place of 'self' and 'not-self') irrespective of the noncomposite or composite character of the object. Some of them also interchanged the positions of the third and fourth attributes. 4. The anuyogadvāras and nikṣepas : The early Jaina philosophers were fond of explaining things according to predefined lists of heads. Such heads were called anuyogadvāras, doors of disqusition 20 (or 14) mārgaņāstbānas 24 (12 or 14) jīvasthānas and 14 gunasthānas may be quoted as illustrations of such lists. There are, however, other lists which had direct philosophical significance. Umāsvāti, in his Tattvārthādhigamasūtra, 1, 7, 8, 16, 26, has given such lists, which can mostly be traced back to the Jain Agamas. These doors of disquisition played an important role in the evolution of the doctrine of anekānta. The Jaina doctrine of four nikṣepas is the final outcome of the speculations concerning the doors of disquisition. The nikșepas were many, but finally they were reduced to four. (Tattvārthādhigamasūtra, 1.5). The following dictum of the Anuyogadvārasūtra, 8, deserves mention. One should fully apply to a subject whatever nikṣepas are known about that subject; and to those subjects whose nikṣepas are not known, one should apply the four (viz. nāma, sthāpanā, dravya and bhāva). The Jaina thinkers took a very wide view of the subjects they took up for discussion and employed the nikṣepas as the media for the determination of the meaning of words involved in such discussion. The doctrine of anekānta owed much to the precise definition of the connotation of the technical terminology employed in the evaluation of antithetical doctrines, and the nikṣepas fulfilled this task as auxiliaries to the nayas. 5. In Non-Jaina Thought : Let us now see whether the elements of the anekānta way of thinking are there in the non-Jaina schools of thought that flourished in those days. 5. (a). The Vedic thought: The sceptical outburst of the Vedic seer in Rgveda. I. 164.4 : Who has seen that the Boneless One bears the Bony, when he is first born, where is the breath, the blood and soul of the earth, who would approach the wise man to ask this (ko dadarśa prathamam, jāyamānam asthanvantam yad anasthä bibharti, bhūmyā asur asșgātmā kvasit, ko vidvāmsam upagāt prașțum etat) ? poses a problem to be solved in mystic experience, or through anekānta or rejected as Vol. IV, Nos 7-8 117 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ absurd and insoluble. The scepticism of the Nasadīya hymn (op. cit., X. 129) has also a similar tone. In the Upanisads we find rational thinkers as well as mystics. Thus Uddālaka (Chandogya, VI. 2. 1,2) was partly a rationalist philosopher who advanced logical proof for the reality of Being (sat), and partly an uncritical empiricist when he ascribes thought to that Being to multiply and procreate and produce heat (tejas) which produces water (ap), and water food (annam). Yājñavalkya Bṛhadāraṇyaka, II.4.12-14-IV.5.13-15) asserts that the self cannot be known as it is the subject, and whatever is known is necessarilly an object. This may be called rational mysticism. This background of scepticism and rational mysticism was responsible for the Jaina and Buddhist patterns of thought that emerged and are found recorded in the Ardhamāgadhi and Pāli canons. We have made a brief survey of the Jaina way of thinking and shall now see its parallel in early Buddhism, followed by a similar study of the Yoga and Nyāya schools. 5 (b). The Buddhist Thought: The Buddha calls himself a vibhajyavādin (vibhajjavādo ........aham......nāham ekamsavādo-I am an analyst or propounder of my views by division of issues, and not one who takes a partial view of things-Majjhima Nikaya, II. 469). When the Buddha is asked for his opinion whether the householder is an observer of the right path, he says that it is not possible to give a categorical answer to the question inasmuch as the householder with wrong faith (miccha-patipanno) does not follow the right path, while one with right faith (sammã-patipanno) definitely does so. This vibhajya vāda is not essentially different from that of the Jainas. In the Suttanipata p. 396, we find people stuck to their individual truths or opinions (pacceka-saccesu puthu niviṭṭhā). The Udana, pp. 143-145, gives the parable of the blind men and the elephant. Ten blind persons touch various parts of the elephant and give ten conflicting accounts based on their experience of the ten parts which they happened to come into contact with. Each of them took the part for the whole and as such they were all with their perceptions vitiated and partial (ekangadassino). The parable is suggestive of a definite stage in the evolution of Buddha's thought, which approached too near to the thought pattern of Mahävīra to be able to maintain its distinct individual character. The ultimate thought pattern of the Buddha, however, is to be judged by his attitude to the ten or fourteen famous avyākatas (indeterminables) mentioned in Majjhima Nikāya, II, pp. 107-113 and 176-183, and Candrakīrtis' Prasannapadā, p. 446, Poussin's Edition. 5 (c). The Yoga School: The Yogabhāṣya (IV. 33; for the Tulasi Prajñā 118 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Buddhist counterpart of four kinds of questions, see Digha Nikaya, III, p. 179, and Anguttara Nikaya, II, p. 84) classifies questions under three heads: (i) there are questions which admit of a clear definitive answer (ekānta-vacanīya), (ii) there are questions which are answerable only by division (vibhajya-vacaniya), and (iii) there are questions which are unanswerable (avacaniya). The question 'shall everybody be reborn after death', is vibhajya-vacaniya, that is, answerable by division. The person who has experienced the distinction between spirit and matter will not be born, the others however would take rebirth. The Yoga philosopher here opens for himself the way to the anekānta type of thinking, which, however, he does not pursue any further. The Sankhya-Yoga doctrine of pariņāma (change) again is essentially a vindication of the concept of anekanta, barring its insistence on the absolute pre-existence of the effect in the cause. The Sankhya-Yoga conception of purusa as an absolutely unchanging entity is of course an exception. (5) (d). The Nyaya School: In the early Nyaya litrature also we see discussions which are representative of the anekanta way of thinking. Nagarjuna's criticism of the Nyaya categories