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युवाचार्य महाप्रज्ञ की नियुक्ति :
एक अभिनव इतिहास-प्रसंग सोहनराज कोठारी
तेरापंथ धर्मसंघ के ११५वें मर्यादा महोत्सव पर संवत् २०३५ के माघ शुक्ला सप्तमी के दिन संघ अधिशास्ता परम आराध्य युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने महाप्रज्ञ युवाचार्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर एक अभिनव इतिहास का सजन किया है। स्वयं आचार्यश्री ने इस नियुक्ति को अपने जीवन का सबसे बड़ा निर्णय कहा है व इसे समूचे संघ का निर्णय बताया है । आचार्यश्री ने अपने आशीर्वचन में यह भी व्यक्त किया है कि यह धर्मसंघ के लिये अकल्पित काम हुआ है, पर इस कार्य से सारे संघ की शोभा बढ़ेगी व संघ का आशा से अधिक बहुमुखी विकास होगा। इस देश में सभी धर्मसंघों में यही परम्परा रही है कि संघ का आचार्य ही अपने उत्तराधिकारी का मनोनयन करता है व उसे सारा संघ स्वीकार कर लेता है । तेरापंथ धर्मसंघ के जन्मदाता श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने तो संघीय विधान के प्रथम मर्यादा पत्र (संवत् १८३२ मीगसर बदी ७) में यह स्पष्ट प्रावधान किया कि 'वर्तमान आचार्य की इच्छा हो तब वह अपने गुरुभाई अथवा शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुन ले, उसे सभी साधु-साध्वी-गण आचार्य मान लें व एक आचार्य की आज्ञा में सब रहें।' इस मर्यादा का तेरापंथ के आत्मार्थी साधु-साध्वियों ने बहुत ही आन्तरिकता से पालन किया है।
___ इस धर्मसंघ के इतिहास में इस बार युवाचार्य की नियुक्ति का प्रसंग करीब आधी शताब्दी बाद आया, पर इस प्रसंग पर सारे संघ ने आशातीत हर्ष और उल्लास के साथ आचार्यश्री द्वारा की गई नियुक्ति का स्वागत किया । परिणामतः आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री को भी अपूर्व आनंद और आह्लाद की अनुभूति हो रही है। धर्मसंघ की प्रभावना बढ़ाना आचार्य का सर्वोपरि कर्तव्य है और उस हेतु वे विविध आदेश-निर्देश देते हैं व संघ को अध्यात्म की नई दिशाओं में प्रवृत्त करते हैं, पर आचार्य का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक कर्तव्य है, संघ की भावी व्यवस्था के संचालन के लिए सक्षम एवं योग्य उत्तराधिकारी की नियुक्ति, ताकि धर्मसंघ प्रगति की दिशा में उत्तरोत्तर गतिमान रहे।
इस दृष्टि से आचार्यश्री ने अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर सहज कर्तव्य का निर्वाह मात्र ही किया है और इसे कोई नई बात होना नहीं कहा जा सकता, पर इस घोषणा
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तुलसी-प्रज्ञा