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________________ क साथ कुछ ऐसे विशेष ज्ञातव्य तथ्य उद्घाटित होते हैं जिनमें से कुछ एक का उल्लेख मैं इस निबंध में करना चाहूंगा, जिससे इस घटना को निस्संकोच एक अभिनव इतिहास प्रसंग कहा जा सकता है। आचार्यश्री तुलसी संवत् १६६३ के भादवा सुदि ३ को केवल २२ वर्ष की आयु में युवाचार्य बने, व तीन दिन बाद पूर्वाचार्य श्रीमद् कालूगणी जी के स्वर्गवास होने पर, आचार्य बन गए । तेरापंथ के इतिहास में इतनी कम आयु में कोई युवाचार्य या आचार्य नहीं हुआ। संभवतः भगवान् महावीर के बाद समूची जैन परम्परा में भी, इतने बड़े धर्मसंघ का, (जिसमें उस समय लगभग ५०० साधु-साध्वियाँ थीं) इतनी कम उम्र में कोई आचार्य नहीं बन पाया। युवाचार्य महाप्रज्ञ की अवस्था इस समय ५६ वर्ष के करीब है और यह एक तथ्य है कि इस धर्मसंघ में इतनी बड़ी आयु में कोई युवाचार्य मनोनीत नहीं हुआ। यह एक विचित्र संयोग है कि सबसे कम उम्र में होने वाले आचार्य ने सबसे अधिक आयु के साधु को अपना युवाचार्य चुना। इतना ही नहीं आचार्यश्री ने अपने शासन काल में बहुत लंबे अंतराल (लगभग ४३ वर्ष) के बाद ६५ वर्ष की आयु में उत्तराधिकारी की घोषणा की। तेरापंथ धर्मसंघ में किसी आचार्य ने शासन काल के इतने वर्षों बाद या इतनी अधिक आयु में ऐसी घोषणा नहीं की। नव आचार्यों में छठे आचार्य माणकगणि जी अकस्मात देवलोक हो गए; अतः वे युवाचार्य का मनोनयन नहीं कर सके-शेष आचार्यों ने ६५ वर्ष की आयु के पूर्व मनोनयन कर लिया। स्वयं आचार्यश्री के शब्दों में "हमारे धर्मसंघ के अब तक जितने आचार्य हुए हैं एक को छोड़ कर सभी आचार्यों ने इस उम्र के पहले पहले अपने दायित्व को औरों को सौंप दिया।" स्वयं आचार्यश्री को युवाचार्य बनने के बाद ही नहीं, अपितु आचार्य बनने के बाद भी, करीब १२ वर्ष तक, एक ही प्रदेश में रह कर धर्मसंघ के प्रचार-प्रसार के लिये बहुत तैयारी करनी पड़ी, व कई अनुभवों की प्रक्रिया से निकलना पड़ा व अनुभवसिद्ध साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं से बहुत कुछ सीखना पड़ा और तभी वे एक समर्थ व तेजस्वी आचार्य के रूप में नितर सके, पर महाप्रज्ञ युवाचार्य को संघ-व्यवस्था के लिए कुछ भी नया सीखना आवश्यक नहीं है, वे वर्षों से संघ की गतिविधियों में आचार्यश्री के प्रमुख परामर्शदाता रहे हैं, व ४६-४७ वर्षों की लंबी संयम यात्रा में चतुर्विध संघ से भली भांति परिचित हैं, तेरापंथ के सिद्धान्तों के वे अभूतपूर्व भाष्यकार हैं और इसलिये तेरापंथ धर्मसंघ को भावी नेतृत्व के लिए एक सिद्धहस्त योगी मिला है जिसकी परिपक्व अनुभूतियों से संघ निश्चित रूप से लाभान्वित होगा। उसे योग्यता की तलाश में कोई प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। वस्तुतः अन्य प्रयोगों की तरह आचार्यश्री का यह एक अभिनव प्रयोग है, जिसमें संघ की सुरक्षा व विकास का हित सन्निहित हैं। यह तथ्य सर्वविदित है कि युवाचार्य की घोषणा के पूर्व मुनिश्री नथमल जी सभी दृष्टियों से आचार्यश्री के योग्यतम शिष्यों में थे। स्वयं आचार्यश्री ने इसी वर्ष कार्तिक शुक्ला १३ को गंगाशहर में उन्हें 'महाप्रज्ञ' की उपाधि प्रदान की और संभवतः यह विरल उपाधि आज तक किसी आचार्य ने, अपने शिष्य की योग्यता का अंकन कर नहीं दी होगी। युवाचार्य महाप्रज्ञ ने भगवद् वाणी के प्रामाणिक संकलन आगमों का शोधन कर, तटस्थ वृत्ति से, उसकी वाचना का संपादन किया; श्रीमद् भिक्षु स्वामी द्वारा प्रणीत अटल सत्य खण्ड ४, अंक ७-८ ३८६
SR No.524517
Book TitleTulsi Prajna 1979 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size12 MB
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