of pramāņa and prameya provoked answers from the author of the Nyāyadarśana, and also Vätsyāyana, the author of the Nyayabhāsya, which take resort to the non-absolutistic method for refuting the Madhyamika philosopher's attacks. Nāgarjuna's argument that the concepts of pramāṇa and prameya, being interdependent, cannot establish themselves, is countered by pointing out that there is no logical inconsistency in viewing the same entity both as pramāņa and prameya. The Nyayadarśana, II. 1.16, cites the example of a measure (tula) which is usually employed to measure other things, but on occasion it is itself measured by another article of a standard weight. So there is nothing absurd if the same object is conceived as both pramāṇa and prameya. Vätsyāyana, in this connection, gives a very lucid exposition of the relativity of the nomenclature of pramāņa, prameya, pramāta and pramiti. The atman (self, soul) is a called a prameya because of its being an object of knowledge, but it is also a pramātā because of its being the subject exercising the function of knowing; the intellect qua the instrument of commition is a pramāņa, while as an object of cognition it is a prameya; and it is simply a pramiti when it is exercising nore of the functions of 'knowing' or 'being known' (ātmā tāvad upalabdhivisayatvāt prameye paripathitaḥ, uplabdhau svätantryāt pramātā; buddhir upalabdhisādhanatvät pramāṇam, upalabdhiviśayatvāt prameyam; ubhayābhāvāt tu pramitiḥ). expression vibhajya vacanīyaḥ is also found in the Bhasya on II. 1.19. The Vol. IV, Nos. 7-8 119 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ There is thus unambiguously a trend of Nyāya thought, which takes the school a great way towards the non-absolutistic approach of the Jainas. It is interesting to note in this connection that Udayana, in his Atmatattvaviveka (pp. 530-1 Bibliotheca Indica Calcutta, 1939), imagines a simpleton who sees, for the first time in his life, a tusker at the gate of a royal palace and conjectures; Is it a mass of darkness eating white radish, or a piece of cloud pouring out white cranes and roaring, or the proverbial benign friend waiting at the royal gate, or the shadow of what is lying down on the ground, and counters his conjectures by arguments which are equally fanciful ; another simpleton makes appearance at this point and persuades him of the futility of all thought about the nature of things. Udayana identifies the Buddhist absolutists with these simpletons and rejects their speculations as pure imaginations unworthy of respectable treatment. One should neither go astray in imagination and wishful thinking, nor give up in despair all attempts at discovering the full truth from whatever partial glimpses of it one may be able to get. The Jaina philosopher is in perfect agreement with such trends of thought as are conductive to the advancement of knowledge and revelation of truth, and fully supports the realistic approach of Udayana to the problem of reality. 6. Umāsvāti, Siddhasena Diväkara and Mallvädin, Jinabhadra and Kundakunda : We have been till now discussing the stages of evolution of the doctrine of anekānta in the Āgamas and its parallels in the literature and schools contemporaneous with them. Now we have arrived at the transition period when the Jaina thinkers were establishing contacts with their counterparts in the alien systems of thought and composing treatises in the Sanskrit language which was then the only powerful medium of communication between the intelligentsia. The Prakrit was also of course, along with the Apabhramśa, an important medium. But its influence was gradually waning, although Siddhasena Divākara's Sanmati and the works of Kundakunda and Jinabhadra, writtea in Prakrit in those days were monumental treatises of abiding value and profound interest. 6 (a). Umāsvāti : Among Jaina authors of the period of transition, Umāsvāti stands first and foremost. His Tattvārthādhigamasūtra with Bhāyşa is a compendium of the Āgamas, which leaves nothing of philosophical importance out of consideration. Its comprehensive thoroughness can be compared with that of the Buddhist Abhidharmakoşa (with Bhāsya) of Vasubandhu. In addition to giving a summary of the traditional lore, Umāsvāti gives a critical shape to the 120 Tulasi Prajñā Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anekāntavāda through his exposition of the nayas, nikṣepas and the nature of the sat (a real), and dravya (substance). He also introduces the elements of saptabhangi in his own way which is reminscent of the same in the Bhagavati Sūtra mentioned above. Umāsvāti is not much concerned with the non-Jaina views. He raises the question whether the nayas are the proponents of alien philosophies or independendent upholders of oppsition, inspired by diverse opinions, and answers that they are only different estimates (literally, concepts derived from different angles of vision) of the object known (Bhāşya, 1.35: kim ete tantrāntarīyā vādina āhosvit svatantrā eva codakapaksagrāhiņo matibhedena vipradhävitā iti. Atrocyate, naite tantrāntarīyā nāpi svatantrā matibhedena vipradhāvitāḥ, jñeyasya tv arthasyā 'dhyavasāyāntarāny etāni). It is also asserted in this connection that there is no contradiction between them, just as there is none between different cognition of the same object by different instruments of knowledge, such as perception, inference, comparison and the words of a reliable person (yathā vā pratyakṣānumanopamānāptavacanaiḥ pramāņaireko ’rthaḥ pramiyate svavişayaniyamāt, na ca tā vipratipattayo bhavanti tadvan nayavādā iti). This is followed by an elaborate description of the nayas and their relationship with the epistemological system of early Jainism. Umāsvāti's definition of the sat (a real) as consisting of origination, cessation and continuity (V. 29 : utpāda-vyayadhrauvya-yuktam sat) gives the fundamentals of anekāntavāda in a nutshell. The dravya (substance) is defined as 'what is possessed o qualities and modes' (V. 37 : guņa-paryāyavad dravyam), indicating the relation of identity-cum-difference between the substance and the modes (including qualities). The nitya (permanent) is defined as 'what does not lapse from being and would not do so at any time' (Bhāșya, 1.30 : yat sato bhāvān na vyeti na vyeşyati tan nityam iti). All these concepts are brought by Umāsvāti (Bhāșya, I.31) under four heads-dravyāstika, mātrkāpadāstika, utpannästika and paryāyāstika which appear to stand respecttively for the viewpoints of substance, categories of substance, the immediate present, and the past-cum-future modes. From the first viewpoint, negation does not exist (asannāma nāsty eva dravyāstikasya), because it takes note of only what is existent and positive in character. Negation appears with the classification of the substance into mātskāpadas categories), and consquently here we get both affirmation and negation, (sat and asat), as classification implies both affirmation inclusion of lower categories under a higher category) as well as negation (mutual exclusion of the categories). The utpannāstika, being concerned with the immediate present alone is also the negation of the past and the Vol. IV, Nos. 7-8 121 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ future and as such gives rise to the duality of affirmation and negation. Similarly, the paryāyāstika, which is the viewpoint of the past and the future, is the negation of the present, and as such gives rise to the same duality of affirmation and negation. In the last three cases we also get a third mode which cannot be described either as sat or asat (na vācyam sad iti, asad iti vā). This is the third bhanga called 'indescribable'. Umāsvāti concludes this discussion with the statement-deśādesena vikalpayitavyam iti-which may imply the remaining four bhangas of the saptabhangi. 6 (b). Siddhasena Divākara : The application of the anekānta principle to ontological problems raised in the different school of philosophy was made, most probably, for the first time by Siddhasena. This was done by means of the nayas “Kapila's (Sāñkhya) philosophy”, says he, “is a statement from the dravyāstika (substantial) standpoint, whereas the Buddha's is a veriety of pure paryāyāstika (modal) one Kanāda composed his treatise from the standpoint of both (these nayas): neverthaless, that remained a false doctrine, as the views propounded therein, each arrogating exclusive validity to itself, are independent of each other. (Sanmati, III. 48-49). On the varieties of nayas and their relation to philosophical views Siddhasena says that the former are as many as there are ways of speech, and the later as many as there are nayas (III.47): jāvaiyā vayaņavahā tāvaiyā ceva homti nayavāyā jāvaiyā nayavāyā tāvaiyā ceva parasamayā. His distinction between vyañjanaparyāya and arthaparyāya also deserves notice. As soon as the substance is subjected to division, the sphere of modes starts functioning (III. 29). Such modes are twofold – (1) vyañjana modes and arthamodes. The former are expressible in words, while the latter are not. Thus an object is called 'man' so long as it continues to be so, though undergoing change every moment. Here 'man-hood' is a vyañjanaparyāya which is expressible by the word 'man', while the changes that occur in him every moment are arthaparyāyas which cannot be expressed in words. An object thus is effable as well as ineffable (saviyappanivviyappam, 1.35). In Sanmati, 1.35-40 Siddhasena enumerates the seven changas almost exactly in the fashion of the Bhagavatī Sutra mentioned above. The full credit of interpreting the Āgamas for a new generation and giving original material for fresh thinking goes to Siddhasena who acted as a link between the orthodox past and the progressive future. This is indeed the true function of the propounder of a faith 122 Tulasi Prajña Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ according to Siddhasena himself. “The person who acts as a logician", says he, "in the domain of logic, and as a scripturist in the domain of scripture is a true protagonist of his faith; a person acting otherwise is an impostor": jo heuvāyapakkhammi heuo āgame ya āgamio. so sasamayapaņņavao siddhāmtavirāhao anno.. 6 (c). Mallavādin : The Dvādasārānayacakra of Mallavādin is an encyclopaedia of philsophy, where all schools of thought prevalent in those days are critically examined one by one and superseded by their rivals, thus making a complete circle with twelve spokes connecting the hub with the twelve sections of the rim, each section representing particular doctrines taken up for discussion. The doctrines discussed are linked to the traditional seven nayas in a novel plan of the wheel of twelve nayas, viz. (1) vidhiḥ, (2) vidhervidhiḥ, (3) vidhervidhiniyamam, (4) vidherniyamaḥ, (5) vidhiniyamam, (6) vidhiniyamasya vidhiḥ, (7) vidhiniyamasya vidhiniyamam, (8) vidhi niyamasya niyamaḥ (9) niyamaḥ, (10) niyamasya vidhiḥ, (11) niyamasya vidhiniyamam, and (12) niyamasya niyamaḥ. The book starts with the commonsense popular view of things, represented by the first naya called vidhi (vidhivșttis tävad yathālokagrāham eva vastu, p. 11). How does it concern us whether there is a cause, or an effect ; who can make an end of debated on such issues (pp. 34-35)? Mallavādin here quotes Sanmati, 1.28, in support of his contention. The epistemological position of Dignāga is here criticized as going against the commonsense view of things. Vidhi stands for 'injunction' as in the Mīmāmsā school. It is only the injunction to do some thing that is valuable and also desirable (arthyo hi kriyāyā evopadeśaḥ, p. 45). The second naya called vidhi-vidbi stands for the particulars in favour of the universal oneness. The absolutistic doctrines are consequently brought within the purview of this naya. The third naya literally means affirmation-cum-negation of the positive entity;. The Sankhya doctrine of praksti as subservient to puruşa, and the doctrins of divine creator and the created world represent this naya. The fourth naya, viz. vidher niyamaḥ appears to indicate the restriction of absolute freedom of both the puruşa and the karman in the evolution of the worldly process. The other nayas similarly bring within their purview the doctrines that were prevelent in those days in order to evaluate their merits and demerits. About a dozen and a half doctrines are thus discussed and refuted in the treatise which brought for its author the encomium "anu Mallavādinam tārkikāḥ" (all logicians are inferior to Mallavadin) from Hemacandra, the omniscient of the Kali age. Vol. IV, Nos. 7-8 123 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 (d). Jinabhadra: The activity of Mallavadin was further carried by Jinabhadra who, in his Viseṣāvaśyaka-Bhāṣya, gave a critical account of the nayas based on his deep and extensive learning in the Agamas. Here he brings within purview the problems of the general and the particular, substance and modes, word and meaning, ultimate truth and practical truth (niścaya-naya and vyavahara-naya). His treatment of the problem of niksepa is thorough and penetrating. An evaluation of the non-Jaina philosophical views is also made by him in the section called ganadhara-vāda and nihnavavāda. 6 (e). Kundakunda: A new trend of thought was developed by Kundakunda in his Samayasara, although his Pañcāstikāya and Pravacanasara generally uphold the traditional positions. His treatment of the problems of dravya, guna, paryaya, and also utpāda, vyaya, dhrauvya, is deep and critical. But in his Samayasara, Kundakunda develops a new idea which appears influenced by Yogacara idealism and also Vedāntic absolutism. The soul is the cause of what is happening within itself and has no essential relationship with what is happening in the world outside. The reverse is also true. This cleavage between soul and matter is explained through niscaya-naya and vyavahara-naya, the former being the standpoint of truth, and the latter of untruth. The traditional interpretation of vyavahara-naya as the popular or practical viewpoint and of niscaya-naya as the factual or scientific standpoint is radically changed. Scholars have designated this new meaning of the two nayas as the 'mystic pattern' as distinguished from the traditional interpretation which they call the 'non-mystic pattern'. The works of Kundakunda contain both these patterns, but the 'mystic pattern' is the predominant theme of the Samayasara. In the philosophy of Kundakunda thus the concept of anekanta acquires a new meaning in that a new vista is now opened up for the development of the concept of avaktavya (the third bhanga of the saptabhangi) into a mystic realization of the nature. of truth in its fulness. These great thinkers have now paved the way for the advent of the classical period which is the subject matter of the next section. 7. The Classical Period: Samantabhadra, Haribhadra, Akalanka, Vidyananda and Others: The transition period was followed by a period of intense critical thinking when the Jaina logicians headed by Akalanka, composed treatises which were of lasting value in the field of logic and epistemology. Sarvarthasiddhi of Pujyapada Devanandi and the Aptamimāmsā of Samantabhadra provided a firm ontological base to these thinkers who were responsible for the classical period. We here propose Tulasi Prajñā 124 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to give a brief account of the doctrine of anekānta as treated by some of these authors. 7 (a). Samantabhadra: The Aptamīmāmsā of Samantabhadra provides a fertile ground for the doctrine of anekanta to flourish. The essence of anekanta is envisaged as lying in the solution of the contradictory attributes or features exhibited by an ontological doctrine, or an ethical principle, or an epistemological theory. Each one of the two members of pairs of contradictory attributes or features is critically judged with a view to exposing the difficulties that beset the concept, and then a synthesis of the two is offered. The Aptamimāmsā opens with a vindication (verses 1-6) of the possibilily of the existence of the omnicient. In verse 8 it asserts that the ethics of good and bad deeds and the existence of life hereafter cannot be justified without accepting the principle of anekānta. The absolutistic conception of an unchanging soul is repugnant to the possibility of moral evolution heading to emancipation. The doctrine of pure affirmation (bhāvaikānta) denies negation and consequently fails to explain the fact of diversity which is so glaring and patent (verse 9). The doctrine of pure negation or nihilism (abhāvaikanta), on the other hand, will deprive the nihilist's arguments of their validity (verse 12). The critics of syādvāda cannot again accept affirmationcum-negation as the nature of the real in order to avoid these difficulties, because that would be tantamount to the acceptance of the doctrine of anekānta on their part. Nor is the position of 'absolute inexpressibility' (avācyataikanta) a tenable hypothesis, because in that case the proposition 'the real is inexpressible' will be an illogical assertion on account of the absolutistic character of the inexpressibility (verse 13): virodhān nobhyaikātmyam syādvāda-nyāya-vidviṣām.. avācyataikante py uktir nāvācyam iti yujyate. Our text (verses 14-16) then formulates a correct ontological position by asserting that a real is definitely existent' from one viewpoint 'definitely nonexistent' from another, 'definitely existent-cum-non-existent' from a third, and also 'definitely inexpressible' from a fourth viewpoint, though none of these viewpoints should be considered as absolute and exclusive; one should accept a real as (i) 'existent definitely' (sadeva) in the framework of its own substance, space, time and modes, and also as (ii) 'nonexistent definitely' (asadeva) in the framework of alien substance, space, time and modes, because otherwise it would be impossible to determine the nature of the real; it should moreover be accepted as (iii) possessed of the dual nature of 'existence' and 'nonexistence' in succession, and also as (iv) ‘inexpressible on account of the failure of the linguistic Vol. IV, Nos. 7-8 125 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ device to express the pair of contradictory attributes simultaneously; the remaining three (5-7) bhangas are obtained hy combining the fourth with the first three in their proper contexts. Here the dialectic of sevenfold predication (saptabhangī) has been clearly, defined by Samantabhadra by assigning the fourth position to the attribute of 'inexpressibility' instead of the third assigned to it in the Bhagavati Sūtra and also by Sidhasena. The Āptamīmāṁsā now explains the saptabhangī of 'existence' and 'nonexistence' (verse 17-20). “Existence' is necessarily concomitant, in the selfsame entity with its opposite viz. nonexistence, being its adjunct (višeşaņa counterpart), even as homogeneity is necessarily concomitant with heterogeneity (intention to assert difference); similarly, ‘nonexistence' is necessarily concomitant, in the selfsame entity, with its opposite (viz. existence); being its adjunct (višeşaña, counterpart), even as heterogeneity is concomitant with homogeneity (intention to assert identity) : astitvam pratiședhyenāvinābhāvyekadharimiņi. višeşanatvāt sādharmyam yathā bhedavivakṣayā.. nāstitvam pratișed hyenāvinābhāvyekadharmiņi. viseaņatvād vaidharmyam yathā bhedavivakṣayā.. An entity is moreover of the nature of positum as well as negatum (vidheya-pratiședhyātmā), exactly as the same attribute of the subject minor term) of an inference may be a valid as well as an invalid probans in accordance with the nature of the probandum to be proved by it. This is the third bhanga of the Saptabhangi of 'existence' and 'nonexistence', The remaining four bhangas are also to be understood in their proper perspectives. Samantabhadra now explains the nature of a real in the light of this anekānta=dialectic. The real must be an entity which is not determined by any exclusive property or any absolute character. Only that which is undefined by a positive or a negative attribute exclusively is capable of exercising the causal efficiency which is the sole criterion of reality (verse 21 : evam vidhi-nişedhābhyām anavasthitam arthakệt). The Budddist fluxist as well as the Vedāntic monist are jointly criticized here as upholding ontological views, which, being truncated and partial, fail to explain the real in its comprehensiveness. Neither an absolutely static, nor a radically dynamic object is capable of exercising the causal efficiency in spite of all other conditions, external and internal, being fulfilled. Samantabhadra (verse 22) applies the anekānta dialectic in constructing the real as a totality of infinite number of attributes (dharmas), each of which represents the whole entity relegating the others to the status of mere attributes of that entity : 126 Tulasĩ Prajñã Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dbarme dharme 'nya evārtho dharmiņo 'nantadharmiņah. angitve 'nyatamāntasya śeşāntānām tadangatā.. He then gives a general instruction to his readers, proficient in the application of the nayas to follow the same method of saptabhangi to discuss the problems of 'one and many', and the like, that were prevalent in those days. In fact, he himself discusses the following additional problems in the text under review : identity and differences, permanence and flex, cause and effect, reason and scripture, free will and determinism, idealism & realism, bondage & emancipation. 7 (b). Haribhadra : The Anekāntajayapatākā is an important contribution of Haribhadra to the field of anekānta dialectic, which brings within its purview the problems of existence and nonexistence, permanence and flux, universal and particular, and describable and indescribable. Among the doctrines refuted in the treatise, kşaņikavāda and vijñānavāda occupy a prominent position. All these refutations are made strictly from the standpoint of Jaina philosophy and sometimes they go to a depth hitherto unreached by his predecessors. The comparative outlook of Haribhadra enabled him to unfold the hidden potentialities of the anekānta principle and apply them in the interest of a comprehensive view of the problems, epistemological and ontological, that exercised the minds of those days. 7 (c). Akalanka : The Aşțasati (commentary on the Aptamīmāņsa) of Akalanka provides a most penetrating insight into the niceties of the doctrine of anekānta. His defence of the doctrine is unique and perhaps unsurpassed by any predecessor or successor. He unfolds the thoughts of Samantabhadra in a manner which is comparable to that of Dharmakirti in respect of Dignāga. The kşanabhangavāda of the Buddhists as well as their vijñānavāda are vehemently criticized by Akalanka. His contributions to the field of Jaina logic and epistemology are most original and unique, and they set up a norm for the posterity to follow and emulate. 7 (d). Vidyānanda : The Așțasahasri (the subcommentary on the Astašati of Akalanka) of Vidyānanda is perhaps the last word on the doctrine of anekānta. His criticism of the non-Jaina schools is more realistic and thorough. He brings a number of new topics and schools under the purview of his reputation. Vidyānanda's exposition of payas & niksepas in his Tattvārthasloka-vārtika throws new light on these subjects. Among the successors of Vidyānanda, who made important contributions to the doctrine of anekānta, the following authors occupy Vol. IV, Nos. 7-8 127 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a position of importance: Prabhācandra, Abhayadeva, Vādideva and Yasovijaya. The reader is referred to the accounts of the life and works of these authors given elsewhere in this encyclopaedia. Bibliography Mookerjee, S: The Jaina Philosophy of Non-absolutism (Calcutta, 1944). 128 Malvaniya, D; Agama Yuga kā Jaina Darśana (Agra, 1966). Dixit K. K Jaina Ontology (L. D. Institute of Indology, Ahmedabad, 1971). Tatia, N: Studies in Jaina Philosophy (Banaras, 1951) The references to the texts of the Pali Tipitaka represent the Volumes and pages of the Nava Nalanda Mahavihāra Editions. Tulasi Prajñā Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Samkhya Theory of Perceptual Error and Its Presentation by Prabhacandra* --Dr. Shiv Kumar 1.0. The Samkhya is one of the oldest systems of Philosophy based upon powerful, rational and realistic approach. The system is primarily concerned with providing means of alleviating wordly miseries. The miseries can be alleviated by no means other than the true knowledge of reality. The system is primarily engaged in discussing the nature of reality and consequently the discussion of the theory of knowledge becomes a secondary issue. That is why, the early Samkhyas do not basically deal with the epistemological and logical problems in details. But still, the importance of the means of knowledge is never underestimated as it is admitted that the true knowledge of reality depends upon the faultless means of knowledge. However, the means of knowledge depend upon the worldly experience, and the reality, according to the Samkhyas, is not always within the range of the senses, and consequently liable to be explained on the basis of worldly experience. The Samkhya, therefore, discusses the means of knowledge secondarily in so far as the worldly experience is helpful in analysing the supra-sensuous objects like the Purusa, Prakṛti and their mutual relation. As the system was reviewed in all its aspects when it came in confrontation with other philosophical systems, the Samkhya also sought some explanation for the epistemological problems sometimes coining new theories and sometimes accepting the epistemological doctrines of other systems which fit in their own metaphysics. Thus, we come acress the development in Saṁkhya explanation of epistemological problems from Isvarakṛṣṇa to Vacaspati and in a more deliberated form in Vijñānabhikṣu. This is perhaps the reason why the Samkhya theory of knowledge was not crystallised in the early text of the Samkhyas. Because of this fact only we do not come across an explanation of the Samkhya theory of perceptual error earlier to the Saṁkhyasutras which are supposed to belong to a later period. One of the most remarkable exposition of the Samkhya theory Vol IV, Nos. 7-8 129 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of perceptual error is, however, recorded by Prabhäcandra, a Jain logician of 9th century. The present paper is an attempt to trace the development of the Samkhya theory of perceptual error and to consider the intrinsic value of Prabhācandra's presentation of the same on its epistemological significance and the ontological importance. 20. Prabhācandra1 states in the form of the Purvapakṣa that the Samkhyas hold the theory of perceptual error called PrasiddharthaKhyati, according to which the object which is established by the means of knowledge, i.e, the real object itself, is apprehended in the case of erroneous knowledge. The Samkhyas explain their position on the basis of common experience. At the time of erroneous preception the object seems to be real. The object perceived cannot be said to be non-existent or unreal because the investigation into the nature of the object cannot be possible without appearance. The appearance is not contradicted at the time of perceiving the object. There is no propriety of further investigation for the object which is established through appearance. The existence of the palm is also established on the basis of its appearance only. The same appearance holds good in the case of erroneous perception as well. There is no contradication if the earlier knowledge is invalidated by the later one. The water appears in mirage but does not appear afterwards to one who reaches that place. Similarly, there appears a circle of light while the light is moved around fast but afterwards this appearance is contradicted. It does not, however, go against the Samkhya view of the establishment of an object through appearance. Though the object seen earlier does not apear afterwards, yet it is real whenever it appeared. Without admitting this position the existence of lightning which disappears after appearing once in the sky cannot be established. 3.0. Prabhācandra2 offers the following criticism of the doctrine of Prasiddharthakhyāti, 3.1. The real object cannot be the object of erroneous knowledge. If the objects were real in all types of knowledge, there would be no distinction in the form of the erroneous and the true knowledge. 3.2. The supposition of the reality of the objects of erroneous knowledge goes against the common experience. If the objects of erroneous knowledge were real, they would be cognized like the objects of true knowledge. If a person proceeds for activity even through the erroneous cognition of water, he would feel the marks of water in the form of wetness of the ground and the like even in the absence of water when Tulasi Prajñā 130 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the erroneous knowledge is sublated. The example of lightning is not able to prove the position of the Sāṁkhyas because the lightning disappears with all its components very soon but the effects of water continue for a longer time. Hence some marks of water could surely be available if water were there. Moreover, if water would exist where it erroneously appears to exist, it would appear to all the persons who go to see it as lightning is seen by all without exception. 3.3. It the objects of all types of knowledge were real, the earlier knowledge would not be sublated by the later one. Therefore, it goes against the fact of common experience. 4.0. Prabhācandra's exposition of the Sāṁkhya theory is not endorsed by any extent text of the Sāmkhyas. Before considering his exposition, it will be worthwhile to discuss the Samkhya theory of perceptual error found in the texts of the Sāṁkhyas themselves. 4.1. The earliest work of the Samkhyas available to us is the Sāṁkhyakārikā of Isvaraksıņa which does not explicitly deal with the the problem but does imply some theory of perceptual error while dealing with the attitude towards error. We can consider the theory of error in two aspects-why does it occur and how does it occur. As to the first, the Samkhyakārikā seems to reply that it is the lack of knowledge which gives rise to the complete non-perception or the partial perception. It offers the following reasons for the lack of knowledge in the case of the non-perception of an existent object-great distance, extreme proximity, defects of organs, non-steadiness of mind, minuteness, interposition, predominance and intermixture with the like. The other consequence of the lack of knowledge is the incomplete or the partial knowledge on account of which the Buddhi fails to distinguish between the real and the unreal. As a result, the Puruşa appears to be active and the Buddhi appears to be sentient The Sāmkhyakārika does not directly deal with the second aspect of the problem and does not explicitly mention the process of erroneous perception but a Kārikā in it implies that the object observed is mistaken to be of different nature due to their resemblance which comes to the mind through the impressions or memories of past experience. That is why, when the Puruşa which is sentient and inactive and the Buddhi which is insentient and active, come in mutual contact, the former looks like active and the latter like sentient. This is implied in the following Kārikā which deals with the erroneous identification of the Purusa with the Buddhi : तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनादिव लिङ्गम् । गुणकर्तृत्त्वेऽपि च तथा कर्त्तव भवत्युदासोनः ॥ Vol. IV, Nos. 7-8 131 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The word ga in the Kārikā implies that firstly there is the resemblance with the object experienced in the past which leads to this confusion. Secondly, the perceiver remembers this resemblance at the time of perceiving. Thirdly, the perceiver relies upon the resembling qualities and draws the conclusion with this partial knowledge. Thus, when one proceeds to analyse the nature of the Buddhi which lies connected with the Puruşa and forms the component of a physiological being, he remembers some being with parts of his body endowed with consciousness and concludes that the Buddhi is sentient. Similarly, while anylysing the nature of the Puruşa one remembers some being which is both sentient and active and concludes that the Puruşa is active. This theory comes nearer to the Akhyāti view of perceptual error held by Prabhākara. This seems to be the reason which leads some scholars to hold that the Sāṁkhyas believe in the Akhyāti view of perceptual error. The later Sāṁkhyase, however, hold that the error cannot be accounted for by the theory and criticise it thus. Firstly, no one proceeds to activity only through the non-distinction of the object represented and the other remembered and secondly, this knowledge is sublated while the right knowledge is never sublated. 4.2. The Sāṁkhya sutra discusses the rival doctrines of perceptual error held hy the Buddhists,” the Mimāṁs akase, the Vedāntins', the Naiyāyikaslo and maintain the theory of Sadosatkhyātill to be a right doctrine according to which the earlier experience is sublated as well as not sublated. Aniruddha12 explains it thus. In the case of the erroneous knowledge like "it is silver" the object 'it' present before us is Sat because its knowledge is not sublated but the object represented, viz. the silver in the present case, is “asat” because its knowledge is sublated. Vijñānabhikṣu's explanation of the theory is different. He states that there is no sublation with regard to the existence of the object but there is the sublation of all the things in the soul relatively. For example, the redness of a javā is real in itself but so far as it is attributed to the crystal it is unreal. Similarly, the silver is real in its own form as placed in a shop but in so far as it is attributed to the crystal it is unreal. In the same way, the universe is real in itself but is unreal in so far as it is reflected in the sentient principle.13 Viiñānabhikṣu further explains that the existence and the non-existence spoken with reference to the same object are not contradictory because their qualities are different.14 4.3. Thus, the view of the erroneous perception maintained by the Sāṁkhyasūtra and explained by its commentators differs to a certain extent from that implied in the Sámkhyakārikā. The erroneous know 132 Tulasi Prajña Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ledge, according to the Sāṁkhyakārikā is not erroneous in the strict sense of the term. On the other hand, it is partial or incomplete knowledge. The contents of the knowledge are not sublated by later experience. On the contrary, the later knowledge is an advance over the former. When two objects are mistaken to be practically identified, the distinction between them is overlooked due to the lack of knowledge. The distinguishing features of the object represented and that presented are not fully grasped. When a single object is taken to be of a different nature, the partial knowlede is applied to the whole. When the Buddhi is crroneously taken as a sentient principle, the sentient part of the Buddhi is erroneously confused with the whole. When the knowledge of their distinction is achieved, the sentient part comes to be the Purusa and the non-sentient the Buddhi. Thus, it is an ommission rather than commission. 15 Sãmkhyasūtra introduces the idea of commission by its emphasis on later sublation. It is partial knowledge in so far as the earlier experience is not sublated but it introduces a commitment of some other kind of impression in the parts where the earlier impression is sublated. This further leads Vijñānabhikṣu to introduce a subjective element in error. Accoring to the Sāṁkhyakāriā, the person sees something and through the remembrance of his earlier experience reaches the erroneous conclusion while Vijñānabhikṣu holds that the person fancies the two things as one. The relata are real but the positive relation fancied between the two is erroneous. Vijñānabhikṣu admits the case with reference to the erroneous knowledge where only one thing is involved, for example, when shell is mistaken as silver.18 However, he does not explain the process therein. He states that both the shell and the silver are given. We may, therefore, conjecture that the erroneous knowledge, according to Vijñānabhikṣu is due to the postulation of a false relation of identity between the object represented and the other presented. This view of perceptual error comes nearer to the Anyathākhyāti or Viparitakhyāti view held by the Naiyāyikas, the Vaisesikas and Kumārilabhatta. 4.4. Here, it may be observed that the chief aim of the SāmkhyaKārikā is to establish the reality of the material world against the subjective idealism and, therefore, it does not provide scope for fancing something even in erroneous knowledge and establishes that what leads to bondage is the lack of knowledge. The Sāṁkhyasūtra, however, finds it difficult to postulate error without subsequent sublation and Vijñānabhikṣu gocs a step further to relate the Sāṁkhya with the Yoga while introducing this kind of postulation of fancy in error. In the Yogal? error is not the lack of knowledge but a positive misconception. Since Vol. IV, Nos. 7-8 133 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the Yoga lays more stress on the purification of the internal organ, it has to postulate misconception to be removed from the mind and not merely the increase in knowledge. 5.0. Thus, the earliest explicit mention of the Sāṁkhya theory of perceptual error known so far is made by Prabhācandra. Even Vācaspatimiśra, a contemporary of Prabhācandra, does not mention the view of the Sāṁkhyas regarding the problem. The use of the term Prasiddhārthakhyati is peculiar to Prabhācandra. However, the chief interest here is not to find out whether the Sāṁkqya theory would be called by one name or the other but to judge the intrinsic value of Prabhācandra's exposition on the basis of epistemological significance and the ontological importance. 5.1. Though Prabhācandra's exposition is not attested by the extant texts of the Sāṁkhyas, yet it cannot be altogether rejected as the mere postulation of Prabhācandra. What strikes most in his exposition is that the reality of the earlier knowledge cannot be denied though it may be sublated. This, however, can be explained in the framework of the Sāṁkhya as well. In the Sāmkhya there are two levels of experience. From a lower level, we cognise the empirical reality and from a higher level the transcendental reality. These levels represent two stages of experience, viz. before the acquisition of discriminative knowledge and after the acquisition of discriminative knowledge. The objects perceived from lower level may not be true from higher level but when perceived from practical standpoint at the lower or empirical level, their reality cannot be denied. The idea is supported by Prabhācandra's exposition of the Sāṁkhya theory that the knowledge is true at both the stages, viz. before sublation and after the sublation. 5.2. Prabhācandra's main objection is against the reality of experience at all the stages. The early Sāṁkhyas could alleviate the objection in two ways. The experience is real at both the levels, i e., before attaining the discriminative knowledge and after attaing it. Or, they may reply that the partial knowledge reading to wrong conclusions is not sublated even after attaining the complete knowledge. What'sublated is the notion that it is the complete knowledge. In this way, the experience comes to be true at all the stages. The later Sāṁkhyas, however, would solve the problem by resorting to the theory of Sadasarkhyāti. Aniruddha maintains that the erroneous knowledge is real in some part but unreal in the rest. Vijñānabhikṣu would solve the problem on the ground that the objects are real but the relation postulated by the knowiug agent is unreal. 134 Tulasĩ Prajĩa Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.0. Thus, Prabhācandra's presentation brings into light one of the important Şamkhya theories in epistemology which is not explicitly discussed in the early extant Sāmkhya texts. The implication of a similar theory found in the Sāṁkhyakārikā and the elaboration with amendment in the later Sāṁkhya texts suggest the development of the Sāṁkhya theory while Prabhācandra fills a gap between the earlier and the later exposition of the theory. Though the criticism does not seem to be conclusive, yet no Sāṁkhya author has specially referred to and replied to it. REFERENCES * This paper was read at the 29th Session of A.I.O.C. 1. P.leyakamalamārtanda (=PKM), Bombay, 1941, pp. 49-50. also Nyāyakumuda candra (NKC), Bombay, 1938, p. 61. 2. PKM, Loca Cit.. 3. Samkhyakārikā (=SK), 7. 4. SK, 20. 5. S. Dasgupta. History of Indian Philosophy, Vol. I, Cambridge, 1963, p. 385; Satyānand Sarasvati, Satyānanda Dipikā on Samkarabhāșya. 6. Aniruddhavștti (=AV) on Sāṁkhyasūtra (=SS), Vārāṇasi, 1964, 5.51. 7. SS 5.52. 8. SS. 5.53. 9, SS. 5.54. 10. SS. 5.55. 11. SS. 5.56. 12. AV. 5.56. 13. Sāṁkhyapravacanabhāşya (SPB) on SS 5.56, Calcutta, 1936. 14. Ibid 15. Cf. M.Hiriyanna, Indian Philosophical Studies No. 1, pp. : 25-30, Mysore, 1957. 16. SPB, 5.56. 17. Yogavārttika, 1.8. Vol. IV, Nos. 7-8 135 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Journal of the Jain Vishva Bharati TULSI PRAJÑA-the monthly bilingual Journal of the Jain Vishva Bharati-contains not only the research papers on all subjects of Jainology (Religion, Philosophy, History and Arts-cum-science topics) but there is also provision to incorporate in it the thought-provoking articles on metaphysics, tenets of Jainism, short biographics of the renowned äcāryas, monks and nuns, as also the promine xonalities, present or past, stories, historical events, poems and mini-poems (muktakas). Short accounts of various Jaina institutions are also welcome for publication. Contributions should preferably be submitted typed on one side of the sheet. An article should not normally exceed 12 double-spaced typed sheets with wide margins for corrections. Copies of articles should be retained by the authors, as the MSS. are not likely to be returned. It is essential that no article etc. should cast any aspersion against any sect or religion, so as to hurt their feelings. Book review is another feature of this organ, for which two copies. of the publication must be sent. Every contributor of research paper only is, on prior request, given gratis 5 off-prints of his paper when published, alongwith a copy of the journal containing his paper. Extra copies may be supplied at cost, if requisition is made in advance. Back numbers of Anusandhana Patrikā, Vol. I, Part 1 to 5 and Tulsi Prajñā, Vol I to III are available at the old rates of subscription, viz. Rs. 22/- a year. Single copy may be had at Rs. 6/-. Copies of issues No. 1 and 2 of Vol. IV are also available at Rs. 8/- per issue. 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Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपील प्रिय पाठकगण, आपकी सेवा में "तुलसी प्रज्ञा" का "युवाचार्य विशेषांक' भेजते हुए बहुत ही आनन्दानुभूति हो रही है । इस अंक के प्रकाशन में कुछ विलम्ब हुआ है, जिसका हमें खेद है। आप तुलसी प्रज्ञा के ग्राहक होंगे ही। अन्यथा आपसे अनुरोध है कि आप इसके ग्राहक अवश्य बनें एवं अन्य समाज एवं साहित्य प्रेमी बन्धुओं को भी तदर्थ प्रेरित करें। स्थानीय सभासंस्थाओं को भी इसके ग्राहक बनने के लिए अनुरोध करें । हर जैन संस्था के लिए इसका ग्राहक बनना नितांत अपेक्षित समझा जाना चाहिए । आपको यह लिखने की आवश्यता ही नहीं कि जैन विश्व भारती सत्साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान लिए हुए है। शिक्षा, शोध, साधना एवं संस्कृति विषयक जैन पत्रिकाओं में "तुलसी प्रज्ञा" का एक विशिष्ट महत्व है। इसके प्रायः प्रत्येक अंक में आचार्य श्री, युवाचार्यजी महाराज, साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी आदि संत सतियांजी तथा अन्य सुधीजनों के विद्वतापूर्ण लेख होते हैं । इसका प्रत्येक अंक संग्रहणीय है । इसका वार्षिक शुल्क मात्र रुपये २५/- है जो कि लागत से काफी कम है। यह पत्रिका आपकी है। इसे आपका पूरा सहयोग मिलेगा, ऐसी आशा है । सूरजमल गोठो अध्यक्ष --निवेदकश्री वन्द बैंगानो मंत्री गोपीचंद चोपड़ा प्रबंध सम्पादक Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ egd. No. R. No. 8340/75 TULASI PRAJNA February-March, 1979 With best compliments from : 職業秦牆縣縣縣縣蒸際縣縣縣縣縣縣縣縣蒸蒸蒸蒸縣蒸蒸蒸縣縣縣蒸蒸騰騰騰騰縣縣縣 藤素業蒸蒸騰飛飛縣黨業職業為兼縣美藥業燕縣職業 MANNALAL SOORANA SURANA HOUSE, SUBHASH MARG, C-SCHEME, JAIPUR-1. Off, 72804, 61021, 69904, Phones : Res. 72850, 64270,68022. Cable : SOORANA, Jaipur. Telex : 36 251 HMSJ IN ublisher-Printer: Ram Sawroop Garg, Office-Secretery, Jain Vishva Bharati, La nur Printed by S. Narain & Sons, 7117/18, Pahari Dhiraj, Delhi for Sham Press, Ladnun Cover Printed at Radiant Printers, 20/36-G, West Patel Nagar, New Delhi-